बदलता तापमान और उससे लगातार गरम होती जा रही धरती के मामले में पेट्रोलियम पदार्थों के प्रति हमारी यह निर्भरता अतिक्रमण ही कहलाएगी। हवा, पानी व धूप से तैयार की गई ऊर्जा, बिजली की ओर लौटना प्रतिक्रमण होगा। हमारे प्रतिक्रमण की शुरुआत का पहला कदम होगा उपभोक्तावाद पर लगाम लगाना। इन दिनों चारों तरफ निराशा है। वैज्ञानिक, पर्यावरणवादी व मौसम विज्ञानी- सभी तो यही दावा कर रहे हैं कि प्रलय करीब है और मानव सभ्यता अपने विनाश की ओर बढ़ चली है। एक के बाद एक आने वाली नई किताबें हमें बताती हैं कि हमने उस चरम बिंदु को पार कर लिया है और हम एक ऐसे बिंदु पर पहुंच गए हैं, जहां से लौटने का कोई रास्ता नहीं है। हमारा आसमान कार्बन डाईआक्साइड जैसी जहरीली गैसों से भर गया है और वातावरण ग्रीनहाउस गैसों से। हमें यह भी बताया जाता है कि हमारी यह धरती गरम हो चली है। अब हम चाहे कुछ भी कर लें, इस बढ़ते तापमान को कम नहीं कर सकते। इस बढ़ते तापमान से उत्तरी-दक्षिणी ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी और समुद्रों का जल-स्तर ऊपर उठेगा। इससे समुद्र किनारे बसे देश, शहर, गांव सभी डूबेंगे। यह अमीर-गरीब का अंतर नहीं देखेगा। लंदन भी डूबेगा, बंबई भी। पिछले वर्षों में जो अमेरिका के न्यू आरलीन्स में हुआ, वही न्यूयार्क में भी होगा। उड़ीसा, आंध्र, बंगाल, म्यामार (बर्मा) बंग्ला देश में- सभी जगह समुद्री तूफान तेजी से उठेंगे। धरती का गरम होना अब रुक नहीं पाएगा-विशेषज्ञों व कार्यकर्ताओं द्वारा भयावहता की एक जैसी तस्वीर प्रस्तुत की जा रही है।
हम बढ़ते तापमान के इस संकट की भयावहता को नजरअंदाज नहीं करते हम उन वैज्ञानिकों का आदर करते हैं, जो भविष्य को मानवता के लिए खतरनाक बता रहे हैं। हमारी वर्तमान जीवन-पद्धति जीवाश्म ईंधन, पेट्रोल पर इस कदर निर्भर है कि अब वह कगार तक पहुंच चुकी है। यानी यदि हम जरा भी आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से खाई में जा गिरेंगे। इसलिए ऐसे में हमारे पास वापस लौटने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। तो आइए न, हम इसे ‘वापस लौटने का क्षण कहें’। अब हमें ऐसी जीवन पद्धति की ओर लौटना ही होगा जो पेट्रोल की खतरनाक निर्भरता से मुक्त हो।
फिलहाल, हम अपनी यात्राओं, पास-दूर आने-जाने पर, खाने-पीने पर, कपड़े-लत्तों पर, मकान, प्रकाश और तो और मनोरंजन पर भी प्रति-दिन लाखों बैरेल, करोड़ों लीटर पेट्रोलियम पदार्थ फूंकते रहते हैं। ऐसी जीवन पद्धति, हम सबके जीने का यह तरीका न केवल बेकार है, बहुत अस्थिर है, डगमग है, बल्कि खतरनाक भी है। जिस पेट्रोल के खजाने को जमा करने में प्रकृति को कोई बीस करोड़ वर्ष लगे थे, उसे हम मात्र 200 वर्षों के भीतर ही लगभग समाप्त कर चुके हैं। जिस गति से हम पेट्रोल, गैस के इस दुर्लभ खजाने को लूट रहे हैं, वह जरा भी ठीक नहीं कहा जा सकता। यह न्यायसंगत नहीं है।
आज नहीं तो कल हमें वापस तो लौटना ही होगा। इस वापसी के बिंदु के लिए संस्कृत में एक सुंदर शब्द हैः प्रतिक्रमण। यह अतिक्रमण शब्द से ठीक उलटा है। अतिक्रमण का अर्थ है अपनी स्वाभाविक सीमाओं से बाहर निकल जाना। जब हम किसी अटल नियