सर्वेक्षण (Surveying) उस कलात्मक विज्ञान को कहते हैं जिससे पृथ्वी की सतह पर स्थित बिंदुओं की समुचित माप लेकर, किसी पैमाने पर आलेखन (plotting) करके, उनकी सापेक्ष क्षैतिज और ऊर्ध्व दूरियों का कागज या, दूसरे माध्यम पर सही सही ज्ञान कराया जा सके। इस प्रकार का अंकित माध्यम लेखाचित्र या मानचित्र कहलाता है। ऐसी आलेखन क्रिया की संपन्नता और सफलता के लिए रैखिक और कोणीय, दोनों ही माप लेना आवश्यक होता है। सिद्धांतत: आलेखन क्रिया के लिए रेखिक माप का होना ही पर्याप्त है। मगर बहुधा ऊँची नीची भग्न भूमि पर सीधे रैखिक माप प्राप्त करना या तो असंभव होता है, या इतना जटिल होता है कि उसकी यथार्थता संदिग्ध हो जाती है। ऐसे क्षेत्रों में कोणीय माप रैखिक माप के सहायक अंग बन जाते हैं और गणितीय विधियों से अज्ञात रैखिक माप ज्ञात करना संभव कर देते हैं।
सर्वेक्षण क्रिया की उत्पत्ति की कहानी आदिकाल से आज तक के मानव समाज के विकास की कहानी, प्रधानत: सुख और समृद्धि के लिए भ्रमण और भूमि पर प्रभुसत्ता की प्राप्ति से, जुड़ी हुई है। भ्रमण के लिए स्थानों के बीच की दूरियों और दिशाओं का ज्ञान और प्रभुसत्ता के लिए सीमाओं और क्षेत्रफल का जानना आवश्यक था। ऐसा ज्ञान होने के प्रमाण प्राचीन ग्रंथों में राज्यों के विस्तार, दिशाओं के विवरण और दूरी के लिए योजना आदि के उल्लेख से मिलते हैं। प्राचीन काल में शिलाओं, भोजपत्र, ताम्रपत्र और कागज के प्रयोग से पूर्व, स्थानों के बीच की दूरी, दिशाएँ पहचानने का ज्ञान तथा अधिकार सीमाएँ मानव के स्मृतिपटल पर अंकित रहती होंगी। युद्ध और कलह का भय उत्पन्न होने पर, उस स्मृति और लिए गए मापों को किसी माध्यम पर प्रदर्शित करने की क्रिया का जन्म हुआ होगा, जिसे बाद में सर्वेक्षण की संज्ञा दी गई। इस प्रकार मनुष्य की महत्वाकांक्षाओं और सर्वेक्षण का गहरा संबंध होने के कारण सर्वेक्षणक्रिया निरंतर उन्नति करती गई।
ऐसे प्रयासों का सबसे प्राचीन प्रमाण ईसा से 370 वर्ष पूर्व का मिला है, जो ट्यूरिन के अजायबघर में आज भी सुरक्षित है। यूनान और मिस्र में भी शिलाओं और लकड़ी के तख्तों पर सर्वेक्षण के प्राचीन आलेख मिले हैं। ऑस्ट्रिया में ईसापूर्व काल के कुछ ऐसे चिह्न मिले हैं जिनसे पता लगता है कि रोम साम्राज्य में सर्वेक्षण का प्रचलन था। उन्होंने मार्गों की सीध बाँधने के लिए आज जैसे उपकरण, सर्वेक्षण पट्ट (plane table) और दूसरा नापने के लिए अंकित छड़ों का प्रयोग किया था। ऐसे भी प्रमाण मिले हैं कि 300 वर्ष ईसापूर्व भारत पर आक्रमण के समय, यूनानियों ने सिंध से फारस की खाड़ी तक समुद्रतट नापकर लेखाचित्र तैयार किया था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र और बाणभट्ट के हर्षचरित् में राजस्व के निर्धारण के सिलसिले में भूमि की नाप आदि के उल्लेख मिलते हैं। 1450 ई. में अरबवासियों ने कई समुद्री यात्राएँ कीं और समुद्रतटों के लेखाचित्र तैयार किए। 1498 ई. में वास्को डा गामा के भारत आने पर एक गुजराती पंडित ने उसे समुद्रतट का एक रेखाचित्र भेंट किया था। इससे विदित होता है कि सभ्यता के मार्ग पर बढ़े हुए सभी देशों में सर्वेक्षण का महत्व निरंतर बढ़ता रहा और कृषि, राजस्व, भूमि के अधिकार की सीमाओं के निर्धारण और यात्राओं में मार्गों के लेखाचित्र बनाने में सर्वेक्षण का अभ्यास एवं प्रयोग होता रहा है। मगर 16वीं शताब्दी के समाप्त होते होते तो सर्वेक्षणक्रिया का महत्व आशातीत बढ़ा। मार्को पोलो, वास्को डी गामा, कोलंबस और कैप्टन कुक के भ्रमणों से यूरोप निवासियों को संसार के विस्तार और उसपर स्थित समृद्ध देश तथा उपजाऊ भूमि का पता लगा, तो वे बहुत तादाद में अपनी भाग्यपरीक्षा के लिए निकल पड़े। भूमि पर आधिपत्य करने में उनमें स्पर्धा जागी, जिससे सर्वेक्षणक्रियाओं को नई स्फूर्ति और तीव्र गति मिली। उस समय का बना हुआ भारत और अरब का मानचित्र ब्रिटिश अजायबघर में आज भी सुरक्षित है। नक्शे से पता लगता है कि वह फेरंडो बर्टोली द्वारा 1565 ई. में बनाया गया था। इसके बाद 1612 ई. में गेरार्डरा मर्केटर द्वारा बनाया भारत का मानचित्र, उस समय का अथक प्रयास, भी थाती के रूप में सुरक्षित है।
वर्गीकरण - शनै: शनै: अधिकार की रक्षा के साथ साथ देशों में विकास के प्रति भी रुचि जागी। संपूर्ण देश, अमुक साम्राज्य, संपूर्ण संसार एक साथ देखने की जिज्ञासा बढ़ी। इसकी पूर्ति का साधन मानचित्र ही हो सकता था। इस कारण सर्वेक्षण में इतनी नई नई खोजें हुई कि उनके आधार पर सर्वेक्षणक्रिया ही दो प्रमुख वर्गों में बँट गई : (1) भूगणितीय सर्वेक्षण (geodetic surveying) और (2) पट्ट सर्वेक्षण (plane surveying)। इस वर्गीकरण का मुख्य आधार पृथ्वी का आकार है। जिस सर्वेक्षण में पृथ्वी के आकार को गोलाभ (spheroid) मानकर, उसकी सतह पर लिए गए नापों का प्रयोग करने से पहले पृथ्वी की वक्रता के लिए शोधन करते हैं, उसे भूगणितीय सर्वेक्षण कहते हैं। यह कठिन प्रक्रिया होती है। मगर पृथ्वी की गोल या वक्र सतह पर नापी दूरियाँ यदि अधिक लंबी न हों, तो उन्हें वक्र न मानकर ऋजु (सीधा) ही