शल्यचर्मा (Echinodermata)

Submitted by Hindi on Fri, 08/26/2011 - 15:07
शल्यचर्मा (Echinodermata) पूर्णतया समुद्री प्राणी हैं। जंतुजगत्‌ के इस बड़े संघ में तारामीन (starfish), ओफियोराइड (Ophiaroids) तथा होलोथूरिया (Holothuria) आदि भी सम्मिलित हैं। अंग्रेजी शब्द एकाइनोडर्माटा का अर्थ है, काँटेदार चमड़ेवाले प्राणी। शल्यचर्मों का अध्ययन अनेक प्राणिविज्ञानियों ने किया है। इस संघ में 4,000 प्रकार के प्राणी हैं, जो संसार के सभी सागरों और विभिन्न गहराइयों में पाए जाते हैं।

विशिष्ट लक्षण- शल्यचर्मा की परिभाषा हाइमन (Hyman), (1955 ई.) ने इस प्रकार दी है, ''यह आंत गुहायुक्त, पंच अरीय सममित देहवाला प्राणी (Coelomate animal) है। इसका उत्थान शीर्षहीन, द्विपार्श्विक (bilateral) सममिति प्राणी से हुआ है तथा इसमें जलसंवहनीतंत्र है।''

ये बहुकोशिक प्राणी हैं और अन्य विकीर्ण संघ (radiate phylum) से अपने खोखलेपन तथा अपने व्यापक संगठन द्वारा पहचाने जाते हैं। इनका शरीर गोल, बेलनाकार अथवा ताराकार होता है, इनके बिंब (disc) से या तो सरल भुजाएँ, अथवा पात्रवत प्रशाखित भुजाएँ, विकरित होती हैं। इनके शरीर पर चूनेदार प्रक्षेप होते हैं। होलोथूरिया प्रक्षेपविहीन होते हैं। इनके शरीर में मुखी (oral) तथा अपमुखी (aboral) तल होते हैं। प्रत्येक शल्पचर्मा के शरीर में पाँच सममित विकीर्णित खाँचे (groove) होते हैं, जिन्हें वीथी क्षेत्र (ambulacrum) कहते हैं। इनके मध्य के स्थान को मध्यार त्रिजिया कहते हैं। इनका शरीर पाँच अरीय एवं मध्यारीय क्षेत्रों में विभक्त रहता है। सभी अवयव अरीय सममित होते हैं।

जलसंवहनीतंत्र (water vascular system) केवल शल्यचर्मा ही में पाया जाता है। यह पानी सदृश द्रव से भरी रहनेवाली नालियों, नालों तथा छोटी छोटी थैलियों से बना होता है। इसमें ग्रसिका के चारों ओर एक वलय नाल (ring canal) होती है। इससे एक एक नाल प्रत्येक भुजा में जाती है, जिसे अरीय नाल (radial canal) कहते हैं। अरीय नाल से छोटी छोटी शाखाएँ नाल पादों (tube feet) में जाती हैं। नाल पाद, जिनके कार्य चलना, भोजन एकत्रित करना तथा सवेदन है, अरीय नाल के दोनों ओर होते हैं1 तारामीन एवं समुद्री अर्चिन में अपमुख (aboral mouth) तथा एक अन्य छोटी उदग्र नाल (vertical canal) होती है, जो बाहर की ओर जल रध्रं द्वारा खुलती है। मेड्रेपोराइट (madreporite) द्वारा जल रध्रं (water pore) छोटी छोटी शाखाओं में विभक्त हो जाता है। आद्य शल्यचर्मा (primitive echinodermata) में जलसंवहनी तंत्र गमन कार्य नहीं करता था, अपितु तंत्रिका तंत्र एवं श्वसन (respiration) का कार्य करता था।

शल्यचर्मा में तंत्रिका तंत्र की रचना आद्य है तथा गुच्छिका (gangleon) जाल की बनी होती है। गुच्छिका जाल तीन प्रकार के होते हैं :
1. मुखी अर्थात्‌ बाह्यतंत्रिका तंत्र, जो ग्रसिका (gullet) के चारों ओर एक वलय (ring) की भाँति होती है।

