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जनसत्ता (रविवारी), 25 अगस्त 2013
गंगोत्री लगभग जनशून्य थी। वहां कुल तीन दुकानें खुली थी, जिनमें से दो पूजा सामग्री की और एक परचून की। यात्रियों के नाम पर बीस-पच्चीस कांवड़िए जरूर थे। हालांकि कांवड़ियों को ऋषिकेष से ऊपर नहीं जाने दिया जा रहा था, पर ये शायद किसी और रास्ते से आ धमके थे। पंद्रह के आसपास पंडे और गंगोत्री मंदिर सेवा समिति के करीब बीस कर्मचारी वहां थे। कुछ साधु भी थे, लेकिन वे तो बारहों महीने वहीं रहते हैं। यहां हालांकि कुछ खास नुकसान नहीं हुआ, क्योंकि गंगोत्री काफी ऊंचाई पर है, इसलिए वहां हर्षिल-गंगोत्री मार्ग भी सुरक्षित रहा।उत्तराखंड हादसे के एक महीने बाद हमने गंगोत्री, यमुनोत्री और केदारनाथ जाने का निश्चय किया। यह यात्रा डराने वाली थी, क्योंकि मीडिया ने निरंतर इन स्थानों का भयावह चेहरा दिखा कर हमें इस तरह आतंकित कर रखा था कि हममें से कोई भी सकुशल वापस लौटाने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं था। पर एक ज़ज़्बा था कि हादसे के बाद के पहाड़ों को करीब से जाकर देखना है। परिवार में सबने रोका। लेकिन हम हठ पकड़े थे। हमारे साथ थे सुभाष बंसल, हिमांशु बंसल और राजेश झा। फोर्ड एंडीवर गाड़ी से हम चले। गाड़ी में ही एक गैस सिलेंडर, आटा, चावल, दाल, कुछ आलू, टमाटर, अन्य सब्ज़ियाँ और मसाले। जरूरत की दवाएँ भी। सोचा था कि ऋषिकेश चल कर रुकेंगे। मगर बिजनौर-मंडौर-मंडावली होकर जब हम हरिद्वार के चंडी मंदिर के पास पहुंचे तो दोपहर के साढ़े तीन बजे थे। हमने हरिद्वार शहर के अंदर से जाने के बजाय राजाजी नेशनल पार्क के अंदर से, यानी वाया चीला रेंज के जंगल का रास्ता पकड़ा और बिजलीघर के पास से उस नहर की तरफ चले गए, जिससे आइडीपीएल डैम से पानी आता है। बीच में एक बरसाती नदी, जिस पर पुल नहीं होता है और लोगबाग उस रपटे पर से होकर निकल जाते हैं, उफान पर थी। हमने उसे किसी तरह पार कर लिया। ऋषिकेश रुकने के बजाय हम नरेंद्र नगर की तरफ बढ़ चले।
नरेंद्र नगर एफकौट, नागनी होते हुए जब हम चंबा पहुंचे तो सूर्यास्त हो चुका था। अब आगे जाना खतरनाक था, इसलिए हमने रानीचौरी में पंडित गोविंदवल्लभ पंत इंस्टीट्यूट ऑफ हार्टीकल्चर एंड फॉरेस्ट्री के विश्राम-गृह में रुकने की व्यवस्था की। चंबा से तीन किलोमीटर न्यू टिहरी कि दिशा में चलने पर बादशाही खाल है और वहां से तीन किलोमीटर दाएं है रानीचूरी। रानीचूरी पहुंचते-पहुंचते बारिश शुरू हो गई। बादल हमारी कार के शीशे में घेरा बना कर बैठे थे। वाइपर लगातार चल रहा था, फिर भी कुछ नहीं दिख रहा था।
रानीचूरी से तीन किलोमीटर जंगल और फिर एकदम से सीधी चढ़ाई पार कर हम वानिकी अनुसंधान केंद्र पहुंचे। यह परिसर बेहद खूबसूरत और विशालकाय था। वहां के अतिथि-गृह में ठहरे। वहां के घने जंगल में बाघ और भालुओं की ख़ासी तादाद थी। थके हुए थे, सो खाना खाकर सो गए, पर रात में जब भी नींद खुलती बस टिप-टिप की आवाजें सुनाई पड़तीं। सुबह बालकनी से बाहर झांका तो घने बादलों के बीच कुछ नहीं दिख रहा था, यहां तक कि आसपास के पेड़ भी। लेकिन हम यहां आराम करने तो आए नहीं थे, इसलिए नाश्ते के बाद बारिश में ही आगे के लिए निकल पड़े। हालांकि उत्तरकाशी और देहरादून से बताया गया कि रास्ता बंद है, इसलिए बेहतर होगा कि आप लोग विश्राम – गृह में रुकें। पर यहां रुकने से तो कुछ होने वाला नहीं था, इसलिए हम बढ़ लिए।