मान लिया जाए, तो कोई विशेष त्रुटि नहीं होगी। उदाहरणार्थ, पृथ्वी की वक्र सतह पर 11.5 मील लंबी रेखा नापने पर उसमें पृथ्वी के कारण केवल 0.05 फुट की त्रुटि होगी। इसी प्रकार पृथ्वी की सतह पर किन्हीं भी तीन बिंदुओं द्वारा 75 वर्ग मील क्षेत्रफल के त्रिभुज को समतल सतह पर सीधी रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किया जाए, तो उसके कोणों के योग और उसी त्रिभुज की वक्र सतह पर बने कोणों के योग में केवल एक सेकंड का अंतर होगा। इस कारण यदि छोटे छोटे क्षेत्रों के नक्शे तैयार किए जाएँ, तो पृथ्वी की सतह पर ली गई नाप को सीधी रेखाओं में सतल पर प्रदर्शित करने से कोई खटकनेवाली गलती नहीं होगी। इसलिए पृथ्वी के छोटे क्षेत्र को समतल मानकर, उस पर ली गई नापों को बिना वक्रता के शोधन के किसी पैमाने पर समतल कागज पर अंकित कर दिया जाता है। इस प्रकार के सर्वेक्षण को पट्ट सर्वेक्षण कहते हैं।
सामान्य व्यवहार में आनेवाले सर्वेक्षण समतलीय सर्वेक्षण ही होते हैं। भिन्न उद्देश्यों की सिद्धि के लिए सर्वेक्षणों की प्रक्रिया, उपकरण, पैमाना आदि में भी कुछ अंतर पैदा हो जाता है। इन कारणों से पट्ट सर्वेक्षण के भी कई वर्ग बन गए हैं : (1) पैमाने के आधार पर 1:50,000; 1:25,000 1:5,000; 1:1,000 सर्वेक्षण (इस प्रकार से बताए पैमाने का अर्थ है कि मानचित्र पर एक इकाई लंबी रेखा भूमि पर क्रमश: 50,000; 25,000; 5,000 1,000 इकाई लंबाई के बराबर होगी), (2) किसी मंतव्य या कार्य विशेष के लिए किया गया सर्वेक्षण, जैसे स्थलाकृतिक (topographical), इंजीनियरी, राजस्व (revenue) तथा खनिज (mineral) सर्वेक्षण, तथा (3) प्रयुक्त प्रमुख यंत्रों के नाम पर, जैसे जरीब सर्वेक्षण, टैकोमीटर (tachometer) सर्वेक्षण आदि।
यदि ऐसे समतलीय सर्वेक्षणों से भारत जैसे विस्तृत देश या महाद्वीप के मानचित्र संकलित (compile) किए जा सकें, तो पट्ट सर्वेक्षणों का महत्व आशातीत बढ़ जाता है। यह तभी संभव होगा, जब पट्ट सर्वेक्षणों की आधारशिला भूगणितीय सर्वेक्षण पर हो। आधारशिला का उल्लेख तभी ग्राह्य हो सकेगा, जब उसकी कुछ संक्षिप्त व्याख्या कर दी जाए।
सर्वेक्षण के आधारभूत सिद्धांत- ये सिद्धांत बड़े ही सरल हैं। पृथ्वी की सतह पर बड़ी सरलता से दो ऐसे बिंदु चुने जा सकते हैं जो एक दूसरे की स्थिति से देखें जा सकें और उनके बीच की दूरी नापी जा सके। इन्हें किसी भी वांछित पैमाने पर कागज पर ऐसे लगाया जा सकता है कि उनके निकटवर्ती क्षेत्र का सर्वेक्षण कागज पर समा सके। इसके बाद इन दो बिंदुओं से किसी भी तीसरे बिंदु की दूरी नापकर उसी पैमाने से कागज पर उसकी सापेक्ष स्थिति अंकित कर सकते हैं। इस प्रकार अंकित किन्हीं भी दो बिंदुओं से किसी तीसरे अज्ञात बिंदु की दूरी निकालकर तथा क्रमानुगत अंकित करके, पूरे क्षेत्र का मानचित्र बनाया जा सकता है।
दूसरे शब्दों में सर्वेक्षण की विधि त्रिभुज की रचना है। ऊपर तो त्रिभुज की एक ही रचना का उल्लेख किया गया है, जिसमें त्रिभुज की तीनों भुजाओं की लंबाइयाँ ज्ञात है। त्रिभुज की अन्य रचना विधियाँ भी सर्वेक्षण में प्रयुक्त होती हैं जो उपर्युक्त विधि के साथ आगे चित्र 1. में दिखाई गई हैं।
उपर्युक्त रचना विधियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि सर्वेक्षण के लिए दो बिंदु ज्ञात होना अत्यंत आवश्यक है, जिससे तीसरे बिंदु की सापेक्ष स्थिति का पता लगना संभव हो सके। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ऐसे सर्वेक्षण में बिंदुओं की सापेक्ष स्थितियाँ सही होने पर, उनकी दिशाओं का ज्ञान नहीं हो सकता। जो हो भी सकता है वह केवल चुंबकीय कुतुबनुमा की यथार्थता तक ही सीमित रहेगा। इससे यह कठिनाई होगी कि विस्तृत क्षेत्र में यदि किन्हीं भिन्न भिन्न दो या अधिक स्थलों से, स्वतंत्र रूप से दो दो बिंदु लेकर सर्वेक्षण आरंभ किए जाएँ, तो उनका उभयनिष्ठ रेखा पर ठीक मिलान होगा अवश्यंभावी नहीं है। क्योंकि ऐसे सर्वेक्षणों के प्रारंभिक आधारों के आलेखों की एक समान दिशाएँ रखने की कोई निश्चित सुविधा और सिद्धांत नहीं है। इस अनिश्चितता को दूर करने के लिए, सर्वेक्षण हेतु संपूर्ण विस्तृत प्रदेश में व्यवस्थित और आयोजित रूप से प्रमुख बिंदु चुनकर उनमें एक मूलबिंदु (origin) मान लेते हैं। फिर मूलबिंदु के क्रमश: अन्य बिंदुओं की दूरियाँ और उत्तर दिशा से कोण ज्ञात कर लेता है, और इन अवयवों से सर्वेक्षक उन बिंदुओं के निर्देशांक (co-ordinates) निकाल लेता है। उदाहरणार्थ, चित्र 2. में अ, आ, इ....चुने हुए बिंदु हैं और अ मूलबिंदु है, तो आ के निर्देशांक (अ आ = द) द कोज्या [11 cos b1] और द ज्या क [11 sin b1] होंगे। इसी प्रकार इ विंदु के निर्देशांक द कोज्या क + दा (= आ इ) कोज्या ख [11cosb1 +12cosb2] और द ज्या क + दा ज्या ख [11sinb1 +12sinb2] होंगे। इसी प्रकार अन्य बिंदुओं के निर्देशांक निकाले जा सकते हैं।
इस क्रिया की सफलता के लिए सर्वेक्षक के लिए निम्नलिखित तीन समस्याओं का हल निकालना आवश्यक होता है : (1) कोण नापने की, (2) दो क्रमानुगत बिंदुओं के बीच दूरी नापने की तथा (3) पर्वतीय प्रदेशों और टूटी फूटी भूमि पर दूरी नापने की।
