संरचना इंजीनियरी

Submitted by Hindi on Sat, 08/27/2011 - 11:30
संरचना इंजीनियरी 19 वीं शताब्दी तक सिविल इंजीनियरी का एक विभाग समझा जाता था, परन्तु जैसे तैसे सभ्य समाज की आवश्यकताएँ परिस्थितियों के अनुसार बदलती और बढ़ती गई, उन्नत प्रकार के लोहे, इस्पात आदि का उत्पादन तथा प्रयोग बढ़ने लगा, वैसे वे यंत्र विज्ञान की उन्नति हुई। विविध धातुओं के भौतिक गुणों का ज्ञान बढ़ा, तो कारखानों और आवासगृहों के निर्माण में भी इस्पात का अधिकाधिक उपयोग होने लगा। स्थान की कमी से इस्पात के ढाँचों की सहायता से अनेक मंजिलों के मकान बनने लगे और थोड़ी जगह में अनेक कमरे बनाने की व्यवस्था का शुभारंभ हुआ।

आज बड़े बड़े नगरों में बीस बीस मंजिले मकान बनाना तो मामूली बात हो गई है। न्यूयार्क में कुछ मकान 70 और 102 मंजिलों तक के भी हैं। संरचना इंजीनियरी के सहारे ही ऐसा हो सका है। सेतनिर्माण में भी संरचना इंजीनियरो से बड़ी सहायता मिली है। स्कॉटलैंड की फोर्थ नदी के प्रसिद्ध पुल में, जो कैंटिलिवरनुमा बना है, नदी के बीच में तीन खंभों के आधार पर दो मेहराव तो पूरे बने हैं, जिनके प्रत्येक खंभे का पाट (span) 1,710 फुट है, और समस्त पुल का पाट, तट से तट तक, 5215 फुट है, (द्रस्रें, फलक)। अमरीका का क्यूबेक पुल तो दुनियाँ भर के कैंटिलिवर पुलों में सबसे बड़ा समझा जाता है। इसके केंद्रीय मेहराब का पाट 1,800 फुट है। इस पुल का निर्माण 1918 ई. में समाप्त कर, यह यातायात के लिये चालू किया गया था। यह पुल आधुनिक संरचना कला का सर्वश्रेष्ठ नमूना है। न्यूयार्क का हेलगेट (Hellgate) नामक पुल केवल एक ही मेहराबवाला है। इसके पाट का विस्तार 1,017 फुट है। भारत के पुलों में कलकत्ता का हावड़ा पुल और हरद्वारा के निकट ऋषिकेश का लक्ष्मण झूला नामक पुल इस कला के अच्छे नमूने हैं।

संरचना इंजीनियर को लोहे और इस्पात का ही नहीं, बल्कि लकड़ी, ईटं, पत्थर, चूना और सीमेंट का भी आधुनिकतम ज्ञान तथा यांत्रिक एवं विद्युत्‌ इंजीनियरी के कामों में भी दक्ष होना चाहिए, क्योंकि इन्हें अपने ढाँचे यांत्रिकी तथा भौतिकी के सिद्धांतों के अनुसार निरापद ढंग से बनाने पड़ते हैं। भूमि, जल और वायु की प्रकृति का भी पूर्ण ज्ञान सिविल इंजीनियर के समान ही होना चाहिए।

ढाँचा- प्रत्येक इमारत की बनावट में छत और फर्श के लिये धरनों, कैंचियों, खंभों तथा जमीन पर बनी बुनियाद की आवश्यकता पड़ती है। इनका संयोजन ही मकान का ढाँचा है। ढाँचे चाहे किसी इमारत, पुल अथवा क्रेन आदि यंत्रों के लिये हों, उनकी रचना करते समय यह विचार करना आवश्यक है कि उनके विविध अवयवों पर किस किस प्रकार के तथा किस परिमाण में बाहरी बल भार के रूप में पड़ेंगे। स्थैतिकी के सिद्धांतानुसार उन बलों के कारण, ढाँचे के विविध अवयवों पर आनेवाले प्रतिबलों की गणना भी बड़ी सावधानी से करनी होती है, जिससे ढाँचा सब प्रकार से सुदृढ़ और निरापद बन जाए। ढाँचे को दृढ़ बनाने का अर्थ उसके अवयवों को खूब मोटा तथा भारी बना देना नहीं होता।

