पानी
जब समुद्र से आता है तब बादल
और जाता है तो नदी कहलाता है।
बादल उड़ती नदी है
नदी बहता बादल है!
बादल से वर्षा होती है
वर्षा इस धरती की शालभंजिका है।
उसके पदाघात से धरती लहलहा उठती है।
और जब वर्षा नहीं होती
तब यही काम नदी करती है।
वर्षा और नदी- धरती की दो शालभंजिकाएँ।
विचार और कर्म (कल्पना और यथार्थ)
आत्मा की शालभंजिकाएँ हैं।
इनके पदाघात से
आत्मा पल्लवित-पुष्पित होती है!
बादल धरा पर उतर कर सार्थक होता है
विचार कर्म में परिणत होकर कृतार्थ होता है।
अजीब है यह पानी। इसका अपना कोई रंग नहीं, पर इन्द्रधनुष के समस्त रंगों को धारण कर सकता है। इसका अपना कोई आकार नहीं, पर असंख्य आकार ग्रहण कर सकता है। इसकी कोई आवाज नहीं, पर वाचाल हो उठता है तो इसका भयंकर निनाद दूर-दूर तक गूँज उठता है। गतिहीन है, पर गतिमान होने पर तीव्र वेग धारण करता है और उनमत्त शक्ति और अपार ऊर्जा का स्त्रोत बन जाता है। उसके शांत रुप को देखकर हम ध्यानावस्थित हो जाते है, तो उग्र रुप को देखकर भयाक्रांत। जीवनदायिनी वर्षा के रुप में वरदान बनकर आता है, तो विनाशकारी बाढ़ का रूप धारण कर जल-ताडंव भी रचता है। अजीब है यह पानी!
मीठे पानी का श्रेष्ठ और सुदीर्घ स्त्रोत है नदी। हजारों वर्षों से मनुष्य उसकी ओर खिंचता चला आया है। केवल इसलिए नहीं कि वह हमारी और हमारे खेतों की प्यास बुझाती है, बल्कि इसलिए भी कि वह हमारी आत्मा को भी तृप्त करती है। उसके तट पर हमारी आत्मा पल्लवित-पुष्पित होती है-संस्कृति का जन्म होता है। संसार की सभी प्रमुख संस्कृतियों का जन्म नदियों की कोख से हुआ है। भारतीय संस्कृति गंगा की देन है। कभी गंगा-यमुना का मैदान ही आर्यावर्त था।
वेद संभवतः संसार का प्राचीनतम ग्रंथ है। चारों वेदों में भी सबसे प्राचीन ऋग्वेद है। ऋग्वेद में एक सूक्त है जिसका नाम है, ‘विश्वामित्र नदी संवाद।’ विश्वामित्र अपने साथियों के साथ नदी को पार करना चाहते हैं, लेकिन नदी में बाढ़ आई हुई है। तब विश्वामित्र नदी से प्रार्थना करते हैं, ‘हे माँ! तू मेरे लिए रुक जा और हमें जाने के लिए रास्ता दो।’ तब नदी कहती है, ‘जिस तरह माँ अपने बच्चे के लिए झुकती है, अथवा कन्या अपने पिता की सेवा के लिए झुकती है, उसी प्रकार मैं तुम्हारे लिए झुकती हूँ।’ नदी उतर जाती है, और विश्वामित्र और उनके साथी नदी पार कर लेते हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि विश्वामित्र नदी से उसी प्रकार बात करते हैं जैसे हम किसी व्यक्ति से बात करते हैं और नदी उसका जवाब भी देती है।
बौद्ध ग्रंथ ‘सुत्तनिपात’ में धनिय और बुद्ध का मेघ से बड़ा ही रोचक वार्तालाप है-
चाहो तो खूब बरसो
धनिय- भात मेरा पक चुका, दूध दिया, कुटी छा ली,
आग सुलगा ली। अब हे देव!चाहो तो खूब बरसो।
बुद्ध- मैं किसी का चाकर नहीं, स्वच्छंद सारे संसार में
विचरण करता हूँ। मुझे चाकरी से मतलब नहीं।
अब हे देव! चाहो तो खूब बरसो।
धनिय- मेरे तरुण बैल हैx और बछड़े हैं। गाभिन गाएँ हैं
और कलोर भी हैं और सबके बीच वृषभराज भी हैं।
अब हे देव! चाहो तो खूब बरसो।
बुद्ध- मेरे न तरुण बैल हैं, न बछड़े, न गाभिन गाएँ हैं
और न कलोर और सबके बीच वृषभराज भी नहीं है।
अब हे देव! चाहो तो खूब बरसो!
(बुद्धवचन)
तो नदियों और मेघों के साथ प्राचीन काल से ही हमारा ऐसा आत्मीय संबंध रहा है। नदियों को हम परम पवित्र मानते है। नदियों के तटों पर ऋषियों के तपोवन होते थे। हमारे अधिकांश तीर्थ या तो पहाड़ों पर हैं या नदियों के किनारे। पर्व-त्यौहार पर नदी-स्नान का विशेष महत्व माना गया है। ग्रहण के अवसर पर तो करोड़ों लोग नदियों में स्नान करते हैं। हमारे देश में नदियों के प्रति विलक्षण श्रद्धा रही है। यह कोई अंधश्रद्धा नहीं, लोकहृदय में प्रतिष्ठित हो चुकी गहन आस्था है। हम तर्कशील भर हों तो नदियां बहता हुआ पानी भर हैं, किन्तु हम केवल तर्कशील भर होने से कहीं अधिक हैं। हम मानव हैं और हम में आस्था है, श्रद्धा है, प्रेम है। इसलिए हमने नदियों को केवल बहते हुए जल के रुप में नहीं देखा। उनमें जीवनदायिनी माताओं का प्रतिबिम्ब भी निहारा। नदियों को ‘लोकमातरः’ लोकमाता कहा। आप माता हैं। वत्सल माता जिस प्रकार बच्चे को स्तनपान कराती हैं। उसी प्रकार आप हमें अपने शिवतम रस का पान कराएँ। शिवतम यानी अत्यंत शिव, कल्याणकारी। इतनी महिमा बखानी गई है नदियों की। पितामह भीष्म को गंगामैया का पुत्र कहा और नर्मदा की तो परिक्रमा करने की परम्परा चलाई। यमुना के बिना कृषि की कल्पना नहीं की जा सकती।
प्रायः ऐसी ही आस्था प्राचीन मिस्त्रवासियों की नील नदी के प्रति रही। मिस्त्र के निवासी नील की अभ्यर्थना करते थे कि वह उनके खेतों से गुजरे और जब नील का पानी उनके खेतों में फैल जाता था तो कहते थे कि नील ने उनकी प्रार्थना सुन ली है और उनके प्राण बचा लिए हैं। उनकी एक प्रार्थना इस प्रकार है-
जय हो, नील तुम्हारी
तू बहती जीवन देती
तू रुकती, जीवन-गति रुक जाती।
जब तु क्रुद्ध, त्राहि-त्राहि मच जाए।
राजा-रंक सभी लुट जाएँ।