चंबा तक सफर किसी तरह हुआ, पर उसके बाद मनियारी में जाम मिला, पता चला कि भू-स्खलन हुआ है। पर किसी तरह हम उस कीचड़ वाले रास्ते से सबकी अनदेखी करते हुए पार कर गए। धारकोट के थोड़ा आगे, बीच सड़क में भू-स्खलन हुआ था। एक ट्रक इसमें धंसा हुआ था। रास्ता बाधित और लंबा जाम लगा था। पहाड़ में राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने वाले सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) की जिप्सी खड़ी थी। राहत मिली कि सड़क जल्द ही ठीक कर ली जाएगी। करीब घंटे भर बाद ड्रोजर आया और उसे ट्रक निकालने में करीब तीन घंटे लगे। हमारी गाड़ी पार हो गई।
कंडीसोड, नालापानी, चिन्याली सोड होते हुए हम बड़ेथी धरासू पहुंचे ही थे कि एक जगह चट्टान बीच रास्ते में आकर गिरी शुक्र था कि हम कुछ मीटर पहले थे। अब आगे बढ़ना नामुमकिन था। वापस चिन्याली सोड आए और वहां पर हाइडिल के अतिथि-गृह में रुके। सुबह निकले, लेकिन धरासू के आगे का सारा रास्ता बहुत खराब था। ऊपर और नीचे देख कर चलना था, क्योंकि बारिश के कारण ऊपर से पत्थर गिर रहे थे। किसी तरह भारत तिब्बत सीमा पुलिस के बेस कैंप मातली आए, वहीं पर हमारे गंगोत्री के पंडितजी हमें लेने आ गए थे। उन्होंने बताया कि उत्तरकाशी से दो किलोमीटर पहले बड़ेती चुंगी में सड़क भागीरथी में समा गई है और भारी भू-स्खलन के कारण आगे बढ़ना नामुमकिन है। पर वहां सफाई का काम चल रहा था। करीब तीन बजे शाम को बीआरओ वाले गाड़ी गुजरने लायक रास्ता बना पाए। तब हम उत्तरकाशी पहुंचे।
अब हमारा गंतव्य नेताला था। उत्तरकाशी चूंकि जिला मुख्यालय है इसलिए जरूरत का सामान वहां से खरीदा और नेताला के लिए चले। पर कुल छह किलोमीटर आगे बढ़ते ही असीगंगा का गंगौरी पुल ध्वस्त था। इसलिए गाड़ी गंगौरी के एक होटल में खड़ी की और खच्चरों पर सामान लाद कर आगे बढ़े। पुल पार करने के बाद करीब दो किलोमीटर पैदल चल कर गरम पानी पहुंचे। वहां पर मैक्स कैब मिली, लेकिन एक किलोमीटर आगे बढ़े ही थे कि पहाड़ धसकने से रास्ता बंद हो गया। हमने पैदल पहाड़ का वह टुकड़ा किसी तरह पार किया दूसरी मैक्स कैब ली और करीब एक किलोमीटर चलने के बाद नेताला के अतिथि-गृह में पहुंच गए।
रात को आराम करने के बाद अगले रोज हम गंगोत्री के लिए निकले। यहां से राष्ट्रीय राजमार्ग-108 पूरा का पूरा सत्रह जून की बाढ़ में भागीरथी के तेज प्रवाह में समा गया था और रात को हुई मूसलाधार बारिश ने पहाड़ी रास्ते को भी काट दिया था। नेताला से हिना के लिए हम पहाड़ की तरफ चढ़ते रहे, लेकिन फिर अचानक रास्ता उतार का था और वह भी इतना ज्यादा खतरनाक और रपटीला कि एक इंच भी पैर फिसला तो सीधे हजारों फिट नीचे भागीरथी की तेज धार में समा जाना तय था। इसमें भी करीब दो मीटर का रास्ता तो इतना खतरनाक था कि हमने यह रास्ता छोड़ दिया। ऊपर जाकर गाँवों से पगडंडी का रास्ता पकड़ा।
