जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के अध्यक्ष अरुण कुमार शाह से भुवन पाठक द्वारा की गई बातचीत पर आधारित साक्षात्कार।
आप अपना थोड़ा सा परिचय देते हुए अपनी राजनीतिक भूमिका के बारे में बताएं?
मैं छात्र जीवन से ही राजनीति से जुड़ा हुआ हूँ। मैं उत्तराखंड क्रांति दल की स्टूडेंट शाखा से चुनाव लड़ा और विजयी रहा। 1984 में मैं, चमोली जिले में सी.पी.आई. का ए.आई.एफ. प्रभारी था। 1991 तक आते-आते हम उत्तराखंड क्रांति दल में पूर्ण रूप से शमिल हो गए।
उसके बाद मैं, आंदोलनों में शिरकत करता रहा। मैंने इलाहाबाद जाकर उत्तराखंड छात्र सोसायटी बनाई जिसमें, हमने वहां पढ़ने वाले 600 बच्चों को अपने साथ मिलाया। 1994 के दौरान मेरे मित्रों ने मुझे बताया कि, स्व. बडोनी और पान सिंह जी जैसे बड़े-बड़े आंदोलनकारी पौड़ी में धरने पर बैठ हुए हैं और हमें वहां आंदोलन करवाना है। मैं उस समय सीधे पौड़ी में बडोनी जी के पास गया और उनके साथ काम किया। तब से लगातार हम आंदोलन में रहे हैं। उसके बाद हमने पृथक राज्य के लिए आंदोलन किया और आज उत्तराखंड भी बना दिया।
आज भले ही उत्तराखंड की स्थिति ऐसी न हो जैसी हम चाहते थे लेकिन वर्तमान में जो भी योजनाएं चल रही है उनसे उत्तराखंड की स्थिति में जरूर सुधार होगा हां, ये जरूर है कि उत्तराखंड में कुछ ऐसे स्थान हैं जहां इन योजनाओं को अमल में लाना थोड़ा कठिन है विशेषकर इस पहाड़ में तो अधिकतर स्थानों पर जंगल ही जंगल हैं जहां कोई फैक्ट्री लगाना कठिन है लेकिन यहां से बिजली पैदा की जा सकती हैं और जड़ी-बूटियां प्राप्त की जा सकती हैं।
जंगल काटना और जड़ी-बूटियां पैदा करना फ़ैक्टरी से लगाने से अलग बात है तो, उसी प्रवृत्ति में यहां दो बहुत बड़ी योजनाएं चल रही है। वैसे हमारे पास छोटी योजनाएं भी हैं उनमें नाका की एक योजना भी शामिल है।
वो योजना बन गई है क्या?
जी, बन गई है वह जुम्मा में है और अभी निर्माणाधीन है सरकारी होने के कारण उसमें कई खामियां का सामना करना पड़ रहा है लेकिन काम लगभग पूरा हो चुका है। इसके अलावा यह योजना हमारे ब्लाक के बद्रीनाथ, तपोवन और गोविन्दघाट के लिए भी बनी है जो लगभग पूर्ण रूप से बन चुकी है। इसमें उत्पादन होने के बाद उत्पादन बंद भी हो गया और एक अन्य योजना उरकम में भी बनी है उसमें भी उत्पादन शुरू हुआ लेकिन एक छोटी सी तकनीकी समस्या आने के कारण वो बंद हो गया है।
इन सबको देखकर लगता है कि हमें बिजली की कमी की समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा। वर्तमान समय में भी यहां रोस्टिंग होती है और छः पावर प्रोजेक्ट चल रहे हैं। ये सभी प्रोजेक्ट छोटे हैं तथा सरकारी हैं जिससे थोड़ी समस्याओं का सामना तो करना ही पड़ता है, मुझे लगता है कि यदि इनमें से कुछ प्राइवेट प्रोजेक्ट होते तो वो और भी अधिक अच्छी तरह से चलते क्योंकि सरकार की लाल फीताशाही के कारण उन्होंने छोटी-छोटी बातों पर ही सारा काम रोक दिया।
तो ये छः के छः अभी बंद पड़ी हैं?
जी! इसमें से कोई चालू हालत में नहीं है। शायद बैजनाथ वाले में कुछ उत्पादन शुरू हुआ हो। वैसे तो 18 तारीख तक वहां बिजली का कुछ भी उत्पादन नहीं हुआ था। वहां कुछ अच्छे कार्यकर्ता लोग काम करने गए हैं, इसके अलावा कुछ अन्य लोग भी उत्तराखंड में काम करना चाहते हैं लेकिन कभी-कभी उन्हें भी फंसा दिया जाता है तो कभी परियोजना ही बंद कर दी। अब उसी प्रवृत्ति में यहां पर जयप्रकाश कम्पनी के द्वारा 400 किलो वाट का विष्णुप्रयाग प्रोजेक्ट बनाया गया और इससे 4000 मेगावाट कीे बिजली पैदा हो रही है।
किसी नई परियोजना के आने से स्थानीय लोग प्रभावित होते हैं। उनसे उनकी जमीनें, उनके चरागाह तथा यहां तक कि उनके शमशान घाट तक छीन लिए जाते हैं। इसके अलावा वहां निर्माण कार्यों से निकला बारूद का मलबा हमारी नदियों के किनारे डाला जाता है जिससे पूरी नदी ही प्रदूषित हो जाती है। जबकि वहां प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा गंगा बचाओ बोर्ड नाम से सरकार ने कई-कई बोर्ड बनाए हुए हैं लेकिन आज भी गंगा जी के किनारे बहुत अधिक गर्मी देने वाले बारूद के पत्थर लगाए गए हैं जिनमें से आज भी बदबूदार मलवा गिरता रहता है। इन्होंने चाई गांव का पूरा शमशान घाट ही खत्म कर दिया।
इसके विरोध में हमने कई संघर्ष तथा आंदोलन किए लेकिन इसका कोई भी सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा। यहां तक कि इन लोगों ने हमें मजदूरी तक नहीं दी और न ही यहां के जन प्रतिनिधियों या राजनैतिक दलों ही से बात की।
इस सब के बीच उत्तराखंड क्रांति दल ही एक ऐसा दल था जिसने हमें दिशा-निर्देश दिए इसमें हरीश जी, देवेन्द्र त्रिपाठी जी जैसे लोगों ने यहां भम्रण किया और यहां की वस्तुस्थिति देखते हुए हमें दिशा-निर्देश दिए। जिनके आधार पर हमने आंदोलन किया और तभी हमारी आर्थिक स्थिति कुछ मजबूत हुई लेकिन ये भी तभी संभव हुआ है जब हमें थोड़ी मजदूरी मिलनी शुरू हुई, लेकिन आज वो मजदूरी भी खत्म होने वाली है।
उसी के परिप्रेक्ष्य में अब एन.टी.पी.सी. द्वारा तपोवन विष्णुगाड योजना बनाई जा रही है। इस योजना के कारण भी कुछ गांवों को विस्थापितों का दुख झेलना पड़ेगा। सेलंग नाम के एक गांव को तो पूरी तरह ही विस्थापित किया जाएगा। और लोगों के बीच में सरकार, कम्पनी तथा हमारे वर्तमान नेताओं और विधायकों द्वारा यह कहा जा रहा है कि आपको, आपकी जमीन की मनमानी कीमत मिलेगी इस प्रकार अभी उन्होंने कोई राशि तय नहीं की है। जबकि वास्तव में यहां दो साल से जमीन का काम चल रहा है और अभी तक जमीन के मूल्य तय नहीं किए गए हैं।
इसके अलावा उन्होंने कहा कि जमीन के मालिकों को रोजगार भी दिया जाएगा। जबकि वहां न केवल जमीनों के मालिक बल्कि गैर भूमिहीन किसानों का भी रोजगार छिन गया क्योंकि वे लोग अन्य लोगों के खेतों में मजदूरी तथा ऐसे ही अन्य कार्यों द्वारा अपनी रोजी-रोटी चलाते थे और इस तरह के कानून से वे लोग तो पूरी तरह से बेरोजगार हो गए है। अभी तक इस योजना में इस प्रकार के लोगों के लिए भी कोई वार्ता नहीं हुई है।
जोशीमठ में इस परियोजना का प्रत्यक्ष रूप से विरोध करने के लिए जोशीमठ बचाओं संघर्ष समिति नाम से हमारे कुछ गौण साथियों ने आंदोलन चलाया। लेकिन उसका कुछ असर दिखाई नहीं दिया। हम इस परियोजना के विरोध में नहीं हैं बल्कि हम इस परियोजना के क्रियाकलापों को अपने हित में प्रयोग करने की मांग कर रहे हैं फिर चाहे हमें इसके लिए संघर्ष भी क्यों न करना पड़े हम इसके लिए तैयार हैं।
हम परियोजना का साथ देने के लिए सरकार से कुछ चाहते हैं। हम चाहते हैं कि वो सबसे पहले तो जमीन के मूल्य सही तय करे। इससे अच्छा तो यह है कि जिस जमीन पर आपको निर्माण करना है उस जमीन के बदले वह हमें उसकी कीमत दे, दे और जिस जमीन को अपने निर्माण कार्य के बाद प्रयोग नहीं करना है उसे हमसे लीज पर ले लो, लीज में जहां सरकार को एक साथ पेमेंट भी नहीं करना पड़ेगा और वहीं हम लोगों को जमीन खोने का दर्द भी नहीं सहना पड़ेगा। लेकिन इस विषय पर भी उनसे कोई सार्थक वार्ता नहीं हो पाई है। क्योंकि ये 400 हेक्टेयर जमीन की मांग कर रहे हैं और हमारे इस पूरे क्षेत्र में 2000 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में खेती नहीं होती है। इस जोशीमठ ब्लाॅक जो कि समाज ब्लाॅक है।
2000 हेक्टेयर से अधिक नाप की भूमि पर खेती नहीं होती। हमने अपने चरागाहों के लिए कुछ भूमि खाली छोड़ी है और कुछ गैर भूमिहीन लोगों ने कब्जा जमाया है। और मैं समझता हूं कि यहां के बाद किसी भी जमीन पर निमित्रीकरण भी नहीं हुआ। लीज दी भी गई है तो संस्थाओं को दी गई हैं तथा कंपनियों को दी गई हैं। किसी व्यक्ति या गांव के आम आदमी को लीज नहीं दी गई है। अब इस समय एन.टी.पी.सी. परियोजना के खिलाफ विरोध हो रहा है क्योंकि वह न केवल राज्य की बल्कि पूरे राष्ट्र की महत्वाकांक्षी परियोजना है।
इस परियोजना के संबंध में अभी तक किसी भी आम आदमी से बात नहीं की गई है।
किन्होंने?
एन.टी.पी.सी. ने।
अच्छा एन.टी.पी.सी. ने
वे जो भी बात करते हैं उसमें कुछ चंद लोगों को ही बुलाया जाता है।
ये कौन लोग हैं?