2. उपतंत्रिका तंत्र मुखी तंत्र के नीचे होता है।

3. अवमुखी, अर्थात्‌ अंत:तंत्रिका तंत्र, जो क्राइनॉइडिया (Crinoidea) प्राणी में अत्यधिक विकसित होता है। इसमें पेरिटोनियम (peritonium) की पर्त होती है।

आंत्रनाल (intestinal canal) चक्करदार होती है। मुख, मुखी अथवा अपमुखी होता है। क्राइनॉइडिया में मुख तथा गुदा दोनों मुखी (oral) तल पर स्थित होते हैं। गुदा की स्थिति सामान्यत: अपमुखी होती है। हीमल तंत्र (haemal system), जिसे परिसंचरण तंत्र (circulatory system) भी कहते हैं, शल्यचर्मा में पाया जाता है। इस तंत्र में अनेक विशिष्ट स्थान होते हैं, परंतु हृदय एवं रुधिर कोशिकाएँ नहीं होतीं। लिंग ग्रंथियाँ (sex glands) सममित होती हैं। शल्यचर्मा में स्त्रीलिंग एवं पुलिंग पृथक्‌ पृथक्‌ इकाइयों में होते हैं, किंतु होलोथूरिया एवं ओफियोरॉइडियया उभयलिंगी (hemoprodite) होते हैं।

शल्यचर्मा के उद्भव के संबंध में जीवाश्म विज्ञानी परस्पर सहमत नहीं हैं।

विकीर्ण शल्यचर्मों का उद्भव (Origin of radiate forms)- अशन रीति (feeding habit) तथा गुरुत्व (gravity) के प्रभाव के कारण इनका विकिरण हुआ। अपने मुख को ऊपर किए समुद्रतल पर स्थित, भोजन धारी जल की ओर स्थानबद्ध (sessile) पूर्वजों ने भोजन संग्राही तल को अपने मुख से पक्ष्मभिकामय नाल (ciliated canal) की वृद्धि द्वारा विस्तृत किया। इस वृद्धि को कायिक परिमाण द्वारा स्वयं सीमित रखा गया।

अविकीर्ण शल्यचर्मों का उद्भव (Origin of nonradiate forms)- ऐसे शल्यचर्मों का उद्भव द्विपार्श्विक (bilateral) लार्वा (larva) से माना गया है। समुद्र में स्थावर जीवन से चर्म पर चूनेदार कंटिकाओं (spicules) का रोपण हुआ। त्रिअरी कंटिकाएँ (triradiate spicules) बढ़कर तारा रूपिणी अबद्ध स्तरों (sheets) में रूपांतरित हो गईं। धीरे धीरे ये स्तरें दृढ़ रूप से संयुक्त हो गईं और इस प्रकार पूर्ण कंकाल बने। स्थिरीकरण के पहले शल्यचर्म दीर्घित रूप में थे। यदि दीर्घित आकृतिवाली काया बीच में स्थिर बने, तो संलग्न आधार के दो पक्षों पर मुख और निर्गम स्थित होंगे। इस प्रकार अविकीर्ण शल्यचर्मों का, जो मध्य ट्राइऐसिक कल्प (triassic period) से मत्स्य युग तक रहे, उद्भव हुआ।

बंधुता (Affinity)- शल्यचर्मां के कुछ गुण अन्य प्राणियों के गुणों से सामंजस्य रखते हैं एवं कुछ गुण वर्ग विशिष्ट के हैं। शल्यचर्मा भी बहुकोशिक (multicellular) प्राणी हैं तथा आंतर गुहावाले प्राणियों से, देहगुहा के पूर्णत: खोखला न होने के कारण, आंत्रनाल एवं खोखली देहगुहा के विभाजन में भिन्न हैं। सभी देहगुहाधारियों की भाँति शल्यचर्मों की आधारभूत संरचना द्विपार्श्विक है और अरीय सममिति तो गौण गुण है।

