उत्तराखण्ड के पहाड़ी इलाकों में प्राकृतिक जलस्रोत नौल तथा ’धार्’ अथवा ’मंगरा’ के रुप में मिलते हैं। यहां के गांवो में नौल का सामाजिक, ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यहां के कई नौल अत्यंत प्राचीन हैं। इतिहासविदों के अनुसार उत्तराखंड के कुमांऊ अंचल में स्थित अधिकांश नौल मध्यकाल से अठारहवीं शती ई. के बने हुए हैं। चम्पावत के समीप एक हथिया ’नौल्’, बालेश्वर का नौल, गणनाथ का उदिया नौल, पाटिया का स्यूनराकोट नौल तथा गंगोलीहाट का जाह्नवी नौल
सहित कई अन्य नौल अपनी स्थापत्य कला के लिए आज भी प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि कभी अल्मोड़ा नगर में एक समय 300 से अधिक ’नौल’ थे, जिनका उपयोग नगरवासियों द्वारा शुद्ध पेयजल के लिए किया जाता था। कुमाऊं अंचल के कई गांवों अथवा मुहल्लों का नामकरण ’नौल’ व ’धार्’ के नाम पर मिलता है यथा- पनुवानौल्, चम्पानौल्, तामनौल्, रानीधार, धार्नौल् आदि।यहां के ग्रामीण अंचल में विवाह और अन्य विशेष अनुष्ठान अवसरों पर ’नौल ’धार्’ में जल पूजन की समृद्ध परम्परा आज भी दिखायी देती है। साफ तौर पर यह परंपरा हमारे जीवन में जल की उपयोगिता व पर्यावरण संरक्षण में उसकी महत्ता को इंगित तो करती ही है साथ ही साथ इसमें सदियों से रची-बसी एक समृद्ध जल संस्कृति के दर्शन भी होते हैं।
नौल की संरचना एक वर्गाकार लघु बावड़ी की तरह ही होती है। इसका निर्माण उस जगह पर किया जाता है जहां पानी जमीन से रिस-रिस कर बाहर निकलता है। मन्दिर के प्रारुप में बने नौलकी तीन दिशाएं बंद रहती हैं और चैथी दिशा को खुला रखा जाता है। नौल में गन्दगी आदि न जा सके इसके लिए छत को पाथरों (स्लेट) से ढका जाता है। जल कुण्ड का आकार वर्गाकार वेदी की तरह होता है जो उपर की ओर अधिक और तल की ओर धीरे-धीरे कम चैड़ाई लिए रहता है। कुछ जगहों पर नौल का एक अन्य रुप भी पाया जाता है जिसे ’चुपटौल’ कहा जाता है। ’चुपटौल’ की बनावट नौल की तरह न होकर अनगढ़ स्वरुप में रहती है। स्रोत के पास गड्ढा कर सपाट पत्थरों की बंध बनाकर जल को रोक दिया जाता है और इसमें छत नहीं होती है। खास तौर पर नौल के स्रोत बहुत संवेदनशील होते हैं। अगर अकुशल व्यक्ति किसी तरह इसके बनावट और मूल तकनीक में जरा भी छेड़-छाड़ कर दे तो नौल में पानी का आना बंद हो जाता है। प्रायः भू-स्खलन व भू-धंसाव होने तथा भूकम्प आने पर भी ’नौल’ में पानी का प्रवाह प्रभावित हो जाता है। कभी-कभी तो इसके स्रोत बन्द भी हो जाते हैं। इसके वजह से ’नौल’ सूखने के कगार पर पहुंच जाते हैं। नौल की बनावट में इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि इसमें अतिरिक्त पानी जमा न हो सके। इसके लिए अन्दर से जल निकास हेतु नाली बनी होती है। ’नौल’ के उच्च स्तर तक पानी पहुँच जाने के बाद इस नाली से अतिरिक्त पानी स्वतः बाहर की ओर आ जाता है। ’नौल’ के बाहर सपाट पथ्तरों को बिछाकर नहाने-धोने की पृथक व्यवस्था की जा जाती है। इससे ’नौल’ में गन्दा पानी नहीं जा पाता है।
