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कादम्बिनी, जुलाई 2014
कांगड़ा घाटी के सौंदर्य की तुलना स्विट्जरलैंड से की जाती है। बारिश के मौसम में तो घाटी का यह सौंदर्य और भी दिलकश हो जाता है। अधिक वर्षा का क्षेत्र होने के कारण यहां लगभग सभी घरों की छतें ढलानदार होती हैं। बरसात से पहले सभी कच्चे घरों की मिट्टी से पुताई की जाती है। मॉनसून से पहले ही जल-निकासी की व्यवस्था भी चुस्त-दुरुस्त कर ली जाती हैहिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी बर्फ से ढकी हिमालय पर्वत श्रृंखला के धौलाधार पहाड़ों से लेकर व्यास दरिया के किनारों तक फैली पाद-पहाड़ियों के प्राकृतिक सौंदर्य के कारण पर्यटकों को आकर्षित करती है। धौलाधार के आंचल से निकलती छोटी-बड़ी नदियां ढलानदार जमीन को सींचती हुई दरिया में मिलती है। बीच में छोटे-छोटे सीढ़ीनुमा खेत, पारंपरिक कच्चे घर, हवेलियां, मंदिर और सफेद-गुलाबी फूलों के वृक्ष इसे श्रृंगारित करते हैं।
घाटी के घने-जंगलों में भेड़-बकरियों के साथ घुमंतू गद्दी व स्थानीय लोग अपने दिलकश हुस्न से अनजान घूमते हैं। वर्षा ऋतु या कांगड़ी भाषा में इस ‘बरसात’ का नव-विवाहित युवतियों और किसानों को बेसब्री से इंतजार रहता है। स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह के बाद भादों की ‘पहली बरसात’ में नव-विवाहित बहू व उसकी सास एक साथ नहीं रह सकतीं। बहू अपने मायके चली जाती है। परोक्ष में इसके पीछे कारण यह है कि प्रारंभिक उल्लास के भोग-विलास से नवयुवती को राहत व आराम मिल सके। यह अलग बात है कि दूर-दूर से पर्यटकों के रूप में नव-विवाहित दंपती भविष्य के सपने बुनने इसी मौसम में इस घाटी में पहुंचते हैं।
छोटी-छोटी जोत के मालिक किसान धान की खेती के लिए पूरी तरह वर्षा पर निर्भर होते हैं। धौलाधार पहाड़ियों से पिघलती बर्फ से वर्षभर नदियों में पानी रहता है फिर भी खेती बारानी (वर्षा-आधारित) होने के कारण सिंचाई के लिए लगभग सभी किसान मॉनसून के इंतजार में रहते हैं। धान की रोपाई सारा परिवार मिल-जुलकर करता है। जल-भरे खेतों में ‘छतरोड़े’ (चौड़े पत्तों से बनाई पारंपरिक छतरियां) से ढकी, झुकी हुई महिलाएं ‘नी मेरा कांगड़ा देश नियारा डुंग्गी-डुंग्गी नदियां, टैल-टैल धारां’ या ऐसे ही लोक गीत गाती हैं। वर्षा ऋतु में जहां पड़ोसी जिला चंबा में जल देवता को समर्पित ‘मिंजर’ का त्योहार आता है वहीं रक्षा-बंधन का त्योहार भी कांगड़ा घाटी में मनाया जाता है। इन दिनों विद्यालयों में अवकाश रहता है इसलिए बच्चे भी भीगते-भागते इस मौसम का आनंद लेते हैं।
अधिक वर्षा का क्षेत्र होने के कारण घाटी में लगभग सभी मकान ढलानदार छतों के बनाए जाते हैं। गांवों में तो स्थानीय उपलब्ध पर्यावरण अनुकूल सामग्री कच्ची ईंटों, पत्थरों, बांस व स्लेट का उपयोग किया जाता रहा है। अब स्लेट की जगह रंग-बिरंगी टीन की चादरों का इस्तेमाल होने लगा है।
