श्वसन (Respiration)

Submitted by Hindi on Sat, 08/27/2011 - 10:17
श्वसन (Respiration) साँस लेने की क्रिया है। साँस लेने में दो कार्य होते हैं। एक कार्य में बाहर की वायु शरीर के अंदर फुफ्फस में जाती है। इसे निश्वसन (inhalation) कहते हैं। दूसरे कार्य में शरीर की दूषित वायु शरीर के बाहर निकलती है। इसे उच्छ्‌वसन (exhalation) कहते हैं। ये दोनों कार्य साथ साथ चलते हैं। इसके लिए प्राणी को कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। जीवित प्राणियों का यह आवश्यक कार्य है और प्राणरक्षा के लिए ऐसा सतत होता रहता है। निश्वसन से शरीर की कोशिकाओं को ऑक्सीजन प्राप्त होती है। उच्छ्‌वसन से शरीर का कार्बन डाइऑक्साइड बाहर निकलती है। इस प्रकार शरीर की कोशिकाओं के बीच गैसों के स्थानांतरण को आंतरश्वसन (internal respiration) कहते हैं। शरीर की कोशिकाओं को, अपने कार्य के सुचारु रूप से संचालन के लिए, ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। यदि आवश्यक मात्रा में कोशिकाओं को ऑक्सीजन न मिले, तो उनका कार्य शिथिल हो जाएगा और ऑक्सीजन के पूर्ण अभाव में कोशिकाओं का कार्य तुंरत ठप पड़ जाएगा। सभी जीवित कोशिकाएँ उच्छिष्ट उत्पाद (waste product) के रूप में कार्बन डाइऑक्साइड उत्पन्न करती हैं। हमारे आहार में जो कार्बन रहता है, वह ऑक्सीजन की सहायता से ऑक्सीकृत होकर कार्बन डाइऑक्साइड बनता है और इस क्रिया से हमें ऊष्मा और ऊर्जा प्राप्त होती है।

सभी प्राणियों की, छोटे हों या बड़े, सूक्ष्म हों या विशाल, कोशिकाओं की किसी न किसी रूप में श्वसन की आवश्यकता पड़ती है। मनुष्यों की भाँति पेड़ पौधे भी साँस लेते हैं। उनकी पत्तियाँ वायु के ऑक्सीजन का अवशोषण करती और कार्बन डाइऑक्साइड निकालती हैं। इसके अतिरिक्त पेड़ पौधे एक और कार्य, जिसे प्रकाश संश्लेषण कहते हैं, करते हैं। यह कार्य सूर्यप्रकाश में ही होता है। इस कार्य में वे वायु के कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड के कार्बन को वे ग्रहण कर वृद्धि प्राप्त करते और उसके ऑक्सीजन को वायु में छोड़ देते हैं। इससे वायु का शोधन होता है। यह कार्य दिन में सूर्य के प्रकाश में ही होता है।

प्राणी सुप्त या जाग्रत दोनों अवस्थाओं में साँस लेते हैं। इसके लिए उन्हें कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। यह आपसे आप होता रहता है। यदि साँस को कुछ क्षण के लिए रोकना चाहें, तो उसके लिए इन्हें विशेष प्रयास की आवश्यकता पड़ती है। पर ऐसा कुछ क्षण के ही लिए किया जा सकता है। शीघ्र ही प्राणियों में लयात्मक श्वसन शुरु हो जाता है।

श्वसनक्रिया में ऑक्सीजन का ग्रहण और कार्बन डाइऑक्साइड का निष्कासन साथ साथ चलता है। मानव फुफ्फुस अनेक छोटे छोटे वायुकोशों (sacs) से बना होता है। इन कोशों को वायुकोष्ठिका (Alveoli) कहते हैं। कोशों की दीवारें बड़ी पतली होती हैं और उनमें क्षुद्र रुधिरवाहिनियों का जाल बिछा हुआ रहता है। इन रुधिरवाहिनियों को केशिका (Capillaries) कहते हैं। सांस द्वारा जो वायु फुफ्फुस में जाती है, वह वायुकोष्ठिकाओं में प्रवेश करती और वहाँ रुधिरवाहिनियों के संपर्क में आती है। यहाँ रुधिर वायु के ऑक्सीजन का अवशोषण करता है और कार्बन डाइऑक्साइड को दे देता है। निश्वसन और उच्छवसन के बीच बड़ा अल्प विराम (pause) होता है। जल्दी जल्दी साँस लेने से विराम की अवधि बहुत कम हो जाती है और अंत में उसका सर्वथा अभाव हो जाता है। निश्वसन और उच्छ्‌वसन वक्ष की पेशियों की क्रिया से होता है। हमारा फुफ्फुस एक खोखले गर्त के अंदर रहता है। इसे वक्षगुहा (exhalation) कहते हैं। ये दोनों कार्य साथ साथ चलते हैं। इसके लिए प्राणी को कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। जीवित प्राणियों का यह आवश्यक कार्य है और प्राणरक्षा के लिए ऐसा संतत होता रहता है। निश्वसन से शरीर की कोशिकाओं को ऑक्सीजन प्राप्त होता है। उच्छ्‌वसन से शरीर का कार्बन डाइऑक्साइड बाहर निकलता है। इस प्रकार शरीर की कोशिकाओं के बीच गैसों के स्थानांतरण को आंतरश्वसन (internal respiration) कहते हैं। शरीर की कोशिकाओं को, अपने कार्य के सुचारु रूप से संचालन के लिए, ऑक्सीजन की आवश्यकता होती है। यदि आवश्यक मात्रा में कोशिकाओं को ऑक्सीजन न मिले, तो उनका कार्य शिथिल हो जाएगा और ऑक्सीजन के पूर्ण अभाव में कोशिकाओं का कार्य तुरंत ठप पड़ जाएगा। सभी जीवित कोशिकाएँ उच्छिष्ट उत्पाद (waste product) के रूप में कार्बन डाइऑक्साइड उत्पन्न करती हैं। हमारे आहार में जो कार्बन रहता है, वह ऑक्सीजन की सहायता से ऑक्सीकृत होकर कार्बन डाइऑक्साइड बनता है और इस क्रिया से हमें ऊष्मा और ऊर्जा प्राप्त होती है।