पहली समस्या का हल सर्वेक्षक ने चुंबक की सूई के गुण का, जो सर्वत्र विदित हैं, लाभ उठाकर और थियोडोलाइट (देखें थियोडोलाइट) का आविष्कार करके लिया। दूसरी समस्या का हल फीता, जरीब आदि कई प्रकार के उपकरणों के प्रयोग से किया, जो सर्वसाधारण को विदित हैं। समतल या लगभग चौरस भूमि के प्रदेशों में इन दो समस्याओं के समाधान से एक सर्वेक्षण विधि को जन्म मिला, जिससे चुने हुए बिंदुओं के निर्देशांक निकाले जा सकते हैं। इस विधि को थियोडोलाइट संक्रमण (Theodolite traversing), या केवल चंक्रमण (Traversing), कहते हैं।
यह विधि बहुत कुछ चित्र 3. से स्पष्ट है। अ, आ, इ, ई आदि क्रमानुगत बिंदुओं के बीच क्रमश: दूरी नापते हैं और पीछे के बिंदु पर आगे के बिंदु को मिलानेवाली रेखा के पीछे के बिंदु पर आगे के बिंदु को मिलानेवाली रेखा का पीछे के बिंदु पर उत्तर दिशा से कोण ज्ञात कर लेते हैं जिसमें थियोडोलाइट का प्रयोग होता है। इस उत्तर दिशा से नापे कोण को दिगंश (Azimuth) कहते हैं। क्रमागत बिंदुओं के बीच की दूरी और दिशा ज्ञात होने से, निर्देशांक सरलता से निकाले जा सकते हैं। इस प्रकार सर्वेक्षण हेतु संपूर्ण क्षेत्र में बिंदु स्थापित कर दिए जाते हैं। इन बिंदुओं को सर्वेक्षण नियंत्रण बिंदु, या केवल नियंत्रण बिंदु (Control points), कहते हैं। दिगंश निकालने के लिए ध्रुवतारे (Polaris) या सूर्य के प्रेक्षण किए जाते हैं, जिनसे समुचित गणितीय सूत्रों के हल से वांछित दिगंश निकल आता है।
मगर जहाँ भूमि टूटी फूटी या ऊँची नीची हो, जिसपर चुने गए क्रमानुगत बिंदुओं के बीच की सीधी दूरी फीते या जरीब से न नापी जा सके, तो चक्रमण की विधि सफल नहीं होगी। ऐसी दशा में सर्वेक्षक त्रिभुजन (triangulation) की विधि अपनाता है। इस विधि की यह विशेषता है कि सर्वेक्षक गणितीय सूत्रों के प्रयोग से बिंदुओं के बीच की दूरी निकाल सकता है। अत: सर्वेक्षक ऊँचे नीचे पर्वतीय प्रदेश में लंबी लंबी दूरी तक दृष्टिगोचर प्रमुख बिंदुओं को इस प्रकार चुनता है कि वे त्रिभुजों की सुगठित जाली के शीर्ष बिंदु बन जाएँ। ऐसी त्रिभुजमाला में गठे प्रत्येक त्रिभुज के तीनों कोण थियोडोलाइट से नाप लिए जाते हैं। उनमें से एक त्रिभुज ऐसा बनाया जाता है जिसकी एक भुजा भूमि पर सही सही नाप ली जाती है। उस भुजा का एक सिरे के बिंदु पर दिगंश भी ज्ञात कर लिया जाता है। तदुपरांत निम्नलिखित त्रिकोणमितीय सूत्र से अन्य त्रिभुजों की सारी भुजाओं की लंबाइयाँ निकाली जा सकती है; जैसे चित्र में अआ नापी हुई भुजा हो, तो उपर्युक्त सूत्र से आइ (भुजा) = श्होगी। इस सूत्र में अआ नापी हुई भुजा, और अ और इ नापे हुए कोण हैं। फलत: आइ भुजा ज्ञात हो जाएगी, जिससे आगे का त्रिभज आइइर् हल हो सकेगा। इसी प्रकार क्रमानुगत सभी त्रिभुज हल हो जाते हैं, फिर अ या अ के निर्देशांकों के ज्ञात होने से, आगे के बिंदुओं की दूरी और दिगंश से निर्देशांक निकाल लिए जाते हैं।
इस प्रकार का त्रिभुजन संपूर्ण प्रदेश पर बिछ जाता है। भुजाओं की लंबाई 10 से 50 मील तक होती है और निर्देशांकों की गणना पृथ्वी की वक्रता का ध्यान रखकर की जाती है। इस प्रकार का सर्वेक्षण भूगणित सर्वेक्षण के अंतर्गत आता है।
इसके बाद ऐसे प्रदेश के छोटे छोटे भूभागों का पट्ट सर्वेक्षण करने के लिए भूगणितीय सर्वेक्षण से स्थापित नियंत्रण बिंदु काम में आते हैं। यदि भूगणितीय सर्वेक्षण से प्राप्त नियंत्रण बिंदु पट्ट सर्वेक्षण के लिए पर्याप्त नहीं होते हैं, तो सर्वेक्षक स्थानीय आवश्यकता की पूर्ति के लिए भूगणितीय नियंत्रण बिंदुओं पर आधारित एक छोटा सा त्रिभुजन कर लेता है, जिससे पर्याप्त नियंत्रण बिंदु मिल जाते हैं।
ऐसे बिंदु पाकर सर्वेक्षक एक वर्गांकित कागज पर उनका आलेख बनाता है। इस प्रकार नियामकों की सहायता से सारे बिंदु अपनी सही सापेक्ष स्थितियों में बैठ जाते हैं। इन बिंदुओं से मानचित्र पर दिखाए जानेवाले अन्य बिंदुओं की दिशाओं और दूरियाँ को नापकर सर्वेक्षक उन्हें मानचित्र पर दर्शाता है। इस विवरण से यह एक सही धारणा बनेगी कि इस प्रकार के सर्वेक्षण में, तो बहुत समय नष्ट होगा। इस दुर्बलता पर विजय पाने के लिए सर्वेक्षक पटलवित्रण (plane-tabling) की प्रक्रिया अपनाता है।
पटलचित्रण में वर्गांकित पत्र पर नियंत्रणबिंदुओं के बने आलेख को सर्वेक्षक लकड़ी के एक समतल पटल पर स्थिर रूप से बैठा लेता है। ऐसा पटल एक तिपाई पर पेंच द्वारा ऐसे कस दिया जाता है कि आवश्यकता होने पर पटल पेंच की स्थिति पर घुमाया जा सके और मनचाही अवस्था में कसा जा सके। ऐसे पटल के साथ एक और उपकरण प्रयुक्त होता है, जिसे दंशरेखनी (sight rule) कहते हैं। 