मॉनसून में धौलाधार के पहाड़ हर पल परिधान बदलते हैं और किसी पोस्टकार्ड पर छपे चित्र जैसे हो जाते हैं। इस घाटी के सौंदर्य को स्विटजरलैंड-जैसा आंका गया है और जो लोग मॉनसून में यहां आते हैं वे इसे लगभग वैसा ही मानते हैं।लंबी और दूर तक फैली इस घाटी के आंचल में तैरते सुरमई बादल और अचानक आई फुहारें मैदानी इलाकों के पर्यटकों को अपनी ओर खींचती हैं। घर-आंगन में पक्षियों के झुंड की तरह अनायास उड़ आए बादलों को हर कोई छूकर कैमरे में रखना चाहता है। सावन के नवरात्रों में चिंतपूर्णी, ज्वालामुखी, कांगड़ा और चामुंडा में देवी-दर्शनों के लिए और बैजनाथ में नौवीं सदी के ऐतिहासिक शिव-मंदिर के दर्शन के लिए उत्तर भारत से भक्त-जन पधारते हैं। मैक्लोडगंज में तिब्बत की निर्वासित सरकार है और दलाई लामा के दर्शनों के लिए विश्वभर से अनुयायियों का आवागमन बढ़ जाता हैं। पास ही के नड्डी, स्ट्राबरी-हिल, धर्मकोट जैसे गांव इन दिनों बादलों और विदेशी पर्यटकों से सराबोर रहते हैं।
घाटी में नूरपूर, शाहपुर, कांगड़ा, पपरोला, जयसिंहपुर जैसे छोटे-छोटे शहर हैं, तो पालमपुर, धौलाधार घाटी के मुकुट में कोहेनूर की तरह सुशोभित है। ‘बरसात’ में शांत पगडंडियों व पानी की ठंडी कूल्हें (लघु जल-धाराओं की संकरी नहरें) पालमपुर के सौंदर्य की अद्वितीय तस्वीर प्रस्तुत करती हैं।
बनूरी, सलियाणा, अंद्रेटा अगोजर-जैसे गांव नैसर्गिक सौंदर्य से लबरेज हैं। अंद्रेटा से तो धौलाधार का दृश्य बेहद आकर्षक है। एक ओर शिवालिक की छोटी पहाड़ी है, तो दूसरी ओर गगनचुंबी धौलाधार के पर्वत। इसी कारण इस गांव में कुछ कलाकार बस गए। पंजाबी नाटकों की जननी नोरह रिचर्डज व चित्रकार सोभा सिंह तो जीवन पर्यंत यहीं रहे। अब इन लोगों की स्मृतियों को जीने व कलाकृतियों को देखने देश-विदेश से लोग यहां पहुंचते हैं। वर्षा में नदियों के किनारों, गांव की पगडंडियों या जंगल में सैर का अपना ही मजा है। धौलाधार की चोटियों का नंगा आंचल बादल ढंकने का प्रयास करते हैं। चट्टानी पहाड़ों के सीने पर हरी घास उग आती है और इन्हीं के कठोर दिल से कितने ही विभिन्न निर्मल शीतल झरने फूटते हैं। बिजली गरजती है तो पालम घाटी की शांति भंग हो जाती है। बारिश बहुत तेज होती है। कुछ घंटों के बाद इन्हीं बादलों से सूरज झांकता है और इद्रधनुष पर्वतों पर बिखर जाते हैं।
मॉनसून में धौलाधार के पहाड़ हर पल परिधान बदलते हैं और किसी पोस्टकार्ड पर छपे चित्र जैसे हो जाते हैं। इस घाटी के सौंदर्य को स्विटजरलैंड-जैसा आंका गया है और जो लोग मॉनसून में यहां आते हैं वे इसे लगभग वैसा ही मानते हैं। प्रदेश पर्यटन विभाग के साथ निजी होटलों की व्यवस्था सभी प्रमुख शहर-कस्बों में है। कुछ गांवों में ‘होम स्टे’ के तहत पर्यटक स्थानीय लोगों के साथ रहकर रीति-रिवाजों व कांगड़ी खान-पान का आनंद भी ले सकते हैं।
