विश्व पर्यावरण दिवस 2020: उत्तराखंड में गांव के जल स्रोतों के संरक्षण में जुटे पोखरी के युवा

Submitted by Shivendra on Fri, 06/05/2020 - 17:06
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उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में प्राकृतिक जल स्रोत हजारों गांवों की जल जीवन रेखा है। इन्हें पन्यारा, नौला, छौई, धारा इत्यादि नामों से जाना जाता है। यह जल स्रोत प्राचीन समय से ही गांव में पीने एवं अन्य घरेलू आवश्यकताओं के लिए जलापूर्ति का मुख्य जरिया रहे हैं।

दुख की बात है कि बदलते दौर, जीवनशैली में आए बदलाव और पाइपलाइन आधारित पेयजल आपूर्ति के चलते, ये धरोहर पहाड़ समाज की अनदेखी और सरकार की उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं। अगर इन जल स्रोतों को सहेजा जाये तो ये आज भी उतने ही प्रभावी एवं उपयोगी साबित हो सकते हैं।  पौड़ी गढ़वाल के पोखरी गांव के युवाओं का इसी  दिशा में एक काबिलेतारीफ प्रयास है। विश्व पर्यावरण दिवस 2020 की थीम प्रकृति का समय[i] के अवसर हमने महसूस किया कि इन युवाओं का प्रयास सबके सामने उजागर किये जाने लायक है।  

कोरोना वायरस महामारी के परिणाम स्वरूप लगी तालाबंदी के चलते पहाड़ों में बड़ी संख्या में प्रवासी (Migrants) वापस आ रहे हैं।  जानकारी के मुताबिक दो लाख से अधिक आवेदनकर्ताओं में से अब तक डेढ़ लाख के करीब प्रवासी लोग भारत के अलग अलग क्षेत्रों से अपने राज्य पहुंच चुके हैं।  

थैलीसैंण तहसील में पोखरी एक छोटा सा गांव है जो बहत्तर गांवों की पट्टी चौथान का हिस्सा है। यह पट्टी दूधातोली के सघन वनों और क्रांतिकारी वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की जन्मभूमि होने के लिए प्रसिद्ध है। हाल में लौटे छियालीस प्रवासियों को मिलाकर, पोखरी की आबादी लगभग तीन सौ है। 

पनियारा गांव में सफाई और मरम्मत से पहले और बाद की तस्वीर। (पोखरी युवा संगठन) फोटो - SANDRP

जानकारी के मुताबिक चौथान पट्टी में अब तक लगभग पंद्रह सौ प्रवासी पहुँच चुके हैं जो  एकांतवास (Quarantine) के दौरान अपने प्राथमिक विद्यालयों में विभिन्न प्रकार के रचनात्मक कार्यों में लगे हैं। इस मुहिम में अब पोखरी के युवा भी शामिल हो गए हैं, वे भी  अपने विद्यालय परिसर में साफ-सफाई एवं पौधारोपण का कार्य में जुट गए।   

इस दौरान मई माह के अंतिम सप्ताह की शुरुआत में गांव की सरकारी पेयजल लाइन में आई बाधा के चलते पानी की समस्या उत्पन्न हो गयी।  जिससे सभी ग्रामीणों को बहुत अधिक परेशानी का सामना करना पड़ा।  इसके निराकरण के लिए ग्रामीणों ने उपनल विभाग एवं स्थानीय प्रशासन से लेकर हर स्तर पर प्रयास किया। उपनल विभाग ने उन्हें बताया कि बिना पाइप लाइन को बदले, इस समस्या को समाधान नहीं हो सकता, जिसमें अभी काफी समय लग सकता है।  

इस दौरान एकांतवासरत और एकांतवास पूरा कर चुके युवाओं ने ग्रामीणों के साथ छोटे-छोटे समूह बनाएं और अपने गांव के परंपरागत जल स्रोतों के सहेजने का अभियान शुरू कर दिया। अब तक ग्रामीण युवा सामूहिक प्रयासों से दो पन्यारो, एक चरी जिससे पशुओं को पानी पिलाया जाता है और एक प्राचीन जल स्रोत को पुनः उपयोग लायक बना चुके हैं। साथ में अपने गांव की कूलों और लघु सिंचाई नहरों के रखरखाव में भी जुट गए हैं।  