लेकिन यह रास्ता एक ऐसे उतार में ले जाता था, जहां रात को बादल फटने के कारण भारी भू-स्खलन हुआ था और रास्ता पत्थरों से अटा पड़ा था। इसके तत्काल बाद एक दस मीटर चौड़ा नाला पार करना था। नाला गहरा तो नहीं था, पर पानी का बहाव इतना तेज था कि बगैर किसी की मदद के उसे पार करना मुश्किल था। हमने जूते उतारे और पत्थरों पर पैर जमाते नीचे नाले तक पहुंचे। नाला पार करते समय मेरा हाथ साथी के हाथ से छूट गया। पानी के बहाव ने मुझे खींच लिया और करीब पंद्रह फुट तक मैं पानी के बहाव की चपेट में आ गया। शुक्र था कि एक पत्थर को मैंने पकड़ लिया और साथियों ने आकर मुझे निकाला। किसी तरह हम हिना पहुंचे।
वहां से मनेरी तक मोटर मार्ग ठीक था। पर मनेरी से सीधी चढ़ाई औंगी के लिए थी। दोपहर करीब एक बजे हम औंगी पहुंच गए, लेकिन इसके आगे का रास्ता देख कर हिम्मत जवाब दे गई। करीब एक फुट चौड़े लट्ठे को एक बाहव के ऊपर डाल कर पुल बनाया गया था। उसमें बहुत संभल कर पांव रखना था, क्योंकि ऊपर से निरंतर पत्थर गिर रहे थे और नीचे नाला पत्थरों से अटा पड़ा था। तेज बहाव से आता पानी उन पत्थरों से टकराता और सागर की लहरों की तरह उछाल मार रहा था।
अब तय हुआ कि वापस लौटा जाए और अगले रोज हेलिकॉप्टर के जरिए हर्षिल और फिर गंगोत्री जाया जाए। हम शाम तक नेताला वापस आ गए और अगले दिन वापस उत्तरकाशी गए। वहां मातली स्थित आइटीबीपी के बेस कैंप में जाकर हेलिकॉप्टर से यात्रा शुरू की। हालांकि हेलिकॉप्टर सेवा लेने के लिए मुझे केंद्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल से सिफारिश करानी पड़ी। हेलिकॉप्टर से हम उसी रोज हर्षिल तो पहुंच गए, पर वहां वह उतर नहीं सका। उसने भटवारी में हमें उतारा। वहां से उसी दिन हम हर्षिल के लिए पैदल रवाना हुए और शाम करीब पांच बजे वहां पहुंच पाए। हर्षिल सेना का बेस कैंप है। यहां से गंगोत्री कोई तीस किलोमीटर है और वहां के लिए टैक्सी सेवा उपलब्ध थी। शाम सात बजे तक हम गंगोत्री पहुंच गए।
गंगोत्री लगभग जनशून्य थी। वहां कुल तीन दुकानें खुली थी, जिनमें से दो पूजा सामग्री की और एक परचून की। यात्रियों के नाम पर बीस-पच्चीस कांवड़िए जरूर थे। हालांकि कांवड़ियों को ऋषिकेष से ऊपर नहीं जाने दिया जा रहा था, पर ये शायद किसी और रास्ते से आ धमके थे। पंद्रह के आसपास पंडे और गंगोत्री मंदिर सेवा समिति के करीब बीस कर्मचारी वहां थे। कुछ साधु भी थे, लेकिन वे तो बारहों महीने वहीं रहते हैं। यहां हालांकि कुछ खास नुकसान नहीं हुआ, क्योंकि गंगोत्री काफी ऊंचाई पर है, इसलिए वहां हर्षिल-गंगोत्री मार्ग भी सुरक्षित रहा। एक दिन हम गंगोत्री में रुके और 28 जुलाई को वहां से निकले।