तू उठती, धरती खिल पड़ती
जीवन-लहर उमंगें भरतीं।
तू अन्नदायी, धन-धान्यमयी हे
सौंदर्य सभी तेरी रचना।
हर्षविभोर बच्चे हम तेरे
तव महिमा गाएँ, राजा तू जैसे।
वेद के एक मंत्र में कहा गया है कि लोगों के दिलों में रहने वाले सत्य और अनृत की परीक्षा लेने वाला भगवान पानी में रहता है। हाथ में जल लेकर सौगंध खाने की परम्परा है। इसका अर्थ है कि अंजुलि में जल लेने के बाद मनुष्य झूठ बोल ही नहीं सकता। मरते हुए मनुष्य के मुंह में गंगाजल देने की परम्परा है। दाह-संस्कार के बाद जो अस्थि और भस्म शेष रह जाते हैं उन्हें पवित्र नदियों में प्रवाहित करते हैं। इतना ही नहीं, मरणोपरान्त भी हमें वैतरणी पार करनी होती है। संक्षेप में जीवन में, मरण में और मरणोपरान्त भी आर्यों का जीवन नदियों से जुड़ा हुआ है। भारतीय संस्कृति ने नदियों में ईश्वर की प्रवहमान करुणा के, प्रेमधारा के दर्शन किए।
यह ठीक है कि नदी का गंतव्य समुद्र है लेकिन समुद्र तक जाते-जाते रास्ते में वह अनेकों के पाप धोती जाती है। ऊँचे पर्वत-शिखर से उतर कर, धरती को तृप्त करती अपना सर्वस्व लुटाती, निरंतर आगे बढ़ती वह समुद्र से मिली है। जिस दिन यह नदी हमारे भीतर प्रवाहित होगी, हमारा सारा दृष्टिकोण ही बदल जाएगा। हम लेना नहीं, देना चाहेंगे, जीना नहीं जिलाना चाहेंगे। हमें यथासंभव लोकमंगल के कार्य करते रहना चाहिए। नदी में करुणा, प्रेम, परोपकार, उदारता, शीतलता आदि गुण होते हैं। नदी इन्हीं गुणों के अपनाने के लिए, पुण्य कर्म करने के लिए प्रेरित करती है।नदी लगातार आगे बढ़ती रहती है। नदी आगे बढ़ती रहती है, पीछे नया और नया पानी आता रहता है। इसका अर्थ यह है कि देते रहो, लुटाते रहो। देते रहोगे तो तुम्हें मिलता रहेगा। तम्हारा भंडारा खाली नहीं होगा। पानी निम्नगतिक है, हमेशा नीचे की ओर बहता है। वह विनम्र है और गढ्डों को भरता चलता है। उसी प्रकार हमें भी गरीबों की ओर बहना चाहिए, उनकी सहायता करनी चाहिए। नदी कहीं से भी क्यों न निकली हो, उसकी गति हमेशा समुद्र तक न पहुँच पाए, बीच रास्ते में खेतों की प्यास बुझाने अथवा वृक्षों को हरा-भरा रखने में समाप्त हो जाए, फिर भी नदी की गति तो हमेशा समुद्र की ओर ही होती है। नदी की अभिलाषा समुद्र से एकाकार होने की होती है। इसी से हमारे ऋषियों-मुनियों ने कहा कि नदी जिस प्रकार समुद्र से मिलती है उसी प्रकार जीवात्मा के मन में परमात्मा से मिलने की आकांक्षा रहती है। हमारे जीवन का भी उद्देश्य यही होना चाहिए। नदी किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करती। वह यह नहीं सोचती कि गाय की प्यास तो बुझाऊँ किन्तु शेर क्रुर होता है इसलिए उसे पानी पीने न दूँ। इस तरह का कोई भेदभाव वह नहीं बरतती है। वह ईश्वर की करुणा है और ईश्वर की करुणा सभी को समान रुप से मिलती है।
यह ठीक है कि नदी का गंतव्य समुद्र है लेकिन समुद्र तक जाते-जाते रास्ते में वह अनेकों के पाप धोती जाती है। ऊँचे पर्वत-शिखर से उतर कर, धरती को तृप्त करती अपना सर्वस्व लुटाती, निरंतर आगे बढ़ती वह समुद्र से मिली है। जिस दिन यह नदी हमारे भीतर प्रवाहित होगी, हमारा सारा दृष्टिकोण ही बदल जाएगा। हम लेना नहीं, देना चाहेंगे, जीना नहीं जिलाना चाहेंगे। हमें यथासंभव लोकमंगल के कार्य करते रहना चाहिए। नदी में करुणा, प्रेम, परोपकार, उदारता, शीतलता आदि गुण होते हैं। नदी इन्हीं गुणों के अपनाने के लिए, पुण्य कर्म करने के लिए प्रेरित करती है।
हम कितने ही संतप्त क्यों न हों, नदी में स्नान करते ही तरोताजा हो जाते हैं, शांति और प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। प्राचीन ग्रंथों में इस आशय के वाक्य हैं कि नदी के पानी को गंदा करना पाप है। शास्त्रकारों ने जलाशय की पवित्रता के लिए अनेक नियम बनाए थे। नदी-तट निवासियों में एक प्रकार की उदारता और प्रेम दिखाई देता है जिसका मैंने अपनी नर्मदा पदयात्रा के दौरान बार-बार अनुभव किया है। नदीं में स्नान करने से तन के साथ मन भी निर्मल होता है। नदी का पानी पीते समय उस पानी के साथ हमें ईश्वर की प्रेममय करुणा भी पीने को मिलती है। संत ज्ञानेश्वर ने कहा है कि सत्य को पानी की तरह होना चाहिए। पानी इतना कोमल है कि मनुष्य के सबसे नाजुक अंग आँख की पुतली तक को चोट नहीं पहुँचाता, वहीं दुसरी ओर अपने सतत प्रवाह से कड़े से कड़े पत्थर तक को चूर कर देता है। सत्य को भी मृदु, शीतल और आनंददायक होना चाहिए, साथ ही अन्याय का प्रतिकार करते समय प्रचंड और प्रखर होना चाहिए।
