स्पंज

Submitted by Hindi on Mon, 08/29/2011 - 16:01
स्पंज जल में रहनेवाला एक बहुकोशिक प्राणी है। साधारण तौर से देखने में यह पौधों की भाँति लगता है। इसीलिए पहले इसकी गणना वनस्पतिविज्ञान के अंतर्गत होती थी। परंतु सन्‌ 1765 में एलिस (Ellis) ने देखा कि इसमें जल की धाराएँ अंदर जाती हैं और बाहर आती हैं। उसके बाहरी छिद्र 'औस्कुला' की गति भी देखी और यह प्रमाणित किया कि यह जानवर है वनस्पति नहीं। इनको अंग्रेजी में पॉरीफैरा (Porifara) कहते हैं, इसलिए कि इनके सारे शरीर पर छोटे छोटे छेद (Pore) होते हैं। यद्यपि यह बहुकोशिक है तथापि यह स्पष्ट रूप से प्राणी के विकास की सीधी रेखा पर नहीं हैं इसीलिए इसे पैराज़ोआ (Parazoa) अतिरिक्त प्राणी भी कहा जाता है।

स्नान के समय शरीर को रगड़ने के काम आनेवाला स्पंज इन जंतुओं का कंकाल मात्र है। पुराने ग्रीवासी भी स्नान के समय इसका उपयोग करते थे। मेज और फर्श को भी स्पंज से रगड़कर साफ किया जाता था। सिपाही अपने कवच तथा पैरों में पहने जानेवाले कवच के नीचे स्पंज भरते थे, ताकि उनके कवचकुंडल ढीले न रह जाएँ। रोम के निवासी इन्हें रँगनेवाले बुरुश में लगाते थे और बाँस के सिरों पर बाँधकर झाड़ू बनाते थे। आज भी स्पंज अनेक कामों में आता है। इसीलिए समुद्र की गहराई से स्पंज को निकालना तथा उनका एकत्र करना एक व्यवसाय बन गया है। लगभग एक हजार टन स्पंज हर वर्ष एकत्र किया जाता है। स्नान के काम में लाया जानेवाला स्पंज केवल गर्म तथा उथले समुद्र में पैदा होता है, परंतु अन्य प्रकार के स्पंज समुद्र की तली पर रहते हैं। नदियों झीलों और तालाबों में भी स्पंज सफलता से पनपते हैं।

देखने में जीवित स्पंज स्नानागार के स्पंज से बिलकुल भिन्न लगता है। वह चिकना होता है। स्पंज के संरचनात्मक अध्ययन के लिए लिऊकोसालेनिया (Leucosolenia) नामक स्पंज की रचना जान लेना आवश्यक है। यह एक लंबे फूलदान के आकार का होता है जो ऊपर चौड़ा तथा नीचे पतला होता है। इसके ऊपरी सिरे पर एक बड़ा छेद होता है, जिससे जल की धारा बाहर निकलती है। इस छेद को बहिर्वाही नाल (Excurrent canal) या ऑसकुलम (Osculum) कहते हैं। यह शरीर की मध्यस्थ गुहा में खुलता है। मध्यस्थ गुहा को स्पंजगुहा (spongvocoel), अवस्कर (cloaca) अथवा जठराभगुहा (Paragastric cavity) कहते हैं। चारों ओर देहभित्ति में अनेक छोटे छोटे छेद होते हैं। इनसे जल मध्यस्थगुहा में जाता है। इसलिए इन्हें अंतर्वाही रंध्र (Incurrent pores) या आस्य (ostia) कहते हैं। इन छिद्रों से प्रविष्ट जल एक नन्हीं सी नलिका से होकर अंदर जाता है। इसको अंतर्वाही नाल (Incurrent canal) कहते हैं। देहभित्ति के बाहर की परत चपटी बहुभुजी कोशिकाएँ होती हैं।

