कीटों के लगातार हमलों, बीजों के बढ़ते मूल्य और उपज का उचित दाम नहीं मिलने के कारण किसानों ने भारत की पहली आनुवंशिक रूप से परिवर्तित (जीएम) फसल यानी बीटी कॉटन से किनारा करना शुरू कर दिया है
इस शताब्दी के शुरुआती साल भारत में कपास किसानों के लिये काफी उम्मीदें लेकर आए थे। वर्ष 2002 में बीटी कॉटन नाम के आनुवंशिक रूप से बदले हुए (जीएम) बीज आने के बाद भारत दुनिया का सबसे बड़ा कपास उत्पादक देश बन गया। इन बीजों की वजह से कपास की खेती में कीटनाशकों पर होने वाले भारी खर्च में काफी कमी आई। आज देश के 96 प्रतिशत कपास क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनी मोनसैंटों का बीटी कॉटन उगाया जाता है।
लेकिन आज देश में बीटी कॉटन उगाने वाले 80 लाख किसान एक नई मुसीबत से जूझ रहे हैं। पिंक बॉलवर्म नाम के जिस कीट से बचाव के लिये बीटी कॉटन को लाया गया था, आज वही कीट बीटी कॉटन को तबाह कर रहा है। इसके अलावा कई दूसरे कीटों से भी बीटी कॉटन को इतना नुकसान पहुँच रहा है कि देश भर में किसान इसका विकल्प तलाश रहे हैं।
नागपुर स्थित केन्द्रीय कपास अनुसंधान संस्थान (सीआईसीआर) की एक रिपोर्ट में डाउन टू अर्थ ने पाया है कि देशभर के कपास क्षेत्रों में पिंक बॉलवर्म का भयंकर प्रकोप है। इससे भी चिन्ताजनक बात यह है कि सभी कपास उत्पादक राज्यों में कीटों ने बीटी कॉटन के लिये प्रतिरोधी क्षमता विकसित कर ली है। सीआईसीआर पिछले 15 वर्षों से बीटी कॉटन पर नजर रखे हुए है। संस्थान ने फसल का नवीनतम प्रतिरोधी आकलन 2015-16 में किया था।
शोधकर्ताओं को महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के 46 जिलों में पिंक बॉलवर्म के लार्वा मिले। इन जिलों में मोनसेंटो के बॉलगार्ड-I और बॉलगार्ड-II बीजों की फसलों को नुकसान पहुँचने की जानकारी मिली थी। अध्ययन में पाया कि कीट का प्रकोप सभी जिलों में फैल चुका था, जिससे इन राज्यों में कपास की फसल को व्यापक नुकसान पहुँचा।
हालाँकि, वर्ष 2012 से ही पिंक बॉलवर्म के हमलों की जानकारियाँ मिल रही हैं लेकिन सर्वाधिक प्रकोप अक्टूबर, 2015 से जनवरी, 2016 के दौरान दर्ज किया गया। देश के सबसे बड़े कपास उत्पादक राज्य गुजरात में इसकी मार सबसे ज्यादा पड़ी। जनवरी 2016 तक राज्य की 25 से 100 प्रतिशत कपास की फसलों को इस कीट से नुकसान पहुँचा। रिपोर्ट के अनुसार, अकेले गुजरात में पिंक बॉलवर्म के चलते वर्ष 2014-15 में 5,712 करोड़ रुपये और 2015-16 में 7,140 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। सीआईसीआर के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक के अनुसार, गुजरात में स्थिति और बिगड़ने वाली है। अपनी पहचान जाहिर न करने की शर्त पर उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया कि इस साल दिसम्बर तक राज्य को भारी संकट का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि कपास की फसल पूरी तरह खराब होने की आशंका है।