60 या 75 सेंटीमीटर लंबी, एक सेंटीमीटर मोटी और पाँच सेंटीमीटर चौड़ी, धातु या लकड़ी की पट्टी की दर्शरेखनी बनी होती हैं। लंबे दोनों किनारे एकदम सीधे और एक ओर को ढालू होते हैं, जिससे सीधी और सही रेखा खींचों जा सके। रेखा खींचने किनारे कागज पर रहते हैं। ऊपरवाले तल पर दो दृश्य वेधिकाएँ (sight vanes) ऊर्ध्ववर्ती खड़ी रहती हैं। सर्वेक्षक आलेखमंडित पटल को आलेख पर अंकित किसी एक बिंदु की भौमिक स्थिति (ground position) पर रखता है। तदुपरांत दर्शरेखनी को एक किनारे उपर्युक्त बिंदु और उससे दृष्टिगोचर किसी दूसरे अंकित बिंदु पर स्पर्शरेखीय रखता है। तब वह दर्शरेखनी को बिना हिलाए, दृश्य वेधिकाओं से देखते हुए, पटल को ऐसे घुमाकर स्थिर करता है जिससे दोनों स्पर्शी बिंदुओं को मिलानेवाली भौमिक रेखा पटल पर अंकित उनकी स्थितियों को मिलानेवाली रेखा के समांतर हो जाए। इस दशा में पटल पर, किन्हीं भी दो अंकित बिंदुओं को वर्गाकित कागज पर जोड़नेवाली रेखा संगति भौमिक रेखा के समांतर होगी। दूसरे शब्दों में पटल आलेख सही दिशाओं में स्थिर हो गया। इसके बाद सर्वेक्षक आलेख पर बनी अपनी स्थिति से, मानचित्र पर दर्शांए जानेवाले अन्य बिंदुओं को दृश्यवेधिका से देखकर, क्रमिक रूप से दिशारेखाएँ खींच देता है। तदुपरांत वह आलेख पर ज्ञात किसी दूसरी भौमिक स्थिति पर खड़ा होकर, पटल को पहले की भाँति ही सही दिशाओं में स्थिर करता है। इस प्रक्रिया को पटल का दिक्स्थापन (Orientation of plane table) कहते हैं। पुन: उन्हीं बिंदुओं की दिशारेखाएँ, जिन्हें किरण (ray) कहते हैं, खींची जाती हैं। ये किरणें अपनी पहली संगति किरणों पर छेदन बिंदु देकर, आलेख पर उन बिंदुओं की सही सापेक्ष स्थितियाँ स्थापित कर देती हैं। इसी प्रकार सारे क्षेत्र का सर्वेक्षण हो जाता है। सर्वेक्षक बिंदुओं को प्राप्त कर, उनसे पृथ्वी की सतह पर स्थित प्राकृतिक और कृत्रिम वस्तुओं को संकेत चीह्नों द्वारा आलेख पर बना देता है। इस क्रिया को पटलचित्रण (Plane tabling) कहते हैं।
पटलचित्रण से प्राप्त मानचित्र की मुद्रण द्वारा कई प्रतियाँ बनाई जा सकती हैं। एक ही आलेख पर कई महीनों तक सर्वेक्षक काम करता है, जिससे सर्वेक्षण हेतु संपूर्ण क्षेत्र का मानचित्र बन सके। इससे पटलचित्र कुछ गंदा और भद्दा हो जाता है। साफ और सुंदर मानचित्र प्राप्त करने की दृष्टि से सर्वेक्षक अपने पटलचित्र की, नीले रंग में अपेक्षित मानचित्र से, ड्योढ़े पैमाने पर प्रतिलिपि तैयार करता है। उसपर पुन: वस्तुओं का साफ और सुंदर आरेखन (drawing) करता है और फोटोग्राफी से घटाकर सही पैमाने का मानचित्र प्राप्त करता है (देखें प्लेन टेबुल सर्वेक्षण)।
सन् 1914 के महायुद्ध ने सर्वेक्षण की एक नई विधि को जन्म दिया है। इस विधि के अंतर्गत वायुयान से सर्वेक्षण हेतु क्षेत्र के शृंखलाबद्ध फोटो ले लिए जाते हैं। फोटो लेते समय कैमरा का अक्ष (लेंस से फोटो लेने की दिशा) एकदम ऊर्ध्वाधर (vertical) रहता है। इस कारण हम प्रकार लिए फोटो ऊर्ध्वाधर फोटोग्राफ कहलाते हैं। फोटो लेते समय यह ध्यान रखा जाता है कि प्रत्येक क्रमानुगत फोटोग्राफ में उनसे सन्निकट पीछे के फोटोग्राफ का 60% भाग उभयनिष्ठ हो और सन्निकट दाएँ और बाएँ फोटोग्राफों में 25% के लगभग भाग उभयनिष्ठ हो।
चित्रण के समय पृथ्वी की सतह से शंक्वाकार प्रकाश की किरणें कैमरा के लेंस से होकर फोटो प्लेट पर पड़ती हैं, जिससे प्रतिबिंब बनते हैं। इन्हीं किरणों में से तीन किरणें लेकर दिखाई गई हैं : एक जो चित्र के केंद्र पर पड़ती है, दूसरी एक पहाड़ की चोटी से, तीसरी एक नदी के गहरे तल से। इस चित्र के देखने से स्पष्ट हो जाएगा कि (1) समतल सतह से ऊपर उठे, या नीचे धँसे, बिंदु, मानचित्र पर बननेवाली सही ऊर्ध्वाधर प्रक्षेप (vertical projection) स्थितियों से हटे हुए चित्रित होते हैं, (2) बिंदुओं की जितनी ही अधिक ऊँचाई या गहराई होगी उनका हटाव भी उतना ही अधिक होगा, (3) यह हटाव फोटो के केंद्रबिंदु से अरीय या अनुत्रिज्य (radial) होता है। अत: पृथ्वी की सतह पर किन्हीं भी दो बिंदुओं द्वारा फोटो केंद्र की भौमिक स्थिति पर बना कोण फोटो के संगति (corresponding) कोण के बराबर होगा, (4) प्रत्येक फोटो पर आगे और पीछे के फोटो के 60% भाग के अतिव्यापन (overlapping) से उनके केंद्रीय बिंदु भी बीचवाले फोटो पर चित्रित होंगे। इन केंद्रीय बिंदुओं को प्रधान बिंदु या मुख्य आधार बिंदु (Principal point) और फोटो पर उन्हें जोड़नेवाली रेखा को आधार (Base) कहते हैं।
फोटो पर इन ज्यामितीय संबंधों का लाभ उठाकर, सर्वेक्षक उनसे मानचित्र बनाने में सफल होता है। वह पहले उस क्षेत्र में स्थित नियंत्रण बिंदुओं को फोटो पर पहचानकर चिह्नित करता है। फिर फोटो से नियंत्रणबिंदु और प्रधान बिंदुओं के साथ साथ एक ऐसा आलेख पत्र तैयार करता जिसमें सभी बिंदु वाँछित पैमाने पर अपनी सही सापेक्ष स्थितियों में बैठे होते हैं। ऐसा आलेखपत्र वह पारदर्शी कागज पर बनाता है। फिर वह प्रत्येक फोटो को क्रमश: आलेख पर अंकित उसके प्रधान बिंदु के नीचे इस प्रकार रखता है कि आलेख पर बने सन्निकट आधार, फोटो पर बने संगीत आधारों पर, संपाती हों। इस प्रकार का दिक्स्थापन होने पर, सर्वेक्षक मानचित्र में दर्शाने योग्य, उस अमुक फोटो में चित्रित, बिंदुओं को प्रधान बिंदु से किरणें खींच देता है। यही क्रिया सभी आगे और पीछे के फोटो पर होने से, स-बिंदुगामी किरणों के छेदन पर, बिंदुओं के सही सापेक्ष स्थितियाँ प्राप्त हो जाती हैं जिनकी सहायता से पटलचित्रण की भाँति मानचित्र तैयार हो जाता है। इस क्रिया को हवाई सर्वेक्षण (Airsurvey) कहते हैं।
