सिंधु जल-संधि भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध और खटास के दौर में भी बनी रही है। उरी आतंकी हमले के बाद अब इस संधि को तोड़ने अथवा पुनर्विचार की सियासी चर्चाएँ हैं। संधि तोड़ने की सूरत में फायदे भी हैं तो नुकसान भी। ऐसे में हमारे पास वैकल्पिक उपाय भी हैं।
उरी आतंकी हमले के बाद से देश में इस बात को लेकर काफी चर्चा है कि भारत, पाकिस्तान के खिलाफ क्या कदम उठाएगा? तमाम विकल्पों में से एक सिंधु जल समझौते पर पुनर्विचार का भी सामने आया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, विदेश मंत्रालय और जलसंसाधन मंत्रालय के सचिवों के साथ इस मसले पर लम्बी बैठक भी की। अभी तक सरकार की ओर से इस मसले पर सीधी टिप्पणी नहीं आई है, लेकिन मीडिया के सूत्रों के हवाले से जो खबर आ रही है उसके मुताबिक भारत, सिंधु जल समझौते को कई विकल्पों में से एक मान रहा है।
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने हाल ही में कहा था कि सिंधु जल समझौते को लेकर भारत और पाकिस्तान की अलग-अलग राय है जिनको सुलझाना जरूरी है। इस तरह से उन्होंने सिंधु जल समझौते पर पुनर्विचार की सम्भावना को नकारा भी नहीं था। इसके साथ-साथ प्रधानमंत्री ने जिस तरह से लम्बी बैठक की और कहा कि जल और रक्त का बहाव एक साथ नहीं हो सकता उससे लगता है कि भारत इस समझौते को नकारने की भी सोच सकता है।
सवाल यह है कि क्या ऐसा करना सम्भव है? इसका भारत की छवि पर क्या असर पड़ेगा और भारत को क्या फायदा-नुकसान होगा? हमें यह भी देखना होगा कि प्रधानमंत्री के 15 अगस्त के बाद के सम्बोधनों में भारत की पाक नीति को लेकर बदलाव नजर आया है। 15 अगस्त के भाषण और इसके बाद जी-20 व आसियान देशों के सम्मेलन में भी उन्होंने आतंकवाद को भारत की नहीं बल्कि समूचे क्षेत्र की और इसमें परमाणु हथियारों का मसला जुड़ने पर समूचे एशिया की समस्या बताया है।
इतिहास में पहली बार भारत ने बलूचिस्तान में मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा भी उठाना शुरू कर दिया है। देखा जाये तो अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर तमाम देश राष्ट्र हित को नजर में रखकर उसकी अलग-अलग व्याख्या करते हैं। यह तत्कालीन माहौल पर भी करता है।
कुछ लोग इस पक्ष में हैं कि हमें सिंधु जल समझौते का पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए। ऐसा करना आसान नहीं है। मुझे नहीं लगता कि सिंधु जल समझौते के गुणावगुणों पर विचार किये बिना हम ऐसा कर पाएँगे। भारत-पाक के बीच 19 सितम्बर, 1960 को विश्व बैंक की मध्यस्थता से यह समझौता तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू व पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान के बीच कराची में हुआ था।
यह दुर्योग ही है कि इस संधि के 56 साल पूरे होने पर उरी का आतंकी हमला हुआ। जिस वक्त यह संधि हुई उस समय भी पाकिस्तान नदियों के जल की हिस्सेदारी को लेकर बहुत शंकित था। इसीलिये इस संधि को अन्तिम रूप देने में दस साल लग गए। हालांकि आज इस संधि को दुनिया की आदर्श संधियों के रूप में माना जाता है जिसमें युद्धकालीन परिस्थितियों के बावजूद रुकावट नहीं आई। संधि के तहत बने कमीशन की अब तक 110 बैठकें हो चुकी हैं।
पाकिस्तान की कश्मीर में रुचि का एक पहलू यह भी है कि वह समूचे जल संसाधनों को अपने नियंत्रण में लेना चाहता है। इसका कारण भी है कि पाक की जीडीपी का 20 फीसदी हिस्सा कृषि से आता है। उसकी सिंचाई आधारित कृषि व्यवस्था का आलम यह है कि एक सप्ताह पानी नहीं मिले तो वहाँ हाहाकार मच सकता है।
पाकिस्तान का पानी भारत को रोकना नहीं चाहिए बल्कि हमें उन अधिकारों का इस्तेमाल करना चाहिए जो हमें इस संधि के तहत मिले हुए हैं। समझौता रद्द करने की स्थिति में पाक का दोस्त चीन जरूर बौखलाएगा। चीन प्रतिक्रिया में सिंधु व ब्रह्मपुत्र का पानी रोकने की चेष्टा कर सकता है। हालांकि, इन सब नदियों का बहाव रोकना आसान नहीं है। पाकिस्तान भी दुनिया भर में शोर मचाने से नहीं चूकेगा।
हमें ऐसे उपाय करने होंगे जिसका हमें दीर्घावधि में फायदा ही हो। मौटे तौर पर समझौते के तहत हम तीन काम कर सकते हैं। पहला यह है कि हम इन नदियों में जल परिवहन के कार्यकलाप को शुरू कर सकते हैं। दूसरा नदियों के पानी से विद्युत परियोजनाओं को शुरू किया जा सकता है। और तीसरा इस पानी से सिंचाई भी की जा सकती है।
समझौते के तहत हम पानी का संग्रह भी कर सकते हैं। हमें पाकिस्तान का पानी बन्द करने की केवल बात कह कर उस पर दबाव जरूर बनाते रहना चाहिए। लेकिन ये तीनों उपाय हम करने लगेंगे तो न केवल हमारी समृद्धि के द्वारा खुलेंगे बल्कि पाकिस्तान की ओर जाने वाले पानी को कम करने की हमारी हैसियत हो जाएगी। काफी हद तक हम पाक को जाने वाले पानी में रुकावट पैदा कर सकेंगे।
आज के माहौल में अचानक नदियों का पानी रोकने से नुकसान हो सकता है। जम्मू-कश्मीर, पंजाब व हिमाचल में बाढ़ के हालात बन सकते हैं। एक उपाय और है, अफगानिस्तान से आने वाली काबुल नदी भी पाकिस्तान में सिंधु नदी में आकर मिलती है।
भारत तो पहले से ही अफगानिस्तान में काफी निवेश कर रहा है। काबुल नदी की विकास परियोजनाएँ हाथ में ले उसमें भी हिस्सेदारी कर सकते हैं। एक तरह से हम पाकिस्तान को जाने वाले पानी की ‘टोंटी’ इन उपायों से धीरे-धीरे कस सकते हैं।
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