भारत के दक्षिणी राज्यों में, सीआईसीआर ने पाया कि दिसम्बर 2015 तक सभी तरह की बीटी कॉटन में पिंक बॉलवर्म के प्रकोप का खतरा पैदा हो गया है। आंध्र प्रदेश में चौथी और पाँचवी चुनाई के दौरान गुंटूर में 65.6 प्रतिशत, कुरनूल में 55.7 प्रतिशत, अनंतपुर में 41.57 प्रतिशत, प्रकासम में 33.6 प्रतिशत और कडप्पा में 29.33 प्रतिशत कपास में कीट का प्रकोप पाया गया। इससे पूरी फसल खराब होने की आशंका के चलते किसानों ने कपास चुनने के लिये मजदूर भी नहीं लगाए।
कीटों की चेतावनी
शायद किसानों के लिये अपनी पसंदीदा नकदी फसल यानी कपास से मुँह मोड़ने का समय आ गया है। घरेलू और वैश्विक बाजारों में कपास के गिरते दाम के मुकाबले जीएम फसलों की उत्पादन लागत बहुत अधिक है। देश में प्रति एकड़ कपास उत्पादन में भी गिरावट आ रही है। अब किसान भी महसूस करने लगे हैं कि जीएम बीज की सबसे प्रभावशाली किस्म भी कीटों के हमले से बचने में नाकाम रही है। गुजरात के बोटाद जिले में कपास उगाने वाले कनुभाई वाला को दोहरी मार पड़ी है। वर्ष 2015 में कम बारिश के चलते उनकी बीटी कपास की फसल बर्बाद हो गई थी। उन्होंने इस साल फिर भाग्य आजमाया, लेकिन वर्ष 2016 में न सिर्फ सूखे की मार जारी रही बल्कि उनकी पूरी फसल पिंक बॉलवर्म का शिकार हो गई। इस बीच फसल की लागत भी बढ़ गई।
सीआईसीआर की रिपोर्ट के मुताबिक, गुजरात में अक्टूबर खत्म होने से पहले चुनी गई कपास को उतना नुकसान नहीं पहुँचा लेकिन दूसरी और तीसरी बार में चुनी गई कपास पर कीट की सर्वाधिक मार पड़ी। राज्य के कुछ जिलों में देशीवागड कपास के साढ़े पाँच से सात लाख हेक्टेयर क्षेत्र को छोड़कर शेष सभी जिलों में बॉलगार्ड (बीटी) कपास बोया गया है। इसमें भी 85 प्रतिशत क्षेत्र में बॉलगार्ड-I या बॉलगार्ड-II बीज हैं।
कनुभाई कहते हैं, “सात-आठ साल पहले (गुजरात में) एक एकड़ बीटी कपास पर कीटनाशकों की लागत करीब 50 रुपये आती थी, लेकिन आज प्रति एकड़ 2,500 से 3,000 रुपये का खर्च आता है जो देसी बीजों पर होने वाले कीटनाशकों के खर्च से अधिक है।” दूसरी तरफ, कनुभाई की बीटी कॉटन से पैदावार प्रति एकड़ 50-60 मण (एक मण = 20 किलोग्राम) से घटकर 20 मण रह गई है। पैदावार के साथ-साथ कपास का दाम भी गिरा है। यानी किसानों पर दोहरी मार। कुछ वर्षों पहले कपास का दाम 1200-1500 रुपये प्रति मण था जो अब घटकर 750-950 रुपये प्रति मण रह गया है। वर्तमान में कपास का न्यूनतम समर्थन मूल्य 810 रुपये है।
गुजरात की एक गैर-सरकारी संस्था ‘जतन ट्रस्ट’ के साथ काम करने वाले कृषि विशेषज्ञ कपिल शाह के अनुसार, गुजरात के किसान अब बीटी कॉटन से तंग आ चुके हैं। अब कई कम्पनियाँ नॉन-बीटी कपास के बीज भी बाजार में बेच रही हैं। इससे संकेत मिलता है कि शायद अब किसान भी बीटी बीजों का विकल्प खोज रहे हैं।
किसान संगठन ‘गुजरात खेदूत समाज’ के सचिव सागर दरबारी कहते हैं, “अगर किसानों को अच्छी विकल्प मिला तो अगले दो वर्षों में कपास से मुँह मोड़ लेंगे।” भारत सरकार के कॉटन एडवाइजरी बोर्ड के अनुसार, गुजरात में कपास का उत्पादन लगातार गिर रहा है। वर्ष 2013-14 में 124 लाख गाँठों के मुकाबले गुजरात में कपास का उत्पादन वर्ष 2015-16 में घटकर 108 लाख गाँठ रह गया है। कपास की पैदावार 2015-16 में 622 किलो लिंट प्रति हेक्टेयर रही, जो न केवल 12 वर्षों में सबसे कम है, बल्कि पिछले 12 वर्षों की औसत पैदावार से भी 11 प्रतिशत कम है।
देशभर में कमोबेश ऐसे ही हालात हैं। सम्भवतः इसी कारण भारत में कपास का क्षेत्र वर्ष 2015 में 116 लाख हेक्टेयर के मुकाबले वर्ष 2016 में घटकर 102 लाख हेक्टेयर रह गया है। इस वर्ष देश के उत्तरी राज्यों-पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में कपास का क्षेत्र 5.5 लाख हेक्टेयर घटा है।
इन राज्यों में अब एक नई चीज सामने आई है। हरियाणा के सिरसा जिले के पन्नीवाला मोटा गाँव के 56 वर्षीय किसान प्रेम कुमार ने 25 वर्षों में पहली बार बाजरा और दलहन की बुआई की है। पिछले वर्ष इस इलाके के 70 प्रतिशत खेतों में बीटी कॉटन की फसल व्हाइट फ्लाई (सफेद मक्खी) की वजह से बर्बाद हो गई थी, इसलिये इस साल उन्होंने 10 हेक्टेयर में बीटी कॉटन के बजाय अनाज उगाने का फैसला किया। ऐसा लगता है कि प्रेम कुमार की तरह अन्य किसानों का भरोसा भी बीटी कॉटन की कीटों से लड़ने की क्षमता से उठने लगा है। वह बताते हैं कि इस साल कई मझोले और बड़े किसान बीटी कॉटन की खेती को लेकर सतर्क हो गए हैं।
कपास के हमलावर
केन्द्रीय कपास अनुसंधान संस्थान ने कीट प्रतिरोध के लिये 39 जिलों में की गई जाँच में पाया कि गुलाबी बॉलवर्म ने 20 जिलों में बॉलगार्ड के प्रति, 18 जिलों में क्राई2एबी के प्रति और 15 जिलों में बॉलगार्ड-II के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लिया है
गुजरात | |
गुलाबी बॉलवर्म के प्रकोप वाले जिले (जनवरी 2016 के तीसरे हफ्ते तक) : | |
वडोदरा | 72% |
सूरत | 92% |
आनन्द | 82% |
सुरेंद्रनगर | 92% |
अहमदाबाद | 100% |
अमरेली | 100% |
राजकोट | 100% |
भावनगर | 56% |
बॉलगार्ड-I, बॉलगार्ड और क्राई2एबी के प्रति गुलाबी बॉलवर्म का प्रतिरोध इन जिलों में पाया गया : आनंद, अहमदाबाद, सुरेंद्रनगर, भावनगर, भरूच, वडोदरा, अमरेली, जूनागढ़ |
महाराष्ट्र | |
गुलाबी बॉलवर्म के प्रकोप वाले जिले (दिसम्बर 2015 के दूसरे हफ्ते तक) : | |
औरंगाबाद | 25% |
जालाना | 24.72% |
धुले | 82.96% |
जलगाँव | 60% |
नंदुरबार | 64% |
यवतमाल | 72% |
अमरावती | 88% |
बुलढाना | 19-86% |
रहुरी | 20-60% |
अकोला | 76% |
नांदेड़ | 100% |
नागपुर | 4% |
बॉलगार्ड-I, बॉलगार्ड और क्राइ2एबी के प्रति गुलाबी बॉलवर्म का प्रतिरोध इन जिलों में पाया गया : नंदुरबार, नांदेड़, रहुरी |
आंध्र प्रदेश | |
गुलाबी बॉलवर्म के प्रकोप वाले जिले (दिसम्बर 2015 के दूसरे हफ्ते तक) : | |
