समुद्री खनन-एक नई खलबली

Submitted by Shivendra on Fri, 11/08/2019 - 09:37
Source
राजस्थान पत्रिका, 3 सितम्बर, 2019

फोटो - EU MSP Platform

धरती के बाद अब समुद्र के भीतर छिपे खनिजों पर उद्योगों की नजर पड़ चुकी है। खनिज, जो बड़े उद्योगों के लिए कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल होते हैं, उनकी लगातार कमी होती जा रही है। इस कमी के अन्तर को पाटने के लिए समुद्र के दोहन की कोशिशे तेज हो गई है। यह सोच वैसे तो 1982 में बन चुकी थी कि समुद्र में अथाह सम्पदा है और इसका भी दोहन विकास के लिए होना चाहिए। इसके लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी’ बना दी गई। इसके उद्देश्य खनिज सम्पदा के दोहन के सन्दर्भ में देशों पर नियंत्रण रखना और उन्हें अनुमति प्रदान करना है।

 भारत भी पीछे नही है। यहाँ भी ‘डीप ओशन मिशन’ के तहत प्रोजेक्ट की पहल की है। इसमें पॉलीमेटेलिक खनिज जैसे-कोबाल्ट, मैगनीज, निकल का खनन होगा। करीब 6000 मीटर तलहटी में यह दोहन किया जाएगा। वैसे भारत को 1987 में ही खनन की अनुमति मिल गई थी।

इस संगठन ने दोहरे मापदंड अपनाए हुए हैं, जहाँ एक तरफ यह समुद्र संरक्षण की चिन्ता जताता है, वहीं दोहन की अनुमति भी इसका उद्देश्य है। इसकी अनुमति के मुताबिक फिलहाल करीब 5 लाख वर्ग किमी क्षेत्र में लगभग 11 हजार मीटर समुद्र के भीतर तक खनन हो सकेगा। वैसे समुद्र के 200 मीटर से नीचे सतह पर पाए जाने वाले खनिजों के दोहन के लिए आज लगभग सभी देश उत्सुक दिखाई पड़ते हैं। इसका कारण है नए उद्योग और उनकी जरूरतें। उदाहरण के तौर पर दुनिया में कम्प्यूटर व स्मार्ट फोन का व्यापार तेजी से पनप रहा है। इनके निर्माण में इस्तेमाल होने वाले खनिज समुद्र में बहुतायात में उपलब्ध है। खासतौर से कॉपर, निकल, एल्युमिनियम, जिंक, मैंगनीज आदि खनिज लगातार भू-खनन से समाप्ति की ओर हैं। इसीलिए अब विभिन्न देशों की दृष्टि समुद्र की ओर है। केवल स्मार्ट फोन और कम्प्यूटर तक ही इन खनिजों के उपयोग सीमित नहीं हैं, बल्कि मिल टरबाइन, सोलर पैनल व बैटरी आदि इन खनिजों पर निर्भर हैं। समुद्र खनन के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 29 लाइसेंस जारी किए जा चुके हैं, जिसमें करीब 15 लाख वर्ग किमी के कॉन्ट्रेक्ट दिए जा चुके हैं।
 
समुद्र एक बड़ा पारिस्थिति तंत्र है और इसको एक नए उद्योग के रूप में देखे जाने तक बात खत्म नहीं होनी चाहिए, बल्कि इस पर गम्भीरता से विचार होना चाहिए, जितने क्षेत्र में खनन के लिए लाइसेंस दिए गए हैं, उनमें प्रशांत, अटलांटिक व हिन्द महासागर खनन के लिए पहले दर्जे के स्थान होंगे। यद्यपि यह साफ नही है कि खनन किस तरह होगा, इसका क्या स्वरूप होगा, लेकिन यह तय है कि ये समुद्र में एक नई खलबली मचा देंगे। खासतौर से जब पृथ्वी का पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में पड़ चुका हो और अब समुद्र की बारी हो तो ये अनुमान लगाया जा सकता है कि हालात क्या होंगे ? भारत भी पीछे नही है। यहाँ भी ‘डीप ओशन मिशन’ के तहत प्रोजेक्ट की पहल की है। इसमें पॉलीमेटेलिक खनिज जैसे-कोबाल्ट, मैगनीज, निकल का खनन होगा। करीब 6000 मीटर तलहटी में यह दोहन किया जाएगा। वैसे भारत को 1987 में ही खनन की अनुमति मिल गई थी।
 
ऐसा नहीं है कि समुद्र में होने वाले खनन के कारण पर्यावरण पर दुष्प्रभाव की आशंकाएँ ही ना हों। ब्रिटेन के एक बड़े अखबार गार्जियन ने इसका विरोध करने के लिए कमर कसी है। लेकिन सीबेड अथॉरिटी ने दावा किया है कि जो भी खनन होगा, वो उचित तकनीक से होगा। पर सच तो यह है कि अभी तक हमारे पास कोई भी ऐसा अध्ययन व रिपोर्ट नहीं है, जो यह बता सके कि समुद्र में खनन की शैली क्या होगी ? इसमें प्रयोग होने वाले जो तमाम उपकरण होंगे, वे किस स्तर के होंगे। ऐसा कोई भी आधारभूत अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है। यही नही, इनके पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन की कोई जानकारी भी हमारे पास नही है। खनन क्षेत्र में कुछ इलाके ऐसे भी हैं, जहाँ विशिष्ट जीव प्रजातियाँ हैं और उनके पास सूरज की किरणें भी नहीं पहुँचती। फिर कुछ धातु जैसे- कोबाल्ट, मैगनीज, निकल आदि के विषैले प्रभाव भी होते हैं। यदि हमने समुद्र की तलहटी में खनन के लिए छेड़छाड़ की तो इसकी आशंका है कि यही तत्व पानी में भी घुलकर जहरीली परिस्थितियाँ पैदा करेंगे। फिर वहाँ कि जीव प्रजातियों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। आज हम हर पारिस्थितिकी तंत्र को संकट में डाल रहे हैं, चाहे वह पृथ्वी का हो या समुद्र का। इस तरह के विकास, जिससे विनाश की आशंका रहती हो, इसके कई उदाहरण हमारे सामने आ चुके हैं। इसलिए ऐसी शुरुआत से पहले हमें एक गहरी समझ बनानी होगी। सबसे बड़ी बात इस कार्य से जनता को भी जोड़ना होगा और उसके माध्यम से एक आम सहमति बनानी चाहिए, क्योंकि ऐसे विकास में लाभ मुट्ठी भर लोगों का होता है, पर नुकसान सबको उठाना पड़ता है।

 

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