सभी देहगुहावाले प्राणी स्वतंत्र रूप से आंतर गुहावाले प्राणियों से उत्पन्न हुए हैं तथा देहगुहा का तीन युग्मों में विभाजन इनका प्रमुख गुण है। निम्न कार्डेटा (lower chordata) के सी स्क्वर्ट (sea squirt) के अतिरिक्त, सभी कार्डेटा प्राणियों की देहगुहा त्रिविभाजित है। बैलैनोग्लॉसस (Balanoglossus) का टारनेरिया लार्वा (Tornaria larva) शल्यचर्मा के लार्वा से, कुछ विशेष आधारभूत संरचना की दृष्टि से समान होता है। कई अन्य लक्षणों में सामंजस्य होने से स्पष्ट है कि शल्यचर्मा तथा कार्डेटा एक सामान्य पूर्वज (common ancestor) से उत्पन्न हुए हैं। यह पूर्वज अन्य देहगुहावाले पूर्वजों से भिन्न था, किंतु वह पूर्ण शल्यचर्मा या कार्डेटा नहीं कहा जा सकता है।

पारिस्थितिकी (Ecology)- शल्यचर्मा विभिन्न ऊष्ण, समशीतोष्ण एवं शीत कटिबंधी समुद्रों में पाए जाते हैं। अधिकांश शल्यचर्मा ज्वारीय क्षेत्र से 4,000 मीटर तक पाए जाते हैं। कुछ समुद्रतल पर स्थित रहते हैं तथा अन्य जलप्लावी हैं।

शल्यचर्मा अपने शावकों (brood) की रक्षा के लिए प्रसिद्ध हैं। अधिकांश लार्वा जलप्लावी होते हैं। कुछ शल्यचर्मा अपने शावकों को तब तक अपने पास रखते हैं, जब तक वे स्वयं गमन योग्य न हो जाए। कुछ शल्चर्म अपने शावकों को अपने शरीर के बाह्य तल पर रखते हैं, तो कुछ तारामीन (Asteriods) उन्हें अपने मुख के समीप रखते हैं। कुछ होलोथरॉइड तथा तारामीन के पृष्ठीय तलों पर विशिष्ट शिशुधानियाँ होती हैं। किन्हीं किन्हीं शल्यचर्मों में शावक शरीर के भीतर विकसित होते हैं तथा वयस्क प्राणी की देहभित्ति (body wall) के रंध्रो से बाहर आते हैं।

आर्थिक महत्व- यद्यपि क्राइनॉइडिया (Crinoidea) तथा पेलमेटोज़ोआ (Subphylum Pelmatozoa) उपसंघ के अन्य प्राणी निरर्थक हैं तथापि समुद्र में इन्होंने कई टन (tons) चूने का निष्कर्षण किया है डर्बीशिर (Derbyshire) संगमरमर, बेलजियम ग्रेनाइट, जर्मनी का ट्रकिटेन काक (Trochitan kalk) तथा अन्य अंडकीय (oolitic) पत्थर इन जीवों के अवशेषों से बने हैं। होलोथूरॉइड अपने शरीरों से निरंतर अपरद (detritus) निकालते रहते है और मार्जक (cleaner) का कार्य करते हैं। हृदय अर्चिन (heart urchin) एवं तारामीन इनसे भी अधिक संमार्जक हैं। समुदी तारामीन सजीव मोलस्का के प्राणियों पर आक्रमण करते हैं, विशेषतया सीप (oysters) तथा मस्ल (mussels) पर। इस प्रकार ये भयंकर हानि करते हैं। छोटे छोटे शल्यचर्मा मत्स्यों के भोजन बनते हैं। कुछ होलोथूराइड प्राणी पूर्वी देशों के लोगों द्वारा खाए जाते हैं। बड़े बड़े शल्यअर्चिन के अंडाशय विश्व के विभिन्न देशों में अच्छे पोषक समझे जाते हैं। जीवन और वृद्धि की समस्याओं के अध्ययनार्थ शल्यचर्मा प्रयोगशालाओं के लिए उपयोगी हैं। इनके अंडों का पालन पोषण सरलतापूर्वक हो जाने से, इनके विकासक्रम के अध्ययन में भी सुविधा होती है।