जैसे कि वो इसमें प्रधानों तथा विधायकों को बुलाते हैं। और उन्हीं की मर्जी के अनुसार सब काम किए जा रहे हैं। जिसके परिणामस्वरूप आम आदमी संशय में पड़ा है कि हमारा क्या होगा? हम आम जनता के बीच उत्तराखंड क्रांति दल के माध्यम से आंदोलन करने की बात कर रहे हैं। इसके माध्यम से हम यह चाहते हैं कि हमारी बेकार पड़ी जमीन परियोजना के काम आ जाए।
अगर कहीं आपको गाड़ी खड़ी करनी है, कोई मेटल उतार कर रखना है या लेबर रखनी है तो हम इन कामों के लिए भी अपनी जमीन देने के लिए तैयार हैं लेकिन हम उस जमीन को लीज के हिसाब से ही देंगे। और दूसरा योजना के पूरा होने पर उसमें हम लोगों को भी अपना हिस्सा मिले। उसमें इस बात का उल्लेख किया जाना चाहिए कि कौन आदमी कितना प्रभावित हुआ है और उसके हिसाब से उसका कितना हिस्सा मिलना चाहिए।
हम इस परियोजना में अप्रत्यक्ष रूप से अपनी भागीदारी चाहते और अगर हमारा गांव विस्थापित हो रहा है तो वह सही तरीके से अर्थात टिहरी में चलाए जा रहे आर.आर. के आधार पर विस्थापित न किया जाना चाहिए। क्योंकि टिहरी के लोग आज भी विस्थापन का दर्द झेल रहे हैं।
वहां आज भी कई लोगों को सड़कों पर रहना पड़ रहा है। इसलिए हम शेयर वाली बात कर रहे हैं। और हमें यह शेयर उत्पादन शुरू होते ही मिलना चाहिए। क्योंकि ये चलते पानी की योजना है इसमें कुछ नहीं लगना है, क्योंकि एक बार योजना बन जाने के बाद अच्छा पानी ही आ रहा है और उसी पानी से हमारी बिजली पैदा हो रही है।
इसमें सरकार तथा किसी कम्पनी को कुछ नुकसान नहीं होगा बल्कि हम लोगों के हकाकुक तथा सुखाधिकारों की ही बलि चढ़ेगी। जिस नदी से हमको पानी मिलता था वो नदी भी अब सूखकर गदेरे बन जाएंगे। नदी के उद्गम स्थल से गदेरे निकलेंगे और हमारा सारा मुख्य पानी डंगलों द्वारा किलोमीटर के हिसाब से कहां से कहां पहुंच जाएगा। बीच में हमारी नदियां सूख जाएंगी। प्रथम प्रयाग अर्थात विष्णु प्रयाग का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा।
धौली गंगा तथा अलकनंदा में भी प्रोजेक्ट बन रहा है जिससे दोनों छोर से पानी अलग ले जाया जाएगा तो उस गंगा में पानी ही नहीं बचेगा। उसमें बचा हुआ पानी गदेरे के जैसा होगा। जैसे गांगरी से आने वाला पानी, जिसमें गोविन्द घाट पर पहले से ही एक छोटा प्रोजेक्ट चल रहा है इससे हमारी नदी को कुछ नुकसान नहीं होगा क्योंकि वो पानी वापिस नदी में आ जा रहा है लेकिन लाम्बगढ़ के पास से आने वाला सारा पानी बंद हो जाएगा, बराज बनने के कारण लाम्बगढ़ के पहले वाला सारा पानी बंद हो जाएगा।
वैसे ही तपोवन, धौली गंगा तक तो पानी आएगा। तपोवन से बराज बनने के बाद वो पानी सीधे अनमठ उतरेगा जिसकी बायरोड किलोमीटर के अनुसार 27-28 किलोमीटर होगी। इस बीच हमारी वो नदी पूरी सूख जाएगी। इसके रास्ते में विष्णु प्रयाग नामक धार्मिक स्थल तथा शमशान घाट पड़ता है, और इसके बनने से वो क्षेत्र भी प्रभावित होगा।
यहां से ऋषिकेश तक, तथा हमारी अलकनंदा पर 22 योजनाएं चल रही हैं उन्हें देखते हुए लगता है कि आने वाले दिनों में अगर वहां किसी आदमी की मृत्यु हो जाए तो उसको फूंकने के बाद उसकी राख को पानी में बहाने के लिए हमें हरिद्वार जाना पड़ेगा।
आपने शेयर वाली बात कही जिसपर एक महत्वपूर्ण सवाल उठ सकता है। हम देख रहे हैं कि उत्तराखंड में जहां भी सरकार लगातार पावर परियोजनाओं को बना रही है और उसके लिए ठेके कर रही है वहीं उनके खिलाफ आवाज भी उठ रही है तो इन परिस्थितियों में आपके मन में क्या चलता है, क्या ये योजनाएं बननी चाहिए, नहीं बननी चाहिए, बननी चाहिए तो कैसे बननी चाहिए, इस पर आप क्या सोचते हैं?
क्योंकि आज पूरे देश में ही नहीं विश्व में भी जिसके पास ताकत है, वह ताकत के बल पर राज करना चाहता है फिर वह चाहे वो तेल की या गैस की ही ताकत हो। हमारे पास बिजली है और हम बिजली का उत्पादन कर सकते हैं। तो हम इसके दम पर पूरे विश्व में छा जाना चाहते हैं। हम ऐसी योजनाओं का विरोध नहीं करते हैं, हम चाहते हैं कि इसमें उन्नत तकनीक से काम हो।
विदेशियों ने जिस तकनीक को छोड़ दिया है हम वही तकनीक अपनाते जा रहे हैं। जैसे कि अभी हाल ही में हमने एन.टी.पी.सी. वालों से बैठक की उनके अनुसार हम बोरिंग मशीन लाएंगे, जो काफी मंहगी तो हैं लेकिन उन्होंने हमें आश्वस्त किया है कि यह क्षेत्र भूकंप की संभावना वाला होने के कारण ये मशीनें पर्यावरण के दृष्टिकोण से यहां उपयुक्त होंगी।
अब रही जनता की बात तो जनता के साथ कोई दिक्कत नहीं आएगी क्योंकि हमारे यहां पर रोजगार की कमी है, मेरा एक खेत चले जाने से अगर 10 आदमियों को रोजगार मिलता है तो हम उसका विरोध नहीं करते।
क्या आप ये मानते हैं कि विष्णुगाड परियोजना बनने के बाद स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा?
इस तरह का संशय मिटाने के लिए इस सब चीजों को पहले ही तय करना आवश्यक होगा, वरना इसका विरोध होता ही रहेगा। इस संशय का निवारण किए बिना, बने हुए प्रोजेक्ट उठ भी जाएंगे।
एक क्षेत्रीय दल का प्रतिनिधि होने, कार्यकर्ता होने के नाते मैं, आपको बता रहा हूं कि ऐसी स्थिति पैदा होगी क्योंकि मैं बहुत बारीकी से आंदोलन से जुड़ा हूं, छात्र नेता रहा हूं और हम लोगों ने बडोनी जी के नेतृत्व में कभी भी अपने आक्रोश को अपने विरूद्ध नहीं जाने दिया है क्योंकि, मैं इस बारे में पूरे विश्वास के साथ नहीं कह सकता कि विरोध होगा कि नहीं लेकिन आने वाले समय की गारंटी नहीं दी जा सकती। क्योंकि जहां आबादी बढ़ने के साथ-साथ जमीन कम होती जा रही और बेरोजगारी बढ़ती जा रही है तो ऐसी परिस्थितियों में प्रोजेक्ट तो बन रहे हैं लेकिन ये उड़ाये भी जा सकते हैं।
ये जो जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति है इसका आंदोलन किस आधार पर खड़ा है, ये क्या कहते हैं? मुख्य रूप से इनकी मांगे क्या है?
ये चाहते हैं कि प्राजेक्ट न बने।
क्यों?
उनका ये कहना है कि प्रोजेक्ट बनने से जोशीमठ में पानी की कमी हो जाएगी और हमारा मानना है कि अगर हमारे साथ सब कुछ ठीक-ठाक चलता है और जनता को ध्यान में रखते हुए प्रोजेक्ट बनाया जाता है तो भगवान की कृपा से पानी की कमी तो नहीं होगी और यदि हुई भी तो नदी से पानी लिफ्ट करवा सकते हैं। नदी तो हमारे ही पास है।
विष्णु गार्ड में ऊपर से धौली गंगा का पानी आता है क्या?
जी नहीं, यहां आने वाला पानी प्राकृतिक पानी है, क्योंकि जोशीमठ एक ढलान पर है और हम, सबसे नीचे हैं, हमारे ऊपर बुगियाल है और उन बुगियालों के अंदर ऐसे-ऐसे बुगियाल हैं जहां ऐसे बर्फ के भंडार हैं जो कभी पिघलते ही नहीं है जिसे हमारी लोकल भाषा में ‘योभल्डा’ कहा जाता है। और ऊपर गोड़सो में हमारे पास एक तालाब है जिसे गोड़सोकुंड, छतरकुंड बोलते हैं, जहां इधर-उधर पत्थर लुढ़कते हुए दिखाई देते हैं जिनसे लगता कि है कि वहां कभी ज्वालामुखी रहा होगा, वो आज भी क्रिएटर बना हुआ है और उसमें भी लगातार पानी रहता है।
बारह महीने?
जी बारह महीने। उसके इर्द-गिर्द बर्फ के भंडार हैं जहां बर्फ नहीं पिघलता और न वहाँ धूप रहती है इसलिए मुझे नहीं लगता कि जोशीमठ में पानी की कमी होगी।
और ये जो इसका दूसरा तर्क दिया जा रहा है कि जोशीमठ के नीचे से इस टनल के बनने के बाद पूरे जोशीमठ को खतरा हो जाएगा, इसके बारे में आपका क्या विचार है?
क्योंकि कोई भी आदमी जब अपना मकान बनाता है तो वह यह नहीं चाहता है कि कल को, पैसा लगाने के बाद वो मकान टूट जाए। वह अगर कोई भी मकान या झोपड़ा भी बनाता है या खेत की पगार भी देता है तो वो ये नहीं सोचता है कि अगली बरसात में टूट जाए। उसका ये उद्देश्य रहता है कि ये मजबूत रहे और बाकी प्रकृति के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
उन्नत तकनीकें होने के बाद भी सूनामी की लहरों के आने के बारे में कुछ पता नहीं चला। विदेशों की अपेक्षा हमारे देश में उतनी अधिक उन्नत तकनीकें तो नहीं हैं लेकिन फिर भी विदेशों में भी जान-माल की हानि होती रही है। हम तो भगवान को ज्यादा मानते हैं, तो भगवान की कृपा से हमारे यहां इतने भुकम्प आए और गए पर हमारे यहां चार आदमी से ज्यादा मौत नहीं हुई। नुकसान हुआ है गांव के गांव टूट गए, उजड़ गए, लेकिन जहां तक मृत्यु की बात है वो नहीं होती है।
इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण विष्णुप्रयाग परियोजना है इसके लिए चाई गांव से पानी आता है जो कि प्राकृतिक पानी है, पहाड़ का पानी है और आज भी चाई गांव सुसज्जित है उसके नीचे पूरा अंडरग्राउंड प्रोजेक्ट बन गया है, अंडरग्राउंड पूरा खुद गया लेकिन गांव के अंदर पानी की ऐसी समस्या नहीं आ रही है, पानी कहीं रिस नहीं रहा है।
इससे प्रभावित होने वाली जनता द्वारा आंदोलन को कितना समर्थन मिल रहा है?