वहां से हर्षिल के लिए तो टैक्सी मिल गई, पर फिर सुक्की बैंड का रास्ता बंद होने के कारण पैदल ही चल पड़े। भटवाड़ी के पास लाटा से एक पहाड़ी रास्ता केदारनाथ को जाता है। बताया गया कि यह पैदल मार्ग ही है और पूरा रास्ता पहाड़ों के ऊपर से है। यह पुराना तीर्थ रास्ता है। दसियों साल पहले जब मैदान से तीर्थयात्री आते थे तब वे इसी रास्ते से जाया करते थे। लेकिन तब यह रास्ता गुलजार था और अब तो पुरानी चट्टियाँ सूनसान पड़ी हैं, वहां रात नहीं गुजारी जा सकती, पर गांव वाले ठहरा लेते हैं। यहां से केदारनाथ की दूरी पूरे सात दिन की थी।
हमने तय किया कि इसी रास्ते से आगे बढ़ेगे। कुछ कांवड़िए- केदारनाथ मंदिर में स्थापित शिवलिंग पर जलाभिषेक के लिए इसी रास्ते से जा रहे थे, इसलिए हमारी भी हिम्मत बढ़ी और चल दिए। वाकई यह रास्ता सूनसान, पर सुरक्षित था। यहां बादल फटने का भी डर नहीं था, क्योंकि हम बादलों की पहुंच से ऊपर थे और रास्ता खूब हरा-भरा था। सौरा तक हम किसी तरह पहुंच गए। थकान से चूर हम सौरा में ही रुके।
अगले रोज बताया गया कि केदारनाथ जाने पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है और अगर कोई वहां गया तो उसके खिलाफ सरकार रिपोर्ट दर्ज कर देगी। पर हम आगे बढ़ते रहे कि देखा जाएगा। पौंवली पहुंचने पर बताया गया कि हमें लौटना पड़ेगा, क्योंकि आगे पुलिस जाने नहीं देगी। इसलिए मन मार कर हमें वापस होना पड़ा। हम फिर सौरा में रुके और अगले रोज दोपहर तक लाटा होते हुए भटवारी आ गए। हमें वह रात भटवारी में ही गुजारनी पड़ी। अगली सुबह राहत सामग्री लेकर आने वाले हेलिकॉप्टर वापस मातली जा रहे थे। उन्हीं में हमें भी जगह मिल गई और एक अगस्त की दोपहर तक हम फिर मातली आ गए। वहां से नेताला। दो अगस्त को हमने वापसी की योजना बनाई और फिर पैदल रास्ते से गणेशपुर और गरम पानी में सड़क पर गिरे पहाड़ों को पार करते हुए गंगौरी आए।
वहां से अपनी गाड़ी ली और वापस चल दिए। रात को उत्तरकाशी में भारी बारिश हुई थी और ऊपर पहाड़ियों पर बादल फटे थे। इसलिए मातली के आगे ही राजमार्ग ध्वस्त था। पर यहा ंबीआरओ राजमार्ग जल्द ही खोल देता है। हम कई जगह रुकते-रुकाते शाम तक चंबा पहुंच गए। रात चंबा में रुके और अगली दोपहर वहां से चले तो शाम तक ऋषिकेष पहुंचे। पर ऋषिकेश के आगे कांवड़ियों ने इतना जाम लगा रखा था कि आगे जाना मुश्किल था। इसलिए वह रात ऋषिकेश में ही काटनी पड़ी। अगली सुबह हम वहां से सुबह निकले लेकिन पूरे रास्ते कांवड़ियों की इतनी भीड़ थी कि हम पूरे दस घंटे में ऋषिकेश से मात्र सौ किलोमीटर दूर बिजनौर पहुंच पाए और रात बिजनौर रुकने के बाद अगले दिन दोपहर तक दिल्ली पहुंचे।
हम सकुशल दिल्ली भले आ गए, लेकिन उत्तराखंड का वह चेहरा देख कर आए थे जिसने वाकई हमारे खौफ को और पुख्ता कर दिया। हर जगह होटलों में सन्नाटा पसरा था। रेस्तरां बंद थे और पर्यटन स्थल और तीर्थस्थल में मुर्दनी छाई थी। ऋषिकेश से ऊपर कहीं भी हमें दिल्ली, उत्तर प्रदेश और अन्य बाहरी राज्यों की गाड़ी नहीं दिखाई दी। यहां तक कि कोई ट्रक भी नहीं। रास्ते जितने खराब नहीं हैं, उससे ज्यादा डर लोगों में पैठ गया है और उत्तराखंड सरकार अपनी नीतियों से इसे और बढ़ा रही है। अगर कोई यात्री या पर्यटक जाना भी चाहे तो प्रशासन उसे हतोत्साह करता है। जबकि भू-स्खलन या बादल फटने जैसी घटनाएं हिमालयी क्षेत्रों के लिए आम हैं। हेलिकॉप्टर सिर्फ राहत सामग्री लेकर जाते हैं और राहत सामग्री हर प्रदेश से वहां पहुंच रही है। पहाड़ के लोग राहत सामग्री की आस लगाए रखते हैं, लेकिन उनकी इस मानसिकता से वे काहिल हो जाएंगे-इस पर नहीं सोचा जाता। एक आपदाग्रस्त राज्य को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि वहां के लोगों में उद्यम की भावना पैदा की जाए।
