इस लेख में लेखक ने आज मनुष्य के सामने उपस्थित ऊर्जा-संकट का जिक्र किया है। उसका मत है कि मानव सभ्यता के इतिहास में इससे पहले कभी भी जनसंख्या वृद्धि, पर्यावरण संकट और ऊर्जा स्रोतों के तेजी से समाप्त होने जैसी समस्याएँ पैदा नहीं हुई। दरअसल ये समस्याएँ मनुष्य द्वारा स्वयं उत्पन्न की गई हैं। लेखक का सुझाव है कि ऊर्जा के फिर से कार्य में लाए जा सकने वाले स्रोतों के उपयोग के लिये स्पष्ट नीति के साथ-साथ राजनैतिक और आर्थिक सहयोग भी आवश्यक है।
दूसरे विश्व युद्ध में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराया जाना इस शताब्दी की सबसे बड़ी गलती थी। कार्बन-वाले ऊर्जा-स्रोतों पर अत्यधिक निर्भरता मनुष्य की दूसरी बड़ी भूल मानी जा सकती है।
आज विश्व के सामने तीन अत्यंत जटिल समस्याएँ उपस्थित हैं। इन समस्याओं ने धरती पर मानव के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। ये समस्याएँ इस प्रकार हैं :-(1) विश्व की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है। अकेले 1989 में दुनिया की आबादी में 9 करोड़ की वृद्धि हुई। अगर जनसंख्या वृद्धि दर को और अधिक बढ़ने से रोका नहीं गया तो वर्तमान जनसंख्या को रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरत की चीजें उपलब्ध कराना असम्भव हो जाएगा। विश्व के कुछ भागों में तो अभी से ये समस्याएँ महसूस की जाने लगी हैं।
(2) विश्व में पर्यावरण सन्तुलन दिन-प्रति-दिन बिगड़ता जा रहा है। अनुमान है कि 1989 में केवल पेट्रोलियम पदार्थों और कोयले के जलने से वायुमण्डल में 5.5 अरब टन कार्बन मिल गया। दुनिया के कई हिस्सों में भारी वर्षा, सूखा या बहुत कम वर्षा, जमीन का कटाव और वनों को नष्ट होने जैसी कई समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं। इतना ही नहीं वर्षा के पानी में अम्लों की अधिकता, मनुष्यों में फेड़ों की नई-नई बीमारियाँ कैंसर तथा धरती से जीव-जन्तुओं की कुछ प्रजातियों के नष्ट होने का कारण भी वायुमण्डल में कार्बन तथा अन्य तत्वों की अधिकता ही है। हमारी धरती के उत्तरी गोलार्द्ध के ऊपर वायुमण्डल में विद्यमान ओजोन की पर्त में एक छेद का पता चला है उल्लेखनीय है कि आजोन की यह पर्त हमें सूर्य से निकलने वाली अल्ट्रा वायलेट किरणों के दुष्प्रभाव से बचाती है। इन सबका कारण पर्यावरण का प्रदूषण है। अब यह कहा जाने लगा है कि अगर हमें अपनी आने वाली पीढ़ियों को सुरक्षित तथा धरती पर बने रहने देना है तो प्रदूषण में किसी भी तरह की वृद्धि को रोकना होगा।
(3) पेट्रोलियम तथा कोयले जैसे ऊर्जा के परम्परागत स्रोत बड़ी तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं। अगर इनके समाप्त होने की रफ्तार में कोई रोक नहीं लगाई गई तो तेल और गैस जैसी कुछ चीजें 30-35 वर्ष से अधिक नहीं चल पाएँगी। विश्व के अधिकतर देशों के पास पेट्रोलियम और कोयले के अपने भण्डार नहीं हैं। उन्हें इसके लिये आयात का सहारा लेना पड़ता है। 