ढाँचे की बनावट में बल सहन करने की क्षमता होनी चाहिए। ऐसा ढाँचा अनके त्रिभुजों को मिलाकर बनाया जाता है। चतुर्भुजों और पंचभुजों से बने ढाँचे में इतनी क्षमता नहीं होती। त्रिकोणयुक्त ढाँचे को कैंची (ट्रस, Truss) कहते हैं। ये बलों के सहने के दृष्टिकोण से सर्वथा निर्दोष और अवयवों की दृष्टि से स्वत: पूर्ण होती है। ऐसी कैंचियाँ काफी लंबे पाटों के लिये बनाई जा सकती हैं तथा भार पड़ने पर स्वयं संतुलित भी रह सकती हैं।

बड़े पाट की छतें बनाने के लिये दीवारों पर साधारण ठोस प्रकार के लंबे गर्डर रखकर ही क्यों नहीं काम चलाया जाता? त्रिकोणमय कैंचियाँ ही क्यों बनाई जाती हैं? मामूली छोटे पाटों की छतें तो अवश्य ही उचित माप के सादे गर्डर रखकर बनाई जा सकती हैं, परन्तु गर्डर बहुत अधिक लंबे होने पर भारी तथा महँगे पड़ते हैं। बड़े पाटों के लिये त्रिकोणयुक्त कैंचियाँ काफी मजबूत होने के साथ ही बहुत हलकी और सस्ती पड़ती हैं।

कैंचियों के जोड़ों को पिनों द्वारा न बनाकर रिबटों द्वारा पक्का जड़ दिया जाता है। रिबटों में कुछ विशेष प्रकार के बल अधिक आने लगते हैं जिन्हें सहने के लिये इन रिबटों को अधिक मजबूत अवश्य ही बनाया जाता है। समस्त छत के पटाव का भार बत्तों (purlins) के माध्यम से विभाजित होकर कैंचियों के त्रिकोणों के ऊपरी जोड़ों पर आकर, सब कैंचियों पर बराबर बँटकर और इन कैंचियों के भार सहित अरधा आधा बँटकर और इन कैंचियों के भार सहित आधा आधा बँटकर दीवार के टेके पर पड़कर बुनियाद पर जाता है। अत: इन बोझों का अनुमान बड़ी सावधानी से कर लेना होता है। अत: इन बोझों का अनुमान बड़ी सावधानी से कर लेना होता है। ये बोझों का अनुमान बड़ी सावधानी से कर लेना होताहै। ये बोझों का अनुमान बड़ी सावधानी से कर लेना होता है। ये बोझे सदैव एक से ही बने रहने के कारण अचल भार (dead load) कहलाते हैं। सभी ऊर्ध्वाधर दीवारों तथा ढालू छतों पर बगल से चलनेवाली हवा के कारण जो ऊर्ध्वाधर दाब पड़ती है, वह वायु दाब (wind pressure) कहलाती है, और यह चल भार (live load) की गिनती में आती है। अनेक मंजिले मकानों की मध्यवर्ती छतों पर वहाँ के निवासियों और उठाऊ फर्निचर का भार ही होता है लेकिन यह अन्य अचल भारों की अपेक्षा नगण्य होता है।ढाँचों के विभिन्न अवयवों पर पड़नेवाले बलों का परिकलन बल त्रिभुज अथवा बल बहुभुजों के सिद्धांत के अनुसार किया जाता है। इसके लिये इंजीनियर 'बाउ संकेत' (Bow's notation) प्रणाली का उपयोग करते हैं। यह रीति अपेक्षया सरल है। बलों का परिकलन विशुद्ध गणित द्वारा भी स्थैतिकी और त्रिकोणमिति की सहायता से किया जा सकता है। इस प्रकार से गणना करने के लिए, किसी उपयुक्त ब्रिदु को धूर्णकेंद्र मानते हुए, ढाँचे के किसी अवयव में पड़नेवाले अज्ञात बल के घूर्ण से समीकृत कर देते हैं।

