स्वस्थ जीवन के लिये स्वच्छ पानी का “अर्घ्य”

Submitted by admin on Tue, 03/23/2010 - 16:17

रोहिणी नीलेकणीरोहिणी नीलेकणी वर्तमान समय की सबसे बड़ी समस्या है “जल प्रदूषण”, जो करोड़ों लोगों को अपनी चपेट में ले रही है, आज की सबसे बड़ी जरूरत है कि हम पानी के अपने स्थानीय स्रोतों को पुनर्जीवित करें और उन्हें संरक्षित करें ताकि एक तरफ़ तो सूखे से बचाव हो सके, वहीं दूसरी तरफ़ साफ़ पानी की उपलब्धता हो सके। साफ पानी को हमें अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण घटक मानकर भारत में पर्यावरण स्वच्छता के तरीके भी हासिल किये जा सकें। - रोहिणी निलेकणी

 

 


रोहिणी निलेकणी, “अर्घ्यम” की अध्यक्षा और संस्थापक हैं, “अर्घ्यम” की स्थापना उन्होंने सन् 2005 में की थी।एक समय पत्रकार, लेखिका और समाजसेविका रहीं रोहिणी जी ने लगातार विकास के मुद्दों को देश के सामने रखा है। वह “प्रथम बुक्स” के नाम से चल रही एक और प्रकाशन संस्था की सह-संस्थापक सदस्या हैं, जिसका उद्देश्य बच्चों के लिए विभिन्न भाषाओं में सस्ती और अच्छी पुस्तकों का प्रकाशन करना है। रोहिणी जी “अक्षरा फ़ाउण्डेशन” की अध्यक्षा भी हैं जिसका उद्देश्य हर बच्चे को शिक्षा मुहैया करवाना है।

हाल ही में “विश्व जल दिवस” के मौके पर “वन वर्ल्ड साउथ एशिया” की अन्ना नाथ ने रोहिणी नीलकणी से साक्षात्कार किया, पेश हैं इसके चुनिंदा अंश -

रोहिणी जी, संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व जल दिवस 2010 को, स्वस्थ विश्व के लिये जल गुणवत्ता में सुधार लाने के लिए समर्पित किया गया है। क्या इस कार्य में उभरने वाले मुद्दों और विभिन्न क्षेत्रों पर आप कुछ रोशनी डालेंगी?
मुझे खुशी है कि अब संयुक्त राष्ट्र का फ़ोकस पानी की गुणवत्ता बढ़ाने की ओर हुआ है, क्योंकि सभी को पर्याप्त मात्रा में पानी मिलने की समस्या के साथ-साथ “पानी की गुणवत्ता” पर भी ध्यान देना बहुत जरूरी है। देश में आज कम से कम 10 करोड़ लोग जल प्रदूषणजनित बीमारियों के शिकार हैं, हम सभी जानते हैं कि भूजल विभिन्न रासायनिक तत्वों जैसे आर्सेनिक और फ़्लोराइड से प्रदूषित है। बिहार के कुछ इलाकों में भूजल में लौह तत्व काफ़ी अधिक हैं, जबकि गुजरात के कच्छ इलाके के तटीय क्षेत्रों में खारापन ज्यादा है।
लगभग पूरे देश में विभिन्न जलस्रोत नाइट्रेट तथा उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग की वजह से प्रदूषित होते जा रहे हैं। इस तरह देखा जाये तो वास्तविक और गम्भीर समस्या है पानी की गुणवत्ता, न कि पानी की उपलब्धता। साथ ही यह समस्या इसलिये भी अधिक गम्भीर है, क्योंकि आम इंसान पानी को आँखों से देखकर बता ही नहीं सकता कि वह कितना प्रदूषित है, इसलिये मुझे खुशी है कि “पानी की गुणवत्ता” पर अधिक जोर दिया जायेगा।