1970 और 1980 के दशक तथा हाल के खाड़ी संकट के दौरान तेल का उत्पादन करने वाले कुछ खाड़ी देशों ने जिस तरह की स्थितियाँ पैदा कर दी हैं, उनसे ये प्रश्न उठने स्वाभाविक हैं कि क्या विश्व की तेल और गैस की आवश्यकता पूरी की जा सकेगी? यह प्रश्न भी उठता है कि इसके लिये विश्व को क्या कीमत चुकानी होगी? अनुसंधान करने वाले कई विद्वानों का मत है कि अगली शताब्दी में दुनिया की ऊर्जा आज की ऊर्जा प्रणाली से बिल्कुल अलग होगी। उनका यह भी कहना है कि मनुष्य को धरती पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिये पेट्रोलियम और कोयले जैसे ऊर्जा स्रोतों की बजाए ऊर्जा के फिर से उपयोग में लाए जा सकने वाले स्रोतों अथवा परमाणु ऊर्जा पर आधारित स्रोतों पर निर्भर रहना होगा। इन्हीं स्रोतों पर आधारित ऊर्जा प्रणाली के अनुरूप उसे अपनी अर्थव्यवस्था को ढालना होगा।
मानव सभ्यता के इतिहास में विश्व के सामने इतनी बड़ी चुनौती कभी पैदा नहीं हुई, जितनी आज ऊर्जा संकट से उपस्थित हुई है। वाशिंगटन की वर्ल्डवाच इंस्टीट्यूट के अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार आज की विश्व अर्थव्यवस्था के मुकाबले पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित अर्थव्यवस्था अधिक उपयुक्त सिद्ध होगी। इस संस्थान के अध्यक्ष श्री लेस्टर आर. ब्राउन का मानना है कि अगर हम जीवन्त समाज बनाने में सफल हो जाते हैं, तो ऐसा अगले 40 वर्षों में हो जाएगा। अगर सन 2030 तक हमें इसमें सफलता नहीं मिलती तो पर्यावरण और अर्थव्यवस्था में गिरावट का असर एक-दूसरे पर पड़ने लगेगा और हमारा सामाजिक ढाँचा छिन्न-भिन्न होने लगेगा।
पुनः उपयोग के स्रोत
सूर्य मानव के लिये सबसे बड़ा संगलन रिएक्टर है, जो दुनिया की कुल आबादी की जरूरत का 10,000 गुणा ऊर्जा हर रोज मुफ्त सप्लाई करता है। सूर्य जीवन का आधार ही नहीं है बल्कि यह परमाणु ऊर्जा और भू-ताप ऊर्जा को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की ऊर्जाओं का स्रोत भी है।
दूसरे विश्व युद्ध में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराया जाना इस शताब्दी की सबसे बड़ी गलती थी। कार्बन-वाले ऊर्जा-स्रोतों पर अत्यधिक निर्भरता मनुष्य की दूसरी बड़ी भूल मानी जा सकती है। ताकत, दौलत और मनुष्य समाज पर नियंत्रण पाने की दौड़ में बीते वर्षों में फिर से काम में लाए जा सकने वाले प्रदूषण मुक्त साधनों की पूरी तरह उपेक्षा की गई है। वर्ष 1980 के दशक में ऐसी आशा बंधी थी कि ऊर्जा के क्षेत्र में फिर से उपयोग में लाए जाने वाले ऊर्जा साधनों को उचित महत्त्व मिलेगा और इस ओर ध्यान भी दिया जाएगा, लेकिन दुर्भाग्य से अब तक ऐसा नहीं हो पाया है। ऊर्जा संकट और ऊर्जा के परम्परागत साधनों की कीमतों में तीन बार भारी वृद्धि हो जाने के बावजूद आज तक फिर से काम में लाए जा सकने वाले ऊर्जा साधनों को पेट्रोलियम और कोयले का विकल्प नहीं माना गया है। यह स्थिति तब है जबकि यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गया है कि फिर से उपयोग में लाए जा सकने वाले साधन जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की