भारत दुनिया के भौगोलिक क्षेत्र का मात्र 2.5 प्रतिशत है, परंतु विश्व की 17 प्रतिशत जनसंख्या यहाँ निवास करती है। भारत की जनसंख्या 1951 में 36 करोड़ थी, जो 2010 में बढ़कर 121 करोड़ हो गयी। लगभग 60 वर्षों में देश की जनसंख्या में करीब 300 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गयी है। भारत को 2020 तक लगभग 300 लाख टन खाद्यान्न की आवश्यकता है, जो वर्ष 2010-11 में महज 234 लाख टन थी।
उर्वरक देश की खाद्य सुरक्षा के लिये अति महत्त्वपूर्ण हैं। अधिक उपज वाली किस्मों, रासायनिक उर्वरकों तथा सिंचाई के साधनों के विकास के चलते भारतीय कृषि में हरित क्रांति का दौर आया। उर्वरकों का खाद्यन्न के उत्पादन में लगभग 50 प्रतिशत योगदान माना जाता है। इसी कारण उर्वरकों की खपत 1965-66 में 0.785 मिलियन टन से बढ़ कर वर्ष 2010-11 में 28.1 मिलियन टन हो गयी है।
रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग का नकारात्मक प्रभाव दीर्घकालीन तथा टिकाऊ कृषि उत्पादन पर तो पड़ता ही है, यह जलवायु परिवर्तन जैसे-गर्मी, ठंड, वर्षा, बाढ़ तथा सूखा पर भी प्रभाव डालता है। पानी और रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित प्रयोग के कारण मिट्टी में जल धारण शक्ति कम हो जाती है, मिट्टी में लवणता का निर्माण हो जाता है, और अन्य पोषक तत्वों एवं कार्बनिक तत्वों की कमी हो जाती है। इससे कृषि उत्पादन की स्थिरता में गिरावट और पर्यावरण प्रदूषण जैसे- वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण तथा मिट्टी के प्रदूषण में वृद्धि हो रही है। इसके समाधान के लिये जैव उर्वरक, कार्बनिक खेती, पारिस्थितिकीय खेती तथा समन्वित कृषि प्रबंधन (इंटिग्रेटेड एग्रो मैनेजमेंट) जैसे तरीके अपनाने की कोशिश की जा रही है। परंतु, इन वैकल्पिक तरीकों की अपनी सीमाएं हैं, और इनसे जुड़े तमाम पहलुओं पर विभिन्न तरीकों के अनुसंधान की आवश्यकता है।
रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से होने वाली क्षति
1. अधिकांश नत्रजन आधारित रासायनिक उर्वरक पानी में घुलनशील होते हैं, जिसके कारण इनका एक तिहाई भाग पौधों को प्राप्त नहीं हो पाता तथा रिसाव (लीचिंग) द्वारा मिट्टी में नीचे चला जाता है। इन उर्वरकों का मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में कोई योगदान नहीं है।
2. उर्वरकों का एक बड़ा हिस्सा जल बहाव के साथ बह कर पानी के स्रोतों में चला जाता है, जिससे पानी का प्रदूषण होता है, और इसकी जैव विविधता नष्ट होती है।
3. रासायनिक उर्वरकों का एक बड़ा हिस्सा वाष्पीकरण के कारण वातावरण में अमोनिया या नाइट्रस आॅक्साइड गैसों के रूप में विसरित होता रहता है, जिससे ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा और प्रभाव बढ़ जाता है। इन गैसों के बढ़ने से पृथ्वी पर ऊष्मीकरण हो रहा है।
4. अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करने पर यह फसलों को झुलसा देता है तथा ये उर्वरक जमीन पर कठोर परत का निर्माण करते हैं जिसके कारण मिट्टी में धूप तथा वायु का संचार अवरोधित हो जाता है, एवं पौधे कमजोर हो जाते हैं, जिस कारण उत्पादन भी कम हो जाता है।
