उत्तराखंड के घटते जल संसाधनों को बचाना होगा

Submitted by Hindi on Tue, 03/01/2011 - 09:22
Source
नैनीताल समाचार, 24 जनवरी 2011

अगर बारिश कम हो तो गर्मियों में उत्तराखंड में असाधारण जल संकट पैदा हो जाता है। पिछले साल हिमपात न होने से इस बार गर्मियों में नदियों में जल प्रवाह कम रहा था। गर्मियों में प्रमुख ग्लेशियरों पर आधारित भागीरथी और अलकनन्दा जैसी नदियों में जल प्रवाह में 50 प्रतिशत की कमी आ गई थी। अतिरिक्त जल विद्युत पैदा करने की क्षमता के विपरीत इस बार गर्मियो में उत्तराखंड को अन्य राज्यों से बिजली खरीदनी पड़ी। जाड़ो में कम वर्षा व कम हिमपात होने से जल स्रोत व धारे जल्दी ही सूख गए जिससे पूरे राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों के रहने वालों के लिए बेहद कठिनाई पैदा हो गई।
 

ग्रामीण जल आपूर्ति


उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के गाँवों में ग्रामीण इलाकों की जलापूर्ति योजनाएँ हमेशा ही सवालों के घेरे में रही हैं। उनमें कई पेयजल योजनाएँ किसी सीजन में खास तौर पर गर्मियों में जबकि पानी की बहुत जरूरत होती है, ठप हो जाती हैं। बाकी कुछ योजनाएँ स्थाई रूप से बेकार हो जाती हैं, क्योंकि पानी का स्रोत ही सूख जाता है।

सरकारी आँकड़ों से पता चलता है कि जल संस्थान व जल निगम जैसी सरकारी जल आपूर्ति एजेंसियाँ राज्य की सभी बस्तियों में पानी के पाइप पहुँचाने में सफल रही हैं। परन्तु बुनियादी सवाल यह है कि क्या वे हर नागरिक को 40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के मानक के अनुरूप साफ और सुरक्षित पानी देने में सफल रही हैं। भारत की दसवीं पंचवर्षीय योजना के दस्तावेज में भी कहा गया है कि “सरकारी रिपोर्टें भी सेवाओं की गुणवत्ता, विश्वसनीयता और निरन्तरता के बजाय योजनाओं की भौतिक और वित्तीय प्रगति पर जोर देती हैं।”

जल स्रोत से प्रवाह की वार्षिक समीक्षा रिपोर्ट में उत्तराखंड जल संस्थान ने 2005-06 में स्वीकार किया कि जिन 5257 जल स्रोतों का अध्ययन किया गया उनमें से लगभग 40 प्रतिशत में जल प्रवाह में पहले की अपेक्षा 50 प्रतिशत की कमी आ गई। यह संख्या 2003 की 17 प्रतिशत से अधिक है। पौड़ी जिले में 75 प्रतिशत से अधिक जल स्रोतों में प्रवाह में 50 प्रतिशत से अधिक की कमी आई है। बुरी तरह से प्रभावित अन्य जिले हैं- चम्पावत (55 प्रतिशत), अल्मोड़ा (49 प्रतिशत) और टिहरी (41 प्रतिशत )।

1. ‘जन विज्ञान संस्थान’ द्वारा किये गए एक सूक्ष्म अध्ययन से ये दिलचस्प तथ्य सामने आए:-
2. ग्रामीण आबादी का सिर्फ एक-चौथाई हिस्सा ही 40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के मानक के अनुसार पानी पाता है।
3. यद्यपि सरकार द्वारा सुलभ करवाए गए जल स्रोत थोड़ी ही दूर पैदल चलने से मिल जाते हैं परन्तु उनसे साल में नौ महीने ही ठीक से पानी मिल पाता है।
4. गर्मियों में कई ग्रामीण अपने परम्परागत जल स्रोतों पर निर्भर हो जाते हैं परन्तु ये प्रायः गाँव से दूर होते हैं।
5. जल के समानतापूर्ण वितरण के बारे में आँकड़े दुर्लभ हैं। आम तौर पर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की कुछ सीमित आबादी 40 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन के मानक से कुछ अधिक जल का उपभोग करती है जबकि बाकी सामान्य आबादी को 11 से 20 लीटर तक ही पानी मिल पाता है।

 

 

