भारत में जल संचय का कार्य सभ्यता के आरम्भ से ही किया जा रहा है। भारत की पारम्परिक जल संचय प्रणालियों का लम्बा वैज्ञानिक इतिहास रहा है जो प्राचीन ग्रंथों, शिलालेखों और ऐतिहासिक अवशेषों के साथ आज भी जीवंत है। हमारे प्राचीन तालाब, जलाशय, नौले, कुण्डियाँ, कुएँ और तमाम जल संचय इकाइयाँ सदियों से आज भी खरी हैं और प्रयोग में लाई जा रही हैं।

ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी में ही बलूचिस्तान के किसानों ने बरसाती पानी को घेरना और सिंचाई में उसका प्रयोग करना आरम्भ कर दिया था। कंकड़-पत्थर से बने बाँध बलूचिस्तान और कच्छ में मिले हैं। सिंधु घाटी सभ्यता (3000-1500 ई.पू.) के महत्त्वपूर्ण स्थल धौलावीरा में मानसून के पानी को संचित करने वाले अनेक जलाशय थे। यहाँ जल निकासी की व्यवस्था भी पुख्ता थी। इतिहासकारों का मानना है कि कुएँ बनाने की कला सम्भवतः हड़प्पा के लोगों ने विकसित की। सिंधु घाटी सभ्यता वाले स्थलों के हाल के सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि हर तीसरे घर में एक कुआँ था। यहाँ 700 से अधिक कुएँ पाए गए हैं।
ई.पू. पहली शताब्दी में इलाहाबाद के निकट श्रृंगवेरपुरा में गंगा की बाढ़ के पानी को संचित करने की विकसित प्रणाली के संकेत मिले हैं। यहाँ 250 मीटर लम्बा तालाब मिला है जोकि भारत में अब तक प्राप्त प्राचीनतम तालाबों में सबसे बड़ा है जिसमें कि गंगा के पानी को भरा जाता था। बरसात में गंगा के जलस्तर के ऊपर उठने के कारण अतिरिक्त पानी को बहाने के लिये 11 मीटर चौड़ी और 5 मीटर गहरी नहर खोदी गई। नहर का पानी पहले एक बड़े गड्ढे में जाता था, जहाँ गाद जमा होती थी। इसके बाद कुछ साफ पानी ईंटों से बने प्रथम तालाब में जमा होता था। यहाँ से साफ पानी द्वितीय तालाब में जाता था, जहाँ से जल-आपूर्ति की जाती थी। तृतीय तालाब गोलाकार था, जिसमें स्थापित मूर्तियाँ यह संकेत करती हैं कि इसका प्रयोग पूजा के लिये किया जाता होगा। तालाब को सूखने से बचाने के लिये कई कुएँ खोदे गए थे ताकि भूजल प्राप्त होता रहे।
जल संचय करके सिंचाई करने वाली प्रणालियों की मौजूदगी का वर्णन ई.पू. तीसरी सदी में लिखे कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी मिलता है। कौटिल्य, चन्द्रगुप्त मौर्य (ई.पू. 321-297) के शासनकाल में मंत्री और गुरु थे जोकि चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में लिखा है कि लोगों को बरसात के चरित्र, मिट्टी के भेद और सिंचाई की तकनीकों का ज्ञान था। राजा भी प्रजा की मदद करता था पर जल से जुड़ी तकनीकों का निर्माण, संचालन और रख-रखाव जनता स्वयं ही करती थी। इस मामले में गड़बड़ी करने पर सजा का प्रावधान थी। भारतीय किसान बाँध, तालाब और अन्य सिंचाई साधनों का निर्माण करने लगे थे। नदियों, तालाबों और सींचने वाले खेतों का संचालन अधिकारियों के हाथ में था। कौटिल्य ने विभाग प्रमुखों के कार्यों के विवरण में लिखा है “उसे प्राकृतिक जलस्रोत या कहीं और से लाए गए पानी के उपयोग से सिंचाई व्यवस्था का निर्माण करना चाहिए। इन व्यवस्थाओं का निर्माण करने वालों को उसे भूमि, अच्छा रास्ता, वृक्ष और उपकरणों आदि से सहायता करनी चाहिए… सिंचाई व्यवस्था के अधीन मछलियों, बत्तखों और हरी सब्जियों पर राजा का स्वामित्व होना चाहिए।”

