Source
चरखा फिचर्स, सितंबर 2013
हजारों सालों से जंगलों और वन्य प्राणियों को थारू, उरांव व अन्य वनवासी बचाते चले आए हैं। इसका प्रमाण है कि वर्ष 1989-90 में यहां के जंगलों में 85 बाघ थे, लेकिन ब्याघ्र परियोजना लागू होने के बाद जब बाघों की रखवाली वन विभाग ने शुरू की, तो बाघों की संख्या कम होती चली गई। हालांकि, विभाग बाघों की संख्या में इज़ाफा होने का दावा कर रहा है। लेकिन दावा और आंकड़े में काफी अंतर है। इतना ही नहीं पहले जंगली खजूर को वन विभाग ने खत्म किया। अब ग्रासलैंड विकसित करने के नाम पर सफेद मूसली, आंवला, हर्रे-बहेड़ा जैसी जड़ी-बुटियों को खत्म करने की 93 लाख की योजना बनाई गई है। टाइगर रिजर्व के नाम पर भोले-भाले थारूओं व वनवासियों पर वन विभाग का दमन चक्र बढ़ रहा है। इन्हें पारंपरिक व संवैधानिक अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है। वन अधिकार का कानून बना, लेकिन थारूओं, उरांव और अन्य वनवासियों को ही इससे वंचित कर दिया गया। जिसके लिए कानून बना उसे ही इसका लाभ नहीं मिल रहा है। उन्हें जलावन की लकड़ी नहीं लाने दी जाती है। जबकि इनकी रोजी-रोटी का एक बड़ा साधन लकड़ी काट कर बेचना ही है। वनों से लघु उपज व जड़ी-बूटी तक लाने पर रोक है। जबकि कठिन और पथरीला रास्ता वाले दोन इलाके के लोगों के लिए जड़ी-बूटी एक आवश्यक वस्तु है। दुरूह रास्ते के कारण इन्हें चिकित्सकीय सहायता तुरंत नहीं मिल पाती है। ऐसे मे इसी से वह अपना उपचार करते हैं। ठोरी में नदी से पत्थर के उत्खनन नहीं होने से स्थानीय लोग बेरोजगार हो रहे हैं। इससे 12 हजार परिवार प्रभावित हैं।
बिहार के पश्चिम चंपारण स्थित बगहा, रामनगर, गौनाहा, मैनाटांड़ प्रखंडों में थारू व अन्य आदिवासी बहुल लगभग 260 गांव हैं। जिसकी कुल आबादी लगभग पौने चार लाख है। इन इलाक़ों में रहने वाले 80 फीसदी लोग भूमिहीन हैं। थारू को आदिवासी घोषित करने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी गई। 2003 में सफलता मिली जब सरकार ने इन्हें एसटी का दर्जा दिया। लेकिन इस श्रेणी में आने के बावजूद वह आजतक न सिर्फ अधिकारों और सुविधाओं से वंचित हैं बल्कि उनका दमन चक्र चल रहा है। जंगल से जुड़े होने के बावजूद एक साज़िश के तहत सरकारी विभाग द्वारा उन्हें इसके लाभ से वंचित रखा जाने लगा। परिणामस्वरूप वन विभाग और आमलोगों के बीच में टकराहट बढ़ने लगी। मुकदमों का दौड़ शुरू हो गया। स्थानीय निवासियों का कहना है कि एक समय बेतिया और रामनगर राज में जंगल से रैयती हक (परमिट) मिलता था। उन्हें सूखी लकड़ियां काटने की छूट थी। वे जंगल से त्रिफला लाते थे। लेकिन आज रोक लगा दी गई है।
हजारों सालों से जंगलों और वन्य प्राणियों को थारू, उरांव व अन्य वनवासी बचाते चले आए हैं। इसका प्रमाण है कि वर्ष 1989-90 में यहां के जंगलों में 85 बाघ थे, लेकिन ब्याघ्र परियोजना लागू होने के बाद जब बाघों की रखवाली वन विभाग ने शुरू की, तो बाघों की संख्या कम होती चली गई। हालांकि, विभाग बाघों की संख्या में इज़ाफा होने का दावा कर रहा है। लेकिन दावा और आंकड़े में काफी अंतर है। इतना ही नहीं पहले जंगली खजूर को वन विभाग ने खत्म किया। अब