आदि शंकराचार्य ने अपने सुप्रसिद्ध नर्मदाष्टक में लिखा है- ‘गतं तदैव मे भयं त्वदंबु वीक्षितं यदा। जब मैंने तुम्हारे जल को देखा तो मेरा सारा भय जाता रहा।‘ नर्मदा की परिक्रमा करने की परम्परा है। नर्मदा को गंगा जैसा ही महत्व दिया गया। गोदावरी को दक्षिण की गंगा कहा गया। इतने विशाल देश को भावनात्मक दृष्टि से एक रखने में नदियों का महत्वपू्र्ण योगदान है। जिस युग में हवाई जहाज, रेल या आवागमन के अन्य साधन उपलब्ध नहीं थे। जब एक जगह से दूसरी जगह जाना अत्यंत कठिन कार्य था, तब इतने बड़े भू-भाग में फैले हुए मानव समूह को एकसूत्र में पिरोने को जो भगीरथी पुरुषार्थ हमारे देश में हुआ, उसमें नदियों का योगदान कम नहीं। एक बार एक ऋषि बीमार पड़े। उन्होंने सोमराज से कहा कि मुझे कोई औषधि दीजिए। सोमराज ने कहा कि पानी में सभी औषधियाँ विद्यमान हैं, अतः पानी का सेवन करो। वेद में पानी को ‘विश्वभेषज’ कहा गया है, यानी पानी में तमाम औषधियाँ हैं। इस प्रकार हमारे पूर्वजों ने नदियों की और पानी की नाना प्रकार से वंदना की है। हमारी संस्कृति नदियों द्वारा पुष्ट हुई है। वैदिक संस्कृति तो नदियों के तट पर ही पल्लवित-पुष्पित हुई है।
जिस जमीन में केवल वर्षा के जल से खेती होती है, उस जमीन को ‘देवमातृक’ और जिस जमीन पर वर्षा के अतिरिक्त नदियों के पानी से खेती होती है उसे ‘नदी मातृक’ कहा गया। पंजाब को ‘सप्तसिंधु’ कहा गया। उत्तर भारत और दक्षिण भारत को हमारे पूर्वजों ने विन्ध्य अथवा सतपुड़ा से विभाजित नहीं किया। उन्होंने कहा ‘गोदावर्याः दक्षिण तीरे’ अथवा ‘रेवायाः उत्तर तीरे’। राजा का जब राज्याभिषेक होता था, तब चार समुद्र और सात नदियों के जल से राजा का अभिषेक किया जाता था। प्रतिदिन की पूजा में भारतवासी कहता है-
गंगे! च यमुने! चैव गोदावरि! सरस्वति!
नर्मदे! सिंधु! कावेरि! जलेsस्मिन् सन्निधिं कुरु!
आदि शंकराचार्य ने अपने सुप्रसिद्ध नर्मदाष्टक में लिखा है- ‘गतं तदैव मे भयं त्वदंबु वीक्षितं यदा। जब मैंने तुम्हारे जल को देखा तो मेरा सारा भय जाता रहा।‘ नर्मदा की परिक्रमा करने की परम्परा है। नर्मदा को गंगा जैसा ही महत्व दिया गया। गोदावरी को दक्षिण की गंगा कहा गया। इतने विशाल देश को भावनात्मक दृष्टि से एक रखने में नदियों का महत्वपू्र्ण योगदान है। जिस युग में हवाई जहाज, रेल या आवागमन के अन्य साधन उपलब्ध नहीं थे। जब एक जगह से दूसरी जगह जाना अत्यंत कठिन कार्य था, तब इतने बड़े भू-भाग में फैले हुए मानव समूह को एकसूत्र में पिरोने को जो भगीरथी पुरुषार्थ हमारे देश में हुआ, उसमें नदियों का योगदान कम नहीं। भारत की एकता को नदियों ने सींचा है और पाला-पोसा है।
ज्यों-ज्यों मनुष्य प्रकृति को बदलना सीखता गया, त्यों- त्यों संस्कृति की ओर बढ़ता गया, प्रकृति को हम आज भी बदल रहे हैं और अपनी सांस्कृतिक धरोहर में वृद्धि करते जा रहे हैं। किन्तु, संस्कृति का आरंभ कब हुआ?
आज से कोई 15000 वर्ष पूर्व तक मनुष्य प्रायः वनमानुष ही था। वह गुफाओं में रहता था और कंद-मूल खाकर या जानवरों का शिकार करके अपना पेट भरता था। शिकार के पीछे भागता फिरता। शिकार ने मिलता तो कंद-मूल से पेट भरता। कुछ न मिलता तो भूखा रहता। इस खतरनाक और अनिश्चय की जिंदगी से वह ऊब गया। अंततः उसने यह खोज कर ली कि सभी पेड़-पौधे बीज से उगते हैं और जाने-अनजाने वह उन्हें उगाने के मार्ग पर बढ़ता रहा। इस प्रकार कृषि की उत्पत्ति हुई। यह एकाएक नहीं हुई। धीरे-धीरे, कदम दर कदम, अनेक पीढ़ियों के प्रयत्नों से कृषि की उत्पत्ति हुई।
मानव ने इस संसार को अपने रहने लायक बनाया है, यह सभ्यता है। मानव ने इस संसार को दूसरों के रहने लायक भी बनाया, यह संस्कृति है। हर सुसभ्य आदमी सुसंस्कृत ही होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। अच्छी पोशाक पहनने वाला साफ-सुथरा आदमी जहरीला साँप हो सकता है। आदिवासी पूरी तरह से सभ्य नहीं कहे जा सकते, लेकिन प्रेम, दया, सच्चाई और सदाचार उनमें कम नहीं होता। एक आदिवासी ने किसी शहराती से ठीक ही कहा था- अपनी सभ्यता तो हमें दो लेकिन हमारी संस्कृति पर दया करो। हमें सुसंस्कृत बने रहने के लिए बीच-बीच में आदिवासियों के पास जाते रहना चाहिए। किन्तु खेती-बाड़ी के लिए पानी चाहिए और पानी होता है नदियों में। इसलिए आदमी गुफाओं से निकलकर नदियों के किनारे आ बसा। अब वह शिकारी से किसान बन गया। आहार की समस्या हल हो गई। अब वह नदियों के किनारे-किनारे चलते हुए देश के बड़े भूभाग पर फैलने लगा। नदी के निकट रहने का एक लाभ और था। खाने के लिए मछली भी थी। मछली बारहों माह मिलती थी और उसके भंडार असीम थे। अब वह केवल उन्हीं स्थानों तक सीमित नहीं रहा, जहाँ उसे शिकार मिलता था। नदियों के कारण मनुष्य के निवास स्थानों को व्यापक विस्तार मिला। नदियों के कारण वह डाँड़वाली नौकाएं और पालदार नावें बनाना भी सीख गया। खेती-किसानी का काम साल भर तो चलता नहीं। फसल काट लेने के बाद उसके पास काफी समय बचा रहता। इसका उपयोग वह गाने-बजाने, चित्र बनाने कहानियाँ गढ़ने या गीत लिखने में करने लगा। लीजिए, संस्कृति का शुभारंभ हो गया।
संक्षेप में, एग्रिकल्चर आया तो उसके साथ कल्चर आया। दोनों में cult धातु है जिसका अर्थ है जोतना। जिस प्रकार किसान हल जोतता है, उसी प्रकार मनीषी अपना हृदय जोतता है और सृजन की फसल उगाता है। यही कारण है कि संसार की सभी प्रमुख संस्कृतियों का जन्म नदियों की कोख से हुआ है।