गुंटूर | 65.6% |
करनूल | 55.7% |
अनंतपुर | 41.57% |
प्रकासम | 33.6% |
कड़प्पा | 29.33% |
कृष्णा | 6.66% |
गुलाबी बॉलवर्म का प्रतिरोध इन जिलों में पाया गया : गुंटूर करनूल |
तेलंगाना | |
गुलाबी बॉलवर्म के प्रकोप वाले जिले (दिसम्बर 2015 के दूसरे हफ्ते तक) : राज्य के 90 प्रतिशत क्षेत्र में कपास की फसल नष्ट कर दी गई। | |
आदिलाबाद | 52.96% |
खम्मम | 32-100% |
वारंगल | 60-100% |
करीमनगर | 68-96% |
गुलाबी बॉलवर्म का प्रतिरोध इन जिलों में पाया गया : वारंगल, आदिलाबाद, खम्मम, करीमनगर |
मध्य प्रदेश | |
गुलाबी बॉलवर्म के प्रकोप वाले जिले (जनवरी 2016 के पहले हफ्ते तक) : | |
खंडवा | 100% |
बॉलगार्ड-I, बॉलगार्ड और क्राई2एबी के प्रति गुलाबी बॉलवर्म का प्रतिरोध इस जिले में पाया गया : खंडवा |
मिसाल के तौर पर, राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में रतनपुरा गाँव के किसान रतीराम बुडानिया ने बीटी कपास उगाना बन्द कर दिया है। वह कहते हैं, “हम कम-से-कम एक-चौथाई खेतों में कपास उगाया करते थे, लेकिन इस साल कपास के बजाय मूँगफली और बाजरा लगाया है।”
सीआईसीआर के निदेशक केआर क्रान्ति मानते हैं कि ट्रेंड बदल रहा है। कपास एडवाइजरी बोर्ड (सीएबी) के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2016 में किसानों ने लगभग 72,280 हेक्टेयर क्षेत्र में कपास की स्थानीय किस्में बोयी हैं। उत्तर भारत की कॉटन बेल्ट में यह आँकड़ा पिछले वर्ष के मुकाबले दोगुना है। क्रान्ति मानते हैं कि अगर बीज की आपूर्ति में कमी नहीं रहती तो देसी कपास का क्षेत्र और भी ज्यादा होता। उन्हें उम्मीद है कि अगले साल नॉन-बीटी और कपास के देसी बीजों की माँग मध्य और दक्षिणी भारत में और ज्यादा बढ़ेगी।
पंजाब और हरियाणा में पिछले वर्ष सफेद मक्खी के आक्रमण से कपास की फसलों में भारी नुकसान झेलने के बाद किसानों ने इस वर्ष स्थानीय किस्मों को प्राथमिकता दी है। बीटी कपास के बीजों की प्रति हेक्टेयर 4,500 रुपये की लागत के मुकाबले स्थानीय बीजों की लागत लगभग 200 रुपये है। लेकिन स्थानीय किस्मों को अपनाना आसान नहीं है। हरियाणा के हिसार जिले में भागना गाँव के किसान शक्ति सिंह कहते हैं, इस वर्ष देशी कपास उगाकर हम पिछले वर्ष हुए नुकसान की भरपाई करना चाहते हैं। लेकिन ना तो अच्छी गुणवत्ता वाला स्थानीय बीज उपलब्ध है, और ना ही गैर-बीटी कपास का बीज।
हिसार स्थित सत्यवर्द्धक सीड्स कम्पनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी वेद प्रकाश का मानना है कि सरकार को देशी कपास का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाकर इस फसल की बुआई को प्रोत्साहित करना चाहिए। वे कहते हैं, “इस वर्ष स्थानीय देशी कपास को मजबूती देने का अच्छा मौका था। लेकिन इसके न्यूनतम समर्थन मूल्य में की गई मात्र 116 प्रतिशत की वृद्धि बहुत कम है। इसके चलते स्थानीय किस्मों का चुनाव करने वाले किसान अब पछता रहे हैं।”