“इस पन्यारे के चारों तरफ झाड़ी उग आई थी, जल स्रोत में रिसाव हो रहा था तो पहले हमने झाड़ियों को हटाया फिर रिसाव को रोका जिससे जलधारा में पानी बढ़ गया और अब लोग आसानी से इसका उपयोग कर सकते हैं”, दिल्ली में ड्राइवर के तौर पर काम करने वाले हेमंत काला ने बताया जो गांव लौटकर सक्रिय रूप से जल स्रोत संरक्षण के कार्यों में लगे हैं।

इसके बाद गांव के युवाओं ने अपने दूसरे जल स्रोत को देखा। “पशुओं के पानी पिलाने के लिए यह छोटा टैंक जिसे चरी को करीब दो दशकप पहले बनाया गया था। कालांतर में यह मलबे से पूरा भर गया था और चारों तरफ पागल झाड़ (क्षेत्र में व्यापक रूप में फैला एक खरपतवार है जिसे विभागीय भाषा में राम बांसा अथवा मैक्सिकन डेविल के नाम से भी जानते हैं।) युवाओं ने पहले टैंक को साफ़ किया और चारों तरफ लगी खरपतवार को हटाया, अब हम इस टैंक से जुड़े पानी के स्रोत को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं”, दिल्ली में एक प्राइवेट फर्म में काम करने वाले विवेकानंद काला ने बताया। 

विवेकानंद काला भी तालाबंदी के चलते गांव में वापस लौट हैं। दो साल पहले ही गांव के युवाओं ने पोखरी युवा संगठन के नाम से एक समूह बनाया है।  संगठन के अध्यक्ष के तौर पर विवेकानंद काला ने बताया कि पानी समस्या के चलते युवाओं का ध्यान अपने परम्परागत किन्तु उपेक्षित जल स्रोतों पर गया है और उनको दोबारा उपयोग लायक बनाना, उनके समूह की प्राथमिकता है।  

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इन कार्यों के बाद भी युवा रुके नहीं और उसके बाद एक अन्य पन्यारे को ठीक करने में लग गए।  “इस पन्यारे का ढांचा गिर चुका था, आसपास कीचड़ हो गई थी। यह उपयोग लायक नहीं था। सबसे पहले हमने जमीन को समतल किया उसके बाद पत्थरों की संरचना को दोबारा खड़ा किया। फिर ढ़लान बनाकर जल स्रोत से निकलने वाली धारा को वापस जोड़ा। अब यह सब के उपयोग के लिए खुला है”,  कुछ स्वयंसेवकों के साथ इस कार्य में जुटे राजेश कंडारी ने बताया।  राजेश कंडारी जर्मनी में कार्यरत है और तालाबंदी के चलते वापस नहीं जा पाए हैं। 

इस जलस्रोत को दुरुस्त करने के बाद पूरे दल ने जिसमें कुछ बच्चे भी शामिल थे उसी धारे से अपनी प्यास बुझाई।चूँकि यह धारा मुख्य रास्ते के निकट है, अतः राहगीर भी इसका लाभ से सकते हैं। 

“यह पूरी पहल स्वयं की प्रेरणा, युवाओं के श्रमदान और अंशदान से चल रही है। हमें किसी भी प्रकार की कोई सरकारी सहायता नहीं मिली है”, गांव के प्रधान विनोद कुमार ने बताया।  विनोद कुमार ना केवल इस मुहिम का समर्थन करते हैं बल्कि युवाओं के साथ मिलकर श्रमदान भी कर रहे हैं। उनके अनुसार युवाओं के श्रमदान से परम्परागत जल स्रोतों के संरक्षण का यह प्रयास, गांव में जारी जल समस्या के समाधान में बहुत बड़ा योगदान दे रहा है।  

परंतु उनके मन में कुछ वाजिब चिंताएं और कुछ आवश्यक सवाल भी हैं।  “शौचालय और सफाई पर दिए जा रहे हैं चौतरफा जोर के चलते, बहुत सारे ग्रामीणों ने अपने घरों में पानी की टंकियां रख ली है। जिनको नहाने और मल बहाने के लिए पानी से भरा जाता है। इस कार्य में हमारी जलापूर्ति के एक बड़े हिस्से की खपत होती है। हालांकि वे युवाओं की मुहिम से खुश हैं परंतु उन्हें नहीं लगता कि केवल गांव के जल स्रोत बढ़ती मांग को पूरा कर पाएंगे।