यह सच है कि जलसंकट का सबसे अधिक असर महिलाओं पर पड़ता है। ऐसे में एक महिला, पानी की उपयोगकर्ता तथा संरक्षक होने के नाते, दक्षिण एशिया क्षेत्र की महिलाओं को संगठित रूप से पानी के संकट को हल करने के बारे में आप क्या सलाह देंगी?
यह बात सही है कि पानी की समस्या का मुद्दा एक “लैंगिक” मुद्दा भी है, क्योंकि घर की महिलाएं ही अपनी आजीविका तथा घरेलू कामों के लिये पानी पर सबसे अधिक निर्भर होती हैं और ऐसे में पानी की जिम्मेदारी उन पर डाल दी जाती है। इसलिये पानी से जुड़े किसी भी मुद्दे पर महिलाओं की राय लेना अधिक महत्वपूर्ण है।
दक्षिण एशिया में भी देशों की सीमाओं से परे जाकर महिलाओं का यह कर्तव्य बनता है कि वार्ताओं में उनकी भी भागीदारी हो। हालांकि दक्षिण एशिया के देशों में जलसंकट के लिये आवाज़ उठाने में महिलाओं को उनके अपने देश में राजनैतिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अधिक आवश्यकता है, ताकि सरकारों के समक्ष वे अपनी आवाज़ और माँगें ठीक से रख सकें, क्योंकि साफ़ पानी और स्वच्छता महिलाओं और उनके परिवारों के मूल अधिकार भी हैं। ज़ाहिर है कि आजकल यह एक राजनैतिक मुद्दा भी है।

आपने कहा कि पानी की गुणवत्ता एक महत्वपूर्ण मुद्दा है और विश्व जल दिवस 2010 के मौके पर इसे उचित तरीके से रखा भी गया है, लेकिन पानी की कमी के बारे में क्या? वर्तमान में भारत के 593 जिलों में से 167 जिले भीषण जलसंकट की चपेट में हैं और 2009 में सूखाग्रस्त घोषित किये गये हैं।
भारत बाढ़ और सूखे की सम्भावनाओं वाला देश है और इसीलिये हमें स्थानीय स्तर पर जल प्रबंधन के तौरतरीकों को बेहतर तरीके से सीखने की जरूरत है। हमें निश्चित रूप से यह समझने की आवश्यकता है कि किस प्रकार पानी का संयुक्त उपयोग किया जाये, किस तरह से सतह जलस्रोतों और भूजल को एकीकृत किया जाये ताकि जल संकट से निपटा जा सके, और सूखा प्रभावित क्षेत्रों में जहाँ कोई अन्य विकल्प ही नहीं है, संकट से लड़ने के लिये उपाय ढूंढे जाने चाहिये।
हमें जलसंकट की समस्या से दीर्घकालीन नीति अपनाकर ही निपटना होगा। बारिश के दिनों में पानी का संरक्षण करना सीखना ही होगा। भारत के ग्रामीण इलाकों में जल प्रबन्धन का पर्याप्त ज्ञान मौजूद है और लगातार कई वर्षों के सूखे के बावजूद इस चुनौती से निपटने में हम कामयाब हुए हैं। इसलिये उम्मीद करें कि कम से कम इस वर्ष अच्छी वर्षा होगी।