कपास पर कीटों के आक्रमण की समस्या के अलावा बीटी बीजों की कीमत भी भारत में जीएम फसलों के पहले प्रयोग को विफल कर रही है। भारत में मोनसेंटो के प्रवेश के बाद से कपास के बीजों की कीमत लगभग 80,000 प्रतिशत बढ़ गई है। वर्ष 1998 में 5-9 रुपये प्रति किलो के मुकाबले बीटी कपास का बीज वर्ष 2016 में 450 ग्राम का एक पैकेट 600 रुपये में मिल रहा है।
अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के प्रोफेसर एंड्रयू गुटिरेज द्वारा किए गए एक अध्ययन में पता चला है कि बीटी कपास की उत्पादन लागत प्रति हेक्टेयर 300 किलोग्राम तक उत्पादन वाले खेतों में कुल राजस्व का 42.2 प्रतिशत तक बढ़ गई है। गुटिरेज कहते हैं, “बीजों की ऊँची कीमत के साथ ही कम पैदावार, उत्पादन में अन्तर और कीटनाशकों के लगातार प्रयोग के कारण कपास की खेती के खतरे बहुत बढ़ गए हैं।”
एक तथ्य यह भी है कि भारत बीजों की कीमत के मुद्दे पर मोनसेंटो के साथ कानूनी लड़ाई में फँसा हुआ है। इसी वर्ष 9 मार्च को सरकार ने बीज मूल्य नियन्त्रण आदेश जारी कर बीटी कपास के बीज पर मोनसेंटो की रॉयल्टी 70 प्रतिशत कम कर दी। सरकार ने तर्क दिया कि बीटी तकनीक कुछ खास कीटों का आक्रमण झेलने की अपनी प्रभावशीलता खो चुकी है, इसलिये रॉयल्टी घटाई जानी चाहिए। इस आदेश के कारण कपास बीजों का अधिकतम बिक्री मूल्य घट गया है। बॉलगार्ड-II की प्रति पैकेट कीमत 830-1,000 रुपये से घटकर 800 रुपये हो गई। कुल मिलाकर प्रत्येक बीज पैकेट पर कम्पनी की रॉयल्टी 163 से 43 रुपये तक घट गई है।
इसके जवाब में मोनसेंटों ने भारत में अपने व्यवसाय पर पुनर्विचार करने की धमकी दी है। केन्द्रीय कृषि राज्यमंत्री संजीव कुमार बालियान कहते हैं कि यदि मोनसेंटो को सरकार द्वारा तय किया गया बीज का मूल्य स्वीकार्य नहीं है, तो वह देश छोड़कर जा सकती है। बीज मूल्य नियन्त्रण आदेश को कई अदालतों में चुनौती दी गई है। कर्नाटक और दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस आदेश को सही ठहराया है। कपास उत्पादक किसानों द्वारा आत्महत्याओं के मामलों के दृष्टिगत पिछले वर्ष दिसम्बर में कृषि मंत्रालय ने कपास को आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के तहत सूचीबद्ध कर दिया। इसके माध्यम से सरकार कपास के उत्पादन और व्यापार के नियम-कायदे तय करने का अधिकार अपने हाथ में ले लेती है।
वर्ष 2016 में अब तक मोनसेंटो के कपास की बिक्री में 15 प्रतिशत तक कमी आई है। कपास उद्योग से जुड़े नेशनल सीड एसोसिएशन ऑफ इंडिया के कार्यकारी निदेशक कल्याण गोस्वामी के अनुसार, बाजार विश्लेषकों का मानना है कि बिक्री में गिरावट के कारण इस वर्ष उद्योग को करीब 500 करोड़ रुपये का नुकसान झेलना पड़ सकता है।
जीएम फसलों के कारोबार में गिरावट