उफनती नदियों-नालों, हरे-भरे धुले हुए जंगलों और इनसे निकल आए अनगिनत जल-प्रपातों और निरंतर भीगे वातावरण के कारण कांगड़ा घाटी का सौंदर्य अपने यौवन पर होता है। इसीलिए लोगों को मॉनसून का इंतजार रहता है, ताकि बौछारें उन्हें अंदर तक भिगो जाएं और मॉनसून की अठखेलियां और ठंडक अगले मॉनसून तक बनी रहे।
(लेखक साहित्यकार हैं)
घाटी के घने-जंगलों में भेड़-बकरियों के साथ घुमंतू गद्दी व स्थानीय लोग अपने दिलकश हुस्न से अनजान घूमते हैं। वर्षा ऋतु या कांगड़ी भाषा में इस ‘बरसात’ का नव-विवाहित युवतियों और किसानों को बेसब्री से इंतजार रहता है। स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह के बाद भादों की ‘पहली बरसात’ में नव-विवाहित बहू व उसकी सास एक साथ नहीं रह सकतीं। बहू अपने मायके चली जाती है। परोक्ष में इसके पीछे कारण यह है कि प्रारंभिक उल्लास के भोग-विलास से नवयुवती को राहत व आराम मिल सके। यह अलग बात है कि दूर-दूर से पर्यटकों के रूप में नव-विवाहित दंपती भविष्य के सपने बुनने इसी मौसम में इस घाटी में पहुंचते हैं।
छोटी-छोटी जोत के मालिक किसान धान की खेती के लिए पूरी तरह वर्षा पर निर्भर होते हैं। धौलाधार पहाड़ियों से पिघलती बर्फ से वर्षभर नदियों में पानी रहता है फिर भी खेती बारानी (वर्षा-आधारित) होने के कारण सिंचाई के लिए लगभग सभी किसान मॉनसून के इंतजार में रहते हैं। धान की रोपाई सारा परिवार मिल-जुलकर करता है। जल-भरे खेतों में ‘छतरोड़े’ (चौड़े पत्तों से बनाई पारंपरिक छतरियां) से ढकी, झुकी हुई महिलाएं ‘नी मेरा कांगड़ा देश नियारा डुंग्गी-डुंग्गी नदियां, टैल-टैल धारां’ या ऐसे ही लोक गीत गाती हैं। वर्षा ऋतु में जहां पड़ोसी जिला चंबा में जल देवता को समर्पित ‘मिंजर’ का त्योहार आता है वहीं रक्षा-बंधन का त्योहार भी कांगड़ा घाटी में मनाया जाता है। इन दिनों विद्यालयों में अवकाश रहता है इसलिए बच्चे भी भीगते-भागते इस मौसम का आनंद लेते हैं।
अधिक वर्षा का क्षेत्र होने के कारण घाटी में लगभग सभी मकान ढलानदार छतों के बनाए जाते हैं। गांवों में तो स्थानीय उपलब्ध पर्यावरण अनुकूल सामग्री कच्ची ईंटों, पत्थरों, बांस व स्लेट का उपयोग किया जाता रहा है। अब स्लेट की जगह रंग-बिरंगी टीन की चादरों का इस्तेमाल होने लगा है।