दूसरी सदी का जूनागढ़ शिलालेख बाढ़ से क्षतिग्रस्त बाँध की मरम्मत और सुदर्शन झील को दुरुस्त करने के विषय में ज्ञात तकनीकी जानकारी का दुर्लभ दस्तावेज है। सुदर्शन झील नौवीं सदी तक अस्तित्व में थी। हाथीगुफा अभिलेखों से ई.पू. द्वितीय शताब्दी में कलिंग की सिंचाई व्यवस्था का पता चलता है।
कल्हण ने राजतरंगिनी में कश्मीर के 12वीं सदी का इतिहास लिखा है। उसमें व्यवस्थित सिंचाई प्रणाली, डल और आंचर झील के आसपास के निर्माणों और नदी नहर बनाने का विवरण है। इसमें नहरों, सिंचाई के नालों, तटबन्धों, जलसेतुओं, घुमावदार, नहरों, बैराजों, कुओं और पनचक्कियों का वैज्ञानिक इतिहास भरा है। इस ग्रन्थ में वर्णित है कि दामोदर (द्वितीय) ने गड्सेतु तटबन्ध बनवाया था। वितस्ता के बहाव को मोड़ने का भी जिक्र किया गया है। राजा ललितादित्य मुक्तिपाद (725-760 ई.) द्वारा गाँवों में पानी पहुँचाने के लिये पनचक्कियों या अरघट्टा का निर्माण किया गया। राजा अवंतिवर्मन (855-883 ई.) के राज में सुय्या द्वारा सिंचाई प्रणाली का निर्माण किया गया जिसमें सभी को उचित मात्रा में पानी उपलब्ध होता था।
दिल्ली में हौजखास तालाब का निर्माण अल्तुत्मिश ने 14वीं सदी में करवाया। फिरोज शाह तुगलक (1351-1388 ई.) ने सिंचाई की पाँच नहरों और कई बाँधों का निर्माण करवाया। पुराने निर्माणों की मरम्मत के लिये भी फिरोजशाह को याद किया जाता है जिसमें सूरजकुंड की मरम्मत भी शामिल थी। तोमर वंश के राजा सूरजपाल ने 10वीं शताब्दी में सूरजकुंड बनवाया था। सूरजकुंड के समीप अंगनपुर बाँध है जो आज भी उपयोग में आता है, जिसे कि तोमरवंश के राजा अंगनपाल ने बनवाया था। तालाबों के शहर भोपाल में प्राचीन भोपाल ताल का निर्माण राजा भोज (शासनकाल 1010 से 1055 ई.) ने करवाया था। प्रमाणों के आधार पर पता चलता है कि भोपाल ताल वास्तव में विशाल था। पारम्परिक ज्ञान के अनुसार राजा भोज ने दो पहाड़ियों के बीच बाँध बनवाकर भोजपाल नामक विशाल ताल बनवाया था। 11वीं सदी में यह भारत का सबसे बड़ा कृत्रिम जलाशय था जिसका क्षेत्रफल 65000 हेक्टेयर से अधिक था और इसमें 365 स्रोतों और झरनों का पानी आता था।


पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाकों में हर कहीं विभिन्न जलस्रोतों से सुदूर क्षेत्रों तक पानी ले जाने के लिये बाँस की पाइप लाइन बिछाई गई है। मेघालय में बाँस की नालियों द्वारा झरनों और सोतों के पानी को दूर-दराज तक ले जाने की 200 वर्ष पुरानी पारम्परिक तकनीक आज भी कारगर है। इससे सैकड़ों मीटर दूर तक पानी को ले जाया जाता है। यह प्रणाली इतनी कारगर है कि बाँस की नलियों में प्रति मिनट आने वाला 18 से 20 लीटर पानी सैकड़ों मीटर दूर तक ले जाया जाता है और आखिरकार पौधे के पास पहुँचकर उसमें से प्रति मिनट 20 से 80 बूँद पानी टपकता है। जलमार्ग बनाने के लिये विभिन्न व्यास के बाँसों का उपयोग किया जाता है जिसमें पानी की एक-एक बूँद पौधे तक पहुँचती है। आज इस तकनीक पर शोध और इसे विस्तार दिए जाने की आवश्यकता है जोकि ड्रिप सिंचाई प्रणाली की तरह उपयोगी की तरह उपयोगी हो सकती है। नगालैंड में जाबो सिंचाई पद्धति प्रचलित है, इसमें वृक्षारोपण, कृषि, पशुपालन और भूमि-क्षरण रोकने का काम एक साथ किया जाता है। यह एक पारम्परिक समेकित कृषि-जल प्रणाली है।
