शहरीकरण और औद्योगीकरण के कारण भारत में ऊर्जा की माँग में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। और इसे पूरा करने का सबसे अधिक दबाव कोयला चलित ताप विद्युत संयंत्रों पर है। यही वजह है कि ये ताप विद्युत संयंत्र देश में सबसे बड़े कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक बन गए हैं।
भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक है। इस बात की चर्चा संयुक्त अरब अमीरात (United Arab Emirates) की ईस्ट एंग्लिया (East Anglia) यूनिवर्सिटी द्वारा तैयार तैयार किये गए ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट (Global Carbon Project) नामक दस्तावेज में की गई है। इस दस्तावेज को पोलैंड के केटोवाइस में जारी सम्मेलन, यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क ऑन क्लाइमेट चेंज (United Nations Framework on Climate Change or COP24) के दौरान जारी किया गया। इस सम्मलेन का मूल उद्देश्य विश्व में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का मूल्यांकन और उन्हें सीमित करने सम्बन्धी रणनीति तैयार करना है।
इस दस्तावेज के अनुसार भारत द्वारा किये जा रहे कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन में वर्ष 2018 में 2017 की तुलना में 6.3 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज किये जाने का अनुमान है। वहीं, वैश्विक स्तर पर वर्ष 2017 में 37.1 बिलियन उत्सर्जन हुआ जो अब तक के इतिहास में सबसे ज्यादा है। इसमें 2018 में 2.7 प्रतिशत वृद्धि का अनुमान है। विश्व में सबसे ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करने वाला देश चीन है। इसके बाद अमरीका का स्थान आता है।
2017 में विश्व के तीन सबसे बड़े कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक
देश |
कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन |
चीन |
9.8 बिलियन टन |
अमरीका |
5.3 बिलियन टन |
भारत |
2.5 बिलियन टन |
स्रोत- ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट
गौरतलब है कि वर्ष 2014 से 2016 के दौरान विश्व में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का स्तर लगभग बराबर रहा। परन्तु 2017 में अचानक इसमें 1.6 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। भारत में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के स्तर में तेजी से हो रही वृद्धि का सबसे बड़ा कारण कोयला चलित ताप विद्युत संयंत्रों से निकलने वाला धुआँ है। आँकड़े बताते हैं कि भारत के कुल कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का 65 प्रतिशत भाग इन्हीं संयंत्रों से पैदा होता है।
वर्ष 2017 में भारत में ईंधन के विभिन्न साधनों द्वारा उत्सर्जन
ईंधन के साधन |
उत्सर्जन |
कोयला |
1.7 बिलियन टन |
तेल |
0.6 बिलियन टन |
गैस |
0.1 बिलियन टन |
सीमेंट |
0.1 बिलियन टन |
स्रोत- ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट
भारत में विद्युत उत्पादन की माँग पर नजर डालने पर मालूम होता है कि यह प्रतिवर्ष 6.67 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है जबकि उत्पादन में वृद्धि 5.78 प्रतिशत की दर से हो रही है। इन आँकड़ों से साफ है कि माँग और उत्पादन की दर में लगभग एक प्रतिशत का अन्तर है। लेकिन आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि उत्पादन के 30 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से की बर्बादी बिजली को गन्तव्य तक पहुँचाने में ही हो जाती है। यही वजह है कि यहाँ माँग और उत्पादन वृद्धि में इतने कम अन्तराल के बावजूद भी पर्याप्त बिजली की सप्लाई नहीं हो पाती है। भारत विद्युत ऊर्जा के उत्पादन में विश्व में तीसरे स्थान पर है जबकि चीन और अमरीका क्रमशः पहले और दूसरे स्थान पर आते हैं।