मॉनसून में धौलाधार के पहाड़ हर पल परिधान बदलते हैं और किसी पोस्टकार्ड पर छपे चित्र जैसे हो जाते हैं। इस घाटी के सौंदर्य को स्विटजरलैंड-जैसा आंका गया है और जो लोग मॉनसून में यहां आते हैं वे इसे लगभग वैसा ही मानते हैं।लंबी और दूर तक फैली इस घाटी के आंचल में तैरते सुरमई बादल और अचानक आई फुहारें मैदानी इलाकों के पर्यटकों को अपनी ओर खींचती हैं। घर-आंगन में पक्षियों के झुंड की तरह अनायास उड़ आए बादलों को हर कोई छूकर कैमरे में रखना चाहता है। सावन के नवरात्रों में चिंतपूर्णी, ज्वालामुखी, कांगड़ा और चामुंडा में देवी-दर्शनों के लिए और बैजनाथ में नौवीं सदी के ऐतिहासिक शिव-मंदिर के दर्शन के लिए उत्तर भारत से भक्त-जन पधारते हैं। मैक्लोडगंज में तिब्बत की निर्वासित सरकार है और दलाई लामा के दर्शनों के लिए विश्वभर से अनुयायियों का आवागमन बढ़ जाता हैं। पास ही के नड्डी, स्ट्राबरी-हिल, धर्मकोट जैसे गांव इन दिनों बादलों और विदेशी पर्यटकों से सराबोर रहते हैं।
घाटी में नूरपूर, शाहपुर, कांगड़ा, पपरोला, जयसिंहपुर जैसे छोटे-छोटे शहर हैं, तो पालमपुर, धौलाधार घाटी के मुकुट में कोहेनूर की तरह सुशोभित है। ‘बरसात’ में शांत पगडंडियों व पानी की ठंडी कूल्हें (लघु जल-धाराओं की संकरी नहरें) पालमपुर के सौंदर्य की अद्वितीय तस्वीर प्रस्तुत करती हैं।
बनूरी, सलियाणा, अंद्रेटा अगोजर-जैसे गांव नैसर्गिक सौंदर्य से लबरेज हैं। अंद्रेटा से तो धौलाधार का दृश्य बेहद आकर्षक है। एक ओर शिवालिक की छोटी पहाड़ी है, तो दूसरी ओर गगनचुंबी धौलाधार के पर्वत। इसी कारण इस गांव में कुछ कलाकार बस गए। पंजाबी नाटकों की जननी नोरह रिचर्डज व चित्रकार सोभा सिंह तो जीवन पर्यंत यहीं रहे। अब इन लोगों की स्मृतियों को जीने व कलाकृतियों को देखने देश-विदेश से लोग यहां पहुंचते हैं। वर्षा में नदियों के किनारों, गांव की पगडंडियों या जंगल में सैर का अपना ही मजा है। धौलाधार की चोटियों का नंगा आंचल बादल ढंकने का प्रयास करते हैं। चट्टानी पहाड़ों के सीने पर हरी घास उग आती है और इन्हीं के कठोर दिल से कितने ही विभिन्न निर्मल शीतल झरने फूटते हैं। बिजली गरजती है तो पालम घाटी की शांति भंग हो जाती है। बारिश बहुत तेज होती है। कुछ घंटों के बाद इन्हीं बादलों से सूरज झांकता है और इद्रधनुष पर्वतों पर बिखर जाते हैं।
मॉनसून में धौलाधार के पहाड़ हर पल परिधान बदलते हैं और किसी पोस्टकार्ड पर छपे चित्र जैसे हो जाते हैं। इस घाटी के सौंदर्य को स्विटजरलैंड-जैसा आंका गया है और जो लोग मॉनसून में यहां आते हैं वे इसे लगभग वैसा ही मानते हैं। प्रदेश पर्यटन विभाग के साथ निजी होटलों की व्यवस्था सभी प्रमुख शहर-कस्बों में है। कुछ गांवों में ‘होम स्टे’ के तहत पर्यटक स्थानीय लोगों के साथ रहकर रीति-रिवाजों व कांगड़ी खान-पान का आनंद भी ले सकते हैं।
उफनती नदियों-नालों, हरे-भरे धुले हुए जंगलों और इनसे निकल आए अनगिनत जल-प्रपातों और निरंतर भीगे वातावरण के कारण कांगड़ा घाटी का सौंदर्य अपने यौवन पर होता है। इसीलिए लोगों को मॉनसून का इंतजार रहता है, ताकि बौछारें उन्हें अंदर तक भिगो जाएं और मॉनसून की अठखेलियां और ठंडक अगले मॉनसून तक बनी रहे।
(लेखक साहित्यकार हैं)