ट्राइऐसिक प्रणाली

Submitted by Hindi on Fri, 08/12/2011 - 16:41
ट्राइऐसिक प्रणाली (Triassic System) पुराजीवकल्प के अपराह्न मे पृथ्वी की भौगोलिक और भौमिकीय स्थिति में अनेक परिवर्तन हुए। साथ ही जीवविकास का एक नया क्रम आरंभ हुआ, जिसमें आधुनिक वर्ग के पूर्वज जीव भी थे। उन जीवों का, जो पुराजीवकल्प में अत्यधिक संख्या में थे, विलोप हो गया और उनके स्थान पर नए जीव प्रकट हुए। इन्हीं कारणों से इस युग को शैलस्तर-क्रम-विज्ञान में एक नवीन कल्प का प्रारंभ माना जात है। इस कल्प को मध्य-जीव-कल्प कहते हैं। इस कल्प के अंतर्गत तीन युग आते हैं, जिन्हें ट्राइऐसिक, जुरैसिक और क्रिटेशियस कहते हैं। ट्राइऐसिक युग इनमें सबसे प्राचीन है।

1834 ई. में दक्षिण-पश्चिमी जर्मनी में स्थित इस प्रणाली के तीन शैलसमूहों के आधार पर फॉन एलबर्टो ने इस प्रणाली को ट्राइऐसिक नाम दिया।

विस्तार और इस युग में पृथ्वी के धरातल की अवस्था-इस युग के निक्षेप मुख्य रूप से दक्षिण-पश्चिम जर्मनी, दक्षिण-पूर्वी यूरोप,मध्य एशिया, हिमालय प्रदेश, चीन, यूनान, न्यूजीलैंड, उतरी अमरिका के पश्चिमी भाग, दक्षिण अमरीका के पश्चिमी भूभाग, स्पिट्सवर्ग ओर बीयर टापू में मिलतें हैं। इस समय जल के दो भाग थे। एक दक्षिण में, जो मेक्सिको से लेकर ऐटलांटिक होता हुआ वर्तमान भुमध्य सागर, हिमालय प्रदेश, दक्षिण चीन, यूनान, हिंदचीन, मलाया द्वीप सागर, न्यूजीलैंड ओर न्यू केलिडोनिया तक फैला था। इसे टेथिस सागर कहतें हैं। दूसरा उतरी समुद्र, जो ऐलैस्का से होता हुआ उतरी ग्रीनलैंड, उतरी ध्रुव, आल्टिक प्रदेश, उतरी-पूर्वी साइबीरिया और मंचूरिया तक फैला था, पृथ्वी का शेष भाग स्थल था ।

इस युग में दो मुख्य प्रकार के शैलनिक्षेप मिलते हैं । पहले समुद्री और दुसरे महाद्वीपीय । भारत में इस प्रणाली के अंतर्गत दो प्रकार के शैलसमूह मिलते हैं। एक समुद्री निक्षेप जो हिमालय प्रदेश के स्पिटी, कुँमायू गढ़वाल, कश्मीर और एवरेस्ट प्रदेश में स्थ्ति हें। दुसरे अक्षार जलीय निक्षेप, जो नदियों की लाई हुई मिट्टी से बने हैं । ये भारतीय प्रायद्वीप की गोंडवान संहित में पाए जातें हैं। स्पिटी घाटी में ये शैलसमूह 3,500 फुट से भी मौटे स्तरों के बने हें ओर इनमें विभिन्न वर्ग के अरीढ़धारी जीव, जिनमें ऐमोनायड (ammonoids) मुख्य हैं, मिलतें हैं। संसार के स्तरशैल में भरतीय शैलसमूह कुछ भिन्न हैं, क्योकि भरतीय स्तरशैल में मध्य-जीव-कल्प नहीं हैं। उसकी जगह आर्य कल्प ही आ जाता है, जो अपर कार्बोंनिफेरस युग के उपरांत शुरू होता हैं। फिर भी जीवविकास की दृष्टि से और भीमक्रीय पविर्तनों से, यह यथार्थ रूप से विदित होता हें कि हिमालय प्रदेश की ट्राइऐसिक प्रणाली दक्षिण-पूर्वी यूरोप के टृाइऐसिक शैलसमूहों से बहुत मिलती जुलती हैं। मध्य एशिया, हिमाचल प्रदेश, चीन, यूनान, न्यूजीलैंड, उत्तरी अमरीका के पश्चिमी भूभाग, स्पिट्रासबर्ग और बीयर टापू में मिलते हैं। इस समय जल के दो भाग थे। एक दक्षिण में, जो मेक्सिको से लेकर ऐटलांटिक होता हुआ वर्तमान भूमध्य सागर, हिमालय प्रदेश, दक्षिणी चीन, यूनान, हिंदचीन, मलाया द्वीप समूह, न्यूजीलैंड और न्यू कैलिडोनिया तक फैला था। इसे टेथिस सागर कहते हैं। दूसरा उत्तरी समुद्र, जो ऐलैस्का से होता हुआ उत्तरी ग्रीन लैंड, उत्तरी ध्रुव, बाल्टिक प्रदेश, उत्तर पूर्वी साइबीरिया और मंचूरिया तक फैला था, पृथ्वी का शेष भाग स्थल था।

इस युग में दो मुख्य प्रकार के शैलनिक्षेप मिलते हैं। पहले समुद्री और दूसरे महाद्वीपीय। भारत में इस प्रणाली के अंतर्गत दो प्रकार के शैलसमूह मिलते हैं। एक समुद्री निक्षेप, जो हिमालय प्रदेश के स्पिटी, कुँमायू गढ़वाल, कश्मीर और एवरेस्ट प्रदेश में स्थित हैं। दूसरे अक्षारजलीय निक्षेप, जो नदियों की लाई हुई मिट्टी से बने हैं। ये भारतीय प्रायद्वीप की गोंडवाना संहति में पाए जाते हैं और इनमें विभिन्न वर्ग के अरीढ़धारी जीव, जिनमें एमोनायड (ammonoids) मुख्य हैं, मिलते हैं। संसार के स्तरशैल से भारतीय शैल समुह कुछ भिन्न हैं, क्योंकि भारतीय स्तरशैल में मध्य-जीव-कल्प नहीं है। उसकी जग आर्य कल्प ही आ जाता है, जो अपर कार्बोनिफेरस युग के उपरांत शुरू होता है। फिर भी जीवविकास की दृष्टि से और नाभकीय परिवर्तनों से, यह यथार्थ रूप से विदित होता है कि हिमालय प्रदेश की ट्राइएसिक प्रणाली दक्षिण पूर्वी यूरोप के ट्राइऐसिक शैलसमूहों से बहुत मिलती जुलती है।

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