भारत में बिजली उत्पादन की स्थिति
उत्पादन के स्रोत |
प्रतिशत |
कोयला |
75.90 |
बड़ी पनबिजली परियोजनाएँ |
09.70 |
छोटी पनबिजली परियोजनाएँ |
0.40 |
पवन चक्की आधारित ऊर्जा |
04.00 |
सौर ऊर्जा |
02.00 |
बायोमास |
01.20 |
परमाणु ऊर्जा |
02.90 |
गैस |
03.90 |
वित्तीय वर्ष 2017-18 के सरकारी आँकड़े के अनुसार
हालांकि, भारत सरकार ने देश में कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के बढ़ते स्तर और पेरिस समझौता द्वारा तय किये गए मानकों को गम्भीरता से लेते हुए वर्ष 2030 तक इसमें 33 से 35 प्रतिशत तक कमी लाने का लक्ष्य रखा है। इसकी पूर्ति के लिये स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन को बढ़ावा देने के साथ ही कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों पर निर्भरता को क्रमिक रूप से कम करने का फैसला लिया है। सरकार ने मार्च 2022 तक स्वच्छ ऊर्जा में 175 गीगावाट (GW) तक की वृद्धि का लक्ष्य निर्धारित किया है जिसमें 100 गीगावाट सौर, 60 गीगावाट पवन जबकि 15 गीगावाट अन्य स्रोतों से पूरा करने का लक्ष्य है। सरकार द्वारा इस क्षेत्र में सुधार लाने की प्रतिबद्धता को देखते हुए यह माना जा रहा है कि इस लक्ष्य की पूर्ति निर्धारित समय से पूर्व हो जाने की सम्भावना है।
केटोवाइस में जर्मनवॉच (Germanwatch) संस्था द्वारा कैन (CAN) और न्यूक्लाइमेट इंस्टीट्यूट (NewClimate Institute) के सहयोग तैयार किया गया क्लाइमेट चेंज परफॉरमेंस इंडेक्स 2019 (Climate Change Performance Index 2019) को 10 दिसम्बर को जारी किया गया। कुल 60 देशों के लिये जारी इस इंडेक्स के मुताबिक पिछले वर्ष के मुकाबले तीन पायदान ऊपर चढ़कर भारत 11वें स्थान पर आ गया है। वहीं, अमरीका और संयुक्त अरब अमीरात सबसे निचले पायदान पर हैं जबकि स्वीडन और मोरक्को का स्थान क्रमशः पहले एवं दूसरे नम्बर पर है। भारत की स्थिति में सुधार आने का कारण सरकार द्वारा स्वच्छ ऊर्जा के विस्तार के साथ ही ताप विद्युत संयंत्रों की उत्पादन क्षमता में क्रमबद्ध रूप से कमी लाने का लक्ष्य है।
वैज्ञानिकों का दावा है कि पिछले पाँच दशकों में भारत के औसत तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। तापमान में हुई इस वृद्धि के कारण देश के विभिन्न इलाकों में गर्म हवाओं (Heatwave) के साथ कम समय में अधिक बारिश, बाढ़ आदि का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। मिनिस्ट्री ऑफ अर्थ साइंसेज (Ministry of Earth Sciences) द्वारा जारी एक डाटा के अनुसार देश में पिछले चार सालों में गर्म हवाओं के प्रभाव से 4620 लोगों की मौत हो चुकी है। जहाँ तक बाढ़ और अत्यधिक बारिश का सवाल है केरल इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
इसी साल अक्टूबर में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (Intergovernmental Panel on Climate Change, IPCC) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार औद्योगीकरण के पूर्व की तुलना में विश्व के औसत तापमान में अब तक 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि दर्ज की जा चुकी है। और 2040 तक इसके 1.5 और 2065 तक 2 डिग्री सेल्सियस हो जाने का अनुमान है। तापमान में हुई वृद्धि का प्रभाव पूरे विश्व में जलवायु परिवर्तन के रूप में देखने को मिल रहा है। केटोवाइस में जारी हुए ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2019 (Global Climate Risk Index) के अनुसार 1998 से 2017 के बीच, जलवायु परिवर्तन से जुड़े प्रभावों के कारण विश्व में 5,26000 लोग अपनी जान गँवा चुके हैं वहीं, 3.47 ट्रिलियन डॉलर (क्रय शक्ति समता के अनुसार, Purchasing Power Parity) की सम्पत्ति का नुकसान हो चुका है।
ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स के अनुसार जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले देशों में प्युर्टो रिको, श्रीलंका और डोमिनिका क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे। भारत इस मामले में 14 वें स्थान पर है। आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार विश्व के औसत तापमान में वृद्धि के साथ-साथ समुद्रों का जलस्तर और तापमान दोनों ही बढ़ रहे हैं। इसके अनुसार तापमान के औसत वृद्धि 1.5 अथवा 2 तक पहुँच जाने के कारण आज की तुलना में उष्णकटिबंधीय चक्रवातों (Tropical Cyclone) की संख्या में कमी आएगी। परन्तु यह अच्छा संकेत नहीं है क्योंकि इनके प्रभाव में काफी वृद्धि होगी जिससे तबाही और भी बढ़ने की उम्मीद है। मेक्सिको की खाड़ी पर किये गए एक रिसर्च के मुताबिक जमीनी भागों से टकराने से पहले तूफान की गति समुद्री जल के अपेक्षाकृत गर्म होने के कारण तेजी से बढ़ती जाती है जिससे वे बहुत अधिक तबाही पैदा करते हैं।
तापमान में हो रही वृद्धि के कारण 2017 में समुद्री जल का तापमान अब तक के इतिहास में सबसे ज्यादा रहा है। यही वजह है कि पूरे विश्व में तूफान, बारिश और सूखा के मामले में बढ़त देखने को मिल रही है। आईपीसीसी रिपोर्ट के मुताबिक यदि तापमान में हो रही इस वृद्धि पर समय रहते अंकुश लगाने के लिये कदम नहीं उठाए गए तो पूरे विश्व को भारी वित्तीय संकट का सामना करना पड़ेगा। इस रिपोर्ट के अनुसार औसत तापमान के 1.5 या 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाने पर वैश्विक अर्थव्यवस्था को क्रमशः 54 और 69 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान हो सकता है।
ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स 2019 के माध्यम से जारी किये गए आँकड़े के मुताबिक पिछले 20 सालों में भारत में जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित जुड़ी घटनाओं के कारण हर वर्ष 3,660 लोगों की मौत हुई है। इतना ही नहीं भारत कार्बन उत्सर्जन से होने वाले सामजिक-आर्थिक नुकसान (Social Cost of Carbon) के मामले में विश्व में पहले स्थान पर है। एक टन कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन पर भारत को 86 डॉलर का नुकसान वहन करना पड़ता है जो विश्व के कुल सोशल कॉस्ट ऑफ कार्बन का 21 प्रतिशत है। वहीं, 48 डॉलर प्रति टन के नुकसान के साथ अमरीका दूसरे स्थान पर है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार जलवायु परिवर्तन से जुड़े मौसमी घटनाक्रमों में पिछले बीस वर्षों में 151 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। वहीं, इसी दरम्यान विश्व को हुई कुल आर्थिक क्षति के 77 प्रतिशत भाग की वजह जलवायु परिवर्तन ही रहा है। भारत इस सन्दर्भ में विश्व में चौथे स्थान पर है जबकि अमरीका, चीन और जापान क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। इन आँकड़ों के विश्लेषण से साफ है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सीमित करने के लिये दुनिया के सभी देशों को मिलकर कदम उठाने होंगे।
जलवायु परिवर्तन के कारण आर्थिक हानि उठाने वाले देश
देश |
आर्थिक हानि बिलियन डॉलर में |
अमरीका |
944.8 |
चीन |
492.2 |
जापान |
376.3 |
भारत |
79.5 |
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