“अर्घ्यम” की जल सम्बंधी कई प्रमुख परियोजनाएं हैं। जलसंकट से निपटने तथा बुनियादी सुविधाओं के विस्तार हेतु “अर्घ्यम” की दीर्घकालीन योजनाएं और नीतियाँ क्या हैं?
हम दो तीन मूल सिद्धान्तों में विश्वास रखते हैं और उस पर काम करते हैं। “अर्घ्यम” का मुख्य कार्यक्षेत्र घरेलू स्तर पर जल सुरक्षा का है। इसलिये सच कहूं तो ऊर्जा या खेती के लिये पानी जैसे क्षेत्र हमारे लिये नहीं हैं, हमारा मुख्य ध्यान फ़िलहाल घरेलू स्तर पर जलसुरक्षा प्रदान कैसे की जाये, इस दिशा में हैं। घरेलू जल सुरक्षा का तात्पर्य, पीने के लिये, खाना पकाने के लिये, साफ़सफ़ाई के लिये तथा अन्य छोटे-मोटे घरेलू कामों से है। इस दिशा में आप देखेंगे तो पायेंगे कि जनता में साफ़सफ़ाई, शौचालय तथा पानी के उपयोग सम्बन्धी जागरुकता फ़ैलाने की बहुत आवश्यकता है।
हमने अपने कुछ सर्वेक्षणों में पाया है कि लोगों में साफ़सफ़ाई के प्रति जागरुकता धीरे-धीरे बढ़ रही है और इसका सकारात्मक असर उनके स्वास्थ्य पर भी हुआ है। यह एक अच्छा संकेत है और दर्शाता है कि हमने उस दिशा में कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु हासिल किये हैं। हालांकि अभी तो काफ़ी कुछ किया जाना बाकी है और “अर्घ्यम” का इसी पर ध्यान है। हम जल प्रबन्धन के क्षेत्र में सहायता आधारित विकेन्द्रीकृत समाधान में विश्वास रखते हैं। “पानी” अनमोल लेकिन स्थानिक है, इसलिये पानी की समस्या का हल भी स्थानीय स्तर पर ही खोजा जाना चाहिये, फ़िर चाहे वह भूजल की समस्या हो या सतही जलस्रोतों की। सामान्य और मूलभूत जरूरतों के लिये भारत के हर घर को जल-सुरक्षित बनाना कोई असम्भव बात नहीं है, ऐसा किया जा सकता है। ज़ाहिर है कि इसमें प्रमुख नीतिगत मुद्दे जुड़े हैं, क्योंकि हम एक संस्थागत भेदभाव वाले समाज में रह रहे हैं, जहाँ महिलाओं के साथ भेदभाव है दूसरी ओर जातिगत भेदभाव भी है। परन्तु मेरा मानना है कि लगातार दबाव बनाये रखना ही एकमात्र रास्ता है, ताकि सरकारें सार्वजनिक सेवाओं की गुणवत्ता बढ़ाने को मजबूर हो जायें, जिसमें पानी की सुरक्षा भी प्रमुख मुद्दा होगा। इस तरह “अर्घ्यम”, ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे लोगों तथा विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों के साथ मिलकर काम करता है।
हम सरकार के साथ भी मिलकर काम करते हैं, क्योंकि सरकारों के पास सत्ता, संसाधन और मानव श्रम होता है। लेकिन यह एक लम्बी पार्टनरशिप की प्रक्रिया है, जिसमें हम सरकार के साथ मिलकर अपना कौशल बढ़ाते हैं ताकि ज़मीनी स्तर पर मजबूत काम किया जा सके, जनता का जो पैसा खर्च हो रहा है उसका अधिकाधिक प्रतिफ़ल मिल सके और घरेलू स्तर पर साफ़ पानी उपलब्ध हो सके।

क्या आप “आश्वास” के बारे में कुछ बतायेंगी, इसने क्या उपलब्धि हासिल की है?
सरकारों को मूलतः साफ़ पानी, बुनियादी सुविधाओं और स्वच्छ पर्यावरण के लिये ही चुना गया है, और यह कार्य स्थानीय सरकारों के जिम्मे है, “स्थानीय सरकारें” यानी ग्राम पंचायतें और नगर निगम। लेकिन हकीकत में संसाधन, वित्तीय सशक्तिकरण और क्षमताएं इन स्थानीय सरकारों तक पहुँच नहीं पा रहीं, यह एक लम्बी प्रक्रिया होगी। साथ ही स्थानीय नागरिक भी इस बात को नहीं जानते कि उनकी पंचायत या नगरनिगम को क्या करना चाहिये, किस-किस योजना में केन्द्र या राज्य सरकार से कितना पैसा आ रहा है।
“अर्घ्यम” इस बात में यकीन करता है कि एक गहन सर्वेक्षण किया जाना चाहिये कि लोग पानी और स्वच्छता सेवाओं के बारे में क्या सोचते हैं, क्या चाहते हैं? ऐसा एक विशाल सर्वेक्षण (17200 घरों में) हमने कर्नाटक में किया है और उसके नतीजे बेहद उत्साहवर्धक रहे हैं और स्थिति का सही-सही आंकलन किया जा सका है। इसलिये हमने अब ग्राम पंचायत स्तर पर उनकी सेवाओं और सार्वजनिक खर्च के सम्बन्ध में एक सर्वेक्षण किया है और पाया कि, चाहे वह गुणवत्ता के स्तर पर हो, सफ़ाई के संसाधनों के उपयोग का मामला हो, या जलस्रोतों की स्थिरता के सम्बन्ध में हो, कई स्तरों पर सुधार करने की आवश्यकता है। जिन ग्राम पंचायतों का हमने सर्वेक्षण किया था, हम पुनः अपनी रिपोर्ट लेकर उनके पास गये। नागरिकों और स्थानीय लोगों से उनकी प्रतिक्रिया ली तथा स्थानीय स्तर पर समस्या को हल करने, विभिन्न योजनाओं को लागू करने तथा सभी स्तरों पर ग्राम पंचायतों की मदद भी की। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो नागरिकों और ग्राम पंचायतों के बीच समस्याओं को देखने और समझने का दृष्टिकोण बनाया तथा उन्हें आपस में जोड़ दिया ताकि वे लोग स्थानीय स्तर पर समस्या का हल निकाल सकें।
हम मानते हैं कि इस प्रकार के नागरिक सर्वेक्षण सार्वजनिक सेवाओं की खामियों और जरूरतों को समझने का एक अच्छा साधन हैं। दरअसल ये सर्वेक्षण एक प्रकार की “आधार रेखा” के रूप में काम में लिये जा सकते हैं, कुछ वर्षों के अन्तराल से यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि स्थिति में कितना सुधार हुआ है, और बजाय परिणाम के सर्वेक्षण की प्रक्रिया ही अपने-आप में एक राजनैतिक सशक्तिकरण का उपकरण बन जाती है और यह अन्ततः फ़ायदेमंद ही होता है।