ऊर्जा की आवश्यकताओं को काफी हद तक पूरा कर सकते हैं और इनसे पर्यावरण पर बुरा असर भी नहीं पड़ता। वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट के अनुसंधानकर्ताओं का विचार है कि आर्थिक सामाजिक और पर्यावरण सम्बन्धी खतरों की वजह से समाज परमाणु शक्ति को स्वीकार नहीं कर सकता, जबकि फिर से उपयोग में लाए जा सकने वाले साधनों को वह आसानी से अपना सकता है। ये स्रोत कभी समाप्त नहीं होते और सूर्य के प्रकाश से हर रोज इनकी क्षति-पूर्ति होती रहती है।ऊर्जा और बिजली की बढ़ती हुई आवश्यकता अनेक परम्परागत तथा फिर से काम में लाई जा सकने वाली ऊर्जा प्रणालियों से पूरी की जा सकती है। अगर पेट्रोलियम पदार्थों और कोयले पर आधारित ऊर्जा प्रणालियों पर आने वाली कुल लागत से तुलना की जाए तो फिर से काम में लाए जा सकने वाले साधनों पर निर्भर प्रणालियाँ काफी सस्ती बैठती हैं। लेकिन अधिकांश देशों में आमतौर पर इन साधनों का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। पनबिजली, धरती के भीतर की ऊष्मा, अप्रत्यक्ष सौर-ऊर्जा, पवन ऊर्जा, बायो मास ऊर्जा और प्रत्यक्ष सौर-ऊर्जा ऐसे उदाहरण हैं, जिनकी मदद से ऊर्जा व बिजली की बढ़ती हुई आवश्यकता को पूरा किया जा सकता है। सूर्य मानव के लिये सबसे बड़ा संगलन रिएक्टर है, जो दुनिया की कुल आबादी की जरूरत का 10,000 गुणा ऊर्जा हर रोज मुफ्त सप्लाई करता है। सूर्य जीवन का आधार ही नहीं है बल्कि यह परमाणु ऊर्जा और भू-ताप ऊर्जा को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की ऊर्जाओं का स्रोत भी है। पेट्रोलियम पदार्थों और कोयले जैसे पदार्थों से प्राप्त होने वाली ऊर्जा भी एक तरह से सौर-ऊर्जा ही है जो धरती में दबे पेड़-पौधों ने हजारों वर्ष पूर्व इकट्ठी की थी।
1970 के दशक के पहले तेल-संकट के करीब दो दशक बाद ऊर्जा के फिर से काम में लाए जा सकने वाले स्रोतों के उपयोग की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है। लेकिन 1980 के दशक में इस क्षेत्र में ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। अब स्थिति बिल्कुल बदल गई है। हाल के खाड़ी संकट से समस्या और उलझ गई है। इसने एक बड़ा सवाल पैदा कर दिया है कि क्या हमें आयातित तेल पर निर्भर रहना चाहिए? अगर हाँ तो किस सीमा तक? अब समय आ गया है कि जब हमें फिर से उपयोग में लाए जा सकने वाले स्रोतों सहित ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों के बारे में आगामी 15-20 वर्षों के लिये स्पष्ट नीति तैयार कर लेनी चाहिए और बिजली पैदा करने में फिर से काम में लाए जाने वाले साधनों के उपयोग के लिये टेक्नोलॉजी विकसित करनी चाहिए। इन साधनों का व्यापक स्तर पर उपयोग भी आवश्यक है।
सौर-ऊर्जा