मध्यस्थ गुहा की भीतरी परत विशेष प्रकार की कोशिकाओं से बनती है। इनको कीप कोशाभिका (Collared flagellatges) कहते हैं। इनकी रचना अजीब ढंग की होती है। इनके स्वतंत्र सिरों पर प्रोटोप्लाज्म (Protoplasm) की एक कीप होती है। कीप के बीच से एक लंबी कशाभिका (Flagellum) निकलती है। इसलिए इन्हें कीप कशाभिका कहते हैं। कशाभिका की गति से जलप्रवाह प्रारंभ होता है और जल अंतर्वाही रंध्र से अंदर जाता है तथा बहिर्वाही रंध्र से बाहर निकलता है। जल की धारा के साथ छोटी छोटी वनस्पति तथा जंतु आदि अंदर आ जाते हैं। कशाभिका इनको पकड़कर भोजन करती हैं। इनके भोजन करने का ढंग भी निराला है। भोज्य पदार्थ कशाभिका की सतह पर चिपक जाते हैं और बाहर ही बाहर नीचे के भाग में चले जाते हैं। यह भाग इनको अपने अंदर कर लेता है, उसी तरह जैसे अमीबा अपना भोजन करता है। अंदर खाद्यरिक्तिका (Food vacaoles) बन जाती हैं और पाचनक्रिया उन्हीं के अंदर पूरी होती है। ये कशाभिकाएँ एककोशिक कशाभिकाओं से मिलती जुलती हैं, और इसी प्रकार भोजन भी करती हैं। इसलिए ऐसा अनुमान किया जाता है कि स्पंज को जन्म उन्हीं एककोशिकीय प्राणियों ने दिया जिनसे आधुनिक कशाभिका एककोशिक प्राणी पैदा हुए हैं।

बाहरी रक्षा करनेवाली परत और मध्यस्तथ गुहा के स्तर के बीच में निर्जीव जेली (jelly) जैसा पदार्थ है। इसमें पूर्वमध्यजन कोशिका इधर उधर अमीबा की भाँति घूमती रहती है। यह साधारण कोशिका है जो एक दूसरे से अपने कूटपॉद (Pseudopod) द्वारा जुड़ी रहती है। यह सबसे कम विशिष्टताप्राप्त कोशिका है और आवश्यकता पड़ने पर किसी विशिष्ट रूप को प्राप्त कर सकती है। यह कशाभिका से अधपचा भोजन प्राप्त कर सकती है और उसकी पाचनक्रिया की पूर्ति करके आवश्यकतानुसार भोजन बाँटती है। कुछ लोगों का विचार है कि यह नाइट्रोजनीय क्षय पदार्थ तथा उत्सर्ग की परिवहन अभिकर्ता है। कुछ कोशिकाएँ भोजन एकत्र करती हैं और कुछ ऐसी हैं जो अंडाणु (Ova) और शुक्राणु (Spermatozoa) बनाती हैं।पूर्वमध्यजन कोशिका का विशेष कार्य है चूने (Calcium carbonate) का सुइयों जैसा कंकाल बनाना। इसका मतलब यह हुआ कि यह कोशिका कंकालजनक है। चूने की सुई को कंटिका (Spicule) कहते हैं। कंटिका स्पंज का कंकाल बनाती हैं। कंकाल का कार्य है कोशिकाओं के नर्म भाग को सहारा देना, जलनलिकाओं को फैलाए रखना और स्पंज की वृद्धि करना। कंटिका चूने के अतिरिक्त सिलिका की भी बनती हैं। कंटिका के अलावा स्पजिन (Spongin) नामक वस्तु के धागे से भी स्पंज का कंकाल बनता है। कंटिका दो प्रकार की होती हैंबड़ी गुरुकंटिका (Megasclera) और छोटी लघुकंटिका (Microsclera) बड़ी कंटिकाएँ स्पंज के शरीर का आकार बनाती हैं और छोटी कंटिका शरीर के सभी भागों में पाई जाती हैं। साधारण रूप में कंटिका एक सुई की तरह होती है जिसके दोनों सिरे या एक सिरा नुकीला होता है। ऐसी कंटिका को मॉनोएक्ज़ान (Monoaxon) कंटिका कहते हैं। ये सबसे अधिक होती हैं। इसके अलावा चार और छह काँटेवाली कंटिकाएँ भी होती हैं। कंटिकाएँ अन्य रूपों की भी होती हैं। एक ही स्पंज में कई रूप की कंटिकाएँ पाई जाती हैं।

