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डॉ. दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'दुइ पाटन के बीच में'
बाढ़ के साथ जीने की कला को उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों से ही सीखना पड़ेगा और उसे आधुनिक विज्ञान की मदद से सँवारना होगा। तमाम मुश्किलों के बावजूद बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में लोग आबाद हैं और वहाँ का जनसंख्या घनत्व पानी की कमी वाले क्षेत्रों से कहीं ज्यादा है। इसका मतलब यह कभी नहीं होता है कि प्रकृति के सामने हम असहाय और अकर्मण्य होकर बैठ जायें मगर इसका मतलब यह जरूर होता है कि प्रकृति के साथ जहाँ तक हो सके कम से कम छेड़-छाड़ की जाये। बाढ़ के इलाकों में सदियों से रहने वाले लोगों ने अपने जीवन निर्वाह के लिए भोजन, ईंधन तथा चारे की व्यवस्था बना कर रखी है ताकि बाढ़ के समय असुविधायें कम हों। उन्होंने आपात स्थिति में अपने आश्रय स्थल भी निर्धारित किये थे। घरों की डिजाइन और उनमें स्थानीय रूप से उपलब्ध गृह निर्माण सामग्री का भी बखूबी उपयोग किया है। उनकी भोजन की रुचियाँ उपलब्ध खाद्य सामग्रियों के आधार पर बनीं और बाढ़ के अनुरूप ही लोगों ने अपनी फसल पद्धतियाँ विकसित कीं और उनमें समय पर आवश्यकतानुसार सुधार किये। पूर्वोत्तर राज्यों तथा नेपाल की तराई वाले भाग में लकड़ी या बांस के खम्भों पर बने घर गृह निर्माण की दिशा में स्थानीय लोगों द्वारा सुधार और प्रगति को दर्शाते हैं और इनमें से अधिकांश तौर-तरीके जरूर स्थान विशेष को ध्यान में रख कर विकसित हुये होंगे। यह बात जरूर है कि इन सारी चीजों को सभी जगहों पर एक समान तरीके से लागू नहीं किया जा सकता मगर यह सोचना कि बाढ़-ग्रस्त इलाकों में लोगों को एकदम नये सिरे से बाढ़-पूर्व तैयारी सिखानी पड़ेगी और उनसे सीखने के लिए कुछ भी नहीं है, नादानी होगी। नदियों के साथ जीने वाले बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के बाशिन्दों के जीवन्त अनुभव को इंजीनियरों के तकनीकी ज्ञान और उनकी गणितीय क्षमता का एक साथ उपयोग कर के ही बाढ़ों के साथ आज के समय में सामन्जस्य स्थापित किया जा सकता है।
हमने पूर्ववर्ती अध्यायों में कोसी की बाढ़ और सिंचाई व्यवस्था पर एक नजर डाली है। हम यह भी जानते हैं कि हम वर्षा को नहीं रोक सकते और नेपाल में बांधों का निर्माण हमारे अख्तियार में नहीं है। निकट भविष्य में उनके निर्माण पर सन्देह व्यक्त किये जा रहे हैं और यह बांध कब बनेंगे और बनेंगे भी या नहीं, कोई नहीं जानता। इन बांधों के निर्माण के बाद भी बाढ़ पर कोई असर पड़ेगा या नहीं, यह भी निश्चित नहीं है।