मनुष्य प्रकृति से संस्कृति की ओर बढ़ा। हम लोगों की प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं- रोटी, नींद और अपना वंश जारी रखना। ये आवश्यकताएँ पशुओं की भी हैं। किन्तु मनुष्य जब इन अनिवार्य आवश्यकताएँ पशुओं की भी हैं। किन्तु मनुष्य जब इन अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, तो उसमें कई विशिष्टताएँ होती हैं जैसे, भूख तो भूख है। लेकिन पत्तल या दोनों में खाना उस खाने से बिल्कुल अलग है जो नाखूनों और दाँतों से खाया जाता है। उसी प्रकार छीनकर खाना उस खाने से भिन्न है जो मिल-बांटकर खाया जाता है छीनकर खाना प्रकृति है, मिल-बाँटकर खाना संस्कृति है।
संस्कृति सभ्यता की अपेक्षा महीन चीज है। सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है, संस्कृति वह गुण है जो हमारे भीतर है। मानव ने इस संसार को अपने रहने लायक बनाया है, यह सभ्यता है। मानव ने इस संसार को दूसरों के रहने लायक भी बनाया, यह संस्कृति है। हर सुसभ्य आदमी सुसंस्कृत ही होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। अच्छी पोशाक पहनने वाला साफ-सुथरा आदमी जहरीला साँप हो सकता है। आदिवासी पूरी तरह से सभ्य नहीं कहे जा सकते, लेकिन प्रेम, दया, सच्चाई और सदाचार उनमें कम नहीं होता। एक आदिवासी ने किसी शहराती से ठीक ही कहा था- अपनी सभ्यता तो हमें दो लेकिन हमारी संस्कृति पर दया करो। हमें सुसंस्कृत बने रहने के लिए बीच-बीच में आदिवासियों के पास जाते रहना चाहिए। जब मनुष्य के पास स्वयं के अतिरिक्त पशुओं को खिलाने लायक आहार हो गया, तो उसने पशुपालन भी शुरू कर दिया। वह कृषक पहले बना, पशुपालक बाद में।
हमारे देश में जो स्थान गंगा का है, मिस्त्र में वही स्थान नील नदी का है। रेगिस्तान में से बहती नील नदी के तट पर ही मिस्त्र की संस्कृति और सभ्यता विकसित हुई। जब दजला-फरात अथवा हुवांग के किनारों पर सभ्यता की मात्र हलचल थी, तब नील की सभ्यता अपने सर्वोच्च विकास को पहुँच चुकी थी। मिस्त्र के विनिमय व्यापार की वृद्धि में नील नदी बड़ी सहायक सिद्ध हुई। उसमें नावें बारहों माह चल सकती थीं और उनसे अनाज, लकड़ी तथा अन्य चीजें दूर-दूर तक पहुँचाई जा सकती थीं। नील के तट पर नगर स्थापित हुए। नील के ही कारण जो मिस्त्र पहले मनुष्य के रहने के लिए बहुत कम उपयुक्त था, वह घनी आबादी वाला कृषि-प्रधान देश बन गया।
नहरें खोदने और खेतों को टुकड़ों में बाँटने के लिए भूमि और कोणों को मापना पड़ता था। इस काम के लिए मिस्त्रवासियों ने रेखागणित का विकास किया ताकि उपजाऊ खेतों की सीमा निर्धारित की जा सके और नील के अनमोल पानी को संजोकर रखने के लिए तथा खेतों तक पहुँचाने के लिए नहरें बनाई जा सकें। कृषि के लिए मौसम विज्ञान की जरुरत महसूस की गई जो यह बता सके कि कब वर्षा होगी और कब नदी में बाढ़ आएगी। इसी में पंचांग का जन्म हुआ। मिस्त्रवासियों ने 365 दिन के कैलेण्डर का आविष्कार किया ताकि नील की बाढ़ के महीनों का पूर्व अनुमान लगाया जा सके। बाढ़ के पहले आकाश में नक्षत्र हर साल एक निश्चित स्थिति में होते हैं। इन पर्यवेक्षणों से खगोल विज्ञान की नींव पड़ी। मिस्त्रवासियों ने नक्षत्रों से युक्त आकाश का मानचित्र भी बना लिया। ईसा के जन्म के 3000 वर्ष पूर्व यहाँ के लोगों ने कागज बना लिया था और चित्रलिपि भी विकसित कर ली थी। अंकगणित और ज्योतिष के आधारभूत नियम खोज निकाले थे। आकास छूते पिरामिडों में रेखागणित अपनी पूरी शुद्धता के साथ प्रकट हुआ है। मिस्त्रवासियों ने खेती-बारी को एक विज्ञान बना डाला था।
पुनः भारत की ओर लौटें। हमारे देश में अत्यंत समृद्ध सिंधु घाटी सभ्यता विकसित हो चुकी थी कोई पाँच हजार वर्ष पूर्व। पहली सहस्त्राब्दी के मध्य में भारत में नगरों का तेजी से विकास होने लगा था। सबसे बड़ा नगर पाटलिपुत्र था जो गंगा तट पर था। वाराणसी गंगा तट पर, प्रयाग गंगा-यमुना के संगम पर, भृगुकच्छ नर्मदा-तट पर और उज्जयिनी क्षिप्रा तट पर स्थित थे। आज भी संसार के बड़े शहर नदियों के तटों पर ही स्थित हैं। ऐसे समाज को जिसमें कृषि का विकास हो चुका हो, नगर बन गए हों और लिपि विकसित हो चुकी हो, इतिहासकार सभ्यता कहते हैं। पहली सभ्यताएँ उष्ण कटिबंध में स्थापित हुईं। उष्ण कटिबंध में जमीन जोतना अपेक्षाकृत आसान होता है- पत्थर और लकड़ी के सादे औजारों से ही खेत जोते जा सकते हैं, धातु के औजार होना जरूरी नहीं।
मानव जाति के जीवन के प्रथम चरण में, जिसे हम प्राचीन युग कहते हैं, कितना कठिन पथ तय किया। अपने अथक परिश्रम से आदिम मानव न केवल प्रकृति के साथ संघर्ष में टिका रह सका, बल्कि विकास करता गया और सभ्यता और संस्कृति की नींव भी डाल सका। इस कार्य में उसे नदियों से भारी सहायता मिली। नदियों के कारण कृषि संभव हो सकी। कृषि के कारण लोगों के लिए अपना पर्याप्त समय ज्ञान-विज्ञान और कलाओं के विकास को दे पाना संभव हुआ। नदियाँ सभ्यता और संस्कृति का पालना बनीं।
जब समुद्र से आता है तब बादल
और जाता है तो नदी कहलाता है।
बादल उड़ती नदी है
नदी बहता बादल है!