इन चिंताओं से दूर पोखरी युवा संगठन अब अपने गांव के सबसे प्राचीन जल संरचना जिसे डिग्गी पन्यार के नाम से जाना जाता है को सहेजने में लग गए हैं।  अविभाजित उत्तर प्रदेश राज्य के दौरान उत्तराखंड के सैकड़ों गांवों में पेयजल आपूर्ति के लिए डिग्गी संरचना का निर्माण किया गया था। “अपने जल स्रोत से हट जाने के कारण यह डिग्गी सूखती जा रही थी। सबसे पहले हमने इसे अच्छी तरह से साफ किया। उसके बाद 6 मीटर का पाइप लगाकर इसे दोबारा जल स्रोत से जोड़ा। अब इसमें पानी आना शुरू हो गया है”, मुहिम में जुड़े सुरेंद्र भंडारी ने बताया।  सुरेंद्र भंडारी भी दिल्ली में एक नामी अखबार में वेब डिजाइनर का काम करते हैं और तालाबंदी के कारण गांव लौटे हैं।  

सुरेंद्र भंडारी का मानना है कि प्राकृतिक जल स्रोत पर्वतीय लोगों के लिए वरदान है और इनके जल के स्वाद एवं गुणवत्ता की पाइप आधारित जल से तुलना नहीं की जा सकती।  ” इन स्रोतों में सर्दियों में गुनगुना और गर्मियों में ठंडा पानी मिलता है। हमारे बुजुर्ग आज भी इस पानी को पीना ज्यादा पसंद करते हैं”, सुरेंद्र भंडारी ने बताया। 

सुरेंद्र भंडारी आगे कहते हैं कि एकांतवास के दौरान उन्हें आठ दिन पानी की समस्या से जूझना पड़ा और जिसके कारण उनको अपने पुराने जल स्रोतों की अहमियत का एहसास हुआ। इसलिए उनकी टीम इनके रखरखाव में पूरे मन से जुटी है। पोखरी युवा संगठन का मानना है कि विकास की प्रक्रिया में परंपरागत जल स्रोतों की अवहेलना हुई है और इनके रखरखाव पर समाज एवं सरकार द्वारा अधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। 

“पाइपलाइन आधारित पेयजल आपूर्ति की बहाली के लिए आज (04 जून 2020) को ग्रामीणों ने एक सामूहिक बैठक भी रखी है। क्योंकि दो गांवों की जलापूर्ति एक ही पाइपलाइन से की जा रही है। अतः हमारे गांव में पानी नहीं आ रहा है”, मनोज कंडारी ने बताया जो देहरादून में प्रवक्ता पद (Lecturer) के लिए तैयारी कर रहे थे।  “परंतु अब हम अपने परंपरागत जल स्रोतों को उपेक्षा का शिकार नहीं होने देंगे”, मनोज कंडारी आगे बताते हैं जो अभी एकांतवास में समय बिता रहे हैं और अपने युवा साथियों के साथ जुड़ने के लिए उत्सुक हैं। 

परदेश में रोजगार की अनिश्चितता के चलते, अब वापस लौटे युवा खेती के कार्यों में भी जुट गए हैं।  “यह धान की रोपाई का सीजन है। इसलिए अब हम अपने गांव की लघु नहरों और कूलों की साफ-सफाई, मरम्मत  में लगे हैं और यह पूरा काम श्रमदान से और स्वयं के संसाधन जुटाकर किया जा रहा है”, उत्साह से भरे हुए हेमंत काला बताते हैं।

पोखरी के युवाओं की यह पहल साबित करती है कि एकजुट प्रयास और सामूहिक श्रमदान से परंपरागत जल स्रोतों को फिर से जिंदा किया जा सकता है। इन सभी युवाओं के प्रयास तारीफ के लायक हैं। उम्मीद करते हैं कि हिमालयी राज्यों में अन्य स्थानों पर भी युवा इस पहल से सीख लेकर अपने प्राकृतिक जल स्रोतों के संरक्षण की पहल करेंगे।