कंटिकाजनक कोशिका जेली (Jelly) में उतर आती हैं तब हर कोशिका का नाभिक (Nucleus) दो भागों में विभाजित हो जाता है। न्यूक्लियस के दोनों टुकड़े अलग हो जाते हैं और अपने बीच चूने की सुई बनाते हैं। जब तीन मूल कंटिकाएँ बनानी होती हैं तो तीन कोशिकाएँ एक साथ मिलकर उसे बनाती हैं। इसी तरह कभी चौथी कंटिकाजनक कोशिका भी इनसे मिलकर चार मूल कंटिकाएँ बनाती हैं। स्पोंजिन के धागे भी पूर्वमध्यजन कोशिकाओं में उत्पन्नश् होते हैं।

लिउकोसोलेनिया का अध्ययन करते समय देखा गया है कि स्पंज की बाहरी सतह पर स्थित छिद्र एक नन्हीं सी नलिका में खुलते हैं। यह नलिका अंदर मध्यस्थ गुहा में खुलती है। जल इसी से होकर मध्यस्थ गुहा में जाता है। यह नलिका एक कोशिका से होकर जाती है जिसे छिद्रकोशिका (Porocyta) कहते हैं। ऐसी अनेक नलिकाएँ लिडकोसोलेनिया की देहभित्ति से अरीय (Radially) ढंग से गुजरती हैं। इस तरह के नालतंत्र को एस्कन नालतंत्र (Ascon canal system) कहते हैं, ऐसा ही नालतंत्र क्लैआइना (Clathrina) के औलिंथस (Olynthus) में भी मिलता है।

ज्यों ज्यों स्पंज का विकास होता है, उसकी देहभित्ति जटिल रूप धारण कर लेती है। जगह जगह वह अंदर की ओर धँस जाती है। इस तरह बाहरी कोशिकाओं से आच्छादित भित्ति की कुछ नालियाँ बन जाती हैं, इन्हें अंतर्वाही नाली (incurrent canal) कहते हैं। अंतर्वाही नाली बाहर की ओर खुलती है। ऐसी ही अंदर की नालियों का स्तर कीप कशाभिका का होता है। इसलिए इन्हें कशाभिका नाली (Flagellated canals) कहते हैं। प्राथमिक नाली बाहरी नालियों को भीतरी नालियों से जोड़ता है। इसमें सतह पर दिखनेवाले छिद्र मध्यस्थ गुहा में नहीं खुलते, बल्कि अंतर्वाही नाली में। इन छिद्रो को चर्मरंध्र (Dermal pore) कहते हैं। कशाभिका नाली मध्यस्थ गुहा में जिन छिद्रों से खुलती हैं उन्हें अपद्वार (Apophyle) कहते हैं। इस तरह देहभित्ति के सिकुड़ने स्पंज के विकास के साथ बढ़ती जाती है। इससे अंदर और अनेक प्रकार के कीपकशाभिकायुक्त कोष्ठ बन जाते हैं और जो नालतंत्र बनता है उसे लिउकन नालतंत्र (Leucon canal system) कहते हैं।

पोषण और मलोत्सर्ग- स्पंज का प्राकृतिक भोजन छोटे छोटे प्राणी, सड़ते हुए जीवांग तथा पानी में घुले हुए पदार्थ हैं। जल की अंदर जाती हुई धाराओं के साथ भोजन अंदर जाता है और उसे कशाभिकाएँ पकड़ लेती हैं। उनके कीप (Coller) से लगे लगे इनकी पाचनक्रिया प्रारंभ हो जाती है। पचा हुआ भोजन अमीबा जैसी कोशिकाओं के द्वारा एक स्थान तक जाता है। अपाच्य भोजन मध्यस्थ गुहा में आ जाता है और यहाँ से पानी की धारा के साथ शरीर के बाहर निकल जाता है।

श्वसन क्रिया- यद्यपि स्पंज बहुकोशिका प्राणी हैं फिर भी इनमें श्वास की क्रिया के विशेष अंग नहीं हैं। आक्सीजन कोशिकाओं की सतह से अंदर चली जाती है और वहाँ वह शक्ति का उत्पादन करती है। स्पंज ऐसा स्वच्छ जल पसंद करते हैं जिसमें ऑक्सीजन की मात्रा अधिक हो। यदि यह गंदे पानी में अथवा ऐसे पानी में रखे जाएँ जिसमें ऑक्सीजन की मात्रा कम हो तो इनकी वृद्धि रुक जाती है तथा अंत में मर जाते हैं। यह हाल उस समय भी होता है जब इनके बाहरी छिद्र बंद हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है कि श्वसन जल की धाराओं की गति पर आधारित होता है।

