शरीरक्रियाविज्ञान या फ्रज़ियॉलोजी (Physiology)

Submitted by Hindi on Fri, 08/26/2011 - 12:43
शरीरक्रियाविज्ञान या फ्रज़ियॉलोजी (Physiology), फ़िज़ियॉलोजी शब्द यूनानी भाषा से व्युत्पन्न है और इसका मूल अर्थ 'प्राकृतिक ज्ञान' है। इसका लैटिन समानार्थक शब्द है, फ़िजियॉलोजिया (Physiologia)। इस शब्द का प्रथम बार उपयोग 16वीं शताब्दी में हुआ, पर यह व्यवहार में 19वीं सदी में आया। जीवित प्राणियों से संबंधित प्राकृतिक घटनाओं का अध्ययन, और उनका वर्गीकरण, घटनाओं का अनुक्रम और सापेक्ष महत्व, प्रत्येक कार्य के उपयुक्त अंगनिर्धारण और उन अवस्थाओं का अध्ययन, जिनसे प्रत्येक क्रिया निर्धारित होती है, फ़िज़ियॉलोजी या शरीरक्रियाविज्ञान के अंतर्गत आते हैं।

सभी जीवित जीवों के जीवन की मूल प्राकृतिक घटनाएँ एक सी है। अत्यंत असमान जीवों में क्रियाविज्ञान अपनी समस्याएँ अत्यंत स्पष्ट रूप में उपस्थित करता है। उच्चस्तरीय प्राणियों में शरीर के प्रधान अंगों की क्रियाएँ अत्यंत विशिष्ट होती है, जिससे क्रियाओं के सूक्ष्म विवरण पर ध्यान देने से उन्हें समझना संभव होता है।

निम्नलिखित मूल प्राकृतिक घटनाएँ हैं, जिनसे जीव पहचाने जाते हैं:


(क) संगठन- यह उच्चस्तरीय प्राणियों में अधिक स्पष्ट है। संरचना और क्रिया के विकास में समांतरता होती है, जिससे शरीरक्रियाविदों का यह कथन सिद्ध होता है कि संरचना ही क्रिया का निर्धारक उपादान है। व्यक्ति के विभिन्न भागों में सूक्ष्म सहयोग होता है, जिससे प्राणी की आसपास के वातावरण के अनुकूल बनने की शक्ति बढ़ती है।

(ख) ऊर्जा की खपत- जीव ऊर्जा को विसर्जित करते हैं। मनुष्य का जीवन उन शारीरिक क्रियाकलापों (movements) से, जो उसे पर्यावरण के साथ संबंधित करते हैं निर्मित हैं। इन शारीरिक क्रियाकलापों के लिए ऊर्जा का सतत व्यय आवश्यक है। भोजन अथवा ऑक्सीजन के अभाव में शरीर के क्रियाकलापों का अंत हो जाता है। शरीर में अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होने पर उसकी पूर्ति भोजन एवं ऑक्सीजन की अधिक मात्रा से होती है। अत: जीवन के लिए श्वसन एवं स्वांगीकरण क्रियाएँ आवश्यक हैं। जिन वस्तुओं से हमारे खाद्य पदार्थ बनते हैं, वे ऑक्सीकरण में सक्षम होती हैं। इस ऑक्सीकरण की क्रिया से ऊष्मा उत्पन्न होती है। शरीर में होनेवाली ऑक्सीकरण की क्रिया से ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो जीवित प्राणी की क्रियाशीलता के लिए उपलब्ध रहती है।

(ग) वृद्धि और जनन- यदि उपचयी (anabolic) प्रक्रम प्रधान है, तो वृद्धि होती है, जिसके साथ क्षतिपूर्ति की शक्ति जुड़ी हुई है। वृद्धि का प्रक्रम एक निश्चित समय तक चलता है, जिसके बाद प्रत्येक जीव विभक्त होता है और उसका एक अंश अलग होकर एक या अनेक नए व्यक्तियों का निर्माण करता है। इनमें प्रत्येक उन सभी गुणों से युक्त होता है जो मूल जीव में होते हैं। सभी उच्च कोटि के जीवों में मूल जीव क्षयशील होने लगता है और अंतत: मृत्यु को प्राप्त होता है।