कुल मिलाकर विश्व के जलसंकट को लेकर उनका क्या सहयोग है?
पहले के समय में सभी समुदाय पानी को सहेजकर रखते थे और उसका उपयोग भी बुद्धिमानी और संयम के साथ करते थे। पिछले कुछ सौ वर्षों के दौरान, जैसे-जैसे तकनीकी और अन्य औद्योगिक विकास होता गया पानी का वितरण टंकियों और पाइप लाइन से होने लगा, हम जलस्रोतों के साथ मानव का आपसी सम्बन्ध भूलते चले गये।
हालांकि गाँवों में अभी भी पानी और मनुष्य के अन्तर्सम्बन्ध मौजूद हैं, लेकिन शहरी जनसंख्या जलस्रोतों से अपने पूरे सम्पर्क काट चुकी है... कि आखिर पानी कहाँ से आता है, वह कैसे सहेजा जाता है और पानी इतना अनमोल क्यों है। मुझे लगता है कि शहरों में लोगों को पानी की “कीमत” पैसा नहीं बल्कि महत्व से दोबारा जोड़ा जाना चाहिये। यहाँ तक कि अब गाँवों में भी हम पानी के सीमित संसाधनों के उपयोग हेतु आपसी खींचतान और प्रतिद्वंद्विता देखते हैं, फ़िर चाहे वह कृषि हो या उद्योग। लोगों को यह समझना बेहद जरूरी है कि पानी का संरक्षण करना और उसे प्रदूषण से बचाये रखना बहुत महत्वपूर्ण है। हालांकि आजकल जल संरक्षण सम्बन्धी जागरुकता बढ़ रही है।
सामान्यतः देखा गया है कि हमेशा संकट के समय में मनुष्य उसके हल की दिशा में अधिक गम्भीरता से विचार करता है, और अब जबकि हम जलसंकट के सबसे गम्भीर दौर में हैं मुझे उम्मीद है कि लोग अपनी बुद्धिमानी से पानी को बचाने का कोई रास्ता निकालेंगे, सुझायेंगे ताकि पानी का संयमित उपयोग हो। हम जब भी अर्थव्यवस्था की खातिर अपने बुनियादी ढांचे में विस्तार की कोई योजना बनाते हैं तब हमें पानी को आधार रेखा मानकर योजनाएं बनाना चाहिये। यदि हम लोगों को समझा सकें कि पानी बचाना बहुत जरूरी है और इसे कम से कम उपयोग करना चाहिये, साथ ही यदि हम पानी की सप्लाई करने वाली व्यवस्था को ऐसा चुस्त-दुरुस्त कर सकें कि अधिकतम पानी बिना किसी नुकसान के लोगों तक पहुँच सके, तो हम इस कठिन दौर को आसानी से झेल जायेंगे।