खाना पकाने, पानी गर्म करने, पानी का खारापन दूर करने, हवा को गर्म रखने और अनाज, सब्जियों तथा इमारती लकड़ी को सुखाने जैसे कम ताप की आवश्यकता वाले कार्यों में सौर-ताप पर आधारित उपकरणों का उपयोग आज दुनिया भर में आमतौर पर होने लगा है। ये उपकरण अब प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं रह गए हैं, बल्कि जन-सामान्य भी इनके बारे में जानने लगा है। उदाहरण के लिये भारत में ही पानी गरम करने के लिये सौर ऊर्जा पर आधारित हजारों प्रणालियाँ उपयोग में लाई जा चुकी हैं। इन प्रणालियों ने विभिन्न प्रकार के कार्यों के लिये प्रदूषण मुक्त ताप-ऊर्जा उपलब्ध कराने सम्बन्धी तकनीकी क्षमता को सिद्ध कर दिया है।
सौर ऊर्जा का उपयोग दो अलग-अलग तरीकों से बिजली पैदा करने में भी किया जा रहा है। फोटोबोल्टेक प्रणाली के जरिए सौर ऊर्जा को सीधे बिजली में बदला जा सकता है। अब सौर सेल आसानी से उपलब्ध हैं। इनका उपयोग बिजली से चलने वाले किसी भी उपकरण में किया जा सकता है। यहाँ तक कि फोटोबोल्टेक सेल पर आधारित कई सौ मेगावाट क्षमता के बिजलीघर स्थापित किए जा सकते हैं। ताप ऊर्जा पर आधारित सौर बिजली घर पिछले कई वर्षों से काम कर रहे हैं। इनकी क्षमता कुछ किलोवाट से लेकर 80 मेगावाट तक की है। कैलिफ़ोर्निया में 13.5 मेगावाट क्षमता का एक, 30 मेगावाट क्षमता के 6 और 80 मेगावाट क्षमता के दो सौर बिजलीघर काम कर रहे हैं। 80-80 मेगावाट क्षमता के दो सौर बिजलीघरों के जल्दी ही स्थापित किए जाने की सम्भावना है।
सौर ऊर्जा प्रणाली एक ऐसी अन्य प्रौद्योगिकी है जिसका भविष्य उज्ज्वल है और कई अनुसंधान व विकास प्रयोगशालाएँ इस प्रणाली को पूरे विश्व में विकसित कर रही हैं।
इनमें से एक ब्राजील में और दूसरा मैक्सिको में लगाया जाएगा। पचास किलोवाट क्षमता का सौर ताप बजलीघर भारत में गैर-पारम्परिक ऊर्जा स्रोत विभाग के सौर ऊर्जा केन्द्र में काम कर रहा है। 1.50 करोड़ ड्यूश मार्क की एक अनुसंधान और विकास परियोजना का कार्य हाल में जर्मनी की मैसर्स फ्लैचग्लास और अमेरिका की मैसर्स लुज इंटरनेशनल द्वारा स्पेन में शुरू किया गया है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन सभी संयंत्रों में शीशे के परवलयाकार कन्संट्रेटर्स का इस्तेमाल किया गया है। वर्ष 1975-77 में नई दिल्ली की राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला ने इसी तरह के परवलयाकार कन्संट्रेटर्स बनाने की तकनीकी क्षमता विकसित कर ली है। इस प्रयोगशाला में 30 वर्ग मीटर क्षेत्रफल के परवलयाकार कन्संट्रेटरों का निर्माण कर उनका परीक्षण किया गया है। इनसे लगभग 2000 सेल्सियस ताप पर भाप प्राप्त की जा सकती है। लेकिन व्यावसायिक उपयोग के लिये इनका परीक्षण नहीं किया जा सका है।कुछ और अध्ययन
ताप ऊर्जा पर आधारित अन्य प्रकार के सौर बिजलीघरों के बारे में अध्ययन किया जा रहा है। उदाहरण के लिये सौर टावर टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से अमेरिका में 10 मेगावाट, जापान में 1 मेगावाट और सोवियत संघ में 3 मेगावाट क्षमता के सौर-बिजलीघर बनाए गए हैं। अन्य कई देशों में भी इस प्रकार के बिजलीघरों पर अध्ययन किया जा रहा है। यूरोपियन कन्सोर्टियम जार्डन में 30 मेगावाट क्षमता का सौर टावर टेक्नोलॉजी पर आधारित बिजलीघर स्थापित कर रहा है। लेकिन अभी यह परियोजना परीक्षण के चरण में है। समूची टावर प्रणाली को स्थापित किए जाने से पहले अनुसंधान और विकास सम्बन्धी काफी कार्य करना बाकी है। सौर ऊर्जा प्रणाली एक ऐसी अन्य प्रौद्योगिकी है जिसका भविष्य उज्ज्वल है और कई अनुसंधान व विकास प्रयोगशालाएँ इस प्रणाली को पूरे विश्व में विकसित कर रही हैं।
