षोडश शृंगार

Submitted by Hindi on Sat, 08/27/2011 - 10:23
षोडश शृंगार भारतीय साहित्य में सोलह शृंगारी की यह प्राचीन परंपरा रही हैं :

अंगशुची, मंजन, वसन, माँग, महावर, केश।
तिलक भाल, तिल चिबुक में, भूषण मेंहदी वेश।।
मिस्सी काजल अरगजा, वीरी और सुगंध।


अर्थात्‌ अंगों में उबटन, स्नान, स्वच्छ वस्त्रधारण माँग भरना, महावर लगाना, बाल सँवारना, तिलक लगाना, ठोढी पर तिल बनाना, आभूषण धारण करना, मेंहदी रचाना, दाँतों में मिस्सी, आँखों में काजल लगाना, आदि सुगांधित द्रव्यों का प्रयोग, पान खाना, माला पहनना, लीला कमल धारण करना।

इस देश में आदि काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों प्रसाधन करते आए हैं और इस कला का यहाँ इतना व्यापक प्रचार था कि प्रसाधक और प्रसाधिकांओं का एक अलग वर्ग ही बन गया था। इनमें से प्राय: सभी शृंगारों के दृश्य हमें रेलिंग या द्वारस्तंभों पर अंकित (उभारे हुए) मिलते हैं।

स्नान के पहले उबटन का बहुत प्रचार था। इसका दूसरा नाम अंगराग है। अनेक प्रकार के चंदन, कालीयक, अगरु और सुगंध मिलाकर इसे बनाते थे। जाड़े और गर्मी में प्रयोग के हेतु यह अलग अलग प्रकार का बनाया जाता था। सुंगधि और शीतलता के लिए स्त्री पुरुष दोनों ही इसका प्रयोग करते थे।

स्नान के अनेक प्रकार काव्यों में वर्णित मिलते हैं पर इनमें सबसे अधिक लोकप्रिय जलविहार या जलक्रीड़ा था। अधिकांशत: स्नान के जल को पुष्पों से सुरभित कर लिया जाता था जैसे आजकल 'बाथसाल्ट' का प्रयत्न किया जाता है। एक प्रकार के साबुन का भी प्रयोग होता था जो 'फेनक' कहलाता था और जिसमें से झाग भी निकलते थे।

वसन वे स्वच्छ वस्त्र थे जो नहाने के बाद नर नारी धारण करते थे। पुरुष एक उत्तरीय और अधोवस्त्र पहनते थे और स्त्रियाँ चोली और घाघरा। यद्यपि वस्त्र रंगीन भी पहने जाते थे तथापि प्राचीन नर नारी श्वेत उज्जवल वस्त्र अधिक पसंद करते थे। इनपर सोने, चाँदी और रत्नों के काम कर और भी सुंदर बनाने की अनेक विधियाँ थीं।

स्नान के उपरांत सभी सुहागवती स्त्रिययाँ सिंदूर से माँग भरती थीं। वस्तुत: वारवनिताओं को छोड़कर अधिकतर विवाहित स्त्रियों के शृंगारप्रसाधानों का उल्लेख मिलता है, कन्याओं का नहीं। सिंदूर के स्थान पर कभी कभी फूलों और मोतियों से भी माँग सजाने की प्रथा थी।

बाल सँवारने के तो तरीके हर समय के अपने थे। स्नान के बाद केशों से जल निचोड़ लिया जाता था। ऐसे अनेक दृश्य पत्थर पर उत्कीर्ण मिलते हैं। सूखे बालों को धूप और चंदन के धुँए से सुगंधित कर अपने समय के अनुसार अनेक प्रकार की वेणियों, अलकों और जूड़ों से सजाया जाता था। बालों में मोती और फूल गूँथने का आम रिवाज था। विरहिणियाँ और परित्यक्ता वधएँ सूखे अलकोंवाली ही काव्यों में वर्णित की गई हैं; वे प्रसाधन नहीं करती थीं।

महावर लगाने की रीति तो आज भी प्रचलित है, विशेषकर त्यौहारों या मांगलिक अवसरों पर। इनसे नाखून और पैर के तलवे तो रचाए ही जाते थे, साथ ही इसे होठों पर लगाकर आधुनिक 'लिपस्टिक' का काम भी लिया जाता था। होठों पर महावर लगाकर ल्ध्रोचूर्ण छिड़क देने से अत्यंत मनमोहक पांडुता का आभास मिलता था।

मुँह का प्रसाधन तो नारियों को विशेष रूप से प्रिय था। इसके 'पत्ररचना', विशेषक, पत्रलेखन और भक्ति आदि अनेक नाम थे। लाल और श्वेत चंदन के लेप से गालों, मस्तक और भवों के आस पास अनेक प्रकार के फूल पत्ते और छोटी बड़ी बिंदियाँ बनाई जाती थीं। इसमें गीली या सूखी केसर या कुमकुम का भी प्रयोग होता था। बाद में इसका स्थान बिंदी ने ले लिया जो आज भी इस देश की स्त्रियों का प्रिय प्रसाधन है। कभी केवल काजल की अकेली बिंदी भी लगाने की रीति थी। आजकल की भाँति ही बीच ठोढ़ी पर दो छोटे छोटे काजल के तिल लगाकर सौंदर्य को आकर्षक बनाने का चलन था।

आजकल की तरह प्राचीन भारत में भी हथेली और नाखूनों को मेहँदी से लाल करने का आम रिवाज था।

आभूषणों की तो अनंत परंपरा थी जिसे नर नारी दोनों ही धारण करते थे। मध्यकाल में तो आभूषणों का प्रयोग इतना बढ़ा कि शरीर का शायद ही कोई भाग बचा हो जहाँ गहने न पहने जाते हों।

आँखों में काजल या अंजन का प्रयोग व्यापक रूप से होता था। मूर्तिकला में बहुधा शलाका से अंजन लगाती हुई नारी का चित्रण हुआ है।

अरगजा एक प्रकार का लेप है जिसे केसर, चंदन, कपूर आदि मिलाकर बनाते थे। आधुनिक इत्र या सेंट की तरह शरीर को सुगंधित करने के लिए इसका अधिकतर प्रयोग किया जाता था।

मुँह को सुगंधित करने के लिए स्त्री और पुरुष दोनों ही तांबूल या पान खाते थे। राजाओं की परिचारिकाओं में तांबूवलवाहिनी का अपना विशेष स्थान था।

भारतीय नारी को अपने प्रसाधन में फूलों के प्रति विशेष मोह है। जूड़े में, वेणियों में, कानों, हाथों, बाहों कलाइयों और कटिप्रदेश में कमल, कुंद, मंदार, शिरीष, केसर आदि के फूल और गजरों का प्रयोग करती थीं।

शृंगार का सोलहवाँ अंग है लीला कमल, जिसे स्त्रियाँ पूर्वोक्त पंद्रह शृंगारों से सज्जित हो पूर्ण विकसित पुष्प या कली के दंड सहित धारण करती थीं। नीले कमलों का चित्रण प्राचीन मूर्तिकला में प्रभूत रूप से हुआ है।

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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