मैं इस बात को नहीं मानता कि प्रभावित क्षेत्र की जनता आंदोलन में शामिल है। मैं तो यही मानता हूं कि जनता हमारे साथ है, वह अपने भविष्य को, अपने जमीन को और अपने हक-हकूक को जाते हुए देख रही है और वो राष्ट्रहित में उसे देने को तैयार भी हैं इसके बदले वो बस इतना चाहते हैं कि इस परियोजना में उनकी भागीदारी हो।
जोशीमठ पर बनने वाला यह प्रोजेक्ट तपोवन से शुरू होकर अणमठ पर खत्म हो रहा है। और क्षेत्रीय स्तर पर जोशीमठ को नगर पालिका जोशीमठ ही कहा जाता है। क्योंकि तपोवन, धाध और बड़ागांव एक ग्रामसभा है आज तक हमने यहां के लोगों को इसमें सहयोग करते नहीं देखा है। इसमें पूर्ण रूप से विस्थापित होने वाले अणमठ, पैनी और उसमें शिलंगांव के लोगों की भागीदारी नहीं है।
हमलोगों के व्यक्तिगत संबंध है। हम ये नहीं कह रहे हैं कि हम कम्पनी के साथ हैं या जनता के साथ हैं और हम ये भी जानते हैं कि यह देश की महत्वाकांक्षी योजना हैं। और जिस देश की रक्षा के लिए हम फौज में भर्ती होकर अपनी जान तक को गंवा देते हैं उस देश के तो हम कुछ भी कर सकते हैं।
एक और महत्वपूर्ण सवाल है अरूण भाई, क्योंकि आप एक क्षेत्रीय राजनैतिक दल से जुड़े हैं और जैसे कि हाल के वर्षों में दुनिया भर में देखा जा रहा है वही अब उत्तराखंड में भी देखने को मिल रहा है कि सरकारें और बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां लगातार प्राकृतिक संसाधनों जल, जंगल, जमीन पर कब्जा कर रही है फिर चाहे वो परियोजनाओं के नाम पर हो, चाहे रिजर्व क्षेत्र बनाने के नाम पर हो या पर्यावरण बचाने के नाम पर किसी भी इलाके के लिए बनाई गई परियोजना हो। तो आप इन पूरी परियोजनाओं को, पानी के निजीकरण को, पानी के अधिकार को कैसे देखते हैं?
वही मैं आपसे कह रहा था कि आज हमारी सरकार हमारा हक-हकूक और सुखाधिकार सब कुछ छीन रही है। और इस काम में न केवल सरकार बल्कि प्राइवेट कंपनियां भी पीछे नहीं हैं। आज हमारी 400 हेक्टेयर जमीन जयप्रकाश गौड़ नामक एक ही व्यक्ति के नाम पर है। और इसी प्रकार कल हमारी सब जमीन एन.टी.पी.सी. के हवाले हो जाएगी और उस जमीन पर हमारा कुछ हक नहीं होगा यहां तक कि हम उस जमीन पर जा भी नहीं सकते और इस प्रकार हम अपनी ही जमीन से बाहर हो जाएंगे।
वैसे तो सरकार का ये दृष्टिकोण सही है, कि बिना जमीन के तो कोई भी प्रोजेक्ट नहीं बन सकता फिर चाहे वो छोटा हो या बड़ा। अगर वो कोई छोटा प्रोजेक्ट बनाएंगे तो उन्हें कम से कम 20 प्रोजेक्ट बनाने पड़ेंगे और यदि वह बड़ा बनाएंगे तो एक ही बनाना पड़ेगा। बड़ा प्रोजेक्ट बनाने में हमें कम पैसे में ज्यादा उत्पादन मिलेगा, छोटा बनाएंगे तो 20 बनाने पड़ेगे, बड़ा बनाएंगे तो एक बनाना पड़ेगा।
बड़ा बनाने पर हमको कम पैसे में ज्यादा उत्पादन मिलेगा। लेकिन जैसा अभी आपने बताया कि सरकार, बहुराष्ट्रीय कम्पनी के साथ मिलकर एक साजिश रच रही है। हम तो इसे साजिश ही कहेंगे और ऐसा हो भी रहा है। हमारी जोशीमठ की जमीन कुछ तो आर्मी में गई, कुछ किरेट में गई, कुछ आई.टी.बी.पी. में गई, कुछ नेशनल हाईवे में गई और कुछ सरकारी कार्यालयों के लिए गई।
हमारे जोशीमठ सिंध के अंदर दिल्ली के किसान 62 नाले के होंगे। नहीं तो सारे लोग भूमिहीन हैं और जो थोड़ा-बहुत भूमि बची है उसपर भी कोई न कोई प्रोजेक्ट बन रहा है। इसके बावजूद भी हम इन परियोजनाओं के पक्ष में हैं क्योंकि जिस प्रकार हम अपनी कृषि भूमि में खेती करके या फिर कोई दुकान चलाकर अपनी रोजी-रोटी को चलाते हैं वैसे ही हम इन प्रोजेक्टों के साथ अपने रोजगार को भी देखना चाहते हैं और इनमें अपनी भागीदारी चाहते हैं। हम इसी भागीदारी के लिए अपना शेयर मांग रहे हैं क्योंकि इससे लगातार पैदावार होने की स्थिति में हमें भी लाभ मिल सकेगा। हम सिर्फ इतना ही नहीं चाहते कि हमें जमीन से आलू ही मिले और तब हमें उसे खाएं, हम चाहते हैं कि चाहे हमें जमीन से राजमा मिले या फिर चौलाई या फिर हम उसमें अपनी दुकान खोलकर अपना कोई रोजगार स्थापित करें, हमें तो बस अपने रोजगार का साधन चाहिए।
आज की लड़ाई जमीन बचाने की नहीं है। क्योंकि जमीन तो पूरे विश्व की ही एकीकृत हो रही है और कुछ मामलों में तो पूरा भारत ही नहीं पूरा संसार एक हो रहा है तो इस प्रकार आपने जो साजिश शब्द का इस्तेमाल किया है उसी के दूर के खतरे को भांपते हुए हमारे कुछ साथी इन परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं लेकिन ये दूर की बातें हैं, हमारा पेट तो ‘आज’ खाली है। हमारे पहाड़ के अंदर बेरोजगारी है, हमने पृथक राज्य लिया उसके बावजूद भी अपेक्षाएं पूरी नहीं हो पाई। अब हमें इन्हीं परियोजनाओं से थोड़ी बहुत उम्मीद है।
अरूण भाई, इसमें तो एक और महत्वपूर्ण सवाल है कि अगर हम उत्तरांचल पुनर्गठन विधेयक 2000 को देखते हैं और पढ़ते हैं तो उसमें साफ-साफ कहा गया है कि उत्तरांचल में बनने वाली सभी पावर परियोजनाओं पर पानी संबंधी जितनी भी योजनाएं बनेंगी उसमें गंगा नियंत्रण बोर्ड का अधिकार रहेगा। उत्तरांचल को केवल 12 प्रतिशत की बिजली मिलेगी जैसा कि, न.टी.पी.सी. भीे घोषित कर रही है कि हम आपको 12 प्रतिशत की मुफ्त बिजली देंगे। भाई, अब सवाल ये उठता है कि जमीन तो उत्तरांचल की गई, पानी उत्तरांचल का गया, परियोजना यहां बनी, उसके जितने पर्यावरणीय नुकसान हुए वो भी हमीं ने उठाए और हमको बिजली केवल 12 प्रतिशत मिलेगी बाकी 88 प्रतिशत बिजली उत्तर प्रदेश और केंद्र ले जाएगा? आप एक राजनैतिक रूप से इसको क्या मानते हैं?
हमारे लिए ये बहुत ही दुर्भाग्य की बात है कि जिस दिन ये बिल पास हो रहा था उस दिन बी.जे.पी. की पूरी सरकार वहां थी, हमारे कांग्रेस के तमाम सांसद वहां थे केवल दुर्भाग्य ये रहा कि उत्तराखंड क्रांति दल जो कि क्षेत्रीय दल है उन्होंने चुनाव का बहिष्कार किया था। हमारा एक भी प्रतिनिधि वहां नहीं था और जिसकी वजह से इसमें हमारी ओर से कुछ नहीं हो पाया। उसके बाद दो बार चुनाव हो चुके हैं, विधान सभा का भी चुनाव हो चुका है और संसद का भी चुनाव हो चुका है और इन चुनावों में भी उत्तराखंड क्रांति दल ने 22 संसदीय दलों की बात रखी है। जिस दिन 22 संसदीय दल न था ये पार्टियां मूक थी और आज भी मूक हैं।
आज उत्तराखंड क्रांति दल के पास जनशक्ति तो है, आंदोलनात्मक शक्ति तो है लेकिन जो सत्ता की शक्ति होती है वो हमारे पास नहीं है। आज भी हम बिक रहे हैं, किश्तों में बिके चाहे इकट्ठा बिके। आज भी हमारी परियोजनाएं जारी है। उत्तराखंड में एन.टी.पी.सी. की एक परियोजना में 1 करोड़ रुपया लग जाता है। उसी तरह जोशीमठ, तपोवन, अणुमठ में तो योजनाएं बन रही हैं लेकिन उनका उद्घाटन देहरादून में हो रहा है हमने कहा कि जहां आप उद्घाटन कर रहे हैं वहीं पर परियोजना भी चलाइए लेकिन भौतिक रूप से ऐसा संभव नहीं हो सकता। तो इसके लिए तो यहां की जनता को ही जवाब देना होगा।
इसमें एक और महत्वपूर्ण सवाल आपसे पूछ रहा हूं कि ये जो स्थानीय राजनैतिक दल हैं बी.जे.पी. हो, कांग्रेस हो या तमाम और तरह के जो वामदल हैं उनका इस पूरी परियोजना में क्या रूझान है?
बी.जे.पी. और कांग्रेस की मिलीभगत से ही तो ये परियोजनाएं बन रही हैं। अगर सत्ता हमारे हाथ में होती तो हम इन परियोजनाओं को अपने ढंग से देते। हमारा अपना ब्लूप्रिंट है। हम व्यक्तिगत स्तर पर जनता के लिए कई परियोजनाओं में काम कर रहे हैं। हम लाते तथा नीति में बिजली पैदा करके गांवों को बिजली दे रहे हैं तथा उससे ग्रांट भी चलाए जा रहे हैं।
वहां किसने बनाए हैं ये?