’नौल’ के गर्भगृह में देवी देवताओं की विशेषकर विष्णु की प्रस्तर प्रतिमाएं स्थापित रहती है। दीवारों, स्तम्भ व छत पर विविध कलात्मक डिजायनों का अलंकरण रहता है। प्रवेशद्वार के स्तम्भ प्रायः पुष्प, पत्तियां, लता, आदि अलंकरणों से युक्त रहते हैं। प्राचीन समय में ’नौल’ बनाने वाले स्थानीय शिल्पी ’नौल्’ निर्माण कला में सिद्धहस्त थे। ’नौल’ शिल्पी अपने काम में इतने अधिक निपुण रहते थे कि वे स्थान विशेष की जगह देखकर वहां जल की सम्भावित उपलब्धता, गुणवत्ता और उसकी मात्रा का सटीक आंकलन करने के बाद ’नौल’ का निर्माण किया करते थे।
धार्मिक मान्यता के अनुसार गांव के लोग ’नौल’ में नाग देवता और विष्णु भगवान का निवास मानते आये हैं इसी कारण लोग उसकी साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखते आये हैं। पहाडः के अनेक लोक गीतों में भी नौल की महत्ता व पवित्रता का शानदार वर्णन आया है। एक मांगल गीत में ’नौल’ की पवित्रता व उसके महत्व को इस तरह बताया गया है।
नौल नागिणि वास,ये मेरि नौल कैलि चिणैछि
रामिचंद लै, लछिमन लै,भरत,शतुर लै, चिणैछि
उनरि बहुवन लैं,सीता देही लै,
उरामिणि दुलाहिणी लै, नौल उलैंछ।
गीत का भाव यह है - गांव के लोगों में अत्यंत जिज्ञासा व्याप्त हो रही है कि नागों के निवास स्थल इस सुन्दर नौल का निर्माण किसके द्वारा किया गया होगा...! मांगल गीत गाने वाली महिलाएं कहती हैं कि भगवान रामचन्द्र व उनके भाई लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न ने मिलकर इस सुन्दर ’नौल्’ की रचना की है। और उनकी बहुरानी सीता व उर्मिला दुलहिन सुबह-शाम इस सुन्दर ’नौल’ से पानी उलींचती हैं। पहाड़ी वास्तुकला एवं पुरातत्व के जानकार लोगों के अनुसार उत्तराखण्ड के अधिकांश पुराने देवालय जल स्रोतों के ही निकट बनाये गये हैं। पुराने पैदल यात्रा पथ के पड़ाव व धर्मशालाएं भी उन्हीं जगहों पर बनायी गयीं जिसके आसपास पानी के स्रोत मौजूद थे। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि मंदिरों की तरह ही यहां के कई नौल भी बेजोड़ वास्तुकला से सुसज्जित हैं।
किसी समय उत्तराखण्ड की यह जल संचयन की यह परम्परा सांस्कृतिक दृष्टि से समाज को समृद्ध और जीवंत बनाये रखती थी। नौल की देखरेख, उनकी सफाई व जीर्णोद्धार की जिम्मेदारी में सामूहिक सहभागिता का भाव समाया रहता था। उत्तराखण्ड के गांवों से बढ़ते पलायन, पर्यावरण असन्तुलन तथा घर-घर तक सरकारी पाइप लाइन के जरिए जलापूर्ति की सुविधा हो जाने के कारण आज यहां के परम्परागत ’नौल’ उपेक्षित व बदहाल स्थिति में पहुंच गए हैं। आवश्यकता इस बात की है कि इस शानदार परम्परा को पुर्नजीवित करने के लिए के प्रयास हों।ऐसी दीर्घकालिक योजनाएं लागू हों जिनमें स्थानीय ग्रामीण लोगों की बराबर भागीदारी रहे। नौल में जल प्रवाह की आपूर्ति सदाबहार रहे इसके लिए जलागम क्षेत्रों में चाल-खाल बनाने और चौडी-पत्ती प्रजाति के पेड़ों का रोपण के कार्य महत्वपूर्ण हो सकते हैं इससे पर्यावरण के साथ-साथ यह पुरातन जल परम्परा भी समृद्ध हो सकेगी।
दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड ,देहरादून में रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्यरत। मो0 9410919938