कृषि जिंसों की कीमतों में गिरावट के चलते दुनिया भर में किसान जीएम फसलों को लाभकारी नहीं मानते। कृषि व्यापार में मंदी को भाँपकर बायोटेक कम्पनियाँ भी अब अधिग्रहण और विलय कर रही हैं। 14 सितम्बर को ही जर्मन रासायनिक कम्पनी बेयर ने 66 अरब अमेरिकी डॉलर में मोनसेंटो के अधिग्रहण की घोषणा की। यह अब तक का सबसे बड़ा नकद अधिग्रहण है। इस बीच, चीन सरकार के मालिकाना हक वाली कम्पनी केमचाइना ने स्विट्ज़रलैंड की बीज और कीटनाशक बनाने वाली कम्पनी सिनजेंटा का अधिग्रहण कर लिया है। पिछले वर्ष अमेरिकी कम्पनियों डाउ और ड्यूपॉन्ट का विलय हो गया है। कृषि व्यवसायों से जुड़ी दुनिया की दो दिग्गज कम्पनियों के इस विलय को जीएम फसलों की चुनौतियों से जोड़कर भी देखा जा रहा है। गौरतलब है कि जीएम बीजों का कारोबार अपनी चमक खोने लगा है। जीएम बीजों के सबसे पहले वर्ष 1996 में बाजार में आने के बाद से पहली बार इन फसलों के बुआई क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर कमी दर्ज की गई है। वर्ष 2015 में दुनिया भर में बायोटेक फसलों का बुआई क्षेत्र एक प्रतिशत घट गया था। अन्तरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संस्था इंटरनेशनल सर्विस फॉर द अक्वजिशन ऑफ एग्री-बायोटेक अप्लीकेशंस की एक रिपोर्ट के अनुसार, कई देशों में बायोटेक फसलों की बुआई में कमी का कारण यह है कि दुनिया में सभी प्रकार की फसलों का कुल बुवाई क्षेत्र ही घट गया है। फसल उत्पाद मूल्य में कमी के कारण मक्का की बुवाई में 4 प्रतिशत और कपास में 5 प्रतिशत गिरावट दर्ज हुई है। अनेक किसानों ने मक्का, कपास और कनोला की जगह सोयाबीन, दालों, सूरजमुखी और सोरगम बोना शुरू कर दिया है।
बायोटेक फसलों की सर्वाधिक बुआई वाले पाँच देशों में से एक अमेरिका में वर्ष 2015 में फसल क्षेत्र 22 लाख हेक्टेयर घटा। अर्जेंटीना, जो दुनिया का तीसरा सर्वाधिक बायोटेक फसल उगाने वाला देश है, ने केवल 2 लाख हेक्टेयर में ही बुआई की। कनाडा में भी बुवाई क्षेत्र 4 लाख हेक्टेयर कम रहा। पिछले वर्ष यूरोपीय संघ के 19 देशों ने बायोटेक फसलों के खिलाफ वोट किया। लेकिन आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि जिन पाँच यूरोपीय देशों - स्पेन, पुर्तगाल, चेक गणराज्य, स्लोवाकिया और रोमानिया ने बायोटेक फसलों के पक्ष में मतदान किया, वहाँ बीटी मक्का की बुआई में उल्लेखनीय कमी दर्ज की गई।
फसल उत्पादों की बिक्री में कमी से कृषि व्यवसाय की बड़ी कम्पनियों का लाभ घट रहा है। वित्तीय वर्ष 2016 में मोनसेंटो ने अपने वैश्विक विक्रय आँकड़ों में 10 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की है। कम्पनी ने अपनी कमाई में गिरावट का कारण विदेशी मुद्राओं के विनिमय में घाटे और कृषि उत्पादकता में कमी बताया है। पिछले वर्ष अक्टूबर से अब तक कम्पनी 3,600 नौकरियों की कटौती कर चुकी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ में सह-प्रोफेसर सीएससी शेखर कहते हैं, “कम्पनियों के अधिग्रहण और विलय के मामलों में उछाल का मुख्य कारण कृषि व्यवसाय में मुनाफे की कमी है। कम्पनियाँ अपने खर्चों में कमी कर रही हैं और साथ ही साथ नए बाजारों में घुसने के रास्ते तलाश रही हैं।”