शहरी क्षेत्रों के लिए जल आपूर्ति


कई शहर शिखरों पर बसे हैं और पानी की बेहद कमी का सामना करने को मजबूर हैं। अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ इसका उदाहरण है। अल्मोड़ा कोसी पर निर्भर है और पिथौरागढ़ सरयू पर। ये वर्षा पर निर्भर नदियाँ हैं, परन्तु उनका जलागम क्षेत्र बर्बाद हो गया है। गर्मियों में जब जल का प्रवाह न्यूनतम स्तर पर होता है तो शहरों में समस्या खड़ी हो जाती है। पानी की आपूर्ति प्रणाली के रखरखाव में कमी और पाइपों में रिसाव के कारण समस्या और भी बढ़ जाती है। पहले अन्यत्र की तरह अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ में भी परम्परागत जल संग्रह के स्रोत थे। परन्तु बेतरतीब शहरीकरण से उनके जलागम क्षेत्रों को नुकसान पहुँचा और वे सूख गए। इसके बावजूद संकट के दिनों में उन नौलों में लम्बी-लम्बी कतारें देखी जा सकती हैं, जिनमें पेयजल उपलब्ध होता है। सीवर की कमियों के चलते ऊपरी क्षेत्रों में बनाये गए टैंकों के कारण निचले इलाकों में पेय जल प्रदूषित होता है। पहाड़ के शहरों के तेजी से हो रहे विस्तार को देखते हुए सरकारी भवनों व होटलों आदि में वर्षा जल संग्रहण की व्यवस्था को विशेष रूप से अनिवार्य बनाये जाने की जरूरत है।

 

 

 

 

जंगलों के कटान से जल स्रोतों में कमी


नैनीताल जिले में गौला नदी के जलागम क्षेत्र के बारे में डॉ. के. एस. वल्दिया और एस. के. बर्तया के अनुकरणीय अध्ययन से पता चला कि जलस्रोतों से पानी की कमी का कारण जंगलों का कटान है। उन्होंने 1952-53 और 1984-85 के बीच जलागम क्षेत्र के जंगलों में 69.6 प्रतिशत से 56.8 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि 1956 और 1986 के बीच जलागम क्षेत्र भीमताल में वर्षा में 33 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई। परन्तु स्रोतों के पानी में 25 से 75 प्रतिशत की कमी देखी गई जिससे अध्ययन क्षेत्र के 40 प्रतिशत गाँव प्रभावित हुए। कुछ स्रोत तो पूरी तरह से सूख गए थे। कुमाऊँ के 60 अन्य स्रोतों के अध्ययन से पता चला कि 10 में (17 प्रतिशत) में जल प्रवाह ठप्प हो गया था, जबकि 18 में (30 प्रतिशत) में जल प्रवाह मौसमी हो गया। बाकी 32 में (53 प्रतिशत) जल के प्रवाह में कमी देखी गई। इसका कारण यह था कि जल स्रोत वाले इलाकों में बाँज के जंगल बड़े पैमाने पर नष्ट हो गए थे।

कुमाऊँ विश्वविद्यालय के अल्मोड़ा परिसर में डॉ. जे. एस. रावत द्वारा किये गए एक अन्य अध्ययन से पता चला कि अल्मोड़ा की कोसी नदी में पानी का बहाव 1992 में 800 लीटर प्रति सेकिंड से घट कर 2004 में 196 लीटर प्रति सेकिंड रह गया। इन अध्ययनों से यह भी संकेत मिला कि ऊपरी ढलानों के जंगलों में वर्षा से भूजल में 31 प्रतिशत जल की वृद्धि होती है। बाँज के जंगलों से भूजल संग्रहण में 23 प्रतिशत, चीड़ से 16, खेतों से 13 प्रतिशत, बंजर भूमि से 5 प्रतिशत और शहरी भूमि से केवल दो प्रतिशत की वृद्धि होती है। डॉ. रावत की सिफारिश है कि पर्वत के शिखर से ढलान की तरफ 1000 से 1500 मीटर तक सघन रूप से मिश्रित वन होने चाहिए।

 

 

 

 

क्या करना चाहिए


सदियों पहले कश्यप ऋषि ने पानी और जंगलों के बीच सहजीवी संबंधों का निरूपण किया था। इन संसाधनों के लिए समन्वित प्रबंधन की जरूरत होती है। आजकल जल संसाधनों के प्रबंधन की जिम्मेदारी मुख्य रूप से अभियंताओं की होती है, जिन्हें जीवन पद्धतियों की कोई समझ नहीं होती। उन्हें केवल जल के दोहन का प्रशिक्षण प्राप्त होता है। अतः कम से कम इतना तो होना चाहिए कि जल प्रबंधन की एजेंसियों को इंजीनियरों के साथ ही फाॅरेस्टर को भी साथ रखना चाहिए।

पूरे राज्य में जलागम क्षेत्रों को पुनः बहाल किया जाना चाहिए। ऊपरी ढलानों पर चौड़ी पत्ती वाले वृक्षों को लगाने के साथ बड़े पैमाने पर वनीकरण किया जाना चाहिए। चीड़ के पेड़ों का वैज्ञानिक आधार पर कटान कर उनके स्थान पर चौड़ी पत्ती वाले पेड़ लगाये जाने चाहिए। साथ ही जंगल में वर्षा जल के संचयन के लिए नालियाँ भी खोदी जानी चाहिए और रिसाव रोकने के उपाय किये जाने चाहिए। परम्परागत जल संचयन के ढाँचों और उनके जलागम क्षेत्र को बहाल किया जाना चाहिए। जल संचयन के ढाँचे और उसके जलागम क्षेत्र को बहाल करने के लिए प्रायः 50,000 रु. ही खर्च करने होते हैं। ऐसे ढाँचों से कम से कम 25 से 50 परिवारों को साल भर पानी मिल सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जल का स्थाई स्रोत पाने के लिए हमें प्रति व्यक्ति 500 रु. से अधिक खर्च नहीं करने होते हैं।

वर्षा जल संचयन के लिए समाज को स्वेच्छा से उत्साहपूर्वक आगे आना होगा। समाज को सक्रिय करने में भूमिका निभा चुके स्वयंसेवी संगठनों को ऐसे कामों में नेतृत्व प्रदान करना चाहिए। कई व्यक्तियों, समुदायों और संगठनों ने पहले भी उत्तराखंड में टिकाऊ वर्षा जल संचयन प्रणाली तैयार करने में मार्गदर्शी काम किया है। सच्चिदानन्द भारती के नेतृत्व में दूधातोली लोक विकास संस्थान ने उत्तराखंड में विशाल जल संरक्षण क्षेत्र का निर्माण किया है और सूख चुकी जल धारा को बहाल किया है। बीसियों गाँवों के महिला मंगल दलों ने व्यक्तिगत कठिनाइयों के बावजूद कोसी के ऊपरी जलागम क्षेत्र के जंगलों के संरक्षण का व्रत लिया है। पिछली गर्मियों में पौड़ी और चमोली जिलों में कई लोगों ने जंगलों की आग बुझाने के प्रयास में अपने प्राणों की आहुति दे दी। सुरईखेत के एक शिक्षक मोहन चन्द्र काण्डपाल ने कई ग्रामीण समुदायों को अपने जल संचयन ढांचों को और जलागम क्षेत्रों को बनाये रखने के लिए प्रेरित किया है।

वनों का संरक्षण वन विभागों द्वारा नहीं किया जा सकता। इसके लिए समुदायों की भागीदारी आवश्यक है। परन्तु वन संरक्षण का अर्थ है कि स्थानीय समुदायों के लिए जलावन की लकड़ी और चारे के लिए ज्यादा कठिनाई और जंगल से होकर छोटे रास्तों के बजाय लम्बे रास्तों से आना-जाना तथा अन्य प्रकार की कठिनाइयाँ। पहाड़ के गाँवों में वन संरक्षण को इस दृष्टि से देखा जाना चाहिए कि स्थानीय समुदाय बाकी राष्ट्र को पर्यावरण व परिस्थितिकी सेवा दे रहे हैं। उन्हें इन सेवाओं के बदले में भुगतान मिलना चाहिए। वनों को कार्बन कचराघर के रूप में जाना जाता है। कार्बन ट्रेडिंग को स्थानीय लोगों को अपने वनों के संरक्षण की एवज में पुरस्कृत करने के लिए एक वित्तीय प्रोत्साहन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। यह दिखाने के लिए पर्याप्त ऐतिहासिक प्रमाण हैं कि संस्कार, संस्कृति और नीति से उत्तराखंड में परम्परागत रूप से वर्षा जल संरक्षण होता रहा है। प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में स्थानीय स्वायत्तता के कारण ही परम्परा बनी रही। स्थानीय समुदायों को अपने प्रकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल व प्रबंधन में स्वामित्व प्राप्त था। इससे समन्वित संसाधन प्रबंधन संभव हुआ और प्राकृतिक प्रणाली की अधिकतम उत्पादकताएँ सुनिश्चित हो सकीं। आजकल प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन ऐसे अनेक सरकारी विभागों का विशेषाधिकार है जिनके बीच आपस में कोई समन्वय नहीं होता। संसाधन प्रबंधन के समूचे संस्थागत, वैधानिक एवं नीतिगत ढांचे की समीक्षा करने और उसे सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है। यह ध्यान में रखी जानी चाहिए कि हमें किसान अनाज देते हैं, कृषि विभाग के अधिकारी नहीं। किसानों को स्वायत्तता प्राप्त है और विभाग उन्हें सुविधाएँ देने का काम करते हैं। उदारीकरण की अवधारणा का विस्तार प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के क्षेत्र में भी किये जाने की आवश्यकता है।

 

 

 

 

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