थार मरुभूमि के अधिक रेतीले इलाकों में 15वीं सदी में निर्मित पारम्परिक कुंड भूमिगत हौज थे, जिनमें कृत्रिम आगोर में गिरा बरसाती पानी में जमा किया जाता था। ढालू जमीन से बहने वाले पानी को रोककर सिंचाई में उपयोग के लिये खड़ीनें बनाई जाती थीं। भारत में सदियों से सोतों या जलस्रोत की जलधारा को मोड़कर खेतों तक ले जाने की परम्परा रही है। कभी-कभी सोते बड़े होकर नदियों में बदल जाते थे। कावेरी नदी पर बना ग्रैंड अनिकट ऐसी ही कुशल इजीनियरिंग का उदाहरण है। शुष्क और अर्द्धशुष्क इलाकों में, जहाँ सोतों की प्रकृति मौसमी थी और पानी की कमी थी, वहाँ पानी के भंडारण की प्रणालियाँ विकसित हुईं। लद्दाख में जिंग, दक्षिण बिहार में आहर और कर्नाटक में केरे इसके उदाहरण हैं।

कुईं और डाकेरियान भी पश्चिमी राजस्थान के लोगों की पारम्परिक जल संचय प्रणालियाँ हैं। कुईं या बेरी सामान्यतः तालाबों के आस-पास बनाई जाती हैं जिनमें तालाब का रिसा पानी जमा होता है। इस प्रकार पानी की बर्बादी पर रोक लगती है। कुईं 10 से 12 मीटर गहरी और कच्ची ही रहती हैं। इनका मुँह लकड़ी के लट्ठों से बन्द रहता है ताकि इसमें पशु या मनुष्य गिर न जाए। डाकेरियान खेतों में जल संचय की एक आपात व्यवस्था है। जब खेतों से खरीफ की फसल लेनी होती है वहाँ बरसाती पानी को घेरे रखने के लिये खेत की मेड़ें ऊँची कर दी जाती हैं। यह पानी जमीन में समा जाता है। फसल काटने के बाद खेत में एक छिछला कुआँ खोद देते हैं जहाँ इस पानी का कुछ हिस्सा रिसकर जमा हो जाता है जोकि काम में आता है।
भारत की पारम्परिक जल संचय प्रणालियाँ | |||
क्र.सं. | जलवायु क्षेत्र | खेती की प्रणाली | पेयजल संचय की प्रणाली |
1. | पहाड़ और पहाड़ी क्षेत्र | (क) खेतों तक पानी ले जाने वाले जल मार्ग- जैसे पश्चिमी हिमालय के कुहल या गुहल। (ख) जलमार्गों से जल संचय प्रणालियाँ जिनका उपयोग शुष्क मौसम में होता है- जैसे लद्दाख के जिंग। | (क) झरनों का पानी लिया जाता है। (ख) चाट पर गिरे बरसाती पानी को संचित किया जाता है। (ग) पूर्वोत्तर में बाँस की नलियों से सोतों-झरनों का पानी दूर तक ले जाया जाता है। |
2. | शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्र | (क) अपने स्तर से नीचे के कमांड क्षेत्र को सिंचित करने वाले तालाब, जैसे बरसाती पानी वाली व्यवस्थाएँ। (ख) नदियों और सोतों से पानी लेकर जमा करने वाली व्यवस्थाएँ, जो कई बार श्रृंखला में होती हैं और एक के भरने पर पानी दूसरी में जमा हो जाता है। (ग) बरसाती पानी के बहाव को जमीन पर घेर लेना, जिससे जमीन नम हो और ऊसर जमीन को भी उपजाऊ मिट्टी मिले - जैसे खड़ीन और जोहड़। | (क) भूजल के जलभरों से पानी लेने वाले कुएँ और बावड़ियाँ बनाना। (ख) तालाब और झीलों के किनारे कुएँ और बावड़ियाँ बनाना, जिसमें उनका रिसाव वाला पानी जमा होता है। (ग) चाट पर गिरने वाले बरसाती पानी को जमा करना - जैसे टाँके। (घ) कृत्रिम आगोर बनाकर जमीन के अन्दर बने हौजों में पानी जमा करना- जैसे राजस्थान के कुंड। (च) जमीन के खारे पानी से बरसाती मीठे पानी को अलग रखने वाली खास विधियाँ- जैसे कच्छ का विरडा। (छ) मध्य-पूर्व की एक खास व्यवस्था सुरंगम प्रणाली जिसमें पहाड़ी पर गिरने वाला पानी अन्दर ही अन्दर कुएँ में आता है। |
3. | मैदानी इलाका | (क) बाढ़ वाले इलाके में इस पानी खेतों की ओर मोड़ने वाली जलोत्प्लावन प्रणाली। (ख) खेतों की मेंड़ें मजबूत करके उनके अन्दर ही पानी रोकना, जैसे मध्य प्रदेश की हवेली प्रणाली। | (क) कुएँ |
4. | तटीय क्षेत्र | (क) समुद्री खारे पानी को ऊपर आने से रोकने वाली व्यवस्था। | (क) कुएँ |
स्रोत : सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट, नई दिल्ली |
खड़ीन पश्चिमी राजस्थान की एक और प्राचीन वैज्ञानिक प्रणाली है जो आज भी शुष्क क्षेत्रों के लिये मददगार है। खड़ीन या धोरा की तकनीक 15वीं सदी के पालीवाल ब्राह्मण किसानों ने विकसित की थी। दरबार इन किसानों को जमीन देते थे और खड़ीन विकसित करने के लिये कहते थे। कुल उपज का एक चौथाई हिस्सा किसानों को जाता था। खड़ीन में मिट्टी का एक बड़ा बाँध बनाया जाता है जो किसी ढलान पर गिरकर नीचे आने वाले पानी को रोकता है। यह 1.5 से 3.5 मीटर तक ऊँचा होता है जोकि ढलान वाली दिशा को खुला छोड़कर बाकी तीन दिशाओं को घेरता है।

राजस्थान में बारिश के पानी को सहेजकर रखने की कई विधियाँ विकसित की गईं। इनमें मकान की छत पर गिरे पानी को जमा करने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। जल संचयन के लिये राजस्थान की कुंडियाँ आज भी आकर्षण का केन्द्र हैं। कुंडी एक प्रकार का कृत्रिम कुआँ है जो अपने जलग्रहण क्षेत्र के बरसाती पानी को अपनी ओर खींच लेता है। राजस्थान के थार क्षेत्र कुंडियों की परम्परा आज भी कायम है। कुंडी मुख्यतः पेयजल का भूमिगत छोटा तालाब होता है जो ऊपर से ढका रहता है। आमतौर पर मिट्टी और कहीं-कहीं सीमेंट से बनी कुण्डियाँ राजस्थान के पश्चिमी शुष्क इलाके में जगह-जगह मिलती हैं। इन क्षेत्रों में कुछ भूजल निकलता भी है तो वह खारा होता है। ऐसी जलवायु में कुंडी स्वच्छ मीठा जल उपलब्ध करती है। कुंडियां सामुदायिक और निजी दोनों प्रकार से बनाई गई हैं। उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार पश्चिमी राजस्थान में पहली कुंडी सन 1607 में वाडी के मेलान गाँव के राजा सुरसिंह ने बनवाई थी।
राजस्थान में जल संचय की एक और पारम्परिक व्यवस्था टोबा या नाडी कहलाती है। प्राकृतिक रूप से गहरी हो गई पयतन वाली जगह ही टोबा कहलाती है। ढलान के नीचे की, कम रिसावदार जमीन को टोबा बनाने के लिये चुना जाता है। स्थानीय लोगों और पशुओं को टोबा से पानी की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही इसकी आस-पास की जमीन पर उगी घास पशुओं के चारे में काम आती है।
उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के नौला भी जल संचयन की पारम्परिक तकनीक का उदाहरण हैं। नौला भूगर्भ जल संचयन की विधि है जिसमें भूगर्भ जल धरा पर पत्थरों का ढाँचा बनाकर जल संग्रह किया जाता है। नौला जलस्रोत के समीप खुदाई कर बनाए जाते हैं जिसमें लाइम स्टोन की चौकोर स्लेटें बिछाई जाती हैं और ऊपर से ढाँचे को तीनों ओर से पत्थरों से ढक लिया जाता है। जिस ओर से जल निकलना होता है उस ओर इसे खुला रखा जाता है। नौले को तीनों ओर तथा ऊपर से इस तरह ढका जाता है कि जल वाष्पित न हो पाए और पानी का स्तर भी सतत बना रहे। एक नौले में एक से दो हजार लीटर पानी जमा रहता है। आज भी उत्तराखण्ड के कई गाँवों में जलापूर्ति नौलों से होती है जो आस्था का प्रतीक भी माने जाते हैं।

समुद्र-तटीय इलाकों में समुद्र का खारा पानी नदियों के जल को खारा कर देता है जो कृषि लायक नहीं रहता। समुद्री इलाकों के लोगों ने नदियों को खारे पानी से बचाने के लिये कई तरकीबें निकालीं। गोवा के खजाना इलाके के लोगों ने खारे पानी के प्रवाह को संयमित रखने, अपने धान के खेतों को उनके कुप्रभाव से बचाने और जमीन की उर्वरता को बनाए रखने की प्रणाली विकसित की।
गुजरात के कच्छ के मालधारी घुमन्तु लोगों ने मीठे पानी के संग्रहण का एक वैज्ञानिक तरीका विरडा विकसित किया है। कच्छ क्षेत्र में बारिश बहुत कम होती है और भूजल खारा है। मालधारी लोग जानते हैं कि मीठे पानी का घनत्व खारे पानी से कम होता है, इसलिये सैद्धान्तिक तौर पर यह सम्भव है कि संचित मीठे जल को घने खारे पानी के ऊपर तैरते रखा जा सकता है। इस तरकीब से कच्छ जैसे शुष्क इलाके में पीने के पानी के संकट से निजात मिल सकी है और स्थानीय लोगों के पारम्परिक बौद्धिक ज्ञान और जीवन कौशल से मीठे जल के संचयन की प्रणाली भी विकसित कर ली है जिसे ‘विरडा’ के नाम से जानते हैं।

दक्षिण बिहार में आहर-पइन प्रणाली प्रचलित थी। आहर बहते पानी को घेरने वाले आयताकार बाँधयुक्त क्षेत्र थे, जबकि पइन पहाड़ी नदियों के पानी को खेतों तक पहुँचाने का माध्यम था। आहर तीन ओर से जल से घिरी हुई आयताकार आकार में होती है जिनसे पइन द्वारा जल खेतों तक पहुँचाया जाता है। आहर-पइन व्यवस्था का उपयोग सर्वप्रथम जातक युग में आरम्भ हुआ था। इसका उपयोग लोग मिल-जुलकर किया करते थे लेकिन निरन्तर बाढ़ों के कारण इनका प्राचीन स्वरूप परिवर्तित हो गया है। महाराष्ट्र में फड़ प्रणाली परम्परागत तरीके से जल संचय की उपयुक्त प्रणाली है। इसका इतिहास 300 से 400 वर्ष पुराना है, जब इनका विकास सर्वप्रथम नासिक एवं धुले जिलों में हुआ। महाराष्ट्र के ठाणे एवं कुलाबा में समुद्री ज्वार से आए पानी को खेतों में सिंचाई हेतु बाँधों में संरक्षित किया जाता था। इस प्रणाली को शिलोत्री कहते हैं, जिसका प्रारम्भ सर्वप्रथम मराठा शासकों द्वारा किया गया।
आज आवश्यकता है कि हम अपनी परम्परागत जल संचयन प्रणालियों को संवारें और जल संचयन से जुड़े सामाजिक कार्यों व शोध अध्ययनों में कालजयी जलीय संरचनाओं को और अधिक बेहतर बनाने पर जोर दें।
लेखक परिचय
(लेखक विज्ञान एवं संचार कार्यों से जुड़े हैं एवं विज्ञान प्रसार में वैज्ञानिक ‘ई’ के पद पर कार्यरत हैं। ई-मेल : nimish2047@gmail.com