(घ) अनुकूलन (Adaptation)- सभी जीवित जीवों में एक सामान्य लक्षण होता है, वह है अनुकूलन का सामर्थ्य। आंतर संबंध तथा बाह्य संबंधों के सतत समन्वय का नाम अनुकूलन है। जीवित कोशिकाओं का वास्तविक वातावरण वह ऊतक तरल (tise fluid) है, जिसमें वे रहती हैं। यह आंतर वातावरण, प्राणी के सामान्य वातावरण में होनेवाले परिवर्तनों से प्रभावित होता है। जीव की अतिजीविता (survival) के लिए वातावरण के परिवर्तनों को प्रभावहीन करना आवश्यक है, जिससे सामान्य वातावरण चाहे जैसा हो, आंतर वातावरण जीने योग्य सीमाओं में रहे। यही अनुकूलन है।

फ़िज़ियॉलोजी की विधि - फ़िज़ियॉलोजी का अधिकांश ज्ञान दैनिक जीवन और रोगियों के अध्ययन से उपलब्ध हुआ है, परंतु कुछ ज्ञान प्राणियों पर किए गए प्रयोगों से भी उपलब्ध हुआ है। रसायन, भौतिकी, शारीर (anatomy) और ऊतकविज्ञान से इसका अत्यंत निकट का संबंध है।

इस प्रकार विश्लेषिक फ़िज़ियॉलोजी, जीवित प्राणियों पर, अथवा उनसे पृथक्कृत भागों पर, जो अनुकूल अवस्था में कुछ समय जीवित रह जाते हैं, किए गए प्रयोगों से प्राप्त ज्ञान से निर्मित है। प्रयोगों से विभिन्न संरचनात्मक भागों के गुण और क्रियाएँ ज्ञात होती हैं। संश्लेषिक फ़िज़ियॉलोजी में हम यह पता लगाने की कोशिश करते हैं कि किस प्रकार संघटनशील प्रक्रमों से शरीर की क्रियाएँ संश्लेषित होकर, विभिन्न भागों की सहकारी प्रक्रियाओं का निर्माण करती हैं और किस प्रकार जीव समष्टि रूप में अपने भिन्न भिन्न अंगों को सम्यक्‌ रूप से समंजित करके, बाह्य परिस्थिति के परिवर्तन पर प्रतिक्रिया करता है।

प्रतिमान (Normal)- संरचना और शरीरक्रियात्मक गुणों में एक ही जाति के प्राणी आपस में बहुत मिलते जुलते हैं और जैव लक्षणों के मानक प्ररूप की ओर उन्मुख यह प्रवृत्ति जीव और उसके वातवरण के बीच सन्निकट सामंजस्य की अभिव्यक्ति है। एक ही जनक से, एक ही समय में, उत्पन्न प्राणियों में यह समानता सर्वाधिक होती है। ज्यों ज्यों हम अन्य जातियों के प्राणियों की समानताओं के संबंध में विचार करते हैं, उनमें भेद बढ़ता जाता है और प्राणियों के वर्गीकरण में जंतुजगत्‌ के छोरों पर स्थित प्राणियों का अंतर इतना अधिक होता है कि उनकी तुलना अस्पष्ट होती है।

फिर भी, व्यष्टि प्राणियों में जहाँ बहुत निकट का संबंध होता है, जैसे मनुष्य जाति में, वहीं इनमें अंतर भी स्पष्ट होता है। सामान्य मानव व्यष्टि का अध्ययन करना, मानव फ़िज़ियॉलोजी का कर्तव्य है, क्योंकि इससे रोग के अध्ययन की महत्वपूर्ण आधारभूमि तैयार होती है, परंतु यह कहना कि किसी प्रस्तुत लक्षण (character) का प्राकृतिक स्वरूप क्या है, कठिन है। इसके अतिरिक्त सभी शरीरक्रियात्मक प्रयोगों के परिणामों में पर्याप्त स्पष्ट अंतर प्रदर्शित होता है, जो प्रयोज्य प्राणियों की व्यत्तिगत प्रकृति पर निर्भर करता है। इसीलिए महत्वपूर्ण समुचित नियंत्रणों का और महत्वपूर्ण परिणाम का अधिमूल्यन नहीं होना चाहिए। प्राय: परिणाम के निश्चय के लिए आदर्श परिणामों का विचार किया जाता है। प्रयोगों की पुनरावृत्तियाँ आवश्यक हैं। प्रेक्षण की त्रुटि, जो यथार्थ विज्ञानों में प्राय: अल्प होती है, जैविकी में बहुत अधिक होती है, क्योंकि परिवर्ती व्यष्टि के कारण प्रेक्षण में परिवर्तनशीलता आ जाती है। जिस प्रकार अन्य विज्ञानों में परिणामों को सांख्यिकी द्वारा विवेचित किया जाता है, वैसे ही फ़िज़ियॉलोजी को परिणामों की संभाविता के नियम की प्रयुक्ति से विवेचित किया जाता है। सीमित संख्या में किए प्रयोगों से निर्णय लेने में बहुत सावधानी इस दृष्टि से अपेक्षित है कि प्राप्त परिणाम नियंत्रित श्रेणियों से भिन्न हैं अथवा नहीं।

कठिनाइयों को दूर करने की एक विधि के रूप में औसतों, अर्थात्‌ समांतर माध्य (arithmetic mean), का आश्रय लिया जाता है, जैसे हम कहते हैं, मानव के किसी समुदाय विशेष में प्रति घन मिलिमीटर रक्त में लाल सेलों की औसत संख्या 5 करोड़ 20 लाख है। यह विधि यद्यपि सबसे तरल और अति व्यवहृत है, परंतु यह इसलिए असंतोषजनक है कि इससे यह ज्ञात नहीं होता कि माध्य से विचलन किस परिमाण में और आपेक्षिक रूप से कितने अधिक बार (relatively frequent) होता है। हमारे पास यह ज्ञात करने का कोई साधन नहीं रह जाता कि उपर्युक्त उदाहरण में 4 करोड़ 50 लाख सामान्य परास के अंदर है या नहीं। परिणामत:, सांख्यिकी के परिणामों की अभिव्यक्ति के लिए अधिक यथार्थ साधन के उपयोग का व्यवहार बढ़ता जा रहा है।

उपयोग में आनेवाली एक विधि आवृत्ति आरेख (frequency diagram) है, जिसका एक उदाहरण निम्न आरेख चित्र में दिया है।

स्त्रिर्यो की ऊँचाई का आवृत्ति वक्र 1375 स्त्रियों की ऊँचाइयों को नापकर ऐसे दलों में वितरित किया गया जिनमें ऊँचाई का अंतर एक इंच था। यह चित्र ऐसे दलों की बारंबारता का दिग्दर्शन कराता है। (फिशर द्वारा लिखित ''स्टैटिस्टिकल मेथड्स फॉर रिसर्च वर्कर्स'' से उधृत)।

यह बहुसंख्यक व्यष्टियों के कद (stature) के आँकड़ों को निदर्शित करता है। इन्हें 1 इंच कद के अंतर के आवृत्ति वर्गों में विभाजित किया गया है। आयत की ऊँचाई भुजाक्ष पर प्रदर्शित ऊँचाई की व्यष्टियों की संख्या की अनुपाती है। समूहित आकृति को आयत चित्र (histogram) कहते हैं। इससे खींचा हुआ निष्कोणित वक्र (smoothed curve), या आवृत्तिवक्र, उस आवृत्ति को प्रदर्शित करता है जिससे दी हुई सीमाओं के अंदर कोई कद हुआ करता है।

फ़िज़ियॉलोजी का विकास- चूँकि किसी विज्ञान की वर्तमान अवस्था को समझने के लिए उसके विकास का इतिहास ज्ञात होना

सारणी

महत्वपूर्ण प्रकाशन

नाम

जीवनकाल

वर्ष

महत्व

विसेलियस

1514-64 ई.