कैंचियों के अवयवों के विस्तार की सीमा  जितने ही अधिक बड़े पाट की छत की कैंची अथवा पुल का कैंचीनुमा गर्डर अनाया जाता है उसमें उतने ही अधिक संख्या में छोटे छोटे त्रिकोण बनाए जाते हैं। यदि किसी लंबे खंभे पर भार डाला जाए, तो एक सीमा से आगे चलकर वह खंभा बीच में से झुकने लगता है। यही बात कैंचियों को बल सहन करने योग्य उचित आकार के छोटे छोटे त्रिकोण बनाए जाते हैं। यदि किसी लंबे खंभे पर भार डाला जाए, तो एक सीमा से आगे चलकर वह खंभा बीच में से झुकने लगता है। यह बात कैंचियों के थामों (struts) पर भी लागू होती है। अत: कैंचियों को बल सहन करने योग्य उचित आकार के छोटे छोटे त्रिकोणों में विभाजित कर बनाते हैं।

ढाँचे पर भार- ढाँचा पर जो बोझ पड़ते हैं उसे भार कहते हैं। चल और अचल भार का उल्लेख ऊपर हुआ है। यदि भार किसी थोड़ी सी जगह पर केंद्रित है, तो उसे केंद्रित भार (concentrated load) और यदि पूरे अवयवों पर फैला हो, तो उसे विभाजित भार (distributed load) कहते हैं। रेलगाड़ी, मोटर, ट्रक आदि चलने वाले वाहनों के भार को चरभार (moving load) और एक बार एक दिशा में और तुरंत बाद दूसरी दिशा से आनेवाले भार को प्रत्यावर्ती भार (alternating load) और धमाके के साथ आनेवाले भार को संघात भार (impact load) कहते हैं। पदार्थों का प्रतिबल (stress) भी होता है। भार की परिस्थिति ओर प्रवृत्ति के कारण तनन (tensile), संपीडन (compression), अपरूपण (shear), ऐंठन (torque) आदि प्रतिबल हो सकता है। प्रतिबल के प्रभाव से जो परिवर्तन होता है उसे विकृति (strain) कहते हैं।

पदार्थों में प्रत्यास्थता का गुण होता है, किसी में कम और किसी में कम और किसी में अधिक। प्रत्यास्थताकी सीमा होती है। सीमा से अधिक बल पड़ने पर पदार्थ टूट जाते हैं। हुक ने सन्‌ 1676 में एक नियम स्थापित किया कि यदि प्रत्येक पदार्थ पर उसकी प्रत्यास्थता की सीमा के भीतर बल लगाया जाए, तो उसके कारण पड़नेवाला प्रतिबल तथा उस पदार्थ में होनेवाली विकृति में एक विशेष अनुपात सन्‌ 1826 में डाक्टर यंग ने प्रत्यास्थता की सीमा के भीतर पड़नेवाले प्रतिबलों के कारण विभिन्न पदार्थों में होनेवाली विकृतियों के अनुपातों का निश्चयात्मक रूप से पता लगाया। इस यंग का प्रत्यास्थता मापांक (Modulus of Elasticity) कहते हैं।