बादल से वर्षा होती है
वर्षा इस धरती की शालभंजिका है।
उसके पदाघात से धरती लहलहा उठती है।
और जब वर्षा नहीं होती
तब यही काम नदी करती है।
वर्षा और नदी- धरती की दो शालभंजिकाएँ।
विचार और कर्म (कल्पना और यथार्थ)
आत्मा की शालभंजिकाएँ हैं।
इनके पदाघात से
आत्मा पल्लवित-पुष्पित होती है!
बादल धरा पर उतर कर सार्थक होता है
विचार कर्म में परिणत होकर कृतार्थ होता है।
अजीब है यह पानी। इसका अपना कोई रंग नहीं, पर इन्द्रधनुष के समस्त रंगों को धारण कर सकता है। इसका अपना कोई आकार नहीं, पर असंख्य आकार ग्रहण कर सकता है। इसकी कोई आवाज नहीं, पर वाचाल हो उठता है तो इसका भयंकर निनाद दूर-दूर तक गूँज उठता है। गतिहीन है, पर गतिमान होने पर तीव्र वेग धारण करता है और उनमत्त शक्ति और अपार ऊर्जा का स्त्रोत बन जाता है। उसके शांत रुप को देखकर हम ध्यानावस्थित हो जाते है, तो उग्र रुप को देखकर भयाक्रांत। जीवनदायिनी वर्षा के रुप में वरदान बनकर आता है, तो विनाशकारी बाढ़ का रूप धारण कर जल-ताडंव भी रचता है। अजीब है यह पानी!
मीठे पानी का श्रेष्ठ और सुदीर्घ स्त्रोत है नदी। हजारों वर्षों से मनुष्य उसकी ओर खिंचता चला आया है। केवल इसलिए नहीं कि वह हमारी और हमारे खेतों की प्यास बुझाती है, बल्कि इसलिए भी कि वह हमारी आत्मा को भी तृप्त करती है। उसके तट पर हमारी आत्मा पल्लवित-पुष्पित होती है-संस्कृति का जन्म होता है। संसार की सभी प्रमुख संस्कृतियों का जन्म नदियों की कोख से हुआ है। भारतीय संस्कृति गंगा की देन है। कभी गंगा-यमुना का मैदान ही आर्यावर्त था।
वेद संभवतः संसार का प्राचीनतम ग्रंथ है। चारों वेदों में भी सबसे प्राचीन ऋग्वेद है। ऋग्वेद में एक सूक्त है जिसका नाम है, ‘विश्वामित्र नदी संवाद।’ विश्वामित्र अपने साथियों के साथ नदी को पार करना चाहते हैं, लेकिन नदी में बाढ़ आई हुई है। तब विश्वामित्र नदी से प्रार्थना करते हैं, ‘हे माँ! तू मेरे लिए रुक जा और हमें जाने के लिए रास्ता दो।’ तब नदी कहती है, ‘जिस तरह माँ अपने बच्चे के लिए झुकती है, अथवा कन्या अपने पिता की सेवा के लिए झुकती है, उसी प्रकार मैं तुम्हारे लिए झुकती हूँ।’ नदी उतर जाती है, और विश्वामित्र और उनके साथी नदी पार कर लेते हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि विश्वामित्र नदी से उसी प्रकार बात करते हैं जैसे हम किसी व्यक्ति से बात करते हैं और नदी उसका जवाब भी देती है।
बौद्ध ग्रंथ ‘सुत्तनिपात’ में धनिय और बुद्ध का मेघ से बड़ा ही रोचक वार्तालाप है-
चाहो तो खूब बरसो
धनिय- भात मेरा पक चुका, दूध दिया, कुटी छा ली,
आग सुलगा ली। अब हे देव!चाहो तो खूब बरसो।
बुद्ध- मैं किसी का चाकर नहीं, स्वच्छंद सारे संसार में
विचरण करता हूँ। मुझे चाकरी से मतलब नहीं।
अब हे देव! चाहो तो खूब बरसो।
धनिय- मेरे तरुण बैल हैx और बछड़े हैं। गाभिन गाएँ हैं
और कलोर भी हैं और सबके बीच वृषभराज भी हैं।
अब हे देव! चाहो तो खूब बरसो।
बुद्ध- मेरे न तरुण बैल हैं, न बछड़े, न गाभिन गाएँ हैं
और न कलोर और सबके बीच वृषभराज भी नहीं है।
अब हे देव! चाहो तो खूब बरसो!
(बुद्धवचन)
तो नदियों और मेघों के साथ प्राचीन काल से ही हमारा ऐसा आत्मीय संबंध रहा है। नदियों को हम परम पवित्र मानते है। नदियों के तटों पर ऋषियों के तपोवन होते थे। हमारे अधिकांश तीर्थ या तो पहाड़ों पर हैं या नदियों के किनारे। पर्व-त्यौहार पर नदी-स्नान का विशेष महत्व माना गया है। ग्रहण के अवसर पर तो करोड़ों लोग नदियों में स्नान करते हैं। हमारे देश में नदियों के प्रति विलक्षण श्रद्धा रही है। यह कोई अंधश्रद्धा नहीं, लोकहृदय में प्रतिष्ठित हो चुकी गहन आस्था है। हम तर्कशील भर हों तो नदियां बहता हुआ पानी भर हैं, किन्तु हम केवल तर्कशील भर होने से कहीं अधिक हैं। हम मानव हैं और हम में आस्था है, श्रद्धा है, प्रेम है। इसलिए हमने नदियों को केवल बहते हुए जल के रुप में नहीं देखा। उनमें जीवनदायिनी माताओं का प्रतिबिम्ब भी निहारा। नदियों को ‘लोकमातरः’ लोकमाता कहा। आप माता हैं। वत्सल माता जिस प्रकार बच्चे को स्तनपान कराती हैं। उसी प्रकार आप हमें अपने शिवतम रस का पान कराएँ। शिवतम यानी अत्यंत शिव, कल्याणकारी। इतनी महिमा बखानी गई है नदियों की। पितामह भीष्म को गंगामैया का पुत्र कहा और नर्मदा की तो परिक्रमा करने की परम्परा चलाई। यमुना के बिना कृषि की कल्पना नहीं की जा सकती।
प्रायः ऐसी ही आस्था प्राचीन मिस्त्रवासियों की नील नदी के प्रति रही। मिस्त्र के निवासी नील की अभ्यर्थना करते थे कि वह उनके खेतों से गुजरे और जब नील का पानी उनके खेतों में फैल जाता था तो कहते थे कि नील ने उनकी प्रार्थना सुन ली है और उनके प्राण बचा लिए हैं। उनकी एक प्रार्थना इस प्रकार है-
जय हो, नील तुम्हारी
तू बहती जीवन देती
तू रुकती, जीवन-गति रुक जाती।
जब तु क्रुद्ध, त्राहि-त्राहि मच जाए।
राजा-रंक सभी लुट जाएँ।
तू उठती, धरती खिल पड़ती
जीवन-लहर उमंगें भरतीं।
