टीका

Submitted by Hindi on Tue, 08/16/2011 - 08:49
टीका अर्थात्‌ वैक्सिनेशन (Vaccination) का मूल तात्पर्य शीतला निरोधक टीके से तो है ही, किंतु कालांतर में इस शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में भी होने लगा और अन्य रोगों के प्रतिषेधक वैक्सीनों का प्रयोग भी टीका अथवा वैक्सिनेशन कहलाने लगा है।

शीतला से बचने के टीके का चलन बहुत प्राचीन है, जो भारत अथवा चीन से प्रारंभ हुआ था। प्राचीन भारतीय और चीनी टीके की विधि भिन्न थी, परंतु मूल सिद्धांन्त एक सा था। शीतला, मसूरी अथवा चेचक का रोग एक बार हो जाने पर साधारणतया दूसरी बार उसी व्यक्ति को नहीं होता, किंतु इसका अपवाद भी है। इस महत्वपूर्ण अनुभव द्वारा यह दृढ़ निश्चय हो गया कि इस रोग द्वारा रोगनिरोधी प्रतिरक्षण उत्पन्न हो जाता है। शीतला के रोगी को त्वचा पर उठे हुए शुष्कप्राय दानों खुरचन (scraping) दूसरे के शरीर में त्वचा को खरोच और लगाकर, हलका रोग उत्पन्न करने की चेष्टा की गई। यह रोगनिरोध में बहुत सफल सिद्ध हुई। इस रीति से शीतलाजनक वारियोला (Variola) नामक विषाणु को न्यूनाधिक रूप से निस्तेजित कर कृत्रिम संक्रमण उत्पन्न किया जाता था, जो रोगनिरोधी प्रतिरक्षक पिंड (immune body) निर्माण करने में सहायक होता था। यह रीति वारियोलेशन (Variolation) कही जाती है, जो वर्तमान काल के टीके (वैक्सिनेशन) से कुछ भिन्न है। वारियोलेशन में शीतलाजनक वारियोला विषाणु का उपयोग किया जाता था। यह हानिकारक सिद्ध हुआ। वारियोलेशनयुक्त व्यक्ति स्वयं तो रोग से सुरक्षित हो जाता था, किंतु दूसरों के लिए रोगप्रसार का केंद्र बन जाता था। इसके फलस्वरूप शीतला का संक्रमण देश देशांतरों में महामारी के रूप में होता गया।

गो-थन शीतला, अथवा गो-मसूरी (Cow-pox), भी शीतला जैसा रोग है। इस रोग का विषाणु वैक्सिनिया (Vaccinia) कहा जाता है। यह विषाणु वारियोला का निस्तेजित (attenuated) रूप है, जो सामान्यत: मनुष्य में कोई रोग उत्पन्न नहीं करता। कृत्रिम रूप से त्वचा को खरोचकर वैक्सिनिया विषाणु का संक्रमण कर देने से बहुत ही हल्का रोग होता है, जो अन्य व्यक्तियों में स्वत: प्रसारित नहीं होता। वारियोला के उपयोग में जो दोष हैं, वे वैक्सिनिया के प्रयोग में नहीं हैं। वैक्सिनिया विषाणु का टीका शीतला निरोध में वारियोलेशन के समान ही लाभदायक है। गो-मसूरी जनक वैक्सिनिया का शीतलानिरोध के लिए प्रयोग भी सर्वप्रथम भारत में ही हुआ था। धन्वंतरि के नाम से प्रसिद्ध एक शाक्त ग्रंथ का निम्नलिखित श्लोक इसका प्रमाण है --

धेतुस्तन्य मसूरिका नराणांच मसूरिका
तज्जलं बाहुमूलञ्च शास्त्रांतेन गृहीतवान्‌।
बहुमूले शास्त्राणि रक्तोत्पत्तिकराणि च
तज्जलं रक्त मिलितं स्फोटक ज्वर संभवम्‌।।


वर्तमान शीतलानिरोधी टीके का चलन जेनर द्वारा प्रसारित रीति से होता है। परंतु जेनर के पूर्व भी यह तथ्य जनसाधारण में प्रसार पा चुका था कि गो-मसूरी (वैक्सिनिया) द्वारा शीतला से रक्षा संभव है। जेनर ने इस तथ्य की वैज्ञानिक परीक्षा की और कई व्यक्तियों को टीके लगाकर पुन: वारियोलेशन की क्रिया की। टीका लग जाने पर वारियोलेशन कभी भी सफल नहीं हुआ, जिससे स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया कि वैक्सिनियायुक्त टीका शीतलानिरोधक है। पहले शीतलानिरोधी टीके का नीर एक बालक की बाँह से लेकर दूसरे को दिया जाता था। 'बाहु से बाहु में' टीका देने की प्रथा कई वर्षों तक चलती रही। इसके पश्चात्‌ बछड़ों की त्वचा में टीका लगाकर, वैक्सिनिया विषाणुयुक्त नीर प्राप्त कर, बालकों को टीका दिया जाने लगा। आजकल जो वैक्सीन काम में आता है वह अधिक शोधित, गुणकारी और निर्दोष है। सभी उन्नत देशो में यह धारणा दृढ़ हो गई है कि शीतलानिरोधी टीके का व्यवस्थित चलन इस रोग से बचने का अचूक उपाय है।

टीके की खोज करने तथा देश विदेश में उसका प्रसार करने का श्रेय भारत को ही है। तृतीय पंचवर्षीय योजना में भारत में चेचक उन्मूलन का प्रयास किया जा रहा है। रूस ने इस संबंध में महत्वपूर्ण सहयोग दिया है

सं. ग्रं. -- जेम्स : वैक्सिनेशन इन इंडिया। (भवानीशंकर याज्ञिक)

Hindi Title


विकिपीडिया से (Meaning from Wikipedia)




अन्य स्रोतों से




संदर्भ
1 -

2 -

बाहरी कड़ियाँ
1 -
2 -
3 -