यदि हवाई फोटोग्राफ, कैमरा के अक्ष को ऊर्ध्वाधर दिशा से झुका हुआ रखकर, लिए जाएँ, तो भी सर्वेक्षक उनसे मानचित्र तैयार कर सकता है। इस प्रकार से लिए चित्र तिर्यक् फोटोग्राफ (Oblique photographs) कहलाते हैं।
सर्वेक्षण क्रिया की उत्पत्ति की कहानी आदिकाल से आज तक के मानव समाज के विकास की कहानी, प्रधानत: सुख और समृद्धि के लिए भ्रमण और भूमि पर प्रभुसत्ता की प्राप्ति से, जुड़ी हुई है। भ्रमण के लिए स्थानों के बीच की दूरियों और दिशाओं का ज्ञान और प्रभुसत्ता के लिए सीमाओं और क्षेत्रफल का जानना आवश्यक था। ऐसा ज्ञान होने के प्रमाण प्राचीन ग्रंथों में राज्यों के विस्तार, दिशाओं के विवरण और दूरी के लिए योजना आदि के उल्लेख से मिलते हैं। प्राचीन काल में शिलाओं, भोजपत्र, ताम्रपत्र और कागज के प्रयोग से पूर्व, स्थानों के बीच की दूरी, दिशाएँ पहचानने का ज्ञान तथा अधिकार सीमाएँ मानव के स्मृतिपटल पर अंकित रहती होंगी। युद्ध और कलह का भय उत्पन्न होने पर, उस स्मृति और लिए गए मापों को किसी माध्यम पर प्रदर्शित करने की क्रिया का जन्म हुआ होगा, जिसे बाद में सर्वेक्षण की संज्ञा दी गई। इस प्रकार मनुष्य की महत्वाकांक्षाओं और सर्वेक्षण का गहरा संबंध होने के कारण सर्वेक्षणक्रिया निरंतर उन्नति करती गई।
ऐसे प्रयासों का सबसे प्राचीन प्रमाण ईसा से 370 वर्ष पूर्व का मिला है, जो ट्यूरिन के अजायबघर में आज भी सुरक्षित है। यूनान और मिस्र में भी शिलाओं और लकड़ी के तख्तों पर सर्वेक्षण के प्राचीन आलेख मिले हैं। ऑस्ट्रिया में ईसापूर्व काल के कुछ ऐसे चिह्न मिले हैं जिनसे पता लगता है कि रोम साम्राज्य में सर्वेक्षण का प्रचलन था। उन्होंने मार्गों की सीध बाँधने के लिए आज जैसे उपकरण, सर्वेक्षण पट्ट (plane table) और दूसरा नापने के लिए अंकित छड़ों का प्रयोग किया था। ऐसे भी प्रमाण मिले हैं कि 300 वर्ष ईसापूर्व भारत पर आक्रमण के समय, यूनानियों ने सिंध से फारस की खाड़ी तक समुद्रतट नापकर लेखाचित्र तैयार किया था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र और बाणभट्ट के हर्षचरित् में राजस्व के निर्धारण के सिलसिले में भूमि की नाप आदि के उल्लेख मिलते हैं। 1450 ई. में अरबवासियों ने कई समुद्री यात्राएँ कीं और समुद्रतटों के लेखाचित्र तैयार किए। 1498 ई. में वास्को डा गामा के भारत आने पर एक गुजराती पंडित ने उसे समुद्रतट का एक रेखाचित्र भेंट किया था। इससे विदित होता है कि सभ्यता के मार्ग पर बढ़े हुए सभी देशों में सर्वेक्षण का महत्व निरंतर बढ़ता रहा और कृषि, राजस्व, भूमि के अधिकार की सीमाओं के निर्धारण और यात्राओं में मार्गों के लेखाचित्र बनाने में सर्वेक्षण का अभ्यास एवं प्रयोग होता रहा है। मगर 16वीं शताब्दी के समाप्त होते होते तो सर्वेक्षणक्रिया का महत्व आशातीत बढ़ा। मार्को पोलो, वास्को डी गामा, कोलंबस और कैप्टन कुक के भ्रमणों से यूरोप निवासियों को संसार के विस्तार और उसपर स्थित समृद्ध देश तथा उपजाऊ भूमि का पता लगा, तो वे बहुत तादाद में अपनी भाग्यपरीक्षा के लिए निकल पड़े। भूमि पर आधिपत्य करने में उनमें स्पर्धा जागी, जिससे सर्वेक्षणक्रियाओं को नई स्फूर्ति और तीव्र गति मिली। उस समय का बना हुआ भारत और अरब का मानचित्र ब्रिटिश अजायबघर में आज भी सुरक्षित है। नक्शे से पता लगता है कि वह फेरंडो बर्टोली द्वारा 1565 ई. में बनाया गया था। इसके बाद 1612 ई. में गेरार्डरा मर्केटर द्वारा बनाया भारत का मानचित्र, उस समय का अथक प्रयास, भी थाती के रूप में सुरक्षित है।
वर्गीकरण - शनै: शनै: अधिकार की रक्षा के साथ साथ देशों में विकास के प्रति भी रुचि जागी। संपूर्ण देश, अमुक साम्राज्य, संपूर्ण संसार एक साथ देखने की जिज्ञासा बढ़ी। इसकी पूर्ति का साधन मानचित्र ही हो सकता था। इस कारण सर्वेक्षण में इतनी नई नई खोजें हुई कि उनके आधार पर सर्वेक्षणक्रिया ही दो प्रमुख वर्गों में बँट गई : (1) भूगणितीय सर्वेक्षण (geodetic surveying) और (2) पट्ट सर्वेक्षण (plane surveying)। इस वर्गीकरण का मुख्य आधार पृथ्वी का आकार है। जिस सर्वेक्षण में पृथ्वी के आकार को गोलाभ (spheroid) मानकर, उसकी सतह पर लिए गए नापों का प्रयोग करने से पहले पृथ्वी की वक्रता के लिए शोधन करते हैं, उसे भूगणितीय सर्वेक्षण कहते हैं। यह कठिन प्रक्रिया होती है। मगर पृथ्वी की गोल या वक्र सतह पर नापी दूरियाँ यदि अधिक लंबी न हों, तो उन्हें वक्र न मानकर ऋजु (सीधा) ही मान लिया जाए, तो कोई विशेष त्रुटि नहीं होगी। उदाहरणार्थ, पृथ्वी की वक्र सतह पर 11.5 मील लंबी रेखा नापने पर उसमें पृथ्वी के कारण केवल 0.05 फुट की त्रुटि होगी। इसी प्रकार पृथ्वी की सतह पर किन्हीं भी तीन बिंदुओं द्वारा 75 वर्ग मील क्षेत्रफल के त्रिभुज को समतल सतह पर सीधी रेखाओं द्वारा प्रदर्शित किया जाए, तो उसके कोणों के योग और उसी त्रिभुज की वक्र सतह पर बने कोणों के योग में केवल एक सेकंड का अंतर होगा। इस कारण यदि छोटे छोटे क्षेत्रों के नक्शे तैयार किए जाएँ, तो पृथ्वी की सतह पर ली गई नाप को सीधी रेखाओं में सतल पर प्रदर्शित करने से कोई खटकनेवाली गलती नहीं होगी। इसलिए पृथ्वी के छोटे क्षेत्र को समतल मानकर, उस पर ली गई नापों को बिना वक्रता के शोधन के किसी पैमाने पर समतल कागज पर अंकित कर दिया जाता है। इस प्रकार के सर्वेक्षण को पट्ट सर्वेक्षण कहते हैं।