तू अन्नदायी, धन-धान्यमयी हे
सौंदर्य सभी तेरी रचना।
हर्षविभोर बच्चे हम तेरे
तव महिमा गाएँ, राजा तू जैसे।
वेद के एक मंत्र में कहा गया है कि लोगों के दिलों में रहने वाले सत्य और अनृत की परीक्षा लेने वाला भगवान पानी में रहता है। हाथ में जल लेकर सौगंध खाने की परम्परा है। इसका अर्थ है कि अंजुलि में जल लेने के बाद मनुष्य झूठ बोल ही नहीं सकता। मरते हुए मनुष्य के मुंह में गंगाजल देने की परम्परा है। दाह-संस्कार के बाद जो अस्थि और भस्म शेष रह जाते हैं उन्हें पवित्र नदियों में प्रवाहित करते हैं। इतना ही नहीं, मरणोपरान्त भी हमें वैतरणी पार करनी होती है। संक्षेप में जीवन में, मरण में और मरणोपरान्त भी आर्यों का जीवन नदियों से जुड़ा हुआ है। भारतीय संस्कृति ने नदियों में ईश्वर की प्रवहमान करुणा के, प्रेमधारा के दर्शन किए।
यह ठीक है कि नदी का गंतव्य समुद्र है लेकिन समुद्र तक जाते-जाते रास्ते में वह अनेकों के पाप धोती जाती है। ऊँचे पर्वत-शिखर से उतर कर, धरती को तृप्त करती अपना सर्वस्व लुटाती, निरंतर आगे बढ़ती वह समुद्र से मिली है। जिस दिन यह नदी हमारे भीतर प्रवाहित होगी, हमारा सारा दृष्टिकोण ही बदल जाएगा। हम लेना नहीं, देना चाहेंगे, जीना नहीं जिलाना चाहेंगे। हमें यथासंभव लोकमंगल के कार्य करते रहना चाहिए। नदी में करुणा, प्रेम, परोपकार, उदारता, शीतलता आदि गुण होते हैं। नदी इन्हीं गुणों के अपनाने के लिए, पुण्य कर्म करने के लिए प्रेरित करती है।नदी लगातार आगे बढ़ती रहती है। नदी आगे बढ़ती रहती है, पीछे नया और नया पानी आता रहता है। इसका अर्थ यह है कि देते रहो, लुटाते रहो। देते रहोगे तो तुम्हें मिलता रहेगा। तम्हारा भंडारा खाली नहीं होगा। पानी निम्नगतिक है, हमेशा नीचे की ओर बहता है। वह विनम्र है और गढ्डों को भरता चलता है। उसी प्रकार हमें भी गरीबों की ओर बहना चाहिए, उनकी सहायता करनी चाहिए। नदी कहीं से भी क्यों न निकली हो, उसकी गति हमेशा समुद्र तक न पहुँच पाए, बीच रास्ते में खेतों की प्यास बुझाने अथवा वृक्षों को हरा-भरा रखने में समाप्त हो जाए, फिर भी नदी की गति तो हमेशा समुद्र की ओर ही होती है। नदी की अभिलाषा समुद्र से एकाकार होने की होती है। इसी से हमारे ऋषियों-मुनियों ने कहा कि नदी जिस प्रकार समुद्र से मिलती है उसी प्रकार जीवात्मा के मन में परमात्मा से मिलने की आकांक्षा रहती है। हमारे जीवन का भी उद्देश्य यही होना चाहिए। नदी किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करती। वह यह नहीं सोचती कि गाय की प्यास तो बुझाऊँ किन्तु शेर क्रुर होता है इसलिए उसे पानी पीने न दूँ। इस तरह का कोई भेदभाव वह नहीं बरतती है। वह ईश्वर की करुणा है और ईश्वर की करुणा सभी को समान रुप से मिलती है।
यह ठीक है कि नदी का गंतव्य समुद्र है लेकिन समुद्र तक जाते-जाते रास्ते में वह अनेकों के पाप धोती जाती है। ऊँचे पर्वत-शिखर से उतर कर, धरती को तृप्त करती अपना सर्वस्व लुटाती, निरंतर आगे बढ़ती वह समुद्र से मिली है। जिस दिन यह नदी हमारे भीतर प्रवाहित होगी, हमारा सारा दृष्टिकोण ही बदल जाएगा। हम लेना नहीं, देना चाहेंगे, जीना नहीं जिलाना चाहेंगे। हमें यथासंभव लोकमंगल के कार्य करते रहना चाहिए। नदी में करुणा, प्रेम, परोपकार, उदारता, शीतलता आदि गुण होते हैं। नदी इन्हीं गुणों के अपनाने के लिए, पुण्य कर्म करने के लिए प्रेरित करती है।
हम कितने ही संतप्त क्यों न हों, नदी में स्नान करते ही तरोताजा हो जाते हैं, शांति और प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। प्राचीन ग्रंथों में इस आशय के वाक्य हैं कि नदी के पानी को गंदा करना पाप है। शास्त्रकारों ने जलाशय की पवित्रता के लिए अनेक नियम बनाए थे। नदी-तट निवासियों में एक प्रकार की उदारता और प्रेम दिखाई देता है जिसका मैंने अपनी नर्मदा पदयात्रा के दौरान बार-बार अनुभव किया है। नदीं में स्नान करने से तन के साथ मन भी निर्मल होता है। नदी का पानी पीते समय उस पानी के साथ हमें ईश्वर की प्रेममय करुणा भी पीने को मिलती है। संत ज्ञानेश्वर ने कहा है कि सत्य को पानी की तरह होना चाहिए। पानी इतना कोमल है कि मनुष्य के सबसे नाजुक अंग आँख की पुतली तक को चोट नहीं पहुँचाता, वहीं दुसरी ओर अपने सतत प्रवाह से कड़े से कड़े पत्थर तक को चूर कर देता है। सत्य को भी मृदु, शीतल और आनंददायक होना चाहिए, साथ ही अन्याय का प्रतिकार करते समय प्रचंड और प्रखर होना चाहिए।