जल की धारा- ऊपर लिखा जा चुका है कि स्पंज के शरीर पर अनेक छोटे छोटे छेद होते हैं। जल इनमें से होकर अंदर जाता है और मध्यस्थ गुहा से होकर वह बाहर ऊपर के बड़े छेद से निकलता है। पानी का प्रवाह निरंतर एक सा होता रहता है। प्रवाह की गति जलनाली (water canal) की रचना पर आधारित है। लिऊकोसोलेनिया जैसे स्पंज में जलप्रवाह धीरे धीरे होता है और जटिल बनावटवाले स्पंज में धारा तेज हो जाती है। ज्यों ज्यों बनावट जटिल होती जाती है धारा की गति बढ़ती जाती है। लोगों ने यह भी अध्ययन किया है कि एक स्पंज के शरीर से कितना जल बहता है। अनुमान लगाया गया है कि 10 सेंमी ऊँचे और एक सेंमी व्यासवाले स्पंज में लगभग 22,50,000 कशाभिका कोष्ठ होते हैं। इनमें से होकर एक दिन में 22.5 लीटर जल बहता है। जितना स्पंज बड़ा होगा, जल की मात्रा भी उतनी ही बढ़ती जाएगी। एक छोटा स्पंज ल्यूकैन्ड्रा (Leucandra) कहलाता है। इनके ऊपर के छेद से 8.5 घन सेंमी जल प्रति सेकेंड निकलता है।

व्यवहार- कोई वयस्क स्पंज एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकता। अधिकतर: स्पंज में सिकुड़ने की शक्ति रहती है, या तो किसी एक स्थान में सिकुड़ने की शक्ति होती है या सारा शरीर सिकुड़ सकता है। यह शक्ति शरीर के अंदर स्थित विशेष कोशिकाओं के कारण होती है। कुछ ऐसे भी स्पंज हैं जिनमें सिकुड़ने की शक्ति नहीं होती, इनमें केवल कुछ रंध्र कोशिका (Porocyta) जिनसे जलनाली जाती है सिकुड़ सकती हैं। जब कभी कभी स्पंज को छुआ जाता है, अथवा उन्हें उनके स्थान से उठाया जाता है तब वे सिकुड़ते हैं। जब भी स्पंज हवा में लाए जाते हैं या आक्सीजन की कमी होती है या ताप बहुत कम या बहुत अधिक हो जाती है तब अपवाही रंध्र (oscula) बंद हो जाता है। जल में जहरीले रसायन मिलाने से भी यही होता है। प्रकाश का इनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, सारी क्रियाएँ बड़ी धीमी होती हैं इसलिए कि स्पंज में स्नायविक संस्थान का विकास नहीं होता।

रंग और गंध- अधिकतर स्पंज अप्रत्यक्ष मांस के रंग के होते हैं; कुछ हल्के भूरे रंग के होते हैं और कुछ खाकी रंग के। भड़कीले रंगवाले स्पंज भी मिलते हैं। नारंगी, पीले, लाल, हरे, नीले, बैंगनी रंग के तथा काले स्पंज भी कभी कभी मिल जाते हैं। प्राय: गहराई में रहनेवाले स्पंज का रंग अप्रत्यक्ष होता है और उथले जल में रहनेवाले का भड़कीला।

पुनरुद्भवन (Regeneration)- स्पंज में नवोद्गम शक्ति अधिक होती है। शरीर का कटा हुआ कोई भी भाग पूरा स्पंज बन सकता है। परंतु यह क्रिया अधिक समय लेती है। कुछ ऐसे भी स्पंज हैं जिनकी प्रत्येक कोशिका में यह शक्ति होती है अर्थात्‌ यदि एक कोशिका भी अलग कर दी जाए तो वह पूरा स्पंज बना सकती है। यदि एक स्पंज को रेशम के एक टुकड़े में रखकर गाड़ दिया जाए तो उसके अंग अंग के टुकड़े हो जाएँगे, बहुत सी कोशिकाएँ भी पृथक्‌ हो जाएँगी। ये सब टुकड़े अथवा कोशिका पूरे पूरे स्पंज बन जाएँगी यदि इन्हें उपयुक्त ढंग से रखा जाए।