ऐसा इसलिए कि नेपाल में बराहक्षेत्र के पास जिस साइट नं. 13 पर बांध का प्रस्ताव किया गया है वहाँ कोसी का जल-ग्रहण क्षेत्र 59,550 वर्ग किलोमीटर है। साइट नम्बर 13 से भीमनगर बराज के बीच में कोसी का जल-ग्रहण क्षेत्र 2266 वर्ग किलोमीटर बढ़ जाता है। बराज के नीचे कुरसेला में कोसी के गंगा से संगम तक नदी का जल-ग्रहण क्षेत्र 11,410 वर्ग किलोमीटर और जुड़ जाता है। इस तरह से प्रस्तावित बराह क्षेत्र बांध के नीचे भी कोसी में 13,676 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से पानी आता है। बागमती नदी का जल-ग्रहण क्षेत्र इससे थोड़ा सा ही ज्यादा है और कमला नदी का जल-ग्रहण क्षेत्र इसका लगभग आध है। इसका सीध मतलब यह होता है कि बराहक्षेत्र बांध के निर्माण के बाद भी बांध के नीचे बागमती नदी के प्रवाह जितना या कमला के प्रवाह से दुगना पानी फिर भी बहेगा। जिसने भी इन दोनों नदियों को उफनते देखा है वह इस पानी का आसानी से अन्दाजा लगा सकता है। आजकल यही पानी कोसी के पूर्वी और पश्चिमी तटबन्ध के किनारे जमा होता है और जल-जमाव को स्थाई बनाता है। इस तरह से बराहक्षेत्र बांध के निर्माण के बाद भी इलाके के जल जमाव पर कोई भी अन्तर नहीं पड़ेगा। इसके साथ ही बरसात के मौसम में कोसी के सारे पानी को बांध में रोक कर नहीं रखा जा सकेगा और उसे बांध से छोड़ते रहना पड़ेगा। इस तरह से तटबंधें के बीच भी बाढ़ की परिस्थिति में कोई अन्तर नहीं आयेगा। इस तरह से बराहक्षेत्र बांध बने या न बने, इस इलाके से बाढ़ या जल जमाव की स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।
जहाँ बाढ़ के अलावा सब कुछ अनिश्चित है वहाँ बाढ़ से निपटने के लिए क्या हमारे पास कोई योजना है? इस प्रश्न का उत्तर केवल ‘नहीं’ है। अगर हमारे पास बाढ़ का मुकाबला करने की कोई भी व्यवस्था नहीं है तो क्या हम कुछ व्यवस्था विकसित कर सकते हैं? इस प्रयास को कुछ लोग ‘बाढ़ के साथ जीना’ भी कहते हैं। मगर इसका मतलब बहुत से लोग यह लगाते हैं कि जनता को प्राकृतिक आपदा के सामने पूरी तरह आत्म समर्पण का नुस्खा बताया जा रहा है और डूबते हुये आदमी को अकर्मण्यता का पाठ पढ़ाने की कोशिश की जा रही है ताकि वह मौत को अपनी नियति मान कर सिर झुका कर उसका वरण कर ले। हम यहाँ जोर देकर कहना चाहते हैं कि बाढ़ के साथ जीने की कला को उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों से ही सीखना पड़ेगा और उसे आधुनिक विज्ञान की मदद से सँवारना होगा। तमाम मुश्किलों के बावजूद बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में लोग आबाद हैं और वहाँ का जनसंख्या घनत्व पानी की कमी वाले क्षेत्रों से कहीं ज्यादा है। इसका मतलब यह कभी नहीं होता है कि प्रकृति के सामने हम असहाय और अकर्मण्य होकर बैठ जायें मगर इसका मतलब यह जरूर होता है कि प्रकृति के साथ जहाँ तक हो सके कम से कम छेड़-छाड़ की जाये। यहाँ हम इस विधा के कुछ आयामों के बारे में बात चीत करेंगे।
बाढ़ के साथ जीने की जरूरत
हमने पूर्ववर्ती अध्यायों में कोसी की बाढ़ और सिंचाई व्यवस्था पर एक नजर डाली है। हम यह भी जानते हैं कि हम वर्षा को नहीं रोक सकते और नेपाल में बांधों का निर्माण हमारे अख्तियार में नहीं है। निकट भविष्य में उनके निर्माण पर सन्देह व्यक्त किये जा रहे हैं और यह बांध कब बनेंगे और बनेंगे भी या नहीं, कोई नहीं जानता। इन बांधों के निर्माण के बाद भी बाढ़ पर कोई असर पड़ेगा या नहीं, यह भी निश्चित नहीं है।