ग्रासलैंड विकसित करने के नाम पर सफेद मूसली, आंवला, हर्रे-बहेड़ा जैसी जड़ी-बुटियों को खत्म करने की 93 लाख की योजना बनाई गई है। हाल में थरूहट और दोन इलाके में रह रहे वनवासियों के आर्थिक व सामाजिक स्थिति पर बिहार शोध संवाद की एक टीम ने रिसर्च किया था। टीम के प्रमुख सदस्य और प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनिल प्रकाश कहते हैं कि थारूओं व उरांवों के विरुद्ध वन विभाग साज़िश रच रहा है। उनकी मासुमियत और ज़मीन से संबंधित कोई प्रमाण नहीं होने का फायदा उठाया जा रहा है। दोन से हरनाटांड़ जाने वाली सड़क पर भेलहवा दह के पास मगरमच्छ पालने की योजना है। यह योजना ज़मीन पर कब और कितनी कारगर होगी यह तो पता नहीं, अलबत्ता मगरमच्छ संरक्षण के नाम पर यह रास्ता बंद करने की साज़िश ज़रूर है।
इसी प्रकार कई जगह थारूओं को तंग करने के लिए वन विभाग के कर्मी लोगों की रैयती ज़मीन पर खंभे गाड़ रहे हैं, तो कहीं जेसीबी से गड्ढे खोदे जा रहे हैं। रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि जंगल के राजस्व ग्रामों को बफर एरिया और पेरिफेरियल एरिया घोषित करने के लिए वन विभाग और प्रशासन षडयंत्र रच रहा है। इसके लिए लोगों को डरा-धमका कर जबरन ग्राम सभाओं से प्रस्ताव पास कराने का प्रयास किया जा रहा है। यदि यह सफल हो जाता तो 152 गाँवों के लोग विस्थापित हो जाते। पिछले बीस वर्षों से इस इलाके में किसानों की मालगुजारी रसीद राजस्व कर्मचारी नहीं काट रहे हैं। बैरकेटिंग से सटे गाँवों की स्थिति काफी बदहाल है।
अखिल भारतीय थारू कल्याण महासंघ के नेता हेमराज प्रसाद ने बताया कि वनकर्मियों की नीयत का पता इसी से लगता है कि लकड़ी काटने व तस्करी के मामले में भतुजला के कपिलदेव उरांव पर एक मुकदमा 2011 में वन विभाग ने दर्ज कराया था, जबकि कपिलदेव की मौत पांच साल पूर्व ही हो चुकी थी। इसी प्रकार रघई उरांव नामक व्यक्ति पर वनकर्मियों ने 80 मुकदमा दर्ज कराया। एक अनुमान के अनुसार, अब तक लगभग 400 लोगों पर फ़र्ज़ी मुकदमे दर्ज हो चुके हैं। इधर, थारूओं के एक अन्य नेता शैलेंद्र गढ़वाल बताते हैं कि दोन इलाके में 24 गांव रेवन्यू ग्राम हैं। यहां पहुंचने के लिए बीहड़ जंगलों के बीच से होकर गुजरना पड़ता है। बरसात के मौसम में चार महीने यहां का रास्ता अवरुद्ध रहता है। पक्का रास्ता बनाने नहीं दिया जाता है। पहले यहां के लोग जंगलों से जड़ी-बुटी लाकर अपना पेट चलाते थे। अब वे पलायन कर पंजाब, दिल्ली जाने को मजबूर हैं। यहां की खेती भउड़ी (आहर-पईन) पर निर्भर है। उसे भी प्रतिबंधित करने की बात चल रही है।
जानकारी के अनुसार वन विभाग ने केंद्र सरकार को रिपोर्ट भेजी थी कि यहां के स्थानीय लोगों के कारण ही बाघों, पशु-पक्षियों की संख्या घट रही है। ये लोग कोर एरिया में अवैध रूप से प्रवेश कर लकड़ी काटते हैं, बैरिकेटिंग तोड़ कर जंगल में घुस आते हैं। तस्करी के धंधे में भी ये लोग लिप्त हैं। अतः इस क्षेत्र से इन्हें हटाया जाए। वाल्मीकि प्रोजेक्ट टाइगर के निदेशक सह संरक्षक संतोष तिवारी का कहना है कि यहां के निवासियों को कोई पारंपरिक अधिकार नहीं हैं। हम उनकी समस्याओं के निदान के लिए