अलिंगी जनन- स्पंज में अलिंग जनन मुकुलन (Budding) द्वारा होता है। किसी किसी में अलिंगी जनन के लिए विशेष प्रजनन इकाइयाँ बन जाती हैं। इन्हें जेम्यूल (Gemmule) कहते हैं। लगभग सभी मीठे जल में रहनेवाले स्पंज में जेम्यूल बनते हैं। जेम्यूल सुराही के आकार की इकाई है जिसके अंदर मीजैनकाइम कोशिकाएँ भरी रहती हैं। जेम्यूल के सिर पर एक छोटा छेद होता उपयुक्त समय में अंदर से कोशिका बाहर निकलती है और पूरा स्पंज बना देती है। साधारण स्पंज के नीचे के भाग से कुछ शाखाएँ निकलती हैं जो तली पर फैल जाती हैं। इन शाखाओं पर स्थान स्थान पर मुकुलन निकलते हैं और बढ़कर पैत्रिक व्यक्ति के रूप के हो जाते हैं। इस तरह साधारण बेलनीय व्यक्तियों के निवह (Colony) बन जाते हैं। कभी कभी एक या दो मुकुलन अलग भी हो जाते हैं।

लिंगीय जनन (Sexual reproduction)- साधारण तौर से स्पंज से अंडाणु तथा शुक्राणु द्वारा ही लिंगीय जनन होता है। अधिकतर स्पंज उभयलिंगी (Hermophrodite) होते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जिनमें नर तथा मादा अलग अलग होते हैं। उभयलिंगी स्पंज में भी अंडाणु और शुक्राणु अलग अलग समय पर परिपक्वता प्राप्त करते हैं। स्पंज में निषेचन (Fertilization) अद्भुत ढंग से होता है। शुक्राणु अंडाणु के निकटस्थ कशाभिका में घुस जाता है। इसमें कशाभिका लुप्त हो जाती है और यह अमीबा जैसा होकर अंडाणु के पास आ जाता है और उससे लिपट जाता है। इसमें से शुक्राणु अंडाणु में प्रवेश कर जाता है और निषेचन की क्रिया पूरी हो जाती है तथा युग्मज (zygote) कोशिकाओं की परत के बीच विभाजित होने लगता है। थोड़े ही समय में यह एक छोटे डिंभक (larva) का रूप ग्रहण कर लेता है। यह डिंभक बहिर्वाही नाल से होकर पितृ स्पंज से बाहर निकल जाता है। कुछ घंटे तैरने के पश्चात्‌ लारेवा नीचे तली पर किसी चीज से चिपक जाता है और वयस्क रूप ग्रहण कर लेता है।

जंतुजगत्‌ में स्थान- स्पंज अनेक कोशिकाओं से बने हैं। इसलिए यह बहुकोशिक प्राणी (Metazoa) कहे जा सकते हैं। किंतु स्पंज अनेक महत्वपूर्ण बातों में बहुकोशिक प्राणियों से भिन्न हैं। अन्य बहुकोशिक प्राणियों की भाँति इनमें मुँह नहीं होता। यह एक बात ही इन्हें बहुकोशिक प्राणियों से अलग करती है। इनकी संरचना में सामंजस्य नहीं है और न इनमें तंत्रिकातंत्र तथा ज्ञानकोशिकाएँ हैं जिससे इनमें व्यावहारिक सामंजस्य पैदा हो सके। इनका जन्म एककोशिक प्राणियों से हुआ प्रतीत होता है परंतु इनका आगे विकास नहीं हुआ। इसलिए इनको अतिरिक्त प्राणी माना जाता है और पैरोज़ोआ समुदाय में रखा जाता है। इनकी गणना एककोशीय प्राणियों में भी नहीं की जा सकती क्योंकि यह स्पष्ट है कि इनका विकास (development) एक युग्मज (zygote) के खंडीकरण से होता है। यह बहुकोशिक प्राणियों की विशेषता है। (प्रभा ग्रोवर)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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