जैविक खेती तथा जैव-उर्वरक
जैविक खाद उत्पादों की वैश्विक मांग बहुत तीव्र गति से बढ़ रही है। जब से पर्यावरणविदों ने खेती में रसायनों के बढ़ते उपयोग के हानिकारक प्रभावों के बारे में चिंता व्यक्त करना शुरू किया है, उपभोक्ता सचेत और खाद उत्पादों के बारे में चयनात्मक हो रहे हैं। दुनिया में जैविक खाद्य उद्योग 15 प्रतिशत की दर के साथ मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन तथा जापान आदि देशों को मिलाकर 40 अरब डॉलर तक पहुँच रहा है।
इस माँग की पूर्ति के लिये कंपनियाँ किसानों को उनके फसल की कीमत प्रदान करने के साथ-साथ उनसे अनुबंध कर रही हैं। विश्व भर में लगभग 3.5 करोड़ हेक्टेयर भूमि को जैविक खेती हेतु चिह्नित किया गया है तथा उचित फसल चक्र, वर्मीकम्पोस्ट, काऊ पैट पीट (सी.पी.पी.), नादेप कम्पोस्ट, जैविक कीट नियंत्रण, समन्वित खेती (इन्टिग्रेटेड फार्मिंग) तथा जैव-उर्वरकों द्वारा जैविक खेती को प्रोत्साहित करने हेतु फसल उत्पादन बढ़ाने पर जो दिया जा रहा है।
जैविक खेती कृषि का ही एक प्रकार है जिसमें रासायनिक उर्वरकों, रासायनिक कीटनाशकों एवं पौध वृद्धि नियमों (प्लांट ग्रोथ प्रमोटर्स) का प्रयोग वर्जित है। इस प्रकार की खेती में विभिन्न प्रकार के कम्पोस्ट, गोबर की खाद, अन्य कार्बनिक खाद तथा जैव-उर्वरकों का प्रयोग करके उत्पादन बढ़ाया जाता है।
जैविक खेती के निहितार्थ
अन्तरराष्ट्रीय महासंघ-जैविक कृषि आंदोलन (IFOAM) के निम्नलिखित निहितार्थ हैं :
1. पर्याप्त मात्रा में उच्च गुणवत्ता का भोजन उपलब्ध कराना।
2. प्राकृतिक प्रणाली (नेचुरल सिस्टम) तथा प्राकृतिक चक्र के भीतर काम करना।
3. सूक्ष्मजीवों, मिट्टी के वनस्पतियों एवं जीवों, पेड़ों तथा जानवरों को शामिल करके जैविक चक्र में वृद्धि को प्रोत्साहित करना।
4. प्राकृतिक संसाधनों के लगातार उपयोग को बढ़ावा देना।
5. मिट्टी की उर्वरा शक्ति को लंबी अवधि तक सुरक्षित रखना।
पारिस्थितिक कृषि (इकोलॉजिकल फार्मिंग)
पारिस्थितिक कृषि का लक्ष्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन के साथ-साथ मिट्टी के स्वास्थ्य का बचाव, जल एवं जलवायु, जैव विविधता को बढ़ावा देना तथा रासायनिक निवेश (केमिकल इनपुट) या आनुवंशिक अभियांत्रिकी आदि क्रियाओं द्वारा पर्यावरण को दूषित न करना है।
पारिस्थितिक कृषि में आमतौर पर पशुओं, फसलों और विधियों की विविधता शामिल है। इसके प्रबंधन तकनीकों में कवर फसल (कवर क्रॉप्स) मल्चिंग, जैविक खाद, फसल चक्र, हरी खाद तथा पशुओं से प्राप्त कचरे अथवा गोबर आदि का उपयोग शामिल है।
पारिस्थितिक कृषि के सिद्धांत निम्नलिखित हैं :
1. कृषि प्रणाली में जैव विविधता तथा आस-पास का वातारण प्रदूषण-मुक्त बनाये रखना।
2. ऐसे बीजों तथा पौधों का संरक्षण करना जो स्थानीय वातावरण के अनुकूल हों।
3. जहाँ तक संभव हो, लगातार कार्बनिक पदार्थ डालकर मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ तथा जैविक गतिविधियाँ लंबे समय के लिये बनाये रखना।
4. उत्पादकता में वृद्धि के लिये कृषि पारिस्थितिकी खेती के विभिन्न घटकों जैसे- जल संरक्षण, नत्रजन स्थिरीकरण, खनिज चक्र, मिट्टी के कार्बनिक पदार्थ का गठन तथा अधिक अनुकूलित पोषक तत्वों का परिरक्षण आदि को मजबूती प्रदान करना।