पैसिफिक नार्थ-वेस्ट लेबोरेटरी के विलियम्स ने सौर ताप बिजलीघरों के बारे में कई अध्ययन किए हैं। ब्रिटेन के रीडिंग विश्वविद्यालयों में 23 से 28 सितम्बर 1990 तक फिर से उपयोग में लाए जा सकने वाले ऊर्जा स्रोतों के बारे में पहले अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में इन अध्ययनों पर चर्चा हुई। अध्ययन से पता चला है कि डिश स्टलिंग प्रणाली वार्षिक क्षमता की दृष्टि से सबसे अच्छी है। इस प्रकार की विभिन्न आकार की प्रणालियों की वार्षिक क्षमता करीब 22 प्रतिशत तक है। केन्द्रीय रिसीवर टावर प्रणाली की क्षमता 100 मेगावाट के संयंत्रों के लिये 14 से 16 प्रतिशत तक रहती है। डिस्ट्रिब्यूटेड ट्रफ कनेक्टिंग कलेक्टर प्रणाली पर आधारित संयंत्रों की क्षमता 8 प्रतिशत तक रहती है। लेकिन जहाँ पर सेन्ट्रल टावर प्रणाली उपयुक्त सिद्ध नहीं होती वहाँ पर छोटे संयंत्रों के लिये डिस्ट्रिब्यूटेड ट्रफ टेक्नोलॉजी सबसे उपयुक्त पाई गई है। स्टलिंग इंजन टेक्नोलॉजी की उपयोगिता बड़े पैमाने पर उपयोग के लिये अभी सिद्ध नहीं हो पाई है।
सौर ऊर्जा का उपयोग प्रशीतन, वातानुकूलन, शीतगृहों और भवानों में उपयुक्त तापमान बनाए रखने के लिये किया जा सकता है। अनेक देशों में इस समय सौर वास्तुकला एक महत्त्वपूर्ण विषय बनती जा रही है। ठण्डी जलवायु वाले इलाकों में सौर-ऊर्जा का उपयोग ग्रीन हाउस में सब्जियाँ और फल उगाने तथा पशुपालन जैसे कार्यों में भी किया जा सकता है। इसके लिये प्रणालियाँ विकसित करने के लिये अनुसंधान और विकास कार्य चल रहे हैं। लेकिन प्रणालियों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करने के लिये काफी कुछ करना बाकी है। कम ताप की आवश्यकता वाले कार्यों के लिये सौर सरोवर टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल पर विचार किया जा रहा है।
पवन ऊर्जा
पवन-ऊर्जा के क्षेत्र में काफी अच्छा कार्य हुआ है। और बिजली उत्पादन के लिये पवन ऊर्जा आसानी से उपलब्ध कराने की कोशिश की जा रही है। एक मेगावाट क्षमता के पवन-ऊर्जा जनरेटरों का विकास किया जा चुका है और इसका परीक्षण भी किया जा चुका है। कैलीफोर्निया में कई वर्ष से पवन ऊर्जा जनरेटरों से हजारों मेगावाट बिजली पैदा की जा रही है। भारत तथा विश्व के अन्य भागों में इस तरह की प्रणालियों को स्थापित किया जा चुका है। भारत में महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में कुल 35 मेगावाट क्षमता के पवन ऊर्जा जनरेटर काम कर रहे हैं। हमारे देश में पवन ऊर्जा से 20,000 मेगावाट से अधिक बिजली पैदा करने की क्षमता है। पवन ऊर्जा का इस्तेमाल पीने तथा सिंचाई के लिये भूमिगत जल को निकालने में भी किया जा सकता है। इस तरह की प्रणालियाँ विकसित की जा चुकी हैं और इनके व्यावहारिक उपयोग के बारे में परीक्षण किया जा रहा है।