प्वासों का अनुपात (Poission's Ratio)- यदि किसी ठोस छड़ को खींचा जाए, तो हम देखते हैं कि वह बीच में से पतली पड़कर टूट जाती है और यदि प्रत्यास्थता की सीमा के भीतर बल लगाकर खींचा जाए तो उसकी लंबाई बढ़ने के साथ ही सब जगहों से उसकी पार्श्विक नाप छोटी हो जाती है। इसी प्रकार यदि किसी छड़ को दबाया जाए, तो उसकी पार्श्विक नाप बढ़ जाती है। अत: खिंचाव अथवा दबाव के कारण किसी प्रत्यक्ष ठोस की पार्श्विक नापों में जो परिवर्तन होता है, वह प्वासॉन्‌ के अनुपात के अनुसार होता है। इसे M अक्षर से व्यक्त करते हैं।

प्रत्यक्ष विकृति (लंबाई में) = पार्श्विक विकृति X M

कुछ पदार्थों के प्वासों के अनुपात

पदार्थों के नाम

प्वासाँ अनुपात M

पदार्थों के नाम

प्वासाँ का अनुपात M

इस्पात

3.25

ताँबा

2.6

पिटवाँ लोहा

3.6

पीतल

3.0

ढलवाँ लोहा

3.7

काँच (प्लास्टिक हालत में)

3.0



अपरूपक प्रतिबल (shear Stress)- विशुद्ध अपरूपक प्रतिबल, दो सामान तथा एक दूसरे की विरोधी दिशा में काम करनेवाले प्रतिबलों के मिश्रण के रूप में होता है। इनकी क्रिया रेखा भी एक दूसरे से समकोण पर होती है।

ऐंठन बल (Torque)- यदि धुरे का एक छोर दीवार में दृढ़ता से कसा हुआ है और उसके दूसरे छोर पर ऐंठन बल लगाया जाता है, तो दूसरा छोर कुछ मुड़ जाएगा। मूला रेखा से जितना कोण,  बनाकर वह मुड़ता है वह कोण उसका ऐंठन कोण होगा। इस कोण की सहायता से धुरे का ऐंठन बल निकाला जा सकता है।

सामग्रियों की सामर्थ्य का परीक्षण (Testing of the strength of the material)- इंजीनियरी में काम आनेवाली सामग्रियों का परीक्षण अत्यावश्यक है। जिस परिस्थिति में सामग्रियों का उपयोग होता है उसी परिस्थिति में उनको रखकर, उनका परीक्षण करना चाहिए। परीक्षण दो प्रकार से होता है : एक रासयनिक रीति से सामग्रियों के आणविक संगठन का ज्ञान होता है और भौतिक रीति से खींचकर, दबाकर, अपरूपण कर, पंच से छेदकर, झुका कर तथा मोड़कर देखा जाता है कि उनके सहन करने की समता कैसी है। भौतिक रीति से सामग्रियों का परीक्षण करने के लिये आजकल एक यंत्र बना है जिसे हाउन्सफील्ड टेंसोमीटर (Hounsfield Tensometer) कहते हैं। इसकी कार्यपद्धति बड़ी सरल है और सामान्य व्यक्ति भी थोड़े से प्रशिक्षण से इसका उपयोग कर सकता है। इससे सामग्रियों की सामर्थ्य, भार विकृति, अभिश्रांति इत्यादि का ज्ञान सरलता से हो जाता है।

अभयांक (Factor of Safety)- जब तक किसी पदार्थ पर पड़नेवाले प्रतिबल उस पदार्थ की प्रत्यास्थता की सीमा के भीतर रहता है, तब तक विकृति बड़ी सूक्ष्म या अस्थायी होती है। भार हटते ही वह पदार्थ अपनी मूल अवस्था में आ जाता है। पर यदि प्रतिबल प्रत्यास्थता की सीमा के ऊपर हो, तो विकृति पर्याप्त ओर अधिक स्थायी होती है। विभंजक भार प्रत्यास्थता की सीमा से काफी अधिक होता है, पर व्यापारिक और उपयोगिता की दृष्टि से यह भार कम ही रखा जाता है और इसे पराभव बिंदु कहते हैं तथा इसे ही विभंजक भार मान लिया जाता है। प्रत्यास्थता की सीमा सहने योग्य भार से भी काफी कम मात्रा में भार डालने की योजना, अभिकल्पना के समय की जाती है। अत: यह व्यावहारिक भार अत्यधिक सहने योग्य भार से जिस अनुपात में कम हो, उस अनुपात को उस पदार्थ का अभय गुणांक या अभयांक कहते हैं।