आदि शंकराचार्य ने अपने सुप्रसिद्ध नर्मदाष्टक में लिखा है- ‘गतं तदैव मे भयं त्वदंबु वीक्षितं यदा। जब मैंने तुम्हारे जल को देखा तो मेरा सारा भय जाता रहा।‘ नर्मदा की परिक्रमा करने की परम्परा है। नर्मदा को गंगा जैसा ही महत्व दिया गया। गोदावरी को दक्षिण की गंगा कहा गया। इतने विशाल देश को भावनात्मक दृष्टि से एक रखने में नदियों का महत्वपू्र्ण योगदान है। जिस युग में हवाई जहाज, रेल या आवागमन के अन्य साधन उपलब्ध नहीं थे। जब एक जगह से दूसरी जगह जाना अत्यंत कठिन कार्य था, तब इतने बड़े भू-भाग में फैले हुए मानव समूह को एकसूत्र में पिरोने को जो भगीरथी पुरुषार्थ हमारे देश में हुआ, उसमें नदियों का योगदान कम नहीं। एक बार एक ऋषि बीमार पड़े। उन्होंने सोमराज से कहा कि मुझे कोई औषधि दीजिए। सोमराज ने कहा कि पानी में सभी औषधियाँ विद्यमान हैं, अतः पानी का सेवन करो। वेद में पानी को ‘विश्वभेषज’ कहा गया है, यानी पानी में तमाम औषधियाँ हैं। इस प्रकार हमारे पूर्वजों ने नदियों की और पानी की नाना प्रकार से वंदना की है। हमारी संस्कृति नदियों द्वारा पुष्ट हुई है। वैदिक संस्कृति तो नदियों के तट पर ही पल्लवित-पुष्पित हुई है।
जिस जमीन में केवल वर्षा के जल से खेती होती है, उस जमीन को ‘देवमातृक’ और जिस जमीन पर वर्षा के अतिरिक्त नदियों के पानी से खेती होती है उसे ‘नदी मातृक’ कहा गया। पंजाब को ‘सप्तसिंधु’ कहा गया। उत्तर भारत और दक्षिण भारत को हमारे पूर्वजों ने विन्ध्य अथवा सतपुड़ा से विभाजित नहीं किया। उन्होंने कहा ‘गोदावर्याः दक्षिण तीरे’ अथवा ‘रेवायाः उत्तर तीरे’। राजा का जब राज्याभिषेक होता था, तब चार समुद्र और सात नदियों के जल से राजा का अभिषेक किया जाता था। प्रतिदिन की पूजा में भारतवासी कहता है-
गंगे! च यमुने! चैव गोदावरि! सरस्वति!
नर्मदे! सिंधु! कावेरि! जलेsस्मिन् सन्निधिं कुरु!
आदि शंकराचार्य ने अपने सुप्रसिद्ध नर्मदाष्टक में लिखा है- ‘गतं तदैव मे भयं त्वदंबु वीक्षितं यदा। जब मैंने तुम्हारे जल को देखा तो मेरा सारा भय जाता रहा।‘ नर्मदा की परिक्रमा करने की परम्परा है। नर्मदा को गंगा जैसा ही महत्व दिया गया। गोदावरी को दक्षिण की गंगा कहा गया। इतने विशाल देश को भावनात्मक दृष्टि से एक रखने में नदियों का महत्वपू्र्ण योगदान है। जिस युग में हवाई जहाज, रेल या आवागमन के अन्य साधन उपलब्ध नहीं थे। जब एक जगह से दूसरी जगह जाना अत्यंत कठिन कार्य था, तब इतने बड़े भू-भाग में फैले हुए मानव समूह को एकसूत्र में पिरोने को जो भगीरथी पुरुषार्थ हमारे देश में हुआ, उसमें नदियों का योगदान कम नहीं। भारत की एकता को नदियों ने सींचा है और पाला-पोसा है।
ज्यों-ज्यों मनुष्य प्रकृति को बदलना सीखता गया, त्यों- त्यों संस्कृति की ओर बढ़ता गया, प्रकृति को हम आज भी बदल रहे हैं और अपनी सांस्कृतिक धरोहर में वृद्धि करते जा रहे हैं। किन्तु, संस्कृति का आरंभ कब हुआ?
आज से कोई 15000 वर्ष पूर्व तक मनुष्य प्रायः वनमानुष ही था। वह गुफाओं में रहता था और कंद-मूल खाकर या जानवरों का शिकार करके अपना पेट भरता था। शिकार के पीछे भागता फिरता। शिकार ने मिलता तो कंद-मूल से पेट भरता। कुछ न मिलता तो भूखा रहता। इस खतरनाक और अनिश्चय की जिंदगी से वह ऊब गया। अंततः उसने यह खोज कर ली कि सभी पेड़-पौधे बीज से उगते हैं और जाने-अनजाने वह उन्हें उगाने के मार्ग पर बढ़ता रहा। इस प्रकार कृषि की उत्पत्ति हुई। यह एकाएक नहीं हुई। धीरे-धीरे, कदम दर कदम, अनेक पीढ़ियों के प्रयत्नों से कृषि की उत्पत्ति हुई।
मानव ने इस संसार को अपने रहने लायक बनाया है, यह सभ्यता है। मानव ने इस संसार को दूसरों के रहने लायक भी बनाया, यह संस्कृति है। हर सुसभ्य आदमी सुसंस्कृत ही होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। अच्छी पोशाक पहनने वाला साफ-सुथरा आदमी जहरीला साँप हो सकता है। आदिवासी पूरी तरह से सभ्य नहीं कहे जा सकते, लेकिन प्रेम, दया, सच्चाई और सदाचार उनमें कम नहीं होता। एक आदिवासी ने किसी शहराती से ठीक ही कहा था- अपनी सभ्यता तो हमें दो लेकिन हमारी संस्कृति पर दया करो। हमें सुसंस्कृत बने रहने के लिए बीच-बीच में आदिवासियों के पास जाते रहना चाहिए। किन्तु खेती-बाड़ी के लिए पानी चाहिए और पानी होता है नदियों में। इसलिए आदमी गुफाओं से निकलकर नदियों के किनारे आ बसा। अब वह शिकारी से किसान बन गया। आहार की समस्या हल हो गई। अब वह नदियों के किनारे-किनारे चलते हुए देश के बड़े भूभाग पर फैलने लगा। नदी के निकट रहने का एक लाभ और था। खाने के लिए मछली भी थी। मछली बारहों माह मिलती थी और उसके भंडार असीम थे। अब वह केवल उन्हीं स्थानों तक सीमित नहीं रहा, जहाँ उसे शिकार मिलता था। नदियों के कारण मनुष्य के निवास स्थानों को व्यापक विस्तार मिला। नदियों के कारण वह डाँड़वाली नौकाएं और पालदार नावें बनाना भी सीख गया। खेती-किसानी का काम साल भर तो चलता नहीं। फसल काट लेने के बाद उसके पास काफी समय बचा रहता। इसका उपयोग वह गाने-बजाने, चित्र बनाने कहानियाँ गढ़ने या गीत लिखने में करने लगा। लीजिए, संस्कृति का शुभारंभ हो गया।
संक्षेप में, एग्रिकल्चर आया तो उसके साथ कल्चर आया। दोनों में cult धातु है जिसका अर्थ है जोतना। जिस प्रकार किसान हल जोतता है, उसी प्रकार मनीषी अपना हृदय जोतता है और सृजन की फसल उगाता है। यही कारण है कि संसार की सभी प्रमुख संस्कृतियों का जन्म नदियों की कोख से हुआ है।