जैव ऊर्जा
जैव ऊर्जा के क्षेत्र में कई विकल्प उपलब्ध हैं। बायो-गैस टेक्नोलॉजी की उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है और दुनिया भर में इसका इस्तेमाल हो रहा है। भारत, चीन तथा कई अन्य देशों में गोबर से चलने वाले अनेक आकार के लाखों गोबर गैस संयंत्र काम कर रहे हैं। घरेलू कार्यों के लिये गैस उपलब्ध कराने के अलावा इन संयंत्रों से सफाई रखने में बड़ी मदद मिली है।
बायोगैस सड़ने वाली किसी भी जैव पदार्थ से प्राप्त की जा सकती है। मानव मल से भी बायोगैस प्राप्त की जा सकती है। शहरों के कूड़े-कचरों, रसोई घर में बचे बेकार पदार्थों, जलकुम्भी तथा पानी में उगने वाली घास-फूस से भी बायो-गैस प्राप्त की जा सकती है। भारत में मानव मल, जलकुम्भी आदि से चलने वाले कई बायो-गैस संयंत्र लगाए जा चुके हैं। बायोगैस संयंत्रों के अलावा लैण्डफिल विधि से भी गैस प्राप्त की जा सकती है। इस तरह के संयंत्र पिछले कई वर्षों से अमेरिका में काम कर रहे हैं। कूड़ा-करकट को जलाकर भी ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। इस तरह बिजली पैदा करने की टेक्नोलॉजी अब काफी उपयोग में लाई जाने लगी है और जापान, जर्मनी आदि देशों में इनका काफी उपयोग हो रहा है। जैव-पदार्थों को गैस में बदलकर इसका उपयोग बिजली पैदा करने तथा अन्य कई कार्यों में किया जा सकता है।
जैव-पदार्थों के उपयोग का एक महत्त्वपूर्ण तरीका सुधरा चूल्हा है, जिसका उपयोग गाँवों में घरेलू उपयोग के लिये किया जा सकता है। भारत में सुधरे चूल्हे के कई मॉडल विकसित किए जा चुके हैं। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे हजारों चूल्हे इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं। इनकी क्षमता 20 प्रतिशत से अधिक है। इन चूल्हों से ईंधन की बचत के साथ-साथ एक फायदा यह है कि इनसे धुँआ नहीं निकलता। इस तरह स्वास्थ्य की दृष्टि से ये सुरक्षित हैं।
अन्य टेक्नोलॉजी
अब समय आ गया है जब सही विचार वाले लोगों और योजना निर्माताओं को यह विचार करना चाहिए कि हम किस ओर बढ़ रहे हैं। उन्हें यह भी विचार करना चाहिए कि आम आदमी क्या करें ताकि इस क्षेत्र में वैज्ञानिक समुदाय के अब तक के प्रयास बेकार न जाएँ।
सागर की लहरों से बिजली प्राप्त करने के लिये भी टेक्नोलॉजी विकसित की जा चुकी है। समुद्र से दो तरह से ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है- लहरों के जरिए और पानी के ताप से। ये दोनों तरीके बिजली पैदा करने के लिये काफी उपयोगी हैं। जापान, अमेरिका तथा विश्व के अन्य देशों में अनेक स्थानों पर कई मेगावाट क्षमता के बिजलीघर स्थापित किए जा चुके हैं। अमेरिका और जापान में भू-ताप ऊर्जा का इस्तेमाल करने वाले बिजलीघर स्थापित किए जा चुके हैं।