5. पशुओं के स्वास्थ्य एवं व्यवहार पर ध्यान देना।
6. विकास तथा लंबी सामाजिक और पारिस्थितिक प्रभाव के लिये विचार के साथ-साथ नवीन प्रौद्योगिकियों का प्रयोग करना।
जैव-उर्वरक
जैव उर्वरकों को मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने के लिये तथा टिकाऊ खेती में फसल उत्पादन हेतु रासायनिक उर्वरकों के विकल्प के रूप में माना जाता है। ये जीवित कोशिकायुक्त सूक्ष्मजीव हैं, जिनमें महत्त्वपूर्ण पोषक तत्वों को जैविक प्रक्रियाओं द्वारा अनुपलब्ध रूप से उपलब्ध रूप में परिवर्तित करने तथा पर्यावरणीय रूप से बेहतर पोषक तत्वों द्वारा फसल उत्पादन बढ़ाने की क्षमता रखते हैं।
जैव-उर्वरकों के प्रयोग के तरीके
1. जैव उर्वरकों को ठंडे तथा सूखे स्थान पर रखना चाहिए जहाँ सीधे धूप और गर्मी से बचाव हो सके।
2. उपयुक्त फसलों के लिये उपयुक्त जैव-उर्वरकों का चयन करना आवश्यक है, अन्यथा फसलों पर इनका विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।
3. रसायनों को जैव-उर्वरकों के साथ प्रयोग नहीं करना चाहिए।
जैव उर्वरकों को उनके कार्य एवं प्रकृति के आधार पर निम्न समूहों में वर्गीकृत किया गया है : | ||
क्र. सं. | समूह | उदाहरण |
1 | नत्रजन स्थिरिकारक | |
अ ब | स्वतंत्र जीवीय सहजीवी | एजेटोबैक्टर, एनाबीना, नास्टाक राइजोबियम, एनाबीना, एजोला |
स | साहचर्य सहजीव | एजोस्पाइरुलम |
2 | फास्फेट घोलक | |
अ ब | जीवाणु कवक | बैसिलस सबटायलीस, स्यूडोमोनास, फास्फेटिकम पेनीसिलियम, एस्परजिलस |
3 | जिंक घोलक जीवाणु | स्यूडोमोनास प्रजाति, बैसिलस प्रजाति |
4 | पौध वृदि्ध काराक रोम जीवाणु | स्यूडोमोनास क्लोरिसेंस |
जैव उर्वरक तथा उपयुक्त फसलें | ||
क्र. सं. | जैव उर्वरक | लाभार्थी फसलें |
1 | राइजोबियम | मूंगफली, सोयाबीन, मटर, अरहर इत्यादि |
2 | एजेटोबैक्टर | सब्जियाँ, चावल, गेहूँ, सरसो, बाजरा इत्यादि |
3 | एजोस्पाइरुलम | गन्ना, सब्जियाँ, मक्का, गेहूँ, चावल एवं फल-फूल |
4 | एजोला | चावल |
5 | फास्फेट-घोलक सूक्ष्मजीव | सभी फसलों के लिये |
6 | जिंक घोलक सूक्ष्मजीव | धान, गेहूँ, मक्का, गन्ना इत्यादि |
7 | नील-हरित शैवाल | चावल |
जैव-उर्वरकों के प्रकार
1. नत्रजन स्थिरीकारक जैव-उर्वरक
एजेटोबैक्टर - यह एक वायुजीवी मुक्त पाया जाने वाला तथा प्रकृति से परपोषी होता है। एजेटोबैक्टर तटीय तथा क्षारीय मिट्टी में पाया जाता है। एजेटोबैक्टर क्रोकम, ए. बाइलेंडी, ए. बीजेरीनीली, ए. इनसाइन तथा ए. मैकोसाइजिंस आदि प्रजातियाँ मिट्टी में अत्यधिक मात्रा में पायी जाती हैं। एजेटोबैक्टर जैविक रूप से सक्रिय वृद्धिकारक तत्वों जैसे विटामिन्स समूह, इण्डोल एसिटिक एसिड तथा जिबरेलीन इत्यादि का कृत्रिम रूप से उत्पादन भी करता है।
इन जीवाणुओं को राइजोबियम फलियों तथा अन्य फसलों जैसे चावल, मक्का, गन्ना, बाजरा, सब्जियों इत्यादि में भी नत्रजन स्थिरीकारक के रूप में चिह्नित किया गया है।