ये अक्षय ऊर्जा स्रोत (उरेडा) द्वारा बनाए गए हैं और जो ये गोविंद घाट में बनी हुई योजना है और तपोवन में जो हमारा प्रोजेक्ट बना है, पुराने पावरहाऊस बने हुए हैं, वो पावरहाऊस उत्तर प्रदेश विद्युत विभाग ने तब बनाए थे जब जल निगम की स्थापना नहीं हुई थी और ये अच्छी तरह काम कर रहे थे। लेकिन उन परियोजनओं को एक छोटी सी तकनीकी समस्या के कारण बंद कर दिया गया जबकि वो समस्या इतनी छोटी थी कि अगर आज किसी छोटे से बनिया को दो-चार लाख रुपए देकर वो परियोजना दे दी जाए तो वो भी उसे चालू कर देगा लेकिन सरकार ने वो योजना बंद करवा दी।
हमारी सरकार की तरह हमारे सरकारी कर्मचारियों की भी हालत ठीक नहीं है, एक बार में खुद सिंचाई सचिव से मिलने गया मैंने, उन्हें बताया कि हमारे यहां की इतनी परियोजनाएं बंद हैं उन्होंने उसी समय फोन किया, फोन करने के बाद मेरे को कहते हैं नहीं ऐसी बात नहीं है, आपको गलत जानकारी है, मैंने कहा कि मैं उस क्षेत्र का रहना वाला व्यक्ति हूं। मुझे मालूम है कि समस्या कहां आ रही थी। जनरेटर न होने की वजह से हम लोग उसको जेनरेट ही नहीं कर पा रहे हैं तो उसके बाद जो आम बिजली पैदा होनी है वो भी नहीं हो पा रही है।
लेकिन उन्होंने भी हमारी बात को गंभीरता से नहीं लिया अपने अधिकारियों पर भरोसा किया। केशव देसी राजवीर के बारे में ये माना जाता है कि ये लाल बहादुर शास्त्री के प्रभाव से संबंधित हैं और बहुत ईमानदार आदमी हैं आज वो केन्द्र में बैठे हैं। हम यह सोचकर उनके पास गए कि शायद वो हमारी मदद कर देंगे, उन्होंने हमें आश्वस्त किया था कि वे हमारे क्षेत्र में आएंगे। आज तक हमारे क्षेत्र में कोई ऊर्जा सचिव नहीं आए।
सरकारी तौर पर कोई ऊर्जा मंत्री नहीं आए यहां तक कि अमृता रावत जी भी यहां नहीं आई। और उदघाटन करने का आलम तो ये हैं कि उत्तराखंड की परियोजनाओं का उद्घाटन देहरादून में होता है और दिल्ली के नजदीक की किसी परियोजना का उद्घाटन दिल्ली में होता है और मुझे लगता है कि दिल्ली की किसी योजना का उद्घाटन शायद वाशिंगटन में किया जाएगा क्योंकि ये लोग अंतरराष्ट्रीय दबावों तथा विश्व बैंक के दबावों में काम कर रहे हैं। इन परियोजनाओं के बारे में एन.टी.पी.सी. आम जनता को बहुत सब्जबाग दिखा रही है वे कह रहे हैं कि हम सरकारों से नाराज हैं, हमें न रोजगार मिला न उसकी कोई गारंटी ही मिली।
अब एन.टी.पी.सी. ऐसा दिखा रही है कि हम आपकी जमीन का उचित मुआवजा दे रहे हैं। हमें मालूम है कि जिस जमीन में कोई पैदावार नहीं होनी है, जिसमें रेडिसन होना है, जिसमें बारूद होना है जहां सुरंगे बनेंगी वहां बारूदी मलवा तो निकलेगा हीे उससे हमारा पर्यावरण प्रभावित होगा हमारी पैदावार कम होगी ही इसका जीता-जागता उदाहरण चाईंगांव, लाम्बगढ़ है।
जहां पैदावार कम हुई है और होती जा रही है। लेकिन अन्य स्रोत होने की वजह से हम लोग उसकी तरफ ज्यादा ध्यान ही नहीं देते, इतनी योजनाएं चलने के बाद हमारी खेती की ओर कोई ध्यान देता ही नहीं है।
आज केवल उद्योगीकरण पर ही ध्यान दिया जा रहा है। हमारे विष्णु प्रयाग से लगे हुए हाथी पहाड़ में लगभग 550 एकड़ भूमि पर पर पेड़ लगाए गए थे । 2000 पेड़ वन विभाग तथा उद्याग विभाग के सहयोग से भी लगाए गए उनमें से आज केवल मात्र 4 पेड़ खड़े हैं बाकी पेड़ों का कहीं अता-पता नहीं है। जिसके विरोध में एक व्यक्ति विशेष ने केस भी दर्ज किया था उसके लिए उसे अपना काफी पैसा तथा समय भी लगाना पड़ा लेकिन वो मामला वैसे का वैसा ही पड़ा हुआ है। तो ऐसा नहीं है कि हमारे यहां का आदमी सचेत नहीं है, सचेत तो है लेकिन हम लोग कुछ कर नहीं पा रहे हैं।
इस प्रकार आज सरकारों के साथ-साथ कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक साजिश के तहत केवल अपने लाभ की ही बात कर रही हैं।
अरूण भाई, जोशीमठ संघर्ष समिति की ओर से हुए प्रदर्शनों में आम आदमी की कितनी भागीदारी रही है?
लोगों की भागीदारी औसत रही। उसमें भी कुछ लोगों को बात स्पष्ट रूप से समझ नहीं आई है। हम भी उनके साथ हैं लेकिन हम उनकी एक बात से विश्वास नहीं रखते वो है उनकी ओर से परियोजना का विरोध।
हम चाहते हैं परियोजना बने, राष्ट्र हित में काम हो लेकिन जनता को भी उसका लाभ मिलना चाहिए। जनता के साथ भी उसका लाभ हो, उसका शेयर जनता को मिले और अगर ये शेयर नहीं देंगे तो इससे आंदोलन को अपने-आप की बल मिलेगा।
और इनका कहना है कि परियोजना ही नहीं बननी चाहिए?
इनका कहना है कि परियोजना नहीं बननी चाहिए, अगर परियोजना से हमको लाभ नहीं है, प्रत्यक्ष लाभ अगर आम जन को नहीं होगा तो परियोजना बनने का तो औचित्य ही नहीं है।
एक और अंतिम सवाल आप वर्षों से जिस राजनैतिक दल से जुड़े हुए हैं वह उत्तराखंड क्रांति दल अपने आपको क्षेत्रीय दल कहता है, इस प्रदेश को लेकर उत्तराखंड क्रांति दल के सपने में प्राकृतिक संसाधनों के बारे में आपकी क्या राय है?
प्राकृतिक संसाधनों के बारे में हमारी स्पष्ट राय ये है कि हम अपने सभी नदी-नालों से बिजली पैदा करेंगे और उसके लिए हम ग्रामसभा, जिला पंचायत तथा नगर पालिका से इस तरह से टैक्स वसूल करके संसाधन जुटाते हैं कि हम सीधे-सीधे उनको आय के स्रोत देकर उनके माध्यम से उन्हें रोजगार उपलब्ध करवाना चाहते हैं।
आज सरकार ग्राम पंचायतों को हजारों-करोड़ों रुपए का अनुदान देती है ताकि वो अपने स्तर पर रोजगार उपलब्ध करा सके। लेकिन ऐसा तभी संभव है जब हम उन्हें प्रोजेक्ट दें और कांग्रेस और बी.जे.पी. के राज में तो ऐसा होना ही नहीं है। इसके लिए उत्तराखंड क्रांति दल का ब्लूप्रिंट पहले से ही बना हुआ है, जब लोग पूछते थे कि उत्तराखंड बनने के बाद आप क्या खाएंगे? तो हम जवाब देते थे कि कुवैत में आम पैदा नहीं होता है लेकिन फिर भी वहां के लोग अपने पैसे के बल पर अपने तेल के बल पर 400 रुपये किलो का आम खा रहा है। इसी तरह हम भी अपनी बिजली के बल पर विदेशों का भी राशन खा सकते हैं। पैसा, डालर चलाता है पैसा चलाने के लिए पैसा होना चाहिए बस।
आज आम आदमी को अपना आर्थिक जीवन जीने के लिए पैसा चाहिए। हमारे यहां पर कई ऐसे-ऐसे गांव भी हैं जहां पर एक भी आदमी के पास रोजगार नहीं हैं। हमारे यहां न तो कोई फ़ैक्टरी है और न ही वहां प्रदूषण फैलाने वाले संयत्र हैं।
नहीं, क्या आप ऐसा मान रहे हैं कि ये जो प्राइवेट परियोजनाएं बन रही हैं वे उसी दिशा में जा रही हैं जिस दिशा में आप और आपका ब्लू प्रिंट सोचता है?
नहीं, ये परियोजना उससे विपरीत चल रही है और इसके लिए हम जनता के बीच में जा रहे हैं, जनता से बात कर रहे हैं और जनता हमारी बात से इत्तेफ़ाक रखती है और बहुत जल्दी इसके लिए उत्तराखंड क्रांति दल अपने आंदोलन को रूप देगा और सरकार से आर-पार की बात करेगा कि हमें यदि हमारी जमीन लीज पर ली जाएंगी तो हमें परियोजनाओं में शेयर मिलेगा और उसके लिए भी हमारे स्पष्ट प्रावधान है जिसके लिए हम धारा 377, 371 लगाने की बात करते हैं उसका मतलब यही है कि जमीन हमारी है तो राज आपका कैसे होगा? हम चाहते हैं कि हमारी जमीन पर हमारा ही शेयर हो।
भले ही मशीनें आपकी हैं लेकिन पानी तो भगवान ने हमें तोहफे में दिया है और अगर आपकी मशीनें हमारे पानी से अपना काम निकालेंगी तो उसमें हमारा भी तो हिस्सा होना चाहिए। अगर उत्तराखंड की जमीन पर एक होटल भी बनें तो भी उत्तराखंड क्रांति दल उसमें उत्तराखंड का हिस्सा चाहता है। मेरे पास इस बात के उदाहरण मौजूद हैं जिनसे स्पष्ट हो रहा है कि वर्तमान सरकार इस कोशिश में लगी है कि यहां की जमीन बिकती रहे और कुछ सालों में टिहरी की तरह बाकी उत्तराखंड के लोग भी दर-दर की ठोकरें खाएं।
अच्छा ये जो एन.टी.पी.सी. का स्थानीय कार्यालय है ये सभी तरह की सूचनाएं उपलब्ध कराता है या नहीं?
नहीं, ये कुछ नहीं कराता है, हम लोग तो मैन-टू-मैन वाली तथा गांव-गांव की पद्धति से काम करने वाले लोग हैं लेकिन यहां काम करने वाले लोग भ्रष्टाचार का एक नया दौर लाने वाले हैं। इनके काम करने की प्रवृति तथा उनकी नियुक्तियों की प्रक्रिया के बारे में स्वयं इसके सदस्य एवं हमारे विधायक भी कुछ नहीं बता सकते हैं। गांव के अंदर रास्ता बनाने के नाम पर इन्होंने हमारी ग्रामसभाओं के रास्ते की मरम्मत करवाने में करोड़ों रुपया आइ थिंक के नाम से खा रहे हैं जैसे बड़ा गांव के नीचे स्थित चैरवी गांव में मलबा फेंकने के लिए सुरंग का दरवाजा बनाना है और इस मलवे को उन्होंने नदी के किनारे-किनारे फेंका।
अगर हमने उनका विरोध किया तो वो उसकी प्रोटेक्ट दीवार बनाएंगी नहीं तो वे सीधे ही उसे नदी में बहा देंगे। इस प्रकार उन्होंने नीचे जाने के लिए रास्ता बनाने की योजना बनाई। इस बारे में मैंने, गांव वालों से बातचीत की तो उन्होंने कहा कि हमने यहां आकर कई दिन तक काम किया लेकिन हमें अभी तक मजदूरी नहीं मिली है। उनकी इस शिकायत के आधार पर हमने साइड इंचार्ज से बात की उन्होंने बताया कि, नहीं-नहीं साहब ऐसी कोई बात नहीं है, हमने उन्हें भुगतान कर दिया है।
जब मैं दोबारा गांव में पहुंचा तो तब तक भुगतान हो चुका था। मतलब एक आदमी की दो दिन की ध्याड़ी 1200 रुपए मिली। इस प्रकार इससे स्पष्ट हो जाता है कि वे लोग कितनी बड़ी साजिश कर रहे हैं जब तक किसी बात पर हो-हल्ला नहीं हो तब तक वे वहां की सारी जनता के हकों को लूट लेना चाहते हैं। इस प्रकार एन.टी.पी.सी. तो भ्रष्टाचार का एक नया युग यहां पर लाने वाली है। क्योंकि इन बड़ी कंपनियों के खिलाफ हम कुछ नहीं कर सकते हैं क्योंकि इन कंपनियों का साथ देने के लिए उत्तराखंड में एन.टीपी. सी. के साथ-साथ बी.जे.पी. और कांग्रेस भी इनका साथ दे रही है।
आप अपना थोड़ा सा परिचय देते हुए अपनी राजनीतिक भूमिका के बारे में बताएं?