तेल और गैस के भण्डार विश्व के कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित हैं। विश्व के अधिकांश, देशों को पेट्रोलियम पदार्थों का आयात करना पड़ता है। लेकिन अनुसंधानकर्ताओं ने संकेत दिया है कि पेट्रोलियम पदार्थों के स्थान पर हाइड्रोजन का उपयोग किया जा सकता है। हाइड्रोजन का उपयोग वाहनों को चलाने के अलावा कई प्रकार के कार्यों में किया जा सकता है। इसका इस्तेमाल बड़े पैमाने पर बिजली पैदा करने में भी किया जा सकता है। ऐसी खबर है कि पेट्रोलियम पदार्थों के स्थान पर बड़े पैमाने पर हाइड्रोजन के इस्तेमाल के लिये इसके उत्पादन, भण्डारण, परिवहन और उपयोग की टेक्नोलॉजी अब उपलब्ध है। यह भी पता चला है कि एक खास मात्रा में उपयोग में लाने पर हाइड्रोजन पेट्रोलियम तथा गैस की तुलना में सस्ती पड़ती है। हाइड्रोजन से चलने वाले कई वाहन विश्व में अनेक स्थानों पर बनाये जा चुके हैं और इनका व्यावहारिक परीक्षण भी किया जा चुका है। पाइप लाइनों के जरिए हाइड्रोजन को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना अब कोई समस्या नहीं रह गया है। पिछले 50 वर्षों से हाइड्रोजन को 1000 मील से भी अधिक दूरी तक पाइपलाइनों के जरिए ले जाया जा रहा है।
सौर-ऊर्जा से पैदा की गई बिजली और भाप से हाइड्रोजन बनाई जा सकती है। इस प्रकार का टेक्नोलॉजी सम्बन्धी विकास दुनिया में शुरू हो गया है। और जल्दी ही शीट्री (सोलर हाइड्रोजन एण्ड इलेक्ट्रिक एनर्जी ट्रांस यूरोपियन एण्टरप्राइज) नाम का एक कार्यक्रम आरम्भ किया जाने वाला है। इस कार्यक्रम में उत्तर अफ्रीकी मरुस्थल में हाइड्रोजन को ले जाने के लिये एक पाइप लाइन लगाई जाएगी। ये पाइप लाइन सिसली की खाड़ी और इटली होती हुई स्विटजरलैण्ड तक पहुँचेगी। आस-पास के देशों को भी पाइप लाइन से जोड़ा जाएगा। इन बिजलीघरों में इलेक्ट्रोलाइसिस प्रक्रिया के जरिए पानी से हाइड्रोजन अलग कराई जाएगी। पहले इलेक्ट्रोलाइसिस संयंत्र को भाप से चलने वाले जनरेटरों और टरबाइनों, बिजली के जनरेटरों और हेलिओस्टेट के जरिए विद्युत ऊर्जा उपलब्ध कराई जाएगी। विस्तार से अगले चरण में फोटोबोटेक या फोटो-कैमिल और सैलों जैसी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जा सकता है। ऊर्जा के फिर से उपयोग में लाए जा सकने वाले साधनों के बारे में पहले विश्व सम्मेलन में श्री जी.आर. ग्रोब द्वारा प्रस्तुत लेख में बताया गया है कि अगर खनिज ईंधनों की कुल लागत तथा उनके पर्यावरण और स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरों को ध्यान में रखा जाए तो हाइड्रोजन पेट्रोलियम पदार्थों और गैस के मुकाबले कहीं सस्ती बैठती है।
सौर-हाइड्रोजन विधि के अलावा बायोमास विधि से तरल ईंधन प्राप्त करने के और भी तरीके हैं। उदाहरण के लिये गन्ने से अल्कोहल प्राप्त कर इसका उपयोग बिजली पैदा करने या वाहन चलाने में किया जा सकता है।
सस्ती प्रणालियाँ