ऐसा इसलिए कि नेपाल में बराहक्षेत्र के पास जिस साइट नं. 13 पर बांध का प्रस्ताव किया गया है वहाँ कोसी का जल-ग्रहण क्षेत्र 59,550 वर्ग किलोमीटर है। साइट नम्बर 13 से भीमनगर बराज के बीच में कोसी का जल-ग्रहण क्षेत्र 2266 वर्ग किलोमीटर बढ़ जाता है। बराज के नीचे कुरसेला में कोसी के गंगा से संगम तक नदी का जल-ग्रहण क्षेत्र 11,410 वर्ग किलोमीटर और जुड़ जाता है। इस तरह से प्रस्तावित बराह क्षेत्र बांध के नीचे भी कोसी में 13,676 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से पानी आता है। बागमती नदी का जल-ग्रहण क्षेत्र इससे थोड़ा सा ही ज्यादा है और कमला नदी का जल-ग्रहण क्षेत्र इसका लगभग आध है। इसका सीध मतलब यह होता है कि बराहक्षेत्र बांध के निर्माण के बाद भी बांध के नीचे बागमती नदी के प्रवाह जितना या कमला के प्रवाह से दुगना पानी फिर भी बहेगा। जिसने भी इन दोनों नदियों को उफनते देखा है वह इस पानी का आसानी से अन्दाजा लगा सकता है। आजकल यही पानी कोसी के पूर्वी और पश्चिमी तटबन्ध के किनारे जमा होता है और जल-जमाव को स्थाई बनाता है। इस तरह से बराहक्षेत्र बांध के निर्माण के बाद भी इलाके के जल जमाव पर कोई भी अन्तर नहीं पड़ेगा। इसके साथ ही बरसात के मौसम में कोसी के सारे पानी को बांध में रोक कर नहीं रखा जा सकेगा और उसे बांध से छोड़ते रहना पड़ेगा। इस तरह से तटबंधें के बीच भी बाढ़ की परिस्थिति में कोई अन्तर नहीं आयेगा। इस तरह से बराहक्षेत्र बांध बने या न बने, इस इलाके से बाढ़ या जल जमाव की स्थिति में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।
जहाँ बाढ़ के अलावा सब कुछ अनिश्चित है वहाँ बाढ़ से निपटने के लिए क्या हमारे पास कोई योजना है? इस प्रश्न का उत्तर केवल ‘नहीं’ है। अगर हमारे पास बाढ़ का मुकाबला करने की कोई भी व्यवस्था नहीं है तो क्या हम कुछ व्यवस्था विकसित कर सकते हैं? इस प्रयास को कुछ लोग ‘बाढ़ के साथ जीना’ भी कहते हैं। मगर इसका मतलब बहुत से लोग यह लगाते हैं कि जनता को प्राकृतिक आपदा के सामने पूरी तरह आत्म समर्पण का नुस्खा बताया जा रहा है और डूबते हुये आदमी को अकर्मण्यता का पाठ पढ़ाने की कोशिश की जा रही है ताकि वह मौत को अपनी नियति मान कर सिर झुका कर उसका वरण कर ले। हम यहाँ जोर देकर कहना चाहते हैं कि बाढ़ के साथ जीने की कला को उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों से ही सीखना पड़ेगा और उसे आधुनिक विज्ञान की मदद से सँवारना होगा। तमाम मुश्किलों के बावजूद बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में लोग आबाद हैं और वहाँ का जनसंख्या घनत्व पानी की कमी वाले क्षेत्रों से कहीं ज्यादा है। इसका मतलब यह कभी नहीं होता है कि प्रकृति के सामने हम असहाय और अकर्मण्य होकर बैठ जायें मगर इसका मतलब यह जरूर होता है कि प्रकृति के साथ जहाँ तक हो सके कम से कम छेड़-छाड़ की जाये। यहाँ हम इस विधा के कुछ आयामों के बारे में बात चीत करेंगे।