पर्यटन उत्तराखंड का अकेला उद्योग है और उसको भी राज्य सरकार हतोत्साह करेगी तो सच यह प्रदेश आने वाले दस वर्षों तक अपने पुराने स्वरूप में नहीं लौट सकेगा। अगर राज्य सरकार पुराने तीर्थयात्री रास्तों को ही विकसित कर ले तो कम से कम लोग पैदल तो चारो धाम जा सकेंगे। अकेले तीर्थयात्रा से सरकार को चार सौ करोड़ रुपए सालाना की आमदनी होती थी। इसलिए पर्यटन को खोलना सरकार के लिए बहुत जरूरी है। विचित्र है कि दैवी आपदा की मार गढ़वाल पर पड़ी है, लेकिन पर्यटन नैनीताल, अल्मोड़ा कौशानी और रानीखेत का भी नष्ट हो गया है।
नरेंद्र नगर एफकौट, नागनी होते हुए जब हम चंबा पहुंचे तो सूर्यास्त हो चुका था। अब आगे जाना खतरनाक था, इसलिए हमने रानीचौरी में पंडित गोविंदवल्लभ पंत इंस्टीट्यूट ऑफ हार्टीकल्चर एंड फॉरेस्ट्री के विश्राम-गृह में रुकने की व्यवस्था की। चंबा से तीन किलोमीटर न्यू टिहरी कि दिशा में चलने पर बादशाही खाल है और वहां से तीन किलोमीटर दाएं है रानीचूरी। रानीचूरी पहुंचते-पहुंचते बारिश शुरू हो गई। बादल हमारी कार के शीशे में घेरा बना कर बैठे थे। वाइपर लगातार चल रहा था, फिर भी कुछ नहीं दिख रहा था।
रानीचूरी से तीन किलोमीटर जंगल और फिर एकदम से सीधी चढ़ाई पार कर हम वानिकी अनुसंधान केंद्र पहुंचे। यह परिसर बेहद खूबसूरत और विशालकाय था। वहां के अतिथि-गृह में ठहरे। वहां के घने जंगल में बाघ और भालुओं की ख़ासी तादाद थी। थके हुए थे, सो खाना खाकर सो गए, पर रात में जब भी नींद खुलती बस टिप-टिप की आवाजें सुनाई पड़तीं। सुबह बालकनी से बाहर झांका तो घने बादलों के बीच कुछ नहीं दिख रहा था, यहां तक कि आसपास के पेड़ भी। लेकिन हम यहां आराम करने तो आए नहीं थे, इसलिए नाश्ते के बाद बारिश में ही आगे के लिए निकल पड़े। हालांकि उत्तरकाशी और देहरादून से बताया गया कि रास्ता बंद है, इसलिए बेहतर होगा कि आप लोग विश्राम – गृह में रुकें। पर यहां रुकने से तो कुछ होने वाला नहीं था, इसलिए हम बढ़ लिए।
चंबा तक सफर किसी तरह हुआ, पर उसके बाद मनियारी में जाम मिला, पता चला कि भू-स्खलन हुआ है। पर किसी तरह हम उस कीचड़ वाले रास्ते से सबकी अनदेखी करते हुए पार कर गए। धारकोट के थोड़ा आगे, बीच सड़क में भू-स्खलन हुआ था। एक ट्रक इसमें धंसा हुआ था। रास्ता बाधित और लंबा जाम लगा था। पहाड़ में राष्ट्रीय राजमार्ग बनाने वाले सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) की जिप्सी खड़ी थी। राहत मिली कि सड़क जल्द ही ठीक कर ली जाएगी। करीब घंटे भर बाद ड्रोजर आया और उसे ट्रक निकालने में करीब तीन घंटे लगे। हमारी गाड़ी पार हो गई।