मैं छात्र जीवन से ही राजनीति से जुड़ा हुआ हूँ। मैं उत्तराखंड क्रांति दल की स्टूडेंट शाखा से चुनाव लड़ा और विजयी रहा। 1984 में मैं, चमोली जिले में सी.पी.आई. का ए.आई.एफ. प्रभारी था। 1991 तक आते-आते हम उत्तराखंड क्रांति दल में पूर्ण रूप से शमिल हो गए।
उसके बाद मैं, आंदोलनों में शिरकत करता रहा। मैंने इलाहाबाद जाकर उत्तराखंड छात्र सोसायटी बनाई जिसमें, हमने वहां पढ़ने वाले 600 बच्चों को अपने साथ मिलाया। 1994 के दौरान मेरे मित्रों ने मुझे बताया कि, स्व. बडोनी और पान सिंह जी जैसे बड़े-बड़े आंदोलनकारी पौड़ी में धरने पर बैठ हुए हैं और हमें वहां आंदोलन करवाना है। मैं उस समय सीधे पौड़ी में बडोनी जी के पास गया और उनके साथ काम किया। तब से लगातार हम आंदोलन में रहे हैं। उसके बाद हमने पृथक राज्य के लिए आंदोलन किया और आज उत्तराखंड भी बना दिया।
आज भले ही उत्तराखंड की स्थिति ऐसी न हो जैसी हम चाहते थे लेकिन वर्तमान में जो भी योजनाएं चल रही है उनसे उत्तराखंड की स्थिति में जरूर सुधार होगा हां, ये जरूर है कि उत्तराखंड में कुछ ऐसे स्थान हैं जहां इन योजनाओं को अमल में लाना थोड़ा कठिन है विशेषकर इस पहाड़ में तो अधिकतर स्थानों पर जंगल ही जंगल हैं जहां कोई फैक्ट्री लगाना कठिन है लेकिन यहां से बिजली पैदा की जा सकती हैं और जड़ी-बूटियां प्राप्त की जा सकती हैं।
जंगल काटना और जड़ी-बूटियां पैदा करना फ़ैक्टरी से लगाने से अलग बात है तो, उसी प्रवृत्ति में यहां दो बहुत बड़ी योजनाएं चल रही है। वैसे हमारे पास छोटी योजनाएं भी हैं उनमें नाका की एक योजना भी शामिल है।
वो योजना बन गई है क्या?
जी, बन गई है वह जुम्मा में है और अभी निर्माणाधीन है सरकारी होने के कारण उसमें कई खामियां का सामना करना पड़ रहा है लेकिन काम लगभग पूरा हो चुका है। इसके अलावा यह योजना हमारे ब्लाक के बद्रीनाथ, तपोवन और गोविन्दघाट के लिए भी बनी है जो लगभग पूर्ण रूप से बन चुकी है। इसमें उत्पादन होने के बाद उत्पादन बंद भी हो गया और एक अन्य योजना उरकम में भी बनी है उसमें भी उत्पादन शुरू हुआ लेकिन एक छोटी सी तकनीकी समस्या आने के कारण वो बंद हो गया है।
इन सबको देखकर लगता है कि हमें बिजली की कमी की समस्या का सामना नहीं करना पड़ेगा। वर्तमान समय में भी यहां रोस्टिंग होती है और छः पावर प्रोजेक्ट चल रहे हैं। ये सभी प्रोजेक्ट छोटे हैं तथा सरकारी हैं जिससे थोड़ी समस्याओं का सामना तो करना ही पड़ता है, मुझे लगता है कि यदि इनमें से कुछ प्राइवेट प्रोजेक्ट होते तो वो और भी अधिक अच्छी तरह से चलते क्योंकि सरकार की लाल फीताशाही के कारण उन्होंने छोटी-छोटी बातों पर ही सारा काम रोक दिया।
तो ये छः के छः अभी बंद पड़ी हैं?
जी! इसमें से कोई चालू हालत में नहीं है। शायद बैजनाथ वाले में कुछ उत्पादन शुरू हुआ हो। वैसे तो 18 तारीख तक वहां बिजली का कुछ भी उत्पादन नहीं हुआ था। वहां कुछ अच्छे कार्यकर्ता लोग काम करने गए हैं, इसके अलावा कुछ अन्य लोग भी उत्तराखंड में काम करना चाहते हैं लेकिन कभी-कभी उन्हें भी फंसा दिया जाता है तो कभी परियोजना ही बंद कर दी। अब उसी प्रवृत्ति में यहां पर जयप्रकाश कम्पनी के द्वारा 400 किलो वाट का विष्णुप्रयाग प्रोजेक्ट बनाया गया और इससे 4000 मेगावाट कीे बिजली पैदा हो रही है।
किसी नई परियोजना के आने से स्थानीय लोग प्रभावित होते हैं। उनसे उनकी जमीनें, उनके चरागाह तथा यहां तक कि उनके शमशान घाट तक छीन लिए जाते हैं। इसके अलावा वहां निर्माण कार्यों से निकला बारूद का मलबा हमारी नदियों के किनारे डाला जाता है जिससे पूरी नदी ही प्रदूषित हो जाती है। जबकि वहां प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा गंगा बचाओ बोर्ड नाम से सरकार ने कई-कई बोर्ड बनाए हुए हैं लेकिन आज भी गंगा जी के किनारे बहुत अधिक गर्मी देने वाले बारूद के पत्थर लगाए गए हैं जिनमें से आज भी बदबूदार मलवा गिरता रहता है। इन्होंने चाई गांव का पूरा शमशान घाट ही खत्म कर दिया।
इसके विरोध में हमने कई संघर्ष तथा आंदोलन किए लेकिन इसका कोई भी सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा। यहां तक कि इन लोगों ने हमें मजदूरी तक नहीं दी और न ही यहां के जन प्रतिनिधियों या राजनैतिक दलों ही से बात की।
इस सब के बीच उत्तराखंड क्रांति दल ही एक ऐसा दल था जिसने हमें दिशा-निर्देश दिए इसमें हरीश जी, देवेन्द्र त्रिपाठी जी जैसे लोगों ने यहां भम्रण किया और यहां की वस्तुस्थिति देखते हुए हमें दिशा-निर्देश दिए। जिनके आधार पर हमने आंदोलन किया और तभी हमारी आर्थिक स्थिति कुछ मजबूत हुई लेकिन ये भी तभी संभव हुआ है जब हमें थोड़ी मजदूरी मिलनी शुरू हुई, लेकिन आज वो मजदूरी भी खत्म होने वाली है।
उसी के परिप्रेक्ष्य में अब एन.टी.पी.सी. द्वारा तपोवन विष्णुगाड योजना बनाई जा रही है। इस योजना के कारण भी कुछ गांवों को विस्थापितों का दुख झेलना पड़ेगा। सेलंग नाम के एक गांव को तो पूरी तरह ही विस्थापित किया जाएगा। और लोगों के बीच में सरकार, कम्पनी तथा हमारे वर्तमान नेताओं और विधायकों द्वारा यह कहा जा रहा है कि आपको, आपकी जमीन की मनमानी कीमत मिलेगी इस प्रकार अभी उन्होंने कोई राशि तय नहीं की है। जबकि वास्तव में यहां दो साल से जमीन का काम चल रहा है और अभी तक जमीन के मूल्य तय नहीं किए गए हैं।
इसके अलावा उन्होंने कहा कि जमीन के मालिकों को रोजगार भी दिया जाएगा। जबकि वहां न केवल जमीनों के मालिक बल्कि गैर भूमिहीन किसानों का भी रोजगार छिन गया क्योंकि वे लोग अन्य लोगों के खेतों में मजदूरी तथा ऐसे ही अन्य कार्यों द्वारा अपनी रोजी-रोटी चलाते थे और इस तरह के कानून से वे लोग तो पूरी तरह से बेरोजगार हो गए है। अभी तक इस योजना में इस प्रकार के लोगों के लिए भी कोई वार्ता नहीं हुई है।
जोशीमठ में इस परियोजना का प्रत्यक्ष रूप से विरोध करने के लिए जोशीमठ बचाओं संघर्ष समिति नाम से हमारे कुछ गौण साथियों ने आंदोलन चलाया। लेकिन उसका कुछ असर दिखाई नहीं दिया। हम इस परियोजना के विरोध में नहीं हैं बल्कि हम इस परियोजना के क्रियाकलापों को अपने हित में प्रयोग करने की मांग कर रहे हैं फिर चाहे हमें इसके लिए संघर्ष भी क्यों न करना पड़े हम इसके लिए तैयार हैं।
हम परियोजना का साथ देने के लिए सरकार से कुछ चाहते हैं। हम चाहते हैं कि वो सबसे पहले तो जमीन के मूल्य सही तय करे। इससे अच्छा तो यह है कि जिस जमीन पर आपको निर्माण करना है उस जमीन के बदले वह हमें उसकी कीमत दे, दे और जिस जमीन को अपने निर्माण कार्य के बाद प्रयोग नहीं करना है उसे हमसे लीज पर ले लो, लीज में जहां सरकार को एक साथ पेमेंट भी नहीं करना पड़ेगा और वहीं हम लोगों को जमीन खोने का दर्द भी नहीं सहना पड़ेगा। लेकिन इस विषय पर भी उनसे कोई सार्थक वार्ता नहीं हो पाई है। क्योंकि ये 400 हेक्टेयर जमीन की मांग कर रहे हैं और हमारे इस पूरे क्षेत्र में 2000 हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में खेती नहीं होती है। इस जोशीमठ ब्लाॅक जो कि समाज ब्लाॅक है।
2000 हेक्टेयर से अधिक नाप की भूमि पर खेती नहीं होती। हमने अपने चरागाहों के लिए कुछ भूमि खाली छोड़ी है और कुछ गैर भूमिहीन लोगों ने कब्जा जमाया है। और मैं समझता हूं कि यहां के बाद किसी भी जमीन पर निमित्रीकरण भी नहीं हुआ। लीज दी भी गई है तो संस्थाओं को दी गई हैं तथा कंपनियों को दी गई हैं। किसी व्यक्ति या गांव के आम आदमी को लीज नहीं दी गई है। अब इस समय एन.टी.पी.सी. परियोजना के खिलाफ विरोध हो रहा है क्योंकि वह न केवल राज्य की बल्कि पूरे राष्ट्र की महत्वाकांक्षी परियोजना है।
इस परियोजना के संबंध में अभी तक किसी भी आम आदमी से बात नहीं की गई है।
किन्होंने?
एन.टी.पी.सी. ने।
अच्छा एन.टी.पी.सी. ने
वे जो भी बात करते हैं उसमें कुछ चंद लोगों को ही बुलाया जाता है।
ये कौन लोग हैं?