ही प्रयासरत हैं। सुप्रीम कोर्ट के गाइडलाइन व प्रोटेक्शन एक्ट को अमल में लाना हमारी मजबूरी है। अगर कोई जंगली सुअर को मारे, ज़बरदस्ती जंगल में घुस कर लकड़ी काटे तो ऐसे लोगों पर मुकदमा किया जाएगा। जो यहां के लोग करते आ रहे हैं। तो हमें उनके खिलाफ एक्शन लेना मजबूरी है। अब इसे कोई फ़र्ज़ी केस कहे, तो हम क्या कर सकते हैं। दूसरी ओर इस इलाके के लोगों की माँगें हैं कि वनाधिकार कानून एफआरए 2006 को लागू किया जाए, ताकि जंगल के सह उत्पादों को लाने का अधिकार मिल सके। इसके साथ-साथ इलाके को शेड्युल 5 घोषित किया जाए, ताकि आदिवासियों की ज़मीन को दूसरा कोई खरीद न सके। इन्हीं मांगों को लेकर पिछले कई सालों से थारूओं का संगठन आंदोलनरत है। लेकिन प्रशासन अभी तक नींद में है और थारूओं का दमन जारी है।
बिहार के पश्चिम चंपारण स्थित बगहा, रामनगर, गौनाहा, मैनाटांड़ प्रखंडों में थारू व अन्य आदिवासी बहुल लगभग 260 गांव हैं। जिसकी कुल आबादी लगभग पौने चार लाख है। इन इलाक़ों में रहने वाले 80 फीसदी लोग भूमिहीन हैं। थारू को आदिवासी घोषित करने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी गई। 2003 में सफलता मिली जब सरकार ने इन्हें एसटी का दर्जा दिया। लेकिन इस श्रेणी में आने के बावजूद वह आजतक न सिर्फ अधिकारों और सुविधाओं से वंचित हैं बल्कि उनका दमन चक्र चल रहा है। जंगल से जुड़े होने के बावजूद एक साज़िश के तहत सरकारी विभाग द्वारा उन्हें इसके लाभ से वंचित रखा जाने लगा। परिणामस्वरूप वन विभाग और आमलोगों के बीच में टकराहट बढ़ने लगी। मुकदमों का दौड़ शुरू हो गया। स्थानीय निवासियों का कहना है कि एक समय बेतिया और रामनगर राज में जंगल से रैयती हक (परमिट) मिलता था। उन्हें सूखी लकड़ियां काटने की छूट थी। वे जंगल से त्रिफला लाते थे। लेकिन आज रोक लगा दी गई है।
हजारों सालों से जंगलों और वन्य प्राणियों को थारू, उरांव व अन्य वनवासी बचाते चले आए हैं। इसका प्रमाण है कि वर्ष 1989-90 में यहां के जंगलों में 85 बाघ थे, लेकिन ब्याघ्र परियोजना लागू होने के बाद जब बाघों की रखवाली वन विभाग ने शुरू की, तो बाघों की संख्या कम होती चली गई। हालांकि, विभाग बाघों की संख्या में इज़ाफा होने का दावा कर रहा है। लेकिन दावा और आंकड़े में काफी अंतर है। इतना ही नहीं पहले जंगली खजूर को वन विभाग ने खत्म किया। अब ग्रासलैंड विकसित करने के नाम पर सफेद मूसली, आंवला, हर्रे-बहेड़ा जैसी जड़ी-बुटियों को खत्म करने की 93 लाख की योजना बनाई गई है। हाल में थरूहट और दोन इलाके में रह रहे वनवासियों के आर्थिक व सामाजिक स्थिति पर बिहार शोध संवाद की एक टीम ने रिसर्च किया था। टीम के प्रमुख सदस्य और प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अनिल प्रकाश कहते हैं कि थारूओं व उरांवों के विरुद्ध वन विभाग साज़िश रच रहा है। उनकी मासुमियत और ज़मीन से संबंधित कोई प्रमाण नहीं होने का फायदा उठाया जा रहा है। दोन से हरनाटांड़ जाने वाली सड़क पर भेलहवा दह के पास मगरमच्छ पालने की योजना है। यह योजना ज़मीन पर कब और कितनी कारगर होगी यह तो पता नहीं, अलबत्ता मगरमच्छ संरक्षण के नाम पर यह रास्ता बंद करने की साज़िश ज़रूर है।