कंडीसोड, नालापानी, चिन्याली सोड होते हुए हम बड़ेथी धरासू पहुंचे ही थे कि एक जगह चट्टान बीच रास्ते में आकर गिरी शुक्र था कि हम कुछ मीटर पहले थे। अब आगे बढ़ना नामुमकिन था। वापस चिन्याली सोड आए और वहां पर हाइडिल के अतिथि-गृह में रुके। सुबह निकले, लेकिन धरासू के आगे का सारा रास्ता बहुत खराब था। ऊपर और नीचे देख कर चलना था, क्योंकि बारिश के कारण ऊपर से पत्थर गिर रहे थे। किसी तरह भारत तिब्बत सीमा पुलिस के बेस कैंप मातली आए, वहीं पर हमारे गंगोत्री के पंडितजी हमें लेने आ गए थे। उन्होंने बताया कि उत्तरकाशी से दो किलोमीटर पहले बड़ेती चुंगी में सड़क भागीरथी में समा गई है और भारी भू-स्खलन के कारण आगे बढ़ना नामुमकिन है। पर वहां सफाई का काम चल रहा था। करीब तीन बजे शाम को बीआरओ वाले गाड़ी गुजरने लायक रास्ता बना पाए। तब हम उत्तरकाशी पहुंचे।
अब हमारा गंतव्य नेताला था। उत्तरकाशी चूंकि जिला मुख्यालय है इसलिए जरूरत का सामान वहां से खरीदा और नेताला के लिए चले। पर कुल छह किलोमीटर आगे बढ़ते ही असीगंगा का गंगौरी पुल ध्वस्त था। इसलिए गाड़ी गंगौरी के एक होटल में खड़ी की और खच्चरों पर सामान लाद कर आगे बढ़े। पुल पार करने के बाद करीब दो किलोमीटर पैदल चल कर गरम पानी पहुंचे। वहां पर मैक्स कैब मिली, लेकिन एक किलोमीटर आगे बढ़े ही थे कि पहाड़ धसकने से रास्ता बंद हो गया। हमने पैदल पहाड़ का वह टुकड़ा किसी तरह पार किया दूसरी मैक्स कैब ली और करीब एक किलोमीटर चलने के बाद नेताला के अतिथि-गृह में पहुंच गए।
रात को आराम करने के बाद अगले रोज हम गंगोत्री के लिए निकले। यहां से राष्ट्रीय राजमार्ग-108 पूरा का पूरा सत्रह जून की बाढ़ में भागीरथी के तेज प्रवाह में समा गया था और रात को हुई मूसलाधार बारिश ने पहाड़ी रास्ते को भी काट दिया था। नेताला से हिना के लिए हम पहाड़ की तरफ चढ़ते रहे, लेकिन फिर अचानक रास्ता उतार का था और वह भी इतना ज्यादा खतरनाक और रपटीला कि एक इंच भी पैर फिसला तो सीधे हजारों फिट नीचे भागीरथी की तेज धार में समा जाना तय था। इसमें भी करीब दो मीटर का रास्ता तो इतना खतरनाक था कि हमने यह रास्ता छोड़ दिया। ऊपर जाकर गाँवों से पगडंडी का रास्ता पकड़ा।
लेकिन यह रास्ता एक ऐसे उतार में ले जाता था, जहां रात को बादल फटने के कारण भारी भू-स्खलन हुआ था और रास्ता पत्थरों से अटा पड़ा था। इसके तत्काल बाद एक दस मीटर चौड़ा नाला पार करना था। नाला गहरा तो नहीं था, पर पानी का बहाव इतना तेज था कि बगैर किसी की मदद के उसे पार करना मुश्किल था। हमने जूते उतारे और पत्थरों पर पैर जमाते नीचे नाले तक पहुंचे। नाला पार करते समय मेरा हाथ साथी के हाथ से छूट गया। पानी के बहाव ने मुझे खींच लिया और करीब पंद्रह फुट तक मैं पानी के बहाव की चपेट में आ गया। शुक्र था कि एक पत्थर को मैंने पकड़ लिया और साथियों ने आकर मुझे निकाला। किसी तरह हम हिना पहुंचे।