भिन्न भिन्न पदार्थों के अभयांक विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न होते हैं। कठोर इस्पात का अभयांक स्थिर भार में तीन तथा चल भार में पाँच से आठ और प्रत्यावर्ती चल भार में नौ से 13 तक होता है।

पदार्थों की कठोरता- पदार्थों की कठोरता से उनके तनाव, संपीडन, अवरूपण आदि बलों का अनुमान सरलता से लगाया जा सकता है। कठोरता परीक्षण की आधुनिक विधियाँ, स्थैतिक दंतुरता (static indentation) और गत्यात्मक दंतुरता (dynamic indentation) के सिद्धांतों पर आधारित हैं। स्थैतिक दंतुरता सिद्धांत पर आधारित हैं। स्थैतिक दंतुरता सिद्धांत पर आधारित हैं। स्थैतिक दंतुरता सिद्धांत पर आधारित ब्रिनेल की कठोरता-परीक्षण-विधि है, जिसके अनुसार परीक्ष्य पदार्थ के एक भाग पर काँच के समान बढ़िया पॉलिश कर उसपर बहुत कठोर इस्पात की, मानक व्यास की, एक गोली को रखकर यंत्रों द्वारा मानक भार से दबाते हैं। इससे पॉलिश की हुई सतह पर गोल निशान पड़ जाता है।

साधारणतया गोली का व्यास 10 मिमी. और लोहे तथा इस्पात के लिये 3,000 किग्रा., पीतल आदि मुलायम धातुओं के लिये 1,000 क्रिगा. और सीस आदि बहुत मुलायम धातु के पदार्थों के लिये 50 क्रिगा. मानक भार रखा जाता है। साधारणतया भार इतना ही रखा जाता है जिससे निशान का व्यास गोली के व्यास के 3/8 से अधिक न हो। परीक्षण किसी भी व्यास की गोली से किया जा सकता है, पर दाब और गोली के व्यास का अनुपात, P/D2, एक सा रहना चाहिए।

सामान्य कठोरता के लिये इस्पात की गोली और ऊँची कठोरता के लिये हीरे की गोली प्रयुक्त होती है। कठोर पदार्थों पर 15 सेकंड तक और मुलायम पदार्थों पर 30 सेकंड तक भार दिया जाता है। निशान को सूक्ष्मता से मापने की व्यवस्था रहती है।

विकर्स (Vickers) विधि से भी कठोरतांक निकाला जाता है। इसमें गोली के स्थान में चौकोर पिरामिड की आकृति की हीराकनी का प्रयोग होता है। इससे चौकोर गड्ढा बनता है, जिसका विकर्ण (diagonal) और गहराई अधिक यथार्थता से नापी जा सकती है।

गत्यामक दंतुरता पर आधारित अनेक यंत्र बने हैं, जिनमें शोर (Schore) का बनाया हुआ स्केल रॉस्काप सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसमें इस्पात की बेलनाकार हथौड़ी रहती है, जिसका भार लगभग 40 ग्रेन होता। हथौड़ी के नीचेवाली टक्कर पर उत्तल आकृति की हीराकनी लगी रहती है, जिसके छोर का क्षेत्रफल लगभग 0.01 से 0.25 वर्ग इंच तक होता है, जिसके छोर का क्षेत्रफल लगभग 0.01 से 0.025 वर्ग इंच की ऊँचाई से गिराई जाती है, तब वह परीक्ष्य पदार्थ से टकराकर ऊपर उछलती है। नली के सहारे से लगे पैमाने के द्वारा हथौड़ी की उछाल को नापकर, पदार्थ की कठोरता का परिकलन किया जाता है। पैमाने पर 140 निशान लगे रहते हैं। काँच की उठाल 130, चीड़ की लकड़ी की उछाल 40 और रबर की उछाल 23 लगभग होती है।