1543 ई.

आधुनिक शारीर का प्रारंभ

हार्वि

1578-1667 ई.

1628 ई.

जीवविज्ञान में प्रायोगिक विधि

मालपीगि

1628-1694 ई.

1661 ई.

जीवविज्ञान में सूक्ष्मदर्शी के प्रयोग का आरंभ

न्यूटन

1642-1727 ई.

1687 ई.

आधुनिक भौतिकी का विकास

हालर

1708-1777 ई.

1760 ई.

फ़िज़ियॉलोजी का पाठ्यग्रंथ

लाव्वाज़्ये

1743-1794 ई.

1775 ई.

दहन और श्वसन का संबंध स्थापित हुआ

मूलर जोहैनीज़

1801-1858 ई.

1834 ई.

महत्वपूर्ण पाठ्यग्रंथ

श्वान

1810-1882 ई.

1839 ई.

कोशिका सिद्धांत की स्थापना

बेर्नार

(Bernard)

1813-1878 ई.

1840-1870 ई.

महान्‌ प्रयोगवादी

लूटविख

(Ludwig)

1816-1895 ई.

1850-1890 ई.

महान प्रयोगवादी आरेखविधि का आविष्कारक

हेल्महोल्ट्स

1821-1894 ई.

1850-1890 ई.

भौतिकी की प्रयुक्ति



आवश्यक है, इसलिए फिज़ियॉलोजी से रुचि रखनेवाले व्यक्ति के लिए उसके इतिहास की रूपरेखा से परिचित होना आवश्यक है। जहाँ तक समग्र विषय के विकास का प्रश्न है, यह ध्यान रखने की बात है कि विज्ञान का कोई अंग अलग से विकसित नहीं हो सकता, सभी भाग एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। उदाहरणार्थ, एक निश्चित सीमा तक शारीर (Anatomy) के ज्ञान के बिना फ़िज़ियॉलोजी की कल्पना असंभव थी और इसी प्रकार भौतिकी और रसायन की एक सीमा तक विकसित अवस्था के बिना भी इसकी प्रगति असंभव थी।

आँद्रेस विसेलियस (Andreas Veasilius) द्वारा 1543 ई. में फ़ेब्रिका ह्यूमनी कार्पोरीज़ (Fabrica Humani Corpories) के प्रकाशन को आधुनिक शारीर का सूत्रपात मानकर, नीचे हम उन महत्वपूर्ण नामों की सूची प्रस्तुत कर रहे हैं जिन्होंने समय समय पर विषय को युगांतरकारी मोड़ दिया है :

1795 ई. में फ़िज़ियॉलोज़ी की पहली पत्रिका निकली। 1878 ई. में इंग्लिश जर्नल ऑव फ़िज़ियॉलोज़ी तथा 1898 ई. में अमरीक जर्नल आव फ़िज़ियॉलोज़ी प्रकाशित हुई। 1874 ई. में लंदन में युनिवर्सिटी कालेजे और अमरीका के हार्वर्ड में 1876 ई. में फ़िज़ियॉलोज़ी के इंग्लिश चेयर की स्थापना हुई। इस प्रकार हम देखते हैं कि फ़िज़ियॉलोज़ी एक नया विषय है, जिसका प्रारंभ मुश्किल से एक सदी पूर्व हुआ। जीवरसायन और भी नया विषय है तथा फ़िज़ियॉलोज़ी की एक प्रशाखा के रूप में विकसित हुआ है।

सं. ग्रं.  ऐडॉल्फ (1943) : फ़िज़ियोलॉजिकल रेग्युलेशन; फ्रैंकलिन (1949 ई.) : ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑव फ़िज़ियॉलोज़ी, लंदन स्टेप्लस प्रेस। (राम चंद्र शुक्ल)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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