शारीर एवं शरीर-क्रिया विज्ञान (Anatomy and physiology)- सजीव शल्यचर्मा का शारीरिक विन्यास पंचबाहु या पंच किरणों का होता है। यह बहुशाखित, बहुसंख्यक या आंशिक रूप में विलुप्त भी रहते हैं। शारीर पंच अरीय होता है और अरीय क्षेत्र पाँच मध्यारीय क्षेत्रों से एकांतरित रहते हैं। सममिति दर्शानेवाले अंग असंख्य स्यून नाल आदि हैं, जो शरीर में जलसंचरण का कार्य करते हैं तथा एक जल-संचरण-तंत्र का निर्माण करते हैं। अरीय क्षेत्रों को वीथी क्षेत्र (ambulocurm) तथा दो वीथी क्षेत्रों के बीच के स्थान को मध्य वीथी क्षेत्र कहते हैं। अनेक शल्यचर्मा की त्वचा पर कैल्सियम कार्बोनेट की कंटिकाओं से युक्त एक बाह्म कंकाल होता है।

देहगुहा के तीन युग्मों में विभाजन के अतिरिक्त सभी शल्यचर्मों में तीन तंत्रिका संस्थान होते हैं : 1. बाह्य मौखिक संवेदक संस्थान, 2. गहन मौखिक संवेदक संस्थान तथा, 3. अग्र या शीर्ष चालक संस्थान।

इन संस्थानों के द्रवों में देहगुहा के द्रव की अपेक्षा ऐल्बूमिन (albumen) अधिक होता है। सभी अंतरंग द्रवों में विभिन्न भौतिक पदार्थ प्लावित होते हैं। कुछ रुधिर के सदृश लाल होते हैं, जो श्वसन में सहायक होते हैं। कुछ श्वेतकण अनेक कार्य करते हैं, ये कुछ अपशिष्ट पदार्थों का भक्षण कर निष्पीड़ित होकर बाहर निकलते हैं, क्योंकि इन जीवों में कोई उत्सर्जन तंत्र नहीं होता है।

जनन एवं परिवर्धन- अधिकांश शल्यचर्मों में लिंग पृथक्‌ होते हैं, किंतु बाह्य लक्षणों से लिंगभेद ज्ञात नहीं होता है। जनन उत्पाद (genital products) जल में छोड़ दिए जाते हैं और अंडे शुक्र द्वारा निषेचित होते हैं। युग्मनज (zygote) अनेक कोशों में विभाजित होने के बाद एक खोखला कंदुक सदृश रचना बनता है, जिसका एक सिरा अंदर बढ़ता जाता है और परिणामत: एक खुले मुख और दोहरी दीवारवाला कोश (sac) बन जाता है। दीवार से कुछ कोशिकाएँ मध्य में आकर, एक मध्य स्तर (middle layer) बनाती हैं। देहगुहा कोश से एक कोष्ठ (pouch) के रूप में निकलकर मध्य स्तर में प्रसारित होती है। कोष्ठ के बार बार विभाजनों से देहगुहा के तीन युग्म बनते हैं। इसी बीच कोश लंबाई में बढ़ता है तथा एक तरफ से, जिधर मूल गुहा नीचे की ओर झुककर लार्वा का मुँह बनाती है, चिपटा हो जाता है और मुख्य द्वार को लार्वा का निर्गम छिद्र (outlet) बनने देता है। इस प्रकार का लार्वा स्वतंत्र प्लावी होता है। विभिन्न वर्गों में इसके विशेष रूपांतरण के फलस्वरूप, विभिन्न शल्यचर्मों का विकास होता है।

स्वयं विभाजन तथा पुनर्जनन- अनेक शल्यचर्मा अपने शरीर के कुछ भाग को, भय अथवा कष्टप्रद स्थिति के समय, स्वयं पृथक्‌ कर देने में समर्थ होते हैं। इतना ही नहीं अलग किए हुए भागों को स्वयं पुन: उत्पन्न भी कर सकते हैं। यदि कोई खंड मध्य बिंब (disc) युक्त हो, तो उसमें पुनर्जनन संभव है। इस प्रकार के खंड पूर्ण शल्यचर्मा बनाने में समर्थ होते हैं। शल्यचर्मा में पुनर्जनन की शक्ति पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है। तारामीन (asteroids) मोती एकत्रित करनेवालों के शत्रु हैं। मोती एकत्रित करनेवाले इनको समुद्र में टुकड़े टुकड़े करके फेंक देते थे। शीघ्र ही उन्हें अपनी भूल ज्ञात हो गई कि इस प्रकार तो इनकी संख्या में और भी शीघ्रतापूर्वक वृद्धि होती है। (दयाकृष्ण माथुर)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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