एजोस्पाइरुलम - यह एक प्रकार का नत्रजन स्थिरीकारक जैव-उर्वरक है जो सभी पौधों के लिये एक प्रमुख पोषक तत्व है। एजोस्पाइरुलम लाइपोफेरम एक बहुत ही उपयोगी जीवाणु है जो मिट्टी तथा पौधों की जड़ में पाया जाता है तथा स्वभाव से साहचर्य सहजीवी प्रकार का होता है।
यह जीवाणु पौधों के विकास में सहयोग करने वाले तत्वों जैसे इण्डोल एसिटिक एसिड, जिबरेलीन, पेंटोथिनिक एसिड, थायामीन तथा नियासिन पैदा करता है तथा जड़ प्रसार को बढ़ाता है। इससे उत्पादन में वृद्धि होती है व जड़ों के निचले भाग का घनत्व ताथा शाखाओं की वृद्धि में सहयोग देता है, जिसके कारण खनिजों तथा पानी का अवशोषण तीव्र गति से होने लगता है तथा पौधा स्वस्थ्य बना रहता है।
इनका उपयोग मोटे अनाज, तिलहन, फल एवं सब्जियों, गन्ना, केला, नारियल, कपास, मिर्च, कॉफी तथा चाय, सुपारी, नींबू, मसाले आदि फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिये किया जाता है।
राइजोबियम - यह जीवाणु मिट्टी में स्वतंत्र रूप में निवास करता है, तथा वायुमंडलीय नत्रजन को अवशोषित कर पौधों के जड़ों को प्रदान कराता है जिससे पौधों के विकास में सहायता मिलती है। यह जीवाणु नत्रजन की सबसे अधिक मात्रा उपलब्ध कराने के साथ-साथ सबसे कुशल जैव-उर्वरक भी है। इनका प्रयोग गैर-फलीदार (नॉन-लेग्यूमिनस) जैसे- चावल, गेहूँ, मक्का, जौ, बाजरा एवं अन्य अनाज प्रदान करने वाले पौधों इण्टोफिटिक संघ बनाने तथा फसल की उपज बढ़ाने में किया जाता है।
2. फास्फेट घोलक जैव उर्वरक
इस समूह में वे जीवाणु, कवक इत्यादि आते हैं जो अघुलनशील अकार्बनिक फॉस्फेट जो पौधों के लिये सुलभ रूप में बदल देते हैं जिससे इन पोषक तत्वों को पौधे आसानी से ग्रहण कर लेते हैं। ये सूक्ष्मजीव निम्न हैं, जैसे- स्यूडोमोनास, माइक्रोकोकस, बैसीलस, ज्यूजेरियम इत्यादि।
3. जिंक घोलक जैव उर्वरक
फास्फेट घोलक के रूप में बेसिलान मागाटोसिम, स्यूडोमोनास स्टाइटा व फॉस्फेट त्वरण कारक रोम जीवाणुओं को जैव-उर्वरकों के रूप में स्वीकार किया गया है। बेसिलस सबपग्लस, थायोबेसीलस थायोआम्सीडॉस व सैक्रोमाइसीज की जातियाँ जिंक को घुलनशील अवस्था में बदल देते हैं और पौधों को पोषक तत्व प्रदान कराते हैं। ये जैव-उर्वरक के रूप में प्रयोग किये जाते हैं जो जिंक जैसे सूक्ष्म तत्व प्रदान कराते हैं।
जैव उर्वरकों की सीमाएं
जैव उर्वरकों के उत्पादन, भंडारण और वितरण के लिये राज्य संस्थानों तथा निजी संस्थानों का कोई बड़ा समर्पित एवं प्रभावी नेटवर्क नहीं है। छोटे स्तर के प्रयास सफल नहीं हो पा रहे हैं, क्योंकि इस संबंध में किसानों में जागरूकता तथा तकनीकी जानकारियों का अभाव है। कुछ संस्थाएं इसके प्रसार पर काम कर रही हैं, परंतु विशाल कृषि ढाँचे के हिसाब से ये प्रयास अत्यंत कम हैं।
हमने अपने अध्ययन में पाया है कि जैव उर्वरकों की निर्धारित मात्रा विभिन्न क्षेत्रों में मौसम और क्षेत्र के हिसाब से नहीं हैं, इसलिये इनका उचित प्रभाव हासिल नहीं हो पा रहा है जिस मात्रा में, और जिन तरीकों से इनका उपयोग किया जाता है। उससे इनकी पोषक क्षमता रासायनिक खादों से बहुत कम होती है। इस कारण किसान इनके उपयोग पर निर्भर न होकर, रासायनिक खादों पर निर्भर रहते हैं। इस क्षेत्र में पर्याप्त ढाँचे, शोध, तकनीकीकरण और प्रसार की आवश्यकता है ताकि इन्हें रासायनिक खादों का विकल्प बनाया जा सके।
बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय, लखनऊ के फ़ील्ड लेबोरेटरी में रासायनिक उर्वरकों के सापेक्ष गेहूँ, धान, मूंग, सरसों, तिल, मिर्च, लहसुन आदि फसलों की उपज बढ़ाने हेतु जैव-उर्वरकों का प्रयोग मिट्टी तथा कम्पोस्ट के साथ मुक्त तथा बढ़े दाने (ग्रेन्यूल्स) के रूप में किया जा रहा है। यह देखा गया है कि जैव-उर्वरकों की मात्रा को बढ़ाकर और इसे कार्बनिक तत्वों से बने बड़े दाने में बाँधकर फसलों की उपज बढ़ायी जा सकती है। यह तकनीक रासायनिक खादों का विकल्प बन सकती है।
कार्बनिक खाद
कार्बनिक खाद वे प्राकृतिक उत्पाद हैं जिनका प्रयोग किसान खेती में फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिये करते हैं। इनमें हरी खाद, फसलों के अवशेष, अन्य कृषि अपशिष्ट, पशु अपशिष्ट, वर्मीकम्पोस्ट (केचुआ खाद), जानवरों की हड्डियों आदि का इस्तेमाल किया जाता है।
कार्बनिक खाद को निम्न प्रकार वर्गीकृत कर सकते हैं :-
1. वर्मीकम्पोस्ट (केचुआ खाद) - यह केचुओं की गतिविधि द्वारा उत्पादित जैविक खाद है। वर्मीकम्पोस्ट सूक्ष्म एवं स्थूल पोषक तत्वों विटामिन्स, वृद्धि हारमोन्स तथा गतिहीन सूक्ष्म वनस्पतियों से परिपूर्ण होता है। खाद में N, P, S, K, Be, Zn इत्यादि तत्व प्रचूर मात्रा में पाये जाते हैं जिससे पौधों की वृद्धि तथा फसल उपज को बढ़ाया जाता है।
इस प्रकार की खाद बनाने के लिये केचुए की विभिन्न प्रजातियों का इस्तेमाल होता है जिनमें से इड्रूलस यूजिनि, इसोनिया, फोइटीडा, ल्यूम्ब्रीकस मुख्य हैं।
2. कृषि उत्पादों से बनी खाद (फार्म यार्ड खाद) - यह खाद कूड़े के साथ गोबर तथा जनवरों के मूत्र को चारे की सामग्री के साथ सड़ाकर (डि-कम्पोज) बनाया जाता है। इस प्रकार की खाद के उपयोग से पौधों को नत्रजन, पोटाश व फास्फोरस की मात्रा उपलब्ध हो जाती है तथा फसल की उपज अच्छी हो जाती है।
फार्म यार्ड खाद का प्रयोग करने से फसलों की उपज पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। दूसरा प्रयोग सब्जियों जैसे- आलू, टमाटर, गाजर, प्याज इत्यादि के साथ-साथ गन्ना, चावल, फलों आदि के उत्पाद के लिये किया जाता है।
3. मुर्गी खाद (पोल्ट्री खाद) - मुर्गियों का मल-मूत्र तीव्र गति से सड़ता है तथा इसमें नत्रजन की प्रचुर मात्रा पायी जाती है। पोल्ट्री खाद में नत्रजन तथा फास्फोरस की उपलब्धता अन्य कार्बनिक खादों की तुलना में अधिक होती है जिससे पौधों की वृद्धि अच्छी हो जाती है।
4. भेड़ तथा बकरी से प्राप्त खाद - भेड़ तथा बकरी के मल-मूत्र में पोषक तत्वों की मात्रा कम्पोस्ट तथा कृषि उत्पादित खाद की तुलना में अधिक पायी जाती है। इनके मल-मूत्र को गड्ढे में डाल कर मिट्टी से ढक कर अपघटित किया जाता है, तथा अपघटन के पश्चात इसे खेत में प्रयोग किया जाता है।
5. भारी कार्बनिक खाद - इस प्रकार की खाद में पोषक तत्वों की मात्रा बहुत कम पायी जाती है। अत: इनका प्रयोग अधिक मात्रा में करना पड़ता है। इनके प्रयोग के निम्न लाभ हैं :
1. यह पौधों को पोषक तत्व तथा सूक्ष्म पोषकतत्व दोनों की आपूर्ति करता है।