इस यंत्र द्वारा प्राप्त कठोरतांक को छह से गुणा कर ब्रिनेल का कठोरतांक ज्ञात होता है और उसे 6  0.22 = 1.32 से गुणा करने पर पदार्थ की सन्निकट चरम सामर्थ्य, टन प्रति वर्ग इंच में, मालूम की जा सकती है। इसी प्रकार उपयुक्त स्थिरांकों से गुणा कर विभिन्न पदार्थों की संपीडन तथा अपरूपक सामर्थ्य भी मालूम हो सकती है।

ढाँचों पर विभिन्न बल- संरचना इंजीनियरी के कामों में विविध प्रकार के बल देखे जाते हैं। इन्हें निम्नलिखित छह प्रमुख वर्गों में बाँटा जा सकता है:

तान (tie)- निलंबित दंड, रस्सा, जंजीरों आदि पद पड़नेवाला विशुद्ध तनाव।

थाम (struts)- पद पड़नेवाला विशुद्ध संपीडन।

स्तम्भ (pillar)- पर पड़नेवाला संपीडन।

गर्डर, धरन और शहतीर पर पड़नेवाला नमन और अपरूपक बल (shear force)।

बुनियादों और आलंबों (fulcrums) पर पड़नेवाला संपीडन बल।

रिबट, बोल्ट, पिन और कॉटर (cotter) पर पड़नेवाला बल।

संरचना विभिन्न अवयव रिबटों द्वारा, अथवा बोल्टों द्वारा, जोड़े जाते हैं। रिबटों द्वारा बने जोड़ स्थायी होते हैं और काटकर ही अलग अलग किए जा सकते हैं, पर बोल्टों द्वारा जोड़े गए जोड़ अस्थायी होते हैं और विभिन्न उपखंडों में खोलकर अलग अलग किए जा सकते हैं।

ढाँचों को खड़ा करने का तरीका- संरचना कार्य में सभी प्रकार के अवयव मुलायम इस्पात के विविध परिच्छेद (section) युक्त छड़ों और प्लेटों से बनाए जाते हैं। छड़ों के परिच्छेद गोल, चपटे, आयताकार, एल (L), टी (T) अथवा एच (H) आदि के आकार के होते हैं। कारखाने में ही बड़ी कैंचियों का निर्माण करते समय उनके समस्त अवयव नक्शे के अनुसार अलग अलग काट छाँटकर बनाए जाते हैं तथा कुछ छोटे छोटे उपखंडो को तो कारखाने में ही समतल भूमि पर रखकर, रिबटों द्वारा यथास्थान जड़ देते हैं; फिर उन जुड़े हुए उपखंडों को क्रेन आदि साधनों से उठाकर यथास्थान बैठाकर, बोल्टों द्वारा कस देते हैं।

तान और थाम (Ties and Struts)- तानों और थामों के अवयवों पर कितना प्रतिबल पड़ता है और इसमें उनके सहने योग्य, प्रति वर्ग इंच निरापद प्रतिबल से भाग देकर, उनका परिच्छेद गणित द्वारा ज्ञात कर लिया जाता है और उसी के आधार पर उनका निर्माण होता है।

धरन और गर्डर (Beams and Girders)- संरचित ढाँचों में धरनों तथा गर्डरों का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि उन्हीं पर चौरस छतों, पुलों, गैंट्रियों तथा शिरोपरिधावन पथों आदि के स्थिर, चर और चल भार लादे जाते हैं। जब किसी सीधे अवयव के दोनों सिरों को किसी मजबूत आधार पर टिकाकर, उसपर भार लादा जाता है, तब वह धरन या गर्डर कहलाता है। धरन पर बोझा रखने से वह बीच में लचक जा सकती है और यदि उसपर बोझा सामार्थ्य से अधिक हो, तो उसकी निचली सतह फटने लगती है। (ओंकार नाथ शर्मा)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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