सामान्य व्यवहार में आनेवाले सर्वेक्षण समतलीय सर्वेक्षण ही होते हैं। भिन्न उद्देश्यों की सिद्धि के लिए सर्वेक्षणों की प्रक्रिया, उपकरण, पैमाना आदि में भी कुछ अंतर पैदा हो जाता है। इन कारणों से पट्ट सर्वेक्षण के भी कई वर्ग बन गए हैं : (1) पैमाने के आधार पर 1:50,000; 1:25,000 1:5,000; 1:1,000 सर्वेक्षण (इस प्रकार से बताए पैमाने का अर्थ है कि मानचित्र पर एक इकाई लंबी रेखा भूमि पर क्रमश: 50,000; 25,000; 5,000 1,000 इकाई लंबाई के बराबर होगी), (2) किसी मंतव्य या कार्य विशेष के लिए किया गया सर्वेक्षण, जैसे स्थलाकृतिक (topographical), इंजीनियरी, राजस्व (revenue) तथा खनिज (mineral) सर्वेक्षण, तथा (3) प्रयुक्त प्रमुख यंत्रों के नाम पर, जैसे जरीब सर्वेक्षण, टैकोमीटर (tachometer) सर्वेक्षण आदि।
यदि ऐसे समतलीय सर्वेक्षणों से भारत जैसे विस्तृत देश या महाद्वीप के मानचित्र संकलित (compile) किए जा सकें, तो पट्ट सर्वेक्षणों का महत्व आशातीत बढ़ जाता है। यह तभी संभव होगा, जब पट्ट सर्वेक्षणों की आधारशिला भूगणितीय सर्वेक्षण पर हो। आधारशिला का उल्लेख तभी ग्राह्य हो सकेगा, जब उसकी कुछ संक्षिप्त व्याख्या कर दी जाए।
सर्वेक्षण के आधारभूत सिद्धांत- ये सिद्धांत बड़े ही सरल हैं। पृथ्वी की सतह पर बड़ी सरलता से दो ऐसे बिंदु चुने जा सकते हैं जो एक दूसरे की स्थिति से देखें जा सकें और उनके बीच की दूरी नापी जा सके। इन्हें किसी भी वांछित पैमाने पर कागज पर ऐसे लगाया जा सकता है कि उनके निकटवर्ती क्षेत्र का सर्वेक्षण कागज पर समा सके। इसके बाद इन दो बिंदुओं से किसी भी तीसरे बिंदु की दूरी नापकर उसी पैमाने से कागज पर उसकी सापेक्ष स्थिति अंकित कर सकते हैं। इस प्रकार अंकित किन्हीं भी दो बिंदुओं से किसी तीसरे अज्ञात बिंदु की दूरी निकालकर तथा क्रमानुगत अंकित करके, पूरे क्षेत्र का मानचित्र बनाया जा सकता है।
दूसरे शब्दों में सर्वेक्षण की विधि त्रिभुज की रचना है। ऊपर तो त्रिभुज की एक ही रचना का उल्लेख किया गया है, जिसमें त्रिभुज की तीनों भुजाओं की लंबाइयाँ ज्ञात है। त्रिभुज की अन्य रचना विधियाँ भी सर्वेक्षण में प्रयुक्त होती हैं जो उपर्युक्त विधि के साथ आगे चित्र 1. में दिखाई गई हैं।
उपर्युक्त रचना विधियों से यह निष्कर्ष निकलता है कि सर्वेक्षण के लिए दो बिंदु ज्ञात होना अत्यंत आवश्यक है, जिससे तीसरे बिंदु की सापेक्ष स्थिति का पता लगना संभव हो सके। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि ऐसे सर्वेक्षण में बिंदुओं की सापेक्ष स्थितियाँ सही होने पर, उनकी दिशाओं का ज्ञान नहीं हो सकता। जो हो भी सकता है वह केवल चुंबकीय कुतुबनुमा की यथार्थता तक ही सीमित रहेगा। इससे यह कठिनाई होगी कि विस्तृत क्षेत्र में यदि किन्हीं भिन्न भिन्न दो या अधिक स्थलों से, स्वतंत्र रूप से दो दो बिंदु लेकर सर्वेक्षण आरंभ किए जाएँ, तो उनका उभयनिष्ठ रेखा पर ठीक मिलान होगा अवश्यंभावी नहीं है। क्योंकि ऐसे सर्वेक्षणों के प्रारंभिक आधारों के आलेखों की एक समान दिशाएँ रखने की कोई निश्चित सुविधा और सिद्धांत नहीं है। इस अनिश्चितता को दूर करने के लिए, सर्वेक्षण हेतु संपूर्ण विस्तृत प्रदेश में व्यवस्थित और आयोजित रूप से प्रमुख बिंदु चुनकर उनमें एक मूलबिंदु (origin) मान लेते हैं। फिर मूलबिंदु के क्रमश: अन्य बिंदुओं की दूरियाँ और उत्तर दिशा से कोण ज्ञात कर लेता है, और इन अवयवों से सर्वेक्षक उन बिंदुओं के निर्देशांक (co-ordinates) निकाल लेता है। उदाहरणार्थ, चित्र 2. में अ, आ, इ....चुने हुए बिंदु हैं और अ मूलबिंदु है, तो आ के निर्देशांक (अ आ = द) द कोज्या [11 cos b1] और द ज्या क [11 sin b1] होंगे। इसी प्रकार इ विंदु के निर्देशांक द कोज्या क + दा (= आ इ) कोज्या ख [11cosb1 +12cosb2] और द ज्या क + दा ज्या ख [11sinb1 +12sinb2] होंगे। इसी प्रकार अन्य बिंदुओं के निर्देशांक निकाले जा सकते हैं।
इस क्रिया की सफलता के लिए सर्वेक्षक के लिए निम्नलिखित तीन समस्याओं का हल निकालना आवश्यक होता है : (1) कोण नापने की, (2) दो क्रमानुगत बिंदुओं के बीच दूरी नापने की तथा (3) पर्वतीय प्रदेशों और टूटी फूटी भूमि पर दूरी नापने की।
पहली समस्या का हल सर्वेक्षक ने चुंबक की सूई के गुण का, जो सर्वत्र विदित हैं, लाभ उठाकर और थियोडोलाइट (देखें थियोडोलाइट) का आविष्कार करके लिया। दूसरी समस्या का हल फीता, जरीब आदि कई प्रकार के उपकरणों के प्रयोग से किया, जो सर्वसाधारण को विदित हैं। समतल या लगभग चौरस भूमि के प्रदेशों में इन दो समस्याओं के समाधान से एक सर्वेक्षण विधि को जन्म मिला, जिससे चुने हुए बिंदुओं के निर्देशांक निकाले जा सकते हैं। इस विधि को थियोडोलाइट संक्रमण (Theodolite traversing), या केवल चंक्रमण (Traversing), कहते हैं।