आजकल “ग्रीन टॉयलेट” नाम की अवधारणा विकासशील तथा विकसित देशों में विकसित हो रही है? क्या आप बता सकती हैं कि यह कैसे काम करता है और समुदायों को इस तकनीक का फ़ायदा कैसे पहुँचेगा, खासकर ऐसी स्थिति में जबकि आर्थिक मोर्चे और पर्यावरण की दृष्टि से भी इन टॉयलेटों को स्वास्थ्य के मद्देनज़र खरा उतरना है।
असल में हमें इस सवाल को स्वच्छता के दृष्टिकोण से देखना चाहिये। वर्तमान में सफ़ाई व्यवस्था और उसकी इंजीनियरिंग को लेकर हमारी मानसिकता ऐसी है कि मानव मल-मूत्र को हम पानी की भारी मात्रा के सहारे बहाकर उसे ज़मीन या दूसरे जलस्रोतों में धकेल देते हैं। विकसित देशों में भी मानव अपशिष्ट को पानी की सहायता से बिना किसी उपचार के बड़े नालों में बहा दिया जाता है। इस वजह से जलस्रोतों और भूजल में प्रदूषण फ़ैल रहा है तथा नाइट्रेट और बैक्टीरिया की भारी मात्रा के कारण गम्भीर जल प्रदूषण हो रहा है।
ग्रीन टॉयलेट की अवधारणा यह है कि मानव अपशिष्ट को जलस्रोतों में मिलने से पहले ही शुरुआत में ही उपचारित कर दिया जायेगा, जो कि समस्या का स्थायी समाधान है। इन टॉयलेटों में मानव अपशिष्ट (तरल व ठोस) को एकत्रित करके खाद बना दिया जाता है।
इन ग्रीन टॉयलेटों की मदद से न सिर्फ़ मानव अपशिष्ट जलस्रोतों में मिलने से बचा रहता है, बल्कि मानव मल-मूत्र से निकलने वाले मिट्टी के विभिन्न पोषक तत्वों को वापस मिट्टी में ही डाल रहे हैं जो कि खाद के रूप में काम करता है। इस तरह से ग्रीन टॉयलेट का दोहरा फ़ायदा है, जल प्रदूषण से बचाव तथा प्राकृतिक उर्वरकों द्वारा मिट्टी की उपजाऊ क्षमता बढ़ाना। इसीलिये हमने बेहतर लोगों को इन ग्रीन टॉयलेटों के डिज़ाइन हेतु काम पर लगाया है, ताकि इसका डिज़ाइन ऐसा बने कि यह जन-जन में जल्दी से जल्दी लोकप्रिय हो सके, कम लागत वाला हो तथा महिलाओं आदि के लिये सुविधाजनक भी हो। जल्दी ही आप “ग्रीन टॉयलेट” की अवधारणा को ग्रामीण अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण पायेंगे।

पानी के मुद्दों पर इतना काम करने तथा जनसहयोग एवं ऐसी बड़ी संस्था खड़ी करने के पीछे आपका “प्रेरणास्रोत” क्या रहा, इस सम्बन्ध में क्या आप कुछ बतायेंगी?
मैं अपने कॉलेज के दिनों से ही “सक्रिय कार्यकर्ता” रही, फ़िर चाहे वह समाजसेवा हो या पत्रकारिता, मैंने हमेशा राजनैतिक सक्रियता बनाये रखी। लेकिन कॉलेज के दिनों के बाद काफ़ी समय मैं प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी रही, तब मैंने स्वास्थ्य रक्षा और माइक्रोफ़ायनेंस सम्बन्धी नई पहल शुरु की, लेकिन जब मुझे इन्फ़ोसिस की वजह से अच्छा खासा धनार्जन हुआ, तब मैंने उस धन का उपयोग सामाजिक क्षेत्र में करने का मन बना लिया, और इस बात पर ध्यान केन्द्रित करने लगी कि मुझे किस सामाजिक क्षेत्र से जुड़ना चाहिये। शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से लोग और गैर-सरकारी संस्थाएं पहले से ही मौजूद हैं, और अच्छा काम भी कर रही हैं। इसलिये “पानी”, जल संरक्षण और जल प्रदूषण एक ऐसा रणनीतिक क्षेत्र लगा जहाँ चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ हैं, और इस तरह से “पानी” के क्षेत्र में हमारा काम शुरु हुआ।
हमारी संस्था, “अर्घ्यम” ने पानी के क्षेत्र में अप्रैल 2005 से काम करना शुरु किया, उस समय एक भी भारतीय संस्था इस महत्वपूर्ण क्षेत्र पर काम नहीं कर रही थी। हमें महसूस हुआ कि इस क्षेत्र में काम ही काम है, बस ध्यान केन्द्रित करके मेहनत करने की आवश्यकता है। आज मुझे खुशी है कि “अर्घ्यम” ने इस क्षेत्र पर फ़ोकस किया है और औरों का ध्यान भी आकर्षित किया है।


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