जैसे कि वो इसमें प्रधानों तथा विधायकों को बुलाते हैं। और उन्हीं की मर्जी के अनुसार सब काम किए जा रहे हैं। जिसके परिणामस्वरूप आम आदमी संशय में पड़ा है कि हमारा क्या होगा? हम आम जनता के बीच उत्तराखंड क्रांति दल के माध्यम से आंदोलन करने की बात कर रहे हैं। इसके माध्यम से हम यह चाहते हैं कि हमारी बेकार पड़ी जमीन परियोजना के काम आ जाए।
अगर कहीं आपको गाड़ी खड़ी करनी है, कोई मेटल उतार कर रखना है या लेबर रखनी है तो हम इन कामों के लिए भी अपनी जमीन देने के लिए तैयार हैं लेकिन हम उस जमीन को लीज के हिसाब से ही देंगे। और दूसरा योजना के पूरा होने पर उसमें हम लोगों को भी अपना हिस्सा मिले। उसमें इस बात का उल्लेख किया जाना चाहिए कि कौन आदमी कितना प्रभावित हुआ है और उसके हिसाब से उसका कितना हिस्सा मिलना चाहिए।
हम इस परियोजना में अप्रत्यक्ष रूप से अपनी भागीदारी चाहते और अगर हमारा गांव विस्थापित हो रहा है तो वह सही तरीके से अर्थात टिहरी में चलाए जा रहे आर.आर. के आधार पर विस्थापित न किया जाना चाहिए। क्योंकि टिहरी के लोग आज भी विस्थापन का दर्द झेल रहे हैं।
वहां आज भी कई लोगों को सड़कों पर रहना पड़ रहा है। इसलिए हम शेयर वाली बात कर रहे हैं। और हमें यह शेयर उत्पादन शुरू होते ही मिलना चाहिए। क्योंकि ये चलते पानी की योजना है इसमें कुछ नहीं लगना है, क्योंकि एक बार योजना बन जाने के बाद अच्छा पानी ही आ रहा है और उसी पानी से हमारी बिजली पैदा हो रही है।
इसमें सरकार तथा किसी कम्पनी को कुछ नुकसान नहीं होगा बल्कि हम लोगों के हकाकुक तथा सुखाधिकारों की ही बलि चढ़ेगी। जिस नदी से हमको पानी मिलता था वो नदी भी अब सूखकर गदेरे बन जाएंगे। नदी के उद्गम स्थल से गदेरे निकलेंगे और हमारा सारा मुख्य पानी डंगलों द्वारा किलोमीटर के हिसाब से कहां से कहां पहुंच जाएगा। बीच में हमारी नदियां सूख जाएंगी। प्रथम प्रयाग अर्थात विष्णु प्रयाग का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा।
धौली गंगा तथा अलकनंदा में भी प्रोजेक्ट बन रहा है जिससे दोनों छोर से पानी अलग ले जाया जाएगा तो उस गंगा में पानी ही नहीं बचेगा। उसमें बचा हुआ पानी गदेरे के जैसा होगा। जैसे गांगरी से आने वाला पानी, जिसमें गोविन्द घाट पर पहले से ही एक छोटा प्रोजेक्ट चल रहा है इससे हमारी नदी को कुछ नुकसान नहीं होगा क्योंकि वो पानी वापिस नदी में आ जा रहा है लेकिन लाम्बगढ़ के पास से आने वाला सारा पानी बंद हो जाएगा, बराज बनने के कारण लाम्बगढ़ के पहले वाला सारा पानी बंद हो जाएगा।
वैसे ही तपोवन, धौली गंगा तक तो पानी आएगा। तपोवन से बराज बनने के बाद वो पानी सीधे अनमठ उतरेगा जिसकी बायरोड किलोमीटर के अनुसार 27-28 किलोमीटर होगी। इस बीच हमारी वो नदी पूरी सूख जाएगी। इसके रास्ते में विष्णु प्रयाग नामक धार्मिक स्थल तथा शमशान घाट पड़ता है, और इसके बनने से वो क्षेत्र भी प्रभावित होगा।
यहां से ऋषिकेश तक, तथा हमारी अलकनंदा पर 22 योजनाएं चल रही हैं उन्हें देखते हुए लगता है कि आने वाले दिनों में अगर वहां किसी आदमी की मृत्यु हो जाए तो उसको फूंकने के बाद उसकी राख को पानी में बहाने के लिए हमें हरिद्वार जाना पड़ेगा।
आपने शेयर वाली बात कही जिसपर एक महत्वपूर्ण सवाल उठ सकता है। हम देख रहे हैं कि उत्तराखंड में जहां भी सरकार लगातार पावर परियोजनाओं को बना रही है और उसके लिए ठेके कर रही है वहीं उनके खिलाफ आवाज भी उठ रही है तो इन परिस्थितियों में आपके मन में क्या चलता है, क्या ये योजनाएं बननी चाहिए, नहीं बननी चाहिए, बननी चाहिए तो कैसे बननी चाहिए, इस पर आप क्या सोचते हैं?
क्योंकि आज पूरे देश में ही नहीं विश्व में भी जिसके पास ताकत है, वह ताकत के बल पर राज करना चाहता है फिर वह चाहे वो तेल की या गैस की ही ताकत हो। हमारे पास बिजली है और हम बिजली का उत्पादन कर सकते हैं। तो हम इसके दम पर पूरे विश्व में छा जाना चाहते हैं। हम ऐसी योजनाओं का विरोध नहीं करते हैं, हम चाहते हैं कि इसमें उन्नत तकनीक से काम हो।
विदेशियों ने जिस तकनीक को छोड़ दिया है हम वही तकनीक अपनाते जा रहे हैं। जैसे कि अभी हाल ही में हमने एन.टी.पी.सी. वालों से बैठक की उनके अनुसार हम बोरिंग मशीन लाएंगे, जो काफी मंहगी तो हैं लेकिन उन्होंने हमें आश्वस्त किया है कि यह क्षेत्र भूकंप की संभावना वाला होने के कारण ये मशीनें पर्यावरण के दृष्टिकोण से यहां उपयुक्त होंगी।
अब रही जनता की बात तो जनता के साथ कोई दिक्कत नहीं आएगी क्योंकि हमारे यहां पर रोजगार की कमी है, मेरा एक खेत चले जाने से अगर 10 आदमियों को रोजगार मिलता है तो हम उसका विरोध नहीं करते।
क्या आप ये मानते हैं कि विष्णुगाड परियोजना बनने के बाद स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा?
इस तरह का संशय मिटाने के लिए इस सब चीजों को पहले ही तय करना आवश्यक होगा, वरना इसका विरोध होता ही रहेगा। इस संशय का निवारण किए बिना, बने हुए प्रोजेक्ट उठ भी जाएंगे।
एक क्षेत्रीय दल का प्रतिनिधि होने, कार्यकर्ता होने के नाते मैं, आपको बता रहा हूं कि ऐसी स्थिति पैदा होगी क्योंकि मैं बहुत बारीकी से आंदोलन से जुड़ा हूं, छात्र नेता रहा हूं और हम लोगों ने बडोनी जी के नेतृत्व में कभी भी अपने आक्रोश को अपने विरूद्ध नहीं जाने दिया है क्योंकि, मैं इस बारे में पूरे विश्वास के साथ नहीं कह सकता कि विरोध होगा कि नहीं लेकिन आने वाले समय की गारंटी नहीं दी जा सकती। क्योंकि जहां आबादी बढ़ने के साथ-साथ जमीन कम होती जा रही और बेरोजगारी बढ़ती जा रही है तो ऐसी परिस्थितियों में प्रोजेक्ट तो बन रहे हैं लेकिन ये उड़ाये भी जा सकते हैं।
ये जो जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति है इसका आंदोलन किस आधार पर खड़ा है, ये क्या कहते हैं? मुख्य रूप से इनकी मांगे क्या है?
ये चाहते हैं कि प्राजेक्ट न बने।
क्यों?
उनका ये कहना है कि प्रोजेक्ट बनने से जोशीमठ में पानी की कमी हो जाएगी और हमारा मानना है कि अगर हमारे साथ सब कुछ ठीक-ठाक चलता है और जनता को ध्यान में रखते हुए प्रोजेक्ट बनाया जाता है तो भगवान की कृपा से पानी की कमी तो नहीं होगी और यदि हुई भी तो नदी से पानी लिफ्ट करवा सकते हैं। नदी तो हमारे ही पास है।
विष्णु गार्ड में ऊपर से धौली गंगा का पानी आता है क्या?
जी नहीं, यहां आने वाला पानी प्राकृतिक पानी है, क्योंकि जोशीमठ एक ढलान पर है और हम, सबसे नीचे हैं, हमारे ऊपर बुगियाल है और उन बुगियालों के अंदर ऐसे-ऐसे बुगियाल हैं जहां ऐसे बर्फ के भंडार हैं जो कभी पिघलते ही नहीं है जिसे हमारी लोकल भाषा में ‘योभल्डा’ कहा जाता है। और ऊपर गोड़सो में हमारे पास एक तालाब है जिसे गोड़सोकुंड, छतरकुंड बोलते हैं, जहां इधर-उधर पत्थर लुढ़कते हुए दिखाई देते हैं जिनसे लगता कि है कि वहां कभी ज्वालामुखी रहा होगा, वो आज भी क्रिएटर बना हुआ है और उसमें भी लगातार पानी रहता है।
बारह महीने?
जी बारह महीने। उसके इर्द-गिर्द बर्फ के भंडार हैं जहां बर्फ नहीं पिघलता और न वहाँ धूप रहती है इसलिए मुझे नहीं लगता कि जोशीमठ में पानी की कमी होगी।
और ये जो इसका दूसरा तर्क दिया जा रहा है कि जोशीमठ के नीचे से इस टनल के बनने के बाद पूरे जोशीमठ को खतरा हो जाएगा, इसके बारे में आपका क्या विचार है?
क्योंकि कोई भी आदमी जब अपना मकान बनाता है तो वह यह नहीं चाहता है कि कल को, पैसा लगाने के बाद वो मकान टूट जाए। वह अगर कोई भी मकान या झोपड़ा भी बनाता है या खेत की पगार भी देता है तो वो ये नहीं सोचता है कि अगली बरसात में टूट जाए। उसका ये उद्देश्य रहता है कि ये मजबूत रहे और बाकी प्रकृति के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
उन्नत तकनीकें होने के बाद भी सूनामी की लहरों के आने के बारे में कुछ पता नहीं चला। विदेशों की अपेक्षा हमारे देश में उतनी अधिक उन्नत तकनीकें तो नहीं हैं लेकिन फिर भी विदेशों में भी जान-माल की हानि होती रही है। हम तो भगवान को ज्यादा मानते हैं, तो भगवान की कृपा से हमारे यहां इतने भुकम्प आए और गए पर हमारे यहां चार आदमी से ज्यादा मौत नहीं हुई। नुकसान हुआ है गांव के गांव टूट गए, उजड़ गए, लेकिन जहां तक मृत्यु की बात है वो नहीं होती है।
इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण विष्णुप्रयाग परियोजना है इसके लिए चाई गांव से पानी आता है जो कि प्राकृतिक पानी है, पहाड़ का पानी है और आज भी चाई गांव सुसज्जित है उसके नीचे पूरा अंडरग्राउंड प्रोजेक्ट बन गया है, अंडरग्राउंड पूरा खुद गया लेकिन गांव के अंदर पानी की ऐसी समस्या नहीं आ रही है, पानी कहीं रिस नहीं रहा है।
इससे प्रभावित होने वाली जनता द्वारा आंदोलन को कितना समर्थन मिल रहा है?