यह विधि बहुत कुछ चित्र 3. से स्पष्ट है। अ, आ, इ, ई आदि क्रमानुगत बिंदुओं के बीच क्रमश: दूरी नापते हैं और पीछे के बिंदु पर आगे के बिंदु को मिलानेवाली रेखा के पीछे के बिंदु पर आगे के बिंदु को मिलानेवाली रेखा का पीछे के बिंदु पर उत्तर दिशा से कोण ज्ञात कर लेते हैं जिसमें थियोडोलाइट का प्रयोग होता है। इस उत्तर दिशा से नापे कोण को दिगंश (Azimuth) कहते हैं। क्रमागत बिंदुओं के बीच की दूरी और दिशा ज्ञात होने से, निर्देशांक सरलता से निकाले जा सकते हैं। इस प्रकार सर्वेक्षण हेतु संपूर्ण क्षेत्र में बिंदु स्थापित कर दिए जाते हैं। इन बिंदुओं को सर्वेक्षण नियंत्रण बिंदु, या केवल नियंत्रण बिंदु (Control points), कहते हैं। दिगंश निकालने के लिए ध्रुवतारे (Polaris) या सूर्य के प्रेक्षण किए जाते हैं, जिनसे समुचित गणितीय सूत्रों के हल से वांछित दिगंश निकल आता है।
मगर जहाँ भूमि टूटी फूटी या ऊँची नीची हो, जिसपर चुने गए क्रमानुगत बिंदुओं के बीच की सीधी दूरी फीते या जरीब से न नापी जा सके, तो चक्रमण की विधि सफल नहीं होगी। ऐसी दशा में सर्वेक्षक त्रिभुजन (triangulation) की विधि अपनाता है। इस विधि की यह विशेषता है कि सर्वेक्षक गणितीय सूत्रों के प्रयोग से बिंदुओं के बीच की दूरी निकाल सकता है। अत: सर्वेक्षक ऊँचे नीचे पर्वतीय प्रदेश में लंबी लंबी दूरी तक दृष्टिगोचर प्रमुख बिंदुओं को इस प्रकार चुनता है कि वे त्रिभुजों की सुगठित जाली के शीर्ष बिंदु बन जाएँ। ऐसी त्रिभुजमाला में गठे प्रत्येक त्रिभुज के तीनों कोण थियोडोलाइट से नाप लिए जाते हैं। उनमें से एक त्रिभुज ऐसा बनाया जाता है जिसकी एक भुजा भूमि पर सही सही नाप ली जाती है। उस भुजा का एक सिरे के बिंदु पर दिगंश भी ज्ञात कर लिया जाता है। तदुपरांत निम्नलिखित त्रिकोणमितीय सूत्र से अन्य त्रिभुजों की सारी भुजाओं की लंबाइयाँ निकाली जा सकती है; जैसे चित्र में अआ नापी हुई भुजा हो, तो उपर्युक्त सूत्र से आइ (भुजा) = श्होगी। इस सूत्र में अआ नापी हुई भुजा, और अ और इ नापे हुए कोण हैं। फलत: आइ भुजा ज्ञात हो जाएगी, जिससे आगे का त्रिभज आइइर् हल हो सकेगा। इसी प्रकार क्रमानुगत सभी त्रिभुज हल हो जाते हैं, फिर अ या अ के निर्देशांकों के ज्ञात होने से, आगे के बिंदुओं की दूरी और दिगंश से निर्देशांक निकाल लिए जाते हैं।
इस प्रकार का त्रिभुजन संपूर्ण प्रदेश पर बिछ जाता है। भुजाओं की लंबाई 10 से 50 मील तक होती है और निर्देशांकों की गणना पृथ्वी की वक्रता का ध्यान रखकर की जाती है। इस प्रकार का सर्वेक्षण भूगणित सर्वेक्षण के अंतर्गत आता है।
इसके बाद ऐसे प्रदेश के छोटे छोटे भूभागों का पट्ट सर्वेक्षण करने के लिए भूगणितीय सर्वेक्षण से स्थापित नियंत्रण बिंदु काम में आते हैं। यदि भूगणितीय सर्वेक्षण से प्राप्त नियंत्रण बिंदु पट्ट सर्वेक्षण के लिए पर्याप्त नहीं होते हैं, तो सर्वेक्षक स्थानीय आवश्यकता की पूर्ति के लिए भूगणितीय नियंत्रण बिंदुओं पर आधारित एक छोटा सा त्रिभुजन कर लेता है, जिससे पर्याप्त नियंत्रण बिंदु मिल जाते हैं।
ऐसे बिंदु पाकर सर्वेक्षक एक वर्गांकित कागज पर उनका आलेख बनाता है। इस प्रकार नियामकों की सहायता से सारे बिंदु अपनी सही सापेक्ष स्थितियों में बैठ जाते हैं। इन बिंदुओं से मानचित्र पर दिखाए जानेवाले अन्य बिंदुओं की दिशाओं और दूरियाँ को नापकर सर्वेक्षक उन्हें मानचित्र पर दर्शाता है। इस विवरण से यह एक सही धारणा बनेगी कि इस प्रकार के सर्वेक्षण में, तो बहुत समय नष्ट होगा। इस दुर्बलता पर विजय पाने के लिए सर्वेक्षक पटलवित्रण (plane-tabling) की प्रक्रिया अपनाता है।
पटलचित्रण में वर्गांकित पत्र पर नियंत्रणबिंदुओं के बने आलेख को सर्वेक्षक लकड़ी के एक समतल पटल पर स्थिर रूप से बैठा लेता है। ऐसा पटल एक तिपाई पर पेंच द्वारा ऐसे कस दिया जाता है कि आवश्यकता होने पर पटल पेंच की स्थिति पर घुमाया जा सके और मनचाही अवस्था में कसा जा सके। ऐसे पटल के साथ एक और उपकरण प्रयुक्त होता है, जिसे दंशरेखनी (sight rule) कहते हैं। 60 या 75 सेंटीमीटर लंबी, एक सेंटीमीटर मोटी और पाँच सेंटीमीटर चौड़ी, धातु या लकड़ी की पट्टी की दर्शरेखनी बनी होती हैं। लंबे दोनों किनारे एकदम सीधे और एक ओर को ढालू होते हैं, जिससे सीधी और सही रेखा खींचों जा सके। रेखा खींचने किनारे कागज पर रहते हैं। ऊपरवाले तल पर दो दृश्य वेधिकाएँ (sight vanes) ऊर्ध्ववर्ती खड़ी रहती हैं। सर्वेक्षक आलेखमंडित पटल को आलेख पर अंकित किसी एक बिंदु की भौमिक स्थिति (ground position) पर रखता है। तदुपरांत दर्शरेखनी को एक किनारे उपर्युक्त बिंदु और उससे दृष्टिगोचर किसी दूसरे अंकित बिंदु पर स्पर्शरेखीय रखता है। तब वह दर्शरेखनी को बिना हिलाए, दृश्य वेधिकाओं से देखते हुए, पटल को ऐसे घुमाकर स्थिर करता है जिससे दोनों स्पर्शी बिंदुओं को मिलानेवाली भौमिक रेखा पटल पर अंकित उनकी स्थितियों