मनुष्य प्रकृति से संस्कृति की ओर बढ़ा। हम लोगों की प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं- रोटी, नींद और अपना वंश जारी रखना। ये आवश्यकताएँ पशुओं की भी हैं। किन्तु मनुष्य जब इन अनिवार्य आवश्यकताएँ पशुओं की भी हैं। किन्तु मनुष्य जब इन अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, तो उसमें कई विशिष्टताएँ होती हैं जैसे, भूख तो भूख है। लेकिन पत्तल या दोनों में खाना उस खाने से बिल्कुल अलग है जो नाखूनों और दाँतों से खाया जाता है। उसी प्रकार छीनकर खाना उस खाने से भिन्न है जो मिल-बांटकर खाया जाता है छीनकर खाना प्रकृति है, मिल-बाँटकर खाना संस्कृति है।
संस्कृति सभ्यता की अपेक्षा महीन चीज है। सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है, संस्कृति वह गुण है जो हमारे भीतर है। मानव ने इस संसार को अपने रहने लायक बनाया है, यह सभ्यता है। मानव ने इस संसार को दूसरों के रहने लायक भी बनाया, यह संस्कृति है। हर सुसभ्य आदमी सुसंस्कृत ही होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। अच्छी पोशाक पहनने वाला साफ-सुथरा आदमी जहरीला साँप हो सकता है। आदिवासी पूरी तरह से सभ्य नहीं कहे जा सकते, लेकिन प्रेम, दया, सच्चाई और सदाचार उनमें कम नहीं होता। एक आदिवासी ने किसी शहराती से ठीक ही कहा था- अपनी सभ्यता तो हमें दो लेकिन हमारी संस्कृति पर दया करो। हमें सुसंस्कृत बने रहने के लिए बीच-बीच में आदिवासियों के पास जाते रहना चाहिए। जब मनुष्य के पास स्वयं के अतिरिक्त पशुओं को खिलाने लायक आहार हो गया, तो उसने पशुपालन भी शुरू कर दिया। वह कृषक पहले बना, पशुपालक बाद में।
हमारे देश में जो स्थान गंगा का है, मिस्त्र में वही स्थान नील नदी का है। रेगिस्तान में से बहती नील नदी के तट पर ही मिस्त्र की संस्कृति और सभ्यता विकसित हुई। जब दजला-फरात अथवा हुवांग के किनारों पर सभ्यता की मात्र हलचल थी, तब नील की सभ्यता अपने सर्वोच्च विकास को पहुँच चुकी थी। मिस्त्र के विनिमय व्यापार की वृद्धि में नील नदी बड़ी सहायक सिद्ध हुई। उसमें नावें बारहों माह चल सकती थीं और उनसे अनाज, लकड़ी तथा अन्य चीजें दूर-दूर तक पहुँचाई जा सकती थीं। नील के तट पर नगर स्थापित हुए। नील के ही कारण जो मिस्त्र पहले मनुष्य के रहने के लिए बहुत कम उपयुक्त था, वह घनी आबादी वाला कृषि-प्रधान देश बन गया।
नहरें खोदने और खेतों को टुकड़ों में बाँटने के लिए भूमि और कोणों को मापना पड़ता था। इस काम के लिए मिस्त्रवासियों ने रेखागणित का विकास किया ताकि उपजाऊ खेतों की सीमा निर्धारित की जा सके और नील के अनमोल पानी को संजोकर रखने के लिए तथा खेतों तक पहुँचाने के लिए नहरें बनाई जा सकें। कृषि के लिए मौसम विज्ञान की जरुरत महसूस की गई जो यह बता सके कि कब वर्षा होगी और कब नदी में बाढ़ आएगी। इसी में पंचांग का जन्म हुआ। मिस्त्रवासियों ने 365 दिन के कैलेण्डर का आविष्कार किया ताकि नील की बाढ़ के महीनों का पूर्व अनुमान लगाया जा सके। बाढ़ के पहले आकाश में नक्षत्र हर साल एक निश्चित स्थिति में होते हैं। इन पर्यवेक्षणों से खगोल विज्ञान की नींव पड़ी। मिस्त्रवासियों ने नक्षत्रों से युक्त आकाश का मानचित्र भी बना लिया। ईसा के जन्म के 3000 वर्ष पूर्व यहाँ के लोगों ने कागज बना लिया था और चित्रलिपि भी विकसित कर ली थी। अंकगणित और ज्योतिष के आधारभूत नियम खोज निकाले थे। आकास छूते पिरामिडों में रेखागणित अपनी पूरी शुद्धता के साथ प्रकट हुआ है। मिस्त्रवासियों ने खेती-बारी को एक विज्ञान बना डाला था।
पुनः भारत की ओर लौटें। हमारे देश में अत्यंत समृद्ध सिंधु घाटी सभ्यता विकसित हो चुकी थी कोई पाँच हजार वर्ष पूर्व। पहली सहस्त्राब्दी के मध्य में भारत में नगरों का तेजी से विकास होने लगा था। सबसे बड़ा नगर पाटलिपुत्र था जो गंगा तट पर था। वाराणसी गंगा तट पर, प्रयाग गंगा-यमुना के संगम पर, भृगुकच्छ नर्मदा-तट पर और उज्जयिनी क्षिप्रा तट पर स्थित थे। आज भी संसार के बड़े शहर नदियों के तटों पर ही स्थित हैं। ऐसे समाज को जिसमें कृषि का विकास हो चुका हो, नगर बन गए हों और लिपि विकसित हो चुकी हो, इतिहासकार सभ्यता कहते हैं। पहली सभ्यताएँ उष्ण कटिबंध में स्थापित हुईं। उष्ण कटिबंध में जमीन जोतना अपेक्षाकृत आसान होता है- पत्थर और लकड़ी के सादे औजारों से ही खेत जोते जा सकते हैं, धातु के औजार होना जरूरी नहीं।
मानव जाति के जीवन के प्रथम चरण में, जिसे हम प्राचीन युग कहते हैं, कितना कठिन पथ तय किया। अपने अथक परिश्रम से आदिम मानव न केवल प्रकृति के साथ संघर्ष में टिका रह सका, बल्कि विकास करता गया और सभ्यता और संस्कृति की नींव भी डाल सका। इस कार्य में उसे नदियों से भारी सहायता मिली। नदियों के कारण कृषि संभव हो सकी। कृषि के कारण लोगों के लिए अपना पर्याप्त समय ज्ञान-विज्ञान और कलाओं के विकास को दे पाना संभव हुआ। नदियाँ सभ्यता और संस्कृति का पालना बनीं।