मैं इस बात को नहीं मानता कि प्रभावित क्षेत्र की जनता आंदोलन में शामिल है। मैं तो यही मानता हूं कि जनता हमारे साथ है, वह अपने भविष्य को, अपने जमीन को और अपने हक-हकूक को जाते हुए देख रही है और वो राष्ट्रहित में उसे देने को तैयार भी हैं इसके बदले वो बस इतना चाहते हैं कि इस परियोजना में उनकी भागीदारी हो।
जोशीमठ पर बनने वाला यह प्रोजेक्ट तपोवन से शुरू होकर अणमठ पर खत्म हो रहा है। और क्षेत्रीय स्तर पर जोशीमठ को नगर पालिका जोशीमठ ही कहा जाता है। क्योंकि तपोवन, धाध और बड़ागांव एक ग्रामसभा है आज तक हमने यहां के लोगों को इसमें सहयोग करते नहीं देखा है। इसमें पूर्ण रूप से विस्थापित होने वाले अणमठ, पैनी और उसमें शिलंगांव के लोगों की भागीदारी नहीं है।
हमलोगों के व्यक्तिगत संबंध है। हम ये नहीं कह रहे हैं कि हम कम्पनी के साथ हैं या जनता के साथ हैं और हम ये भी जानते हैं कि यह देश की महत्वाकांक्षी योजना हैं। और जिस देश की रक्षा के लिए हम फौज में भर्ती होकर अपनी जान तक को गंवा देते हैं उस देश के तो हम कुछ भी कर सकते हैं।
एक और महत्वपूर्ण सवाल है अरूण भाई, क्योंकि आप एक क्षेत्रीय राजनैतिक दल से जुड़े हैं और जैसे कि हाल के वर्षों में दुनिया भर में देखा जा रहा है वही अब उत्तराखंड में भी देखने को मिल रहा है कि सरकारें और बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां लगातार प्राकृतिक संसाधनों जल, जंगल, जमीन पर कब्जा कर रही है फिर चाहे वो परियोजनाओं के नाम पर हो, चाहे रिजर्व क्षेत्र बनाने के नाम पर हो या पर्यावरण बचाने के नाम पर किसी भी इलाके के लिए बनाई गई परियोजना हो। तो आप इन पूरी परियोजनाओं को, पानी के निजीकरण को, पानी के अधिकार को कैसे देखते हैं?
वही मैं आपसे कह रहा था कि आज हमारी सरकार हमारा हक-हकूक और सुखाधिकार सब कुछ छीन रही है। और इस काम में न केवल सरकार बल्कि प्राइवेट कंपनियां भी पीछे नहीं हैं। आज हमारी 400 हेक्टेयर जमीन जयप्रकाश गौड़ नामक एक ही व्यक्ति के नाम पर है। और इसी प्रकार कल हमारी सब जमीन एन.टी.पी.सी. के हवाले हो जाएगी और उस जमीन पर हमारा कुछ हक नहीं होगा यहां तक कि हम उस जमीन पर जा भी नहीं सकते और इस प्रकार हम अपनी ही जमीन से बाहर हो जाएंगे।
वैसे तो सरकार का ये दृष्टिकोण सही है, कि बिना जमीन के तो कोई भी प्रोजेक्ट नहीं बन सकता फिर चाहे वो छोटा हो या बड़ा। अगर वो कोई छोटा प्रोजेक्ट बनाएंगे तो उन्हें कम से कम 20 प्रोजेक्ट बनाने पड़ेंगे और यदि वह बड़ा बनाएंगे तो एक ही बनाना पड़ेगा। बड़ा प्रोजेक्ट बनाने में हमें कम पैसे में ज्यादा उत्पादन मिलेगा, छोटा बनाएंगे तो 20 बनाने पड़ेगे, बड़ा बनाएंगे तो एक बनाना पड़ेगा।
बड़ा बनाने पर हमको कम पैसे में ज्यादा उत्पादन मिलेगा। लेकिन जैसा अभी आपने बताया कि सरकार, बहुराष्ट्रीय कम्पनी के साथ मिलकर एक साजिश रच रही है। हम तो इसे साजिश ही कहेंगे और ऐसा हो भी रहा है। हमारी जोशीमठ की जमीन कुछ तो आर्मी में गई, कुछ किरेट में गई, कुछ आई.टी.बी.पी. में गई, कुछ नेशनल हाईवे में गई और कुछ सरकारी कार्यालयों के लिए गई।
हमारे जोशीमठ सिंध के अंदर दिल्ली के किसान 62 नाले के होंगे। नहीं तो सारे लोग भूमिहीन हैं और जो थोड़ा-बहुत भूमि बची है उसपर भी कोई न कोई प्रोजेक्ट बन रहा है। इसके बावजूद भी हम इन परियोजनाओं के पक्ष में हैं क्योंकि जिस प्रकार हम अपनी कृषि भूमि में खेती करके या फिर कोई दुकान चलाकर अपनी रोजी-रोटी को चलाते हैं वैसे ही हम इन प्रोजेक्टों के साथ अपने रोजगार को भी देखना चाहते हैं और इनमें अपनी भागीदारी चाहते हैं। हम इसी भागीदारी के लिए अपना शेयर मांग रहे हैं क्योंकि इससे लगातार पैदावार होने की स्थिति में हमें भी लाभ मिल सकेगा। हम सिर्फ इतना ही नहीं चाहते कि हमें जमीन से आलू ही मिले और तब हमें उसे खाएं, हम चाहते हैं कि चाहे हमें जमीन से राजमा मिले या फिर चौलाई या फिर हम उसमें अपनी दुकान खोलकर अपना कोई रोजगार स्थापित करें, हमें तो बस अपने रोजगार का साधन चाहिए।
आज की लड़ाई जमीन बचाने की नहीं है। क्योंकि जमीन तो पूरे विश्व की ही एकीकृत हो रही है और कुछ मामलों में तो पूरा भारत ही नहीं पूरा संसार एक हो रहा है तो इस प्रकार आपने जो साजिश शब्द का इस्तेमाल किया है उसी के दूर के खतरे को भांपते हुए हमारे कुछ साथी इन परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं लेकिन ये दूर की बातें हैं, हमारा पेट तो ‘आज’ खाली है। हमारे पहाड़ के अंदर बेरोजगारी है, हमने पृथक राज्य लिया उसके बावजूद भी अपेक्षाएं पूरी नहीं हो पाई। अब हमें इन्हीं परियोजनाओं से थोड़ी बहुत उम्मीद है।
अरूण भाई, इसमें तो एक और महत्वपूर्ण सवाल है कि अगर हम उत्तरांचल पुनर्गठन विधेयक 2000 को देखते हैं और पढ़ते हैं तो उसमें साफ-साफ कहा गया है कि उत्तरांचल में बनने वाली सभी पावर परियोजनाओं पर पानी संबंधी जितनी भी योजनाएं बनेंगी उसमें गंगा नियंत्रण बोर्ड का अधिकार रहेगा। उत्तरांचल को केवल 12 प्रतिशत की बिजली मिलेगी जैसा कि, न.टी.पी.सी. भीे घोषित कर रही है कि हम आपको 12 प्रतिशत की मुफ्त बिजली देंगे। भाई, अब सवाल ये उठता है कि जमीन तो उत्तरांचल की गई, पानी उत्तरांचल का गया, परियोजना यहां बनी, उसके जितने पर्यावरणीय नुकसान हुए वो भी हमीं ने उठाए और हमको बिजली केवल 12 प्रतिशत मिलेगी बाकी 88 प्रतिशत बिजली उत्तर प्रदेश और केंद्र ले जाएगा? आप एक राजनैतिक रूप से इसको क्या मानते हैं?
हमारे लिए ये बहुत ही दुर्भाग्य की बात है कि जिस दिन ये बिल पास हो रहा था उस दिन बी.जे.पी. की पूरी सरकार वहां थी, हमारे कांग्रेस के तमाम सांसद वहां थे केवल दुर्भाग्य ये रहा कि उत्तराखंड क्रांति दल जो कि क्षेत्रीय दल है उन्होंने चुनाव का बहिष्कार किया था। हमारा एक भी प्रतिनिधि वहां नहीं था और जिसकी वजह से इसमें हमारी ओर से कुछ नहीं हो पाया। उसके बाद दो बार चुनाव हो चुके हैं, विधान सभा का भी चुनाव हो चुका है और संसद का भी चुनाव हो चुका है और इन चुनावों में भी उत्तराखंड क्रांति दल ने 22 संसदीय दलों की बात रखी है। जिस दिन 22 संसदीय दल न था ये पार्टियां मूक थी और आज भी मूक हैं।
आज उत्तराखंड क्रांति दल के पास जनशक्ति तो है, आंदोलनात्मक शक्ति तो है लेकिन जो सत्ता की शक्ति होती है वो हमारे पास नहीं है। आज भी हम बिक रहे हैं, किश्तों में बिके चाहे इकट्ठा बिके। आज भी हमारी परियोजनाएं जारी है। उत्तराखंड में एन.टी.पी.सी. की एक परियोजना में 1 करोड़ रुपया लग जाता है। उसी तरह जोशीमठ, तपोवन, अणुमठ में तो योजनाएं बन रही हैं लेकिन उनका उद्घाटन देहरादून में हो रहा है हमने कहा कि जहां आप उद्घाटन कर रहे हैं वहीं पर परियोजना भी चलाइए लेकिन भौतिक रूप से ऐसा संभव नहीं हो सकता। तो इसके लिए तो यहां की जनता को ही जवाब देना होगा।
इसमें एक और महत्वपूर्ण सवाल आपसे पूछ रहा हूं कि ये जो स्थानीय राजनैतिक दल हैं बी.जे.पी. हो, कांग्रेस हो या तमाम और तरह के जो वामदल हैं उनका इस पूरी परियोजना में क्या रूझान है?
बी.जे.पी. और कांग्रेस की मिलीभगत से ही तो ये परियोजनाएं बन रही हैं। अगर सत्ता हमारे हाथ में होती तो हम इन परियोजनाओं को अपने ढंग से देते। हमारा अपना ब्लूप्रिंट है। हम व्यक्तिगत स्तर पर जनता के लिए कई परियोजनाओं में काम कर रहे हैं। हम लाते तथा नीति में बिजली पैदा करके गांवों को बिजली दे रहे हैं तथा उससे ग्रांट भी चलाए जा रहे हैं।
वहां किसने बनाए हैं ये?