इसी प्रकार कई जगह थारूओं को तंग करने के लिए वन विभाग के कर्मी लोगों की रैयती ज़मीन पर खंभे गाड़ रहे हैं, तो कहीं जेसीबी से गड्ढे खोदे जा रहे हैं। रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि जंगल के राजस्व ग्रामों को बफर एरिया और पेरिफेरियल एरिया घोषित करने के लिए वन विभाग और प्रशासन षडयंत्र रच रहा है। इसके लिए लोगों को डरा-धमका कर जबरन ग्राम सभाओं से प्रस्ताव पास कराने का प्रयास किया जा रहा है। यदि यह सफल हो जाता तो 152 गाँवों के लोग विस्थापित हो जाते। पिछले बीस वर्षों से इस इलाके में किसानों की मालगुजारी रसीद राजस्व कर्मचारी नहीं काट रहे हैं। बैरकेटिंग से सटे गाँवों की स्थिति काफी बदहाल है।
अखिल भारतीय थारू कल्याण महासंघ के नेता हेमराज प्रसाद ने बताया कि वनकर्मियों की नीयत का पता इसी से लगता है कि लकड़ी काटने व तस्करी के मामले में भतुजला के कपिलदेव उरांव पर एक मुकदमा 2011 में वन विभाग ने दर्ज कराया था, जबकि कपिलदेव की मौत पांच साल पूर्व ही हो चुकी थी। इसी प्रकार रघई उरांव नामक व्यक्ति पर वनकर्मियों ने 80 मुकदमा दर्ज कराया। एक अनुमान के अनुसार, अब तक लगभग 400 लोगों पर फ़र्ज़ी मुकदमे दर्ज हो चुके हैं। इधर, थारूओं के एक अन्य नेता शैलेंद्र गढ़वाल बताते हैं कि दोन इलाके में 24 गांव रेवन्यू ग्राम हैं। यहां पहुंचने के लिए बीहड़ जंगलों के बीच से होकर गुजरना पड़ता है। बरसात के मौसम में चार महीने यहां का रास्ता अवरुद्ध रहता है। पक्का रास्ता बनाने नहीं दिया जाता है। पहले यहां के लोग जंगलों से जड़ी-बुटी लाकर अपना पेट चलाते थे। अब वे पलायन कर पंजाब, दिल्ली जाने को मजबूर हैं। यहां की खेती भउड़ी (आहर-पईन) पर निर्भर है। उसे भी प्रतिबंधित करने की बात चल रही है।
जानकारी के अनुसार वन विभाग ने केंद्र सरकार को रिपोर्ट भेजी थी कि यहां के स्थानीय लोगों के कारण ही बाघों, पशु-पक्षियों की संख्या घट रही है। ये लोग कोर एरिया में अवैध रूप से प्रवेश कर लकड़ी काटते हैं, बैरिकेटिंग तोड़ कर जंगल में घुस आते हैं। तस्करी के धंधे में भी ये लोग लिप्त हैं। अतः इस क्षेत्र से इन्हें हटाया जाए। वाल्मीकि प्रोजेक्ट टाइगर के निदेशक सह संरक्षक संतोष तिवारी का कहना है कि यहां के निवासियों को कोई पारंपरिक अधिकार नहीं हैं। हम उनकी समस्याओं के निदान के लिए ही प्रयासरत हैं। सुप्रीम कोर्ट के गाइडलाइन व प्रोटेक्शन एक्ट को अमल में लाना हमारी मजबूरी है। अगर कोई जंगली सुअर को मारे, ज़बरदस्ती जंगल में घुस कर लकड़ी काटे तो ऐसे लोगों पर मुकदमा किया जाएगा। जो यहां के लोग करते आ रहे हैं। तो हमें उनके खिलाफ एक्शन लेना मजबूरी है। अब इसे कोई फ़र्ज़ी केस कहे, तो हम क्या कर सकते हैं। दूसरी ओर इस इलाके के लोगों की माँगें हैं कि वनाधिकार कानून एफआरए 2006 को लागू किया जाए, ताकि जंगल के सह उत्पादों को लाने का अधिकार मिल सके। इसके साथ-साथ इलाके को शेड्युल 5 घोषित किया जाए, ताकि आदिवासियों की ज़मीन को दूसरा कोई खरीद न सके। इन्हीं मांगों को लेकर पिछले कई सालों से थारूओं का संगठन आंदोलनरत है। लेकिन प्रशासन अभी तक नींद में है और थारूओं का दमन जारी है।