वहां से मनेरी तक मोटर मार्ग ठीक था। पर मनेरी से सीधी चढ़ाई औंगी के लिए थी। दोपहर करीब एक बजे हम औंगी पहुंच गए, लेकिन इसके आगे का रास्ता देख कर हिम्मत जवाब दे गई। करीब एक फुट चौड़े लट्ठे को एक बाहव के ऊपर डाल कर पुल बनाया गया था। उसमें बहुत संभल कर पांव रखना था, क्योंकि ऊपर से निरंतर पत्थर गिर रहे थे और नीचे नाला पत्थरों से अटा पड़ा था। तेज बहाव से आता पानी उन पत्थरों से टकराता और सागर की लहरों की तरह उछाल मार रहा था।
अब तय हुआ कि वापस लौटा जाए और अगले रोज हेलिकॉप्टर के जरिए हर्षिल और फिर गंगोत्री जाया जाए। हम शाम तक नेताला वापस आ गए और अगले दिन वापस उत्तरकाशी गए। वहां मातली स्थित आइटीबीपी के बेस कैंप में जाकर हेलिकॉप्टर से यात्रा शुरू की। हालांकि हेलिकॉप्टर सेवा लेने के लिए मुझे केंद्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल से सिफारिश करानी पड़ी। हेलिकॉप्टर से हम उसी रोज हर्षिल तो पहुंच गए, पर वहां वह उतर नहीं सका। उसने भटवारी में हमें उतारा। वहां से उसी दिन हम हर्षिल के लिए पैदल रवाना हुए और शाम करीब पांच बजे वहां पहुंच पाए। हर्षिल सेना का बेस कैंप है। यहां से गंगोत्री कोई तीस किलोमीटर है और वहां के लिए टैक्सी सेवा उपलब्ध थी। शाम सात बजे तक हम गंगोत्री पहुंच गए।
गंगोत्री लगभग जनशून्य थी। वहां कुल तीन दुकानें खुली थी, जिनमें से दो पूजा सामग्री की और एक परचून की। यात्रियों के नाम पर बीस-पच्चीस कांवड़िए जरूर थे। हालांकि कांवड़ियों को ऋषिकेष से ऊपर नहीं जाने दिया जा रहा था, पर ये शायद किसी और रास्ते से आ धमके थे। पंद्रह के आसपास पंडे और गंगोत्री मंदिर सेवा समिति के करीब बीस कर्मचारी वहां थे। कुछ साधु भी थे, लेकिन वे तो बारहों महीने वहीं रहते हैं। यहां हालांकि कुछ खास नुकसान नहीं हुआ, क्योंकि गंगोत्री काफी ऊंचाई पर है, इसलिए वहां हर्षिल-गंगोत्री मार्ग भी सुरक्षित रहा। एक दिन हम गंगोत्री में रुके और 28 जुलाई को वहां से निकले।
वहां से हर्षिल के लिए तो टैक्सी मिल गई, पर फिर सुक्की बैंड का रास्ता बंद होने के कारण पैदल ही चल पड़े। भटवाड़ी के पास लाटा से एक पहाड़ी रास्ता केदारनाथ को जाता है। बताया गया कि यह पैदल मार्ग ही है और पूरा रास्ता पहाड़ों के ऊपर से है। यह पुराना तीर्थ रास्ता है। दसियों साल पहले जब मैदान से तीर्थयात्री आते थे तब वे इसी रास्ते से जाया करते थे। लेकिन तब यह रास्ता गुलजार था और अब तो पुरानी चट्टियाँ सूनसान पड़ी हैं, वहां रात नहीं गुजारी जा सकती, पर गांव वाले ठहरा लेते हैं। यहां से केदारनाथ की दूरी पूरे सात दिन की थी।
हमने तय किया कि इसी रास्ते से आगे बढ़ेगे। कुछ कांवड़िए- केदारनाथ मंदिर में स्थापित शिवलिंग पर जलाभिषेक के लिए इसी रास्ते से जा रहे थे, इसलिए हमारी भी हिम्मत बढ़ी और चल दिए। वाकई यह रास्ता सूनसान, पर सुरक्षित था। यहां बादल फटने का भी डर नहीं था, क्योंकि हम बादलों की पहुंच से ऊपर थे और रास्ता खूब हरा-भरा था। सौरा तक हम किसी तरह पहुंच गए। थकान से चूर हम सौरा में ही रुके।
