शनि

Submitted by Hindi on Fri, 08/26/2011 - 12:22
शनि ग्रह सूर्य से बढ़ती हुई दूरी के क्रम में छठा ग्रह है। ज्योतिविंद 1781 ई. तक इसे सूर्य से सबसे दूर पर स्थित, अंतिम ग्रह मानते थे। यह सूर्य से लगभग 88 करोड़ मील दूर स्थित है।

अत्यधिक दूर होने पर भी इसे बिना दूरदर्शी की सहायता के देखा जा सकता है। वास्तव में यह आकाश में प्रथम कांतिमान के तारे से भी अधिक कांतिमय वस्तु है। इसकी कांति का कारण इसकी विशालता है, जो केवल बृहस्पति से कम है। शानि का व्यास 72,000 मील है। पृथ्वी से 700 गुनी बड़ी वस्तु शनि में समा सकती है। आकार में बहुत विशाल होने पर भी वह उसी अनुपात में संपुंजित (massive) नहीं है। यह पृथ्वी से केवल लगभग 95 गुना भारी है। शानिग्रह का घनत्व अन्य सभी ग्रहों से कम है। यदि इसके तैरने के लिए पर्याप्त पानी मिल सके, तो यह उसपर आसानी से तैर सकता है। इसके घनत्व की कमी शायद यह संकेत करती है कि शनिग्रह का एक छोटा ठोस क्रोड़ (core) है, जिसके चारों ओर बहुत गंभीर वायुमंडल का आवरण है।

स्पेक्ट्रम प्रेक्षणों से ज्ञात हुआ है कि शानि के वायुमंडल में हाइड्रोजन, अमोनिया और मेथेन हैं, जिनमें प्रधानता मेथेन की है।

शनिग्रह का ताप-150 सें. है। शनिग्रह के ताप और उसके वायुमंडल की संरचना से स्पष्ट है कि शनि की सतह पर वैसा जीवन संभव नहीं है जैसा हम पृथ्वी पर पाते हैं।

ग्रह होने के कारण यह सूर्य के चारों ओर दीर्घवृत्ताकार कक्षा में घूमता है। कक्षा का दीर्घवृत्त लगभग वृत्त है। लगभग 6 मील प्रति सेकंड के वेग से यह लगभग 29 वर्ष में सूर्य की एक परिक्रमा करता है। परिक्रमा करते हुए, यह अपने अक्ष पर लगभग 10 घंटे के घूर्णनकाल में घूर्णन भी करता है।

शनि के नौ उपग्रह हैं। इनमें सबसे बड़ा टाइटेन है, जिसका व्यास 3,550 मील है। ज्योतिर्विदों को इससे बड़े उपग्रह की जानकारी नहीं है। यह उपग्रह बुधग्रह से भी बड़ा है।

शनि की सबसे बड़ी विशेषता उसकी वलयपद्धति है, जिसके कारण इसे ज्योतिर्विज्ञान के क्षेत्र में असाधारण स्थान प्राप्त है। ग्रह के विषुवत समतल में, ग्रह की सतह के हजारों मील ऊपर से शुरु होनेवाली क्रमिक व्यवस्था में, अंतरपूर्वक या बिना अंतर के, कम से कम तीन एककेंद्रीय वलय है। वलयपद्धति का व्यापक बाह्य व्यास लगभग 1,70,000 मील है। किंतु मोटाई बहुत कम है, 10 मील से शायद ही कुछ अधिक हो ये वलय अत्यंत पतले हैं। अत: ये जब किनारे की ओर से हमारे सामने पड़ते हैं, तो इन्हें हम शक्तिशाली दूरदर्शी की सहायता से एक सूक्ष्म रेखा के रूप में देख पाते हैं।

अनेक सैद्धांतिक और प्रेक्षणात्मक अध्ययनों से यह निश्चयपूर्वक प्रतिपादित हो चुका है कि ये वलय असंख्य छोटे छोटे पिंडों से, जो उपग्रहों के समान ग्रह की परिक्रमा करते हैं, निर्मित हैं। वलय का प्रादुर्भाव कैसे हुआ यह अभी तक निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हुआ है। किंतु अधिकांश खगोल-भौतिकीवेत्ताओं का विश्वास है कि ये पिंड शनिग्रह के किसी ऐसे उपग्रह के अंश हैं जो किसी प्रकार खंडित हो गया, या अस्तित्व में आ नहीं पाया। (रमातो सरकार)

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