सभी प्राणियों की, छोटे हों या बड़े, सूक्ष्म हों या विशाल, कोशिकाओं को किसी न किसी रूप में श्वसन की आवश्यकता पड़ती है। मनुष्यों की भाँति पेड़ पौधे भी साँस लेते हैं। उनकी पत्तियाँ वायु के ऑक्सीजन का अवशोषण करती और कार्बन डाइऑक्साइड निकालती हैं। इसके अतिरिक्त पेड़ पौधे एक और कार्य, जिसे प्रकाश संश्लेषण कहते हैं, करते हैं। यह कार्य सूर्यप्रकाश में ही होता है। इस कार्य में वे वायु के कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करते हैं। कार्बन डाइऑक्साइड के कार्बन को वे ग्रहण कर बृद्धि प्राप्त करते और उसके ऑक्सीजन को वायु में छोड़ देते हैं। इससे वायु का शोधन होता है। यह कार्य दिन में सूर्य के प्रकाश में ही होता है।

प्राणी सुप्त या जाग्रत दोनों अवस्थाओं में साँस लेते हैं। इसके लिए उन्हें कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता। यह आपसे आप होता रहता है। यदि साँस को कुछ क्षण के लिए रोकना चाहें, तो उसके लिए इन्हें विशेष प्रयास की आवश्यकता पड़ती है। पर ऐसा कुछ क्षण के ही लिए किया जा सकता है। शीघ्र ही प्राणियों में लयात्मक श्वसन शुरु हो जाता है।

श्वसनक्रिया में ऑक्सीजन का ग्रहण और कार्बन डाइऑक्साइड का निष्कासन साथ साथ चलता है। मानव फुफ्फुस अनेक छोटे छोटे वायुकोशों (sacs) से बना होता है। इन कोशों को वायुकोष्ठिका (Alveoli) कहते हैं। कोशों की दीवारें बड़ी पतली होती हैं और उनमें क्षुद्र रुधिरवाहिनियों का जाल बिछा हुआ रहता है। इन रुधिरवाहिनियों को केशिका (Capillaries) कहते हैं। साँस द्वारा जो वायु फुफ्फुस में जाती है, वह वायुकोष्ठिकाओं में प्रवेश करती और वहाँ रुधिरवाहिनियों के संपर्क में आती है। यहाँ रुधिर वायु के ऑक्सीजन का अवशोषण करता है और कार्बन डाइऑक्साइड को दे देता है। निश्वसन और उच्छवसन के बीच बड़ा अल्प विराम (pause) होता है। जल्दी जल्दी साँस लेने से विराम की अवधि बहुत कम हो जाती है और अंत में उसका सर्वथा अभाव हो जाता है। निश्वसन और उच्छ्‌वसन वक्ष की पेशियों की क्रिया से होता है। हमारा फुफ्फुस एक खोखले गर्त के अंदर रहता है। इसे वक्षगुहा (Thoracic, or Chest, cavity) कहते हैं। इसका विस्तार न्यूनाधिक हो सकता है। निश्वसन के समय वक्षगुहा का बहुत प्रसार होता है। इस प्रसार के दो कारण हैं : (1) ऊपरी वक्षगुहा और निचली उदरीय गुहा के बीच में एक कलशाकार ढक्कन, या मध्यपट या डायफ्राम (diaphragm) रहता है। यह मध्यपट चिपटा होता है। इसके कारण वक्षगुहा को अधिक स्थान मिल जाता है, (2) प्रसार का दूसरा कारण पसलियों का ऊपर, या पाश्र्‌व की ओर, हट जाना है। इससे वक्षगुहा को प्रसार का स्थान मिल जाता है।