2. यह मिट्टी की जल-धारण तथा उपजाऊ क्षमता में वृद्धि करता है।
3. यह पोषक तत्वों की उपलब्धता को बढ़ाता है।
कार्बनिक खाद की सीमाएं
1. पशुओं की संख्या कम होने एवं कृषि कार्यों में लोगों की भागीदारी घटने से कार्बनिक खादों की उपलब्धता कम होती जा रही है। इसके अतिरिक्त कार्बनिक खाद, पोषक तत्वों को बहुत धीमी गति से पौधों को प्राप्त होती है।
2. कार्बनिक खाद का अपघटन बहुत हद तक मिट्टी में पाये जाने वाले सूक्ष्मजीवों पर निर्भर करता है। यदि मिट्टी में इन जीवों की कमी है तो पौधों को कार्बनिक खाद का पूरा लाभ नहीं मिल पाता है।
3. कुछ कार्बनिक खादों का प्रयोग बड़े क्षेत्रों में करना कठिन हो सकता है।
4. इनकी उपलब्धता सभी स्थानों पर समान रूप से नहीं हो पाती।
कार्बनिक खाद का प्रभाव
1. कार्बनिक खाद के प्रयोग से मिट्टी में कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है जिससे मिट्टी की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि होती है।
2. खेतों में कार्बनिक खाद का प्रयोग करने पर मिट्टी में सूक्ष्मजीवों की वृद्धि तीव्र गति से होती है।
3. मिट्टी की जलधारण क्षमता बढ़ती है जिससे फसलों को कम पानी की आवश्यकता पड़ती है।
4. रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से पौधों को कुछ विशिष्ट तत्व ही मिल पाते हैं जबकि कार्बनिक खाद के प्रयोग से भी आवश्यक तत्वों की पूर्ति हो जाती है।
5. कार्बनिक खाद की अधिक मात्रा डालने से फसलों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। जबकि रासायनिक उर्वरकों से फसलें झुलस सकती हैं।
6. कार्बनिक खाद के प्रयोग से वातावरण संतुलित रहता है जिससे आस-पास का वातावरण प्रदूषित नहीं होता।
अनुकूलित उर्वरक
अनुकूलित उर्वरक वे हैं जो प्रणालीगत (सिस्टेमिक) प्रक्रिया द्वारा फसल की पोषक तत्वों की आवश्यकता, विशेष क्षेत्र, मिट्टी और पौधे की वृद्धि की अवस्थानुसार वृहद तथा सूक्ष्म कार्बनिक तथा अकार्बनिक पोषक तत्वों के मिश्रण को बड़े दानेदार रूप में निर्मित किये जाते हैं।
पौधों को अपना जीवन चक्र पूर्ण करने के लिये 17 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, जिनमें से 8 की बहुत कम मात्रा अपेक्षित है। इनमें से एक या दो तत्वों की कमी से पौधों की वृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तथा उपज कम हो जाती है। सभी तत्वों की उपलब्धता सुनिश्चत करने हेतु अनुकूलित उर्वरक का प्रयोग करने की सलाह दी जाती है। इसके लिये उर्वरकों का ऐसा सम्मिश्रण बनाया जा रहा है जिससे पौधे के लिये सभी पौषक तत्वों की उपलब्धता हो सके।
फसल तथा क्षेत्र के आधार पर देश में एन., एन.पी., एन.पी.के. तथा एन.पी.के.एस. के विभिन्न सम्मिश्रण उपलब्ध हैं। अनुकूलित उर्वरकों में जिंक घटित यूरिया तथा बोरान घटित सुपर फास्फेट का प्रयोग किया गया। परंतु इसका उचित प्रसार न होने के कारण यह किसानों की पहुँच से दूर रह गया। प्रसार न होने का एक कारण इनकी ऊँची कीमत भी थी।