बायोटेक उद्योग में आए इस बदलाव से एक बात तो स्पष्ट हो रही है कि कीटों से लड़ने की अपनी प्राकृतिक क्षमता और कम बुआई लागत जैसी खूबियों के बावजूद फसलों की देसी और गैर-बीटी किस्में जीएम फसलों के ताकतवर तन्त्र के खिलाफ संघर्ष करती रहेंगी।
‘जल्द बड़े बदलाव की उम्मीद’ भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के केन्द्रीय कपास अनुसंधान संस्थान (सीआईसीआर) के निदेशक केआर क्रांति ने डाउन टू अर्थ को साक्षात्कार में बताया कि आने वाले वर्षों में देशी कपास और गैर-बीटी कपास के बीजों की माँग बढ़ने वाली है। साक्षात्कार के कुछ अंश: गैर-बीटी कपास की तरफ किसानों के झुकाव पर पिछले 8 वर्षों में पहली बार कपास की बुआई-पट्टी वाले उत्तरी राज्यों में 72,280 हेक्टेयर में देसी कपास स्थानीय किस्में बोयी गईं। यदि देशी बीजों की समुचित आपूर्ति हो जाती, तो यह बुवाई क्षेत्र और बढ़ सकता था। इस बदलाव का मुख्य कारण वर्ष 2015 में सफेद मक्खी का आक्रमण और पत्तियाँ मुरझाने का (लीफ कर्ल) रोग था, जो इन कीड़ों के माध्यम से फैलता है। कीटों का मुकाबला करने में बीटी कपास की विफलता पर भारत में मात्र 6 वर्ष में ही पिंक बॉलवर्म ने कीटनाशकों से लड़ने की क्षमता विकसित कर ली। अन्य देशों में 20 साल बाद भी पिंक बॉलवर्म बीटी कॉटन के खिलाफ यह क्षमता हासिल नहीं कर पाया है। हमारे यहाँ बीटी कॉटन फसल की समयावधि अधिक (180 से 240 दिन) होने के कारण ऐसा हुआ। दूसरे देशों में इस फसल की समयावधि छोटी या मध्यम (150 से 180 दिन) ही है। पिंक बॉलवर्म सर्दियों में अधिक नुकसान करता है, बुआई के पहले 130-140 दिन के दौरान। बीटी कपास की भारतीय हाइब्रिड किस्मों में बॉलवर्म को जिन्दा रहने के लिये 60-100 दिन अधिक मिल जाते हैं, जिससे उनमें प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है। भारत में एक विशेष बात यह भी है कि बीटी हाइब्रिड कपास के पौधों पर नॉन-बीटी बीज भी विकसित हो जाते हैं। ऐसा दूसरे देशों में नहीं होता। बीटी और गैर-बीटी बीजों के मिश्रण से बॉलवर्म को बायोटेक जहर के खिलाफ प्रतिरोध विकसित करने की आदर्श स्थिति मिल जाती है। देशी कपास के लागत लाभ पर देशी कपास की स्थानीय किस्में कम लागत पर भी अच्छा उत्पादन दे सकती हैं। लेकिन उत्तरी भारत की स्थानीय किस्म में रेशे का फाइबर छोटा होता है। जिसका उपयोग कताई के बजाय गद्दे, डेनिम, दैनिक और चिकित्सकीय उपयोग में आने वाली रुई में होता है। इसलिये इसका बाजार सीमित है। हालाँकि देशी और गैर-बीटी कपास के बुवाई क्षेत्र में वृद्धि कम है, लेकिन पिछले कई सालों में एक बदलाव का संकेत मिला है। आने वाले कुछ वर्षों में मैं एक सशक्त बदलाव की उम्मीद करता हूँ। |