अगले रोज बताया गया कि केदारनाथ जाने पर सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है और अगर कोई वहां गया तो उसके खिलाफ सरकार रिपोर्ट दर्ज कर देगी। पर हम आगे बढ़ते रहे कि देखा जाएगा। पौंवली पहुंचने पर बताया गया कि हमें लौटना पड़ेगा, क्योंकि आगे पुलिस जाने नहीं देगी। इसलिए मन मार कर हमें वापस होना पड़ा। हम फिर सौरा में रुके और अगले रोज दोपहर तक लाटा होते हुए भटवारी आ गए। हमें वह रात भटवारी में ही गुजारनी पड़ी। अगली सुबह राहत सामग्री लेकर आने वाले हेलिकॉप्टर वापस मातली जा रहे थे। उन्हीं में हमें भी जगह मिल गई और एक अगस्त की दोपहर तक हम फिर मातली आ गए। वहां से नेताला। दो अगस्त को हमने वापसी की योजना बनाई और फिर पैदल रास्ते से गणेशपुर और गरम पानी में सड़क पर गिरे पहाड़ों को पार करते हुए गंगौरी आए।
वहां से अपनी गाड़ी ली और वापस चल दिए। रात को उत्तरकाशी में भारी बारिश हुई थी और ऊपर पहाड़ियों पर बादल फटे थे। इसलिए मातली के आगे ही राजमार्ग ध्वस्त था। पर यहा ंबीआरओ राजमार्ग जल्द ही खोल देता है। हम कई जगह रुकते-रुकाते शाम तक चंबा पहुंच गए। रात चंबा में रुके और अगली दोपहर वहां से चले तो शाम तक ऋषिकेष पहुंचे। पर ऋषिकेश के आगे कांवड़ियों ने इतना जाम लगा रखा था कि आगे जाना मुश्किल था। इसलिए वह रात ऋषिकेश में ही काटनी पड़ी। अगली सुबह हम वहां से सुबह निकले लेकिन पूरे रास्ते कांवड़ियों की इतनी भीड़ थी कि हम पूरे दस घंटे में ऋषिकेश से मात्र सौ किलोमीटर दूर बिजनौर पहुंच पाए और रात बिजनौर रुकने के बाद अगले दिन दोपहर तक दिल्ली पहुंचे।
हम सकुशल दिल्ली भले आ गए, लेकिन उत्तराखंड का वह चेहरा देख कर आए थे जिसने वाकई हमारे खौफ को और पुख्ता कर दिया। हर जगह होटलों में सन्नाटा पसरा था। रेस्तरां बंद थे और पर्यटन स्थल और तीर्थस्थल में मुर्दनी छाई थी। ऋषिकेश से ऊपर कहीं भी हमें दिल्ली, उत्तर प्रदेश और अन्य बाहरी राज्यों की गाड़ी नहीं दिखाई दी। यहां तक कि कोई ट्रक भी नहीं। रास्ते जितने खराब नहीं हैं, उससे ज्यादा डर लोगों में पैठ गया है और उत्तराखंड सरकार अपनी नीतियों से इसे और बढ़ा रही है। अगर कोई यात्री या पर्यटक जाना भी चाहे तो प्रशासन उसे हतोत्साह करता है। जबकि भू-स्खलन या बादल फटने जैसी घटनाएं हिमालयी क्षेत्रों के लिए आम हैं। हेलिकॉप्टर सिर्फ राहत सामग्री लेकर जाते हैं और राहत सामग्री हर प्रदेश से वहां पहुंच रही है। पहाड़ के लोग राहत सामग्री की आस लगाए रखते हैं, लेकिन उनकी इस मानसिकता से वे काहिल हो जाएंगे-इस पर नहीं सोचा जाता। एक आपदाग्रस्त राज्य को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी है कि वहां के लोगों में उद्यम की भावना पैदा की जाए।
पर्यटन उत्तराखंड का अकेला उद्योग है और उसको भी राज्य सरकार हतोत्साह करेगी तो सच यह प्रदेश आने वाले दस वर्षों तक अपने पुराने स्वरूप में नहीं लौट सकेगा। अगर राज्य सरकार पुराने तीर्थयात्री रास्तों को ही विकसित कर ले तो कम से कम लोग पैदल तो चारो धाम जा सकेंगे। अकेले तीर्थयात्रा से सरकार को चार सौ करोड़ रुपए सालाना की आमदनी होती थी। इसलिए पर्यटन को खोलना सरकार के लिए बहुत जरूरी है। विचित्र है कि दैवी आपदा की मार गढ़वाल पर पड़ी है, लेकिन पर्यटन नैनीताल, अल्मोड़ा कौशानी और रानीखेत का भी नष्ट हो गया है।