को मिलानेवाली रेखा के समांतर हो जाए। इस दशा में पटल पर, किन्हीं भी दो अंकित बिंदुओं को वर्गाकित कागज पर जोड़नेवाली रेखा संगति भौमिक रेखा के समांतर होगी। दूसरे शब्दों में पटल आलेख सही दिशाओं में स्थिर हो गया। इसके बाद सर्वेक्षक आलेख पर बनी अपनी स्थिति से, मानचित्र पर दर्शांए जानेवाले अन्य बिंदुओं को दृश्यवेधिका से देखकर, क्रमिक रूप से दिशारेखाएँ खींच देता है। तदुपरांत वह आलेख पर ज्ञात किसी दूसरी भौमिक स्थिति पर खड़ा होकर, पटल को पहले की भाँति ही सही दिशाओं में स्थिर करता है। इस प्रक्रिया को पटल का दिक्स्थापन (Orientation of plane table) कहते हैं। पुन: उन्हीं बिंदुओं की दिशारेखाएँ, जिन्हें किरण (ray) कहते हैं, खींची जाती हैं। ये किरणें अपनी पहली संगति किरणों पर छेदन बिंदु देकर, आलेख पर उन बिंदुओं की सही सापेक्ष स्थितियाँ स्थापित कर देती हैं। इसी प्रकार सारे क्षेत्र का सर्वेक्षण हो जाता है। सर्वेक्षक बिंदुओं को प्राप्त कर, उनसे पृथ्वी की सतह पर स्थित प्राकृतिक और कृत्रिम वस्तुओं को संकेत चीह्नों द्वारा आलेख पर बना देता है। इस क्रिया को पटलचित्रण (Plane tabling) कहते हैं।
पटलचित्रण से प्राप्त मानचित्र की मुद्रण द्वारा कई प्रतियाँ बनाई जा सकती हैं। एक ही आलेख पर कई महीनों तक सर्वेक्षक काम करता है, जिससे सर्वेक्षण हेतु संपूर्ण क्षेत्र का मानचित्र बन सके। इससे पटलचित्र कुछ गंदा और भद्दा हो जाता है। साफ और सुंदर मानचित्र प्राप्त करने की दृष्टि से सर्वेक्षक अपने पटलचित्र की, नीले रंग में अपेक्षित मानचित्र से, ड्योढ़े पैमाने पर प्रतिलिपि तैयार करता है। उसपर पुन: वस्तुओं का साफ और सुंदर आरेखन (drawing) करता है और फोटोग्राफी से घटाकर सही पैमाने का मानचित्र प्राप्त करता है (देखें प्लेन टेबुल सर्वेक्षण)।
सन् 1914 के महायुद्ध ने सर्वेक्षण की एक नई विधि को जन्म दिया है। इस विधि के अंतर्गत वायुयान से सर्वेक्षण हेतु क्षेत्र के शृंखलाबद्ध फोटो ले लिए जाते हैं। फोटो लेते समय कैमरा का अक्ष (लेंस से फोटो लेने की दिशा) एकदम ऊर्ध्वाधर (vertical) रहता है। इस कारण हम प्रकार लिए फोटो ऊर्ध्वाधर फोटोग्राफ कहलाते हैं। फोटो लेते समय यह ध्यान रखा जाता है कि प्रत्येक क्रमानुगत फोटोग्राफ में उनसे सन्निकट पीछे के फोटोग्राफ का 60% भाग उभयनिष्ठ हो और सन्निकट दाएँ और बाएँ फोटोग्राफों में 25% के लगभग भाग उभयनिष्ठ हो।
चित्रण के समय पृथ्वी की सतह से शंक्वाकार प्रकाश की किरणें कैमरा के लेंस से होकर फोटो प्लेट पर पड़ती हैं, जिससे प्रतिबिंब बनते हैं। इन्हीं किरणों में से तीन किरणें लेकर दिखाई गई हैं : एक जो चित्र के केंद्र पर पड़ती है, दूसरी एक पहाड़ की चोटी से, तीसरी एक नदी के गहरे तल से। इस चित्र के देखने से स्पष्ट हो जाएगा कि (1) समतल सतह से ऊपर उठे, या नीचे धँसे, बिंदु, मानचित्र पर बननेवाली सही ऊर्ध्वाधर प्रक्षेप (vertical projection) स्थितियों से हटे हुए चित्रित होते हैं, (2) बिंदुओं की जितनी ही अधिक ऊँचाई या गहराई होगी उनका हटाव भी उतना ही अधिक होगा, (3) यह हटाव फोटो के केंद्रबिंदु से अरीय या अनुत्रिज्य (radial) होता है। अत: पृथ्वी की सतह पर किन्हीं भी दो बिंदुओं द्वारा फोटो केंद्र की भौमिक स्थिति पर बना कोण फोटो के संगति (corresponding) कोण के बराबर होगा, (4) प्रत्येक फोटो पर आगे और पीछे के फोटो के 60% भाग के अतिव्यापन (overlapping) से उनके केंद्रीय बिंदु भी बीचवाले फोटो पर चित्रित होंगे। इन केंद्रीय बिंदुओं को प्रधान बिंदु या मुख्य आधार बिंदु (Principal point) और फोटो पर उन्हें जोड़नेवाली रेखा को आधार (Base) कहते हैं।
फोटो पर इन ज्यामितीय संबंधों का लाभ उठाकर, सर्वेक्षक उनसे मानचित्र बनाने में सफल होता है। वह पहले उस क्षेत्र में स्थित नियंत्रण बिंदुओं को फोटो पर पहचानकर चिह्नित करता है। फिर फोटो से नियंत्रणबिंदु और प्रधान बिंदुओं के साथ साथ एक ऐसा आलेख पत्र तैयार करता जिसमें सभी बिंदु वाँछित पैमाने पर अपनी सही सापेक्ष स्थितियों में बैठे होते हैं। ऐसा आलेखपत्र वह पारदर्शी कागज पर बनाता है। फिर वह प्रत्येक फोटो को क्रमश: आलेख पर अंकित उसके प्रधान बिंदु के नीचे इस प्रकार रखता है कि आलेख पर बने सन्निकट आधार, फोटो पर बने संगीत आधारों पर, संपाती हों। इस प्रकार का दिक्स्थापन होने पर, सर्वेक्षक मानचित्र में दर्शाने योग्य, उस अमुक फोटो में चित्रित, बिंदुओं को प्रधान बिंदु से किरणें खींच देता है। यही क्रिया सभी आगे और पीछे के फोटो पर होने से, स-बिंदुगामी किरणों के छेदन पर, बिंदुओं के सही सापेक्ष स्थितियाँ प्राप्त हो जाती हैं जिनकी सहायता से पटलचित्रण की भाँति मानचित्र तैयार हो जाता है। इस क्रिया को हवाई सर्वेक्षण (Airsurvey) कहते हैं।
यदि हवाई फोटोग्राफ, कैमरा के अक्ष को ऊर्ध्वाधर दिशा से झुका हुआ रखकर, लिए जाएँ, तो भी सर्वेक्षक उनसे मानचित्र तैयार कर सकता है। इस प्रकार से लिए चित्र तिर्यक् फोटोग्राफ (Oblique photographs) कहलाते हैं।
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