ग्रोनर बेन्टोनाइट सल्फर तथा दोनेदार बोरेग्स पेंटा हाइड्रेट जिसको ग्रोनेबोर-2 कहा जाता है, को नत्रजन-फास्फोरस/नत्रजन, फास्फोरस तथा पोटाश के साथ समिश्रण ने किसानों को एक बेहतर अवसर प्रदान किया है। बेंटोनाइट सल्फर को नत्रजन-फास्फोरस / नत्रजन-फास्फोरस, पोटाश - इनके सम्मिश्रण को आयल सीड तथा दालों की उपज बढ़ाने हेतु प्रयोग किया जा रहा है।
कुछ अन्य अनुकूलित (कस्टमाइज्ड) उर्वरक निम्नलिखित हैं :
1. धीमी गति से जारी होने (स्लो रिलीज) वाले उर्वरक - इस प्रकार के उर्वरक धीमें अथवा नियंत्रित गति से समाप्त होते हैं जिससे इनकी उपलब्धता मिट्टी में लम्बे समय तक बनी रहती है तथा पौधे द्वारा ग्रहण की जाती है। इस प्रकार के उर्वरकों को कार्बनयुक्त पदार्थ (गोबर की खाद, नीम की खली, वर्मीकम्पोस्ट इत्यादि), चिकनी मिट्टी, गोंद तथा संतुलित मात्रा में जैव-उर्वरक मिलाकर बड़े दानें रूप में प्रयोग किया जाता है। ये घुलनशील रासायनिक उर्वरकों के साथ जुड़े जोखिम के बिना ही उच्च फसल उत्पादन की क्षमता रखते हैं।
2. दानेदार एन.पी.के. उर्वरक - एन.पी.के. मिश्रण को पोषक तत्वों के विशिष्ट मिश्रण देकर फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिये तैयार किया जाता है। एन. (नाइट्रोजन) विभिन्न प्रोटीनों, पत्ती के विकास तथा क्लोरोफिल बढ़ाने में सहयोग देता है। पी. (फास्फोरस) जड़ तथा फूलों का विकास करता है तथा के. (पोटैशियम) जड़ों के विकास तथा प्रोटीन संश्लेषण में योगदान देता है।
एन. पी. के. उर्वरकों को अकार्बनिक उर्वरक तथा जैव-उर्वरकों की अलग-अलग मात्रा को मिलाकर फसलों का उत्पादन बढ़ाने हेतु दानेदार रूप में प्रयोग किया जाता है।
अनुकूलित उर्वरक के विकास की नीति
इन उर्वरकों की विकास की परिकल्पना निम्न कारणों से हुई है :
1. पौधों को उनकी आवश्यकतानुसार पोषक तत्व प्रदान करना।
2. मिट्टी की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि करने के साथ-साथ अधिकतम उपज प्राप्त करना।
3. पोषक तत्वों की आपूर्ति अधिकतम करना अथवा अधिकतम फसल उपज तक पहुँचाना।
पोषक तत्व प्रबंधन-भावी संभावनाएं
विगत कुछ वर्षों से विकसित तथा विकासशील देशों में उच्च उपज किस्मों, सघन शस्य पद्धतियों के अपनाने एवं उर्वरकों के प्रयोग से कृषि उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है। लेकिन नत्रजन एवं सूक्ष्म तत्वों की कमी एवं उनके उच्च मूल्य ने जैव उर्वरकों, कार्बनिक खेती एवं पारिस्थितिकीय खेती के प्रयोग की संभावनाओं को काफी महत्व दिया है। घटते एवं बिगड़ती मृदा की दशा की स्थिति में जैव-उर्वरक निश्चय ही मृदा उर्वरता एवं कृषि उत्पादन बढ़ाने में मदद करते हैं जो वातावरणीय नत्रजन जिसे पादप स्वतंत्र रूप से ग्रहण नहीं कर पाते उसे घुलनशील अवस्था में पौधों को उपलब्ध कराते हैं, तथा फास्फेट को मृदा में बाँधते हैं। इसके साथ ही सड़े-गले कार्बनिक पदार्थों के अवशेषों को पोषक तत्व के रूप में पौधों को उपलब्ध करता है जिससे पौधे इन तत्वों को सरलता से ग्रहण कर सकें। अत:, हमें यह जान लेना चाहिए कि यदि मृदा स्वास्थ्य बनाये रखने के साथ अच्छी उपज तथा कृषि उत्पादन में वृद्धि करनी है तो सभी कार्बनिक स्रोतों एवं जैव-उर्वरकों का संतुलित एवं तर्कसंगत उपयोग तथा फसल चक्र को भली प्रकार अपनाना होगा। यह टिकाऊ कृषि का आधार है।