पिछले कुछ दशकों में ऊर्जा के फिर से उपयोग में लाए जा सकने वाले साधनों पर आधारित प्रणालियों की तकनीकी श्रेष्ठता सिद्ध हो चुकी है। इनमें से कुछ टेक्नोलॉजियाँ आज भी लागत की दृष्टि से सस्ती बैठती हैं। उदाहरण के लिये बायो-गैस प्रणालियाँ, सुधरे चूल्हे, पवन ऊर्जा प्रणालियाँ और कम ताप वाली सौर प्रणालियाँ आर्थिक दृष्टि से उपयुक्त सिद्ध हो चुकी हैं। परवलयाकार पात्र के माध्यम से ताप एकत्रित करने की प्रणाली भी काफी हद तक आर्थिक दृष्टि से सफल सिद्ध हो चुकी है। आशा है कि कुछ वर्षों में फोटोबोल्टेक प्रणाली लागत की दृष्टि से सस्ती हो जाएगी। कई प्रयोगशालाओं में लागत कम करने के लिये नए पदार्थों की खोज और नए डिजाइनों के निर्माण का कार्य बड़े पैमाने पर किया जा रहा है।
निष्कर्ष
सभ्यता के जन्म से ही मानव जाति मुश्किलों का सामना करती आई है। इनमें से कुछ तो मनुष्य ने खुद पैदा की हैं, जबकि कुछ अन्य प्राकृतिक कारणों से उत्पन्न हुई हैं। मगर हमारे सामने ऐसे अनेक उदाहरण हैं जब विज्ञान और टेक्नोलॉजी की उपयुक्त प्रणालियों का उपयोग करके मनुष्य बहुत कम समय में कई जटिल समस्याएँ सुलझाने में कामयाब हुआ है। करीब दो दशक पूर्व मनुष्य चाँद तक पहुँचने में सफल हुआ था। इसके बाद अन्तरिक्ष यात्री बिना किसी परेशानी के अन्तरिक्ष में कई सौ घण्टे बिता चुके हैं। अमेरिकी अंतरिक्ष यान ‘मैगेलन’ ने कुछ समय पहले शुक्र ग्रह के चित्र पृथ्वी को भेजना शुरू कर दिया था। भौतिक विज्ञान, इन्जीनियरी, चिकित्सा तथा विज्ञान के अन्य क्षेत्रों में टेक्नोलॉजी सम्बन्धी इन उपलब्धियों ने वैज्ञानिकों, टेक्नोलॉजी विशेषज्ञों, इंजीनियरों तथा इन से जुड़े सभी लोगों के मन में नया विश्वास पैदा किया है। एक समस्या के कई समाधान हो सकते हैं, लेकिन इसके हल के लिये जो जरूरी हैं, वे हैं- दृढ़ संकल्प, निष्ठा, लक्ष्य प्राप्त करने की लगन, स्पष्ट नीति तथा राजनीतिक और आर्थिक सहयोग।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है पर्यावरण और ऊर्जा से सम्बन्धित समस्याएँ मनुष्य द्वारा खुद पैदा की गई हैं। पिछले कुछ दश्कों के वैज्ञानिक अनुसंधान से यह संकेत मिलता है कि इन समस्याओं के कई समाधान हो सकते हैं। पर्यावरण असन्तुलन को कम करने और ऊर्जा के फिर से उपयोग में लाए जा सकने वाले साधनों के उपयोग की दिशा में टेक्नोलॉजी सम्बन्धी कई उपलब्धियाँ प्राप्त की गई हैं। इनमें से कुछ को बड़े पैमाने पर उपयोग में लाने से पहले अभी कुछ और कार्य करना आवश्यक है। इस क्षेत्र में अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिये स्पष्ट नीति और राजनीतिक सहयोग बहुत जरूरी है। ऊर्जा के फिर से काम में लाए जा सकने वाले साधनों के विकास और उपयोग के लिये जब तक स्पष्ट दीर्घकालीन नीति नहीं बनाई जाती और इस कार्य के लिये राजनीतिक और आर्थिक सहयोग प्राप्त नहीं होता, तब तक ऊर्जा के ये साधन उतने लोकप्रिय नहीं हो पाएँगे जितने आज खनिज तेल जैसे साधन हैं। वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और टेक्नोलॉजी विशेषज्ञों ने यह चुनौती स्वीकार कर ली है। अब समय आ गया है जब सही विचार वाले लोगों और योजना निर्माताओं को यह विचार करना चाहिए कि हम किस ओर बढ़ रहे हैं। उन्हें यह भी विचार करना चाहिए कि आम आदमी क्या करें ताकि इस क्षेत्र में वैज्ञानिक समुदाय के अब तक के प्रयास बेकार न जाएँ।