फुफ्फुस वक्षगुहा को, कितना ही बड़ा वह क्यों न हो, पूरा भर देता है। निश्वसन के समय जब वक्षगुहा का प्रसार होता है, तब फुफ्फुस भी बड़े स्थान को भर देने के लिए फैलता है। प्रसार के कारण फुफ्फुस के अंदर की वायु का दबाव कम हो जाता है, तब श्वासनली द्वारा वायु बाहर से खींच ली जाती है। उच्छ्‌वसन के समय की क्रिया ठीक इसके प्रतिकूल होती है। वक्षगुहा के छोटी हो जाने के कारण फुफ्फुस से वायु बाहर निकलती है। फुफ्फुस का वास्तव में प्रसारण या संकोचन नहीं होता। यह केवल वायु को निकालता या खींच लेता है। ऐसा वक्षगुहा के प्रसार और संकोचन से होता है।

जब कोई व्यक्ति धीरे धीरे शांत भाव से बिना किसी प्रयास के साँस लेता है, तब वह प्रत्येक साँस में एक पांइट वायु अंदर खींचता या बाहर निकालता है। वायु की इस मात्रा को प्राणवायु (tidal air) कहते हैं। सामान्य दशा में शरीर की आवश्यकताओं के लिए इतनी वायु खींचना और कार्बन डाइऑक्साइड का निकालना पर्याप्त होता है। जब मनुष्य गहरी साँस लेता है, तब फुफ्फुस में लगभग चार क्वार्ट वायु अँट सकती है। इस मात्रा को श्वासधारिता (vital capacity) कहते हैं। वृद्ध व्यक्तियों की अपेक्षा स्वस्थ युवकों और कसरती मनुष्यों में श्वासधारिता अधिक होती है। सामान्य रूप से साँस लेने में फुफ्फुस ऊतक का प्राय: चतुर्थांश भाग ही फैलता है। इससे प्रत्येक साँस में फुफ्फुस को पर्याप्त ताजी वायु नहीं मिलती। इसी से गहरी साँसवाले व्यायाम अधिक लाभप्रद होते हैं। उससे फुफ्फुस अधिक पूर्णता से भरकर पूरा फैलता है। इससे फुफ्फुस के रुधिर परिसंचरण में सहायता मिलती है। योग संबंधी व्यायामों का भी इसी कारण अधिक महत्व है।

साँस गहरी और जल्द जल्द चलनेवाली हो सकती है। इससे शरीर की कोशिकाओं को अपनी आवश्यकता के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन की प्राप्ति हो जाती है। यदि हमें किसी ऊँचे पहाड़ पर चढ़ना है, तो जल्दी जल्दी साँस लेने की आवश्यकता इस कारण पड़ती है कि अधिक ऊँचाई पर वायु में ऑक्सीजन की मात्रा कम रहती है। अत: आवश्यक ऑक्सीजन की पूर्ति के लिए हमें जल्दी जल्दी साँस लेकर, अधिक वायु के लेने की आवश्यकता पड़ती है।

जो पेशियाँ पसलियों को उठाती और डायफ्राम को चिपटा बनाती हैं, उनके लिए तंत्रिका आवेग (nerve impulse) की आवश्यकता पड़ती है। यह आवेग मस्तिष्क के निचले भागों से चलता है। इस भाग की कोशिकाओं को श्वसनकेंद्र (respiratory centre) कहते हैं। यह केंद्र सतत लयबद्ध सक्रियता में रहकर, तंत्रिका द्वारा श्वसन पेशियों को आवेग भेजता है। ये पेशियाँ तब वक्षगुहा का प्रसार करती हैं, जिससे फिर फुफ्फुस का प्रसार होता है।

कभी कभी, विशेषकर कठिन शारीरिक परिश्रम करने के समय, कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अधिक बनती है, तब कार्बन डाइऑक्साइड रुधिर में जमा हो जाती है। वहाँ से वह सारे शरीर में फैल जाती है। मस्तिष्क का श्वसनकेंद्र कार्बन डाइऑक्साइड के प्रति बड़ा सुग्राही होता है। रुधिर में कार्बन डाइऑक्साइउ की अल्प वृद्धि होने पर भी, और ऐसे रुधिर के मस्तिष्क में पहुँचने पर, मस्तिष्क की तंत्रिका-कोशिकाएँ अधिक सब्रिय हो जाती हैं और केंद्र अधिकाधिक आवेग श्वसन तंत्रिका को भेजता है, जिससे व्यक्ति बड़ी जल्दी जल्दी साँस लेने लगता है। जल्दी जल्दी साँस लेने से कार्बन डाइऑक्साइड निकल जाता है और तब श्वसन की गति सामान्य हो जाती है। (फलदेव सहाय वर्मा)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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