ये अक्षय ऊर्जा स्रोत (उरेडा) द्वारा बनाए गए हैं और जो ये गोविंद घाट में बनी हुई योजना है और तपोवन में जो हमारा प्रोजेक्ट बना है, पुराने पावरहाऊस बने हुए हैं, वो पावरहाऊस उत्तर प्रदेश विद्युत विभाग ने तब बनाए थे जब जल निगम की स्थापना नहीं हुई थी और ये अच्छी तरह काम कर रहे थे। लेकिन उन परियोजनओं को एक छोटी सी तकनीकी समस्या के कारण बंद कर दिया गया जबकि वो समस्या इतनी छोटी थी कि अगर आज किसी छोटे से बनिया को दो-चार लाख रुपए देकर वो परियोजना दे दी जाए तो वो भी उसे चालू कर देगा लेकिन सरकार ने वो योजना बंद करवा दी।
हमारी सरकार की तरह हमारे सरकारी कर्मचारियों की भी हालत ठीक नहीं है, एक बार में खुद सिंचाई सचिव से मिलने गया मैंने, उन्हें बताया कि हमारे यहां की इतनी परियोजनाएं बंद हैं उन्होंने उसी समय फोन किया, फोन करने के बाद मेरे को कहते हैं नहीं ऐसी बात नहीं है, आपको गलत जानकारी है, मैंने कहा कि मैं उस क्षेत्र का रहना वाला व्यक्ति हूं। मुझे मालूम है कि समस्या कहां आ रही थी। जनरेटर न होने की वजह से हम लोग उसको जेनरेट ही नहीं कर पा रहे हैं तो उसके बाद जो आम बिजली पैदा होनी है वो भी नहीं हो पा रही है।
लेकिन उन्होंने भी हमारी बात को गंभीरता से नहीं लिया अपने अधिकारियों पर भरोसा किया। केशव देसी राजवीर के बारे में ये माना जाता है कि ये लाल बहादुर शास्त्री के प्रभाव से संबंधित हैं और बहुत ईमानदार आदमी हैं आज वो केन्द्र में बैठे हैं। हम यह सोचकर उनके पास गए कि शायद वो हमारी मदद कर देंगे, उन्होंने हमें आश्वस्त किया था कि वे हमारे क्षेत्र में आएंगे। आज तक हमारे क्षेत्र में कोई ऊर्जा सचिव नहीं आए।
सरकारी तौर पर कोई ऊर्जा मंत्री नहीं आए यहां तक कि अमृता रावत जी भी यहां नहीं आई। और उदघाटन करने का आलम तो ये हैं कि उत्तराखंड की परियोजनाओं का उद्घाटन देहरादून में होता है और दिल्ली के नजदीक की किसी परियोजना का उद्घाटन दिल्ली में होता है और मुझे लगता है कि दिल्ली की किसी योजना का उद्घाटन शायद वाशिंगटन में किया जाएगा क्योंकि ये लोग अंतरराष्ट्रीय दबावों तथा विश्व बैंक के दबावों में काम कर रहे हैं। इन परियोजनाओं के बारे में एन.टी.पी.सी. आम जनता को बहुत सब्जबाग दिखा रही है वे कह रहे हैं कि हम सरकारों से नाराज हैं, हमें न रोजगार मिला न उसकी कोई गारंटी ही मिली।
अब एन.टी.पी.सी. ऐसा दिखा रही है कि हम आपकी जमीन का उचित मुआवजा दे रहे हैं। हमें मालूम है कि जिस जमीन में कोई पैदावार नहीं होनी है, जिसमें रेडिसन होना है, जिसमें बारूद होना है जहां सुरंगे बनेंगी वहां बारूदी मलवा तो निकलेगा हीे उससे हमारा पर्यावरण प्रभावित होगा हमारी पैदावार कम होगी ही इसका जीता-जागता उदाहरण चाईंगांव, लाम्बगढ़ है।
जहां पैदावार कम हुई है और होती जा रही है। लेकिन अन्य स्रोत होने की वजह से हम लोग उसकी तरफ ज्यादा ध्यान ही नहीं देते, इतनी योजनाएं चलने के बाद हमारी खेती की ओर कोई ध्यान देता ही नहीं है।
आज केवल उद्योगीकरण पर ही ध्यान दिया जा रहा है। हमारे विष्णु प्रयाग से लगे हुए हाथी पहाड़ में लगभग 550 एकड़ भूमि पर पर पेड़ लगाए गए थे । 2000 पेड़ वन विभाग तथा उद्याग विभाग के सहयोग से भी लगाए गए उनमें से आज केवल मात्र 4 पेड़ खड़े हैं बाकी पेड़ों का कहीं अता-पता नहीं है। जिसके विरोध में एक व्यक्ति विशेष ने केस भी दर्ज किया था उसके लिए उसे अपना काफी पैसा तथा समय भी लगाना पड़ा लेकिन वो मामला वैसे का वैसा ही पड़ा हुआ है। तो ऐसा नहीं है कि हमारे यहां का आदमी सचेत नहीं है, सचेत तो है लेकिन हम लोग कुछ कर नहीं पा रहे हैं।
इस प्रकार आज सरकारों के साथ-साथ कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक साजिश के तहत केवल अपने लाभ की ही बात कर रही हैं।
अरूण भाई, जोशीमठ संघर्ष समिति की ओर से हुए प्रदर्शनों में आम आदमी की कितनी भागीदारी रही है?
लोगों की भागीदारी औसत रही। उसमें भी कुछ लोगों को बात स्पष्ट रूप से समझ नहीं आई है। हम भी उनके साथ हैं लेकिन हम उनकी एक बात से विश्वास नहीं रखते वो है उनकी ओर से परियोजना का विरोध।
हम चाहते हैं परियोजना बने, राष्ट्र हित में काम हो लेकिन जनता को भी उसका लाभ मिलना चाहिए। जनता के साथ भी उसका लाभ हो, उसका शेयर जनता को मिले और अगर ये शेयर नहीं देंगे तो इससे आंदोलन को अपने-आप की बल मिलेगा।
और इनका कहना है कि परियोजना ही नहीं बननी चाहिए?
इनका कहना है कि परियोजना नहीं बननी चाहिए, अगर परियोजना से हमको लाभ नहीं है, प्रत्यक्ष लाभ अगर आम जन को नहीं होगा तो परियोजना बनने का तो औचित्य ही नहीं है।
एक और अंतिम सवाल आप वर्षों से जिस राजनैतिक दल से जुड़े हुए हैं वह उत्तराखंड क्रांति दल अपने आपको क्षेत्रीय दल कहता है, इस प्रदेश को लेकर उत्तराखंड क्रांति दल के सपने में प्राकृतिक संसाधनों के बारे में आपकी क्या राय है?
प्राकृतिक संसाधनों के बारे में हमारी स्पष्ट राय ये है कि हम अपने सभी नदी-नालों से बिजली पैदा करेंगे और उसके लिए हम ग्रामसभा, जिला पंचायत तथा नगर पालिका से इस तरह से टैक्स वसूल करके संसाधन जुटाते हैं कि हम सीधे-सीधे उनको आय के स्रोत देकर उनके माध्यम से उन्हें रोजगार उपलब्ध करवाना चाहते हैं।
आज सरकार ग्राम पंचायतों को हजारों-करोड़ों रुपए का अनुदान देती है ताकि वो अपने स्तर पर रोजगार उपलब्ध करा सके। लेकिन ऐसा तभी संभव है जब हम उन्हें प्रोजेक्ट दें और कांग्रेस और बी.जे.पी. के राज में तो ऐसा होना ही नहीं है। इसके लिए उत्तराखंड क्रांति दल का ब्लूप्रिंट पहले से ही बना हुआ है, जब लोग पूछते थे कि उत्तराखंड बनने के बाद आप क्या खाएंगे? तो हम जवाब देते थे कि कुवैत में आम पैदा नहीं होता है लेकिन फिर भी वहां के लोग अपने पैसे के बल पर अपने तेल के बल पर 400 रुपये किलो का आम खा रहा है। इसी तरह हम भी अपनी बिजली के बल पर विदेशों का भी राशन खा सकते हैं। पैसा, डालर चलाता है पैसा चलाने के लिए पैसा होना चाहिए बस।
आज आम आदमी को अपना आर्थिक जीवन जीने के लिए पैसा चाहिए। हमारे यहां पर कई ऐसे-ऐसे गांव भी हैं जहां पर एक भी आदमी के पास रोजगार नहीं हैं। हमारे यहां न तो कोई फ़ैक्टरी है और न ही वहां प्रदूषण फैलाने वाले संयत्र हैं।
नहीं, क्या आप ऐसा मान रहे हैं कि ये जो प्राइवेट परियोजनाएं बन रही हैं वे उसी दिशा में जा रही हैं जिस दिशा में आप और आपका ब्लू प्रिंट सोचता है?
नहीं, ये परियोजना उससे विपरीत चल रही है और इसके लिए हम जनता के बीच में जा रहे हैं, जनता से बात कर रहे हैं और जनता हमारी बात से इत्तेफ़ाक रखती है और बहुत जल्दी इसके लिए उत्तराखंड क्रांति दल अपने आंदोलन को रूप देगा और सरकार से आर-पार की बात करेगा कि हमें यदि हमारी जमीन लीज पर ली जाएंगी तो हमें परियोजनाओं में शेयर मिलेगा और उसके लिए भी हमारे स्पष्ट प्रावधान है जिसके लिए हम धारा 377, 371 लगाने की बात करते हैं उसका मतलब यही है कि जमीन हमारी है तो राज आपका कैसे होगा? हम चाहते हैं कि हमारी जमीन पर हमारा ही शेयर हो।
भले ही मशीनें आपकी हैं लेकिन पानी तो भगवान ने हमें तोहफे में दिया है और अगर आपकी मशीनें हमारे पानी से अपना काम निकालेंगी तो उसमें हमारा भी तो हिस्सा होना चाहिए। अगर उत्तराखंड की जमीन पर एक होटल भी बनें तो भी उत्तराखंड क्रांति दल उसमें उत्तराखंड का हिस्सा चाहता है। मेरे पास इस बात के उदाहरण मौजूद हैं जिनसे स्पष्ट हो रहा है कि वर्तमान सरकार इस कोशिश में लगी है कि यहां की जमीन बिकती रहे और कुछ सालों में टिहरी की तरह बाकी उत्तराखंड के लोग भी दर-दर की ठोकरें खाएं।
अच्छा ये जो एन.टी.पी.सी. का स्थानीय कार्यालय है ये सभी तरह की सूचनाएं उपलब्ध कराता है या नहीं?
नहीं, ये कुछ नहीं कराता है, हम लोग तो मैन-टू-मैन वाली तथा गांव-गांव की पद्धति से काम करने वाले लोग हैं लेकिन यहां काम करने वाले लोग भ्रष्टाचार का एक नया दौर लाने वाले हैं। इनके काम करने की प्रवृति तथा उनकी नियुक्तियों की प्रक्रिया के बारे में स्वयं इसके सदस्य एवं हमारे विधायक भी कुछ नहीं बता सकते हैं। गांव के अंदर रास्ता बनाने के नाम पर इन्होंने हमारी ग्रामसभाओं के रास्ते की मरम्मत करवाने में करोड़ों रुपया आइ थिंक के नाम से खा रहे हैं जैसे बड़ा गांव के नीचे स्थित चैरवी गांव में मलबा फेंकने के लिए सुरंग का दरवाजा बनाना है और इस मलवे को उन्होंने नदी के किनारे-किनारे फेंका।
अगर हमने उनका विरोध किया तो वो उसकी प्रोटेक्ट दीवार बनाएंगी नहीं तो वे सीधे ही उसे नदी में बहा देंगे। इस प्रकार उन्होंने नीचे जाने के लिए रास्ता बनाने की योजना बनाई। इस बारे में मैंने, गांव वालों से बातचीत की तो उन्होंने कहा कि हमने यहां आकर कई दिन तक काम किया लेकिन हमें अभी तक मजदूरी नहीं मिली है। उनकी इस शिकायत के आधार पर हमने साइड इंचार्ज से बात की उन्होंने बताया कि, नहीं-नहीं साहब ऐसी कोई बात नहीं है, हमने उन्हें भुगतान कर दिया है।
जब मैं दोबारा गांव में पहुंचा तो तब तक भुगतान हो चुका था। मतलब एक आदमी की दो दिन की ध्याड़ी 1200 रुपए मिली। इस प्रकार इससे स्पष्ट हो जाता है कि वे लोग कितनी बड़ी साजिश कर रहे हैं जब तक किसी बात पर हो-हल्ला नहीं हो तब तक वे वहां की सारी जनता के हकों को लूट लेना चाहते हैं। इस प्रकार एन.टी.पी.सी. तो भ्रष्टाचार का एक नया युग यहां पर लाने वाली है। क्योंकि इन बड़ी कंपनियों के खिलाफ हम कुछ नहीं कर सकते हैं क्योंकि इन कंपनियों का साथ देने के लिए उत्तराखंड में एन.टीपी. सी. के साथ-साथ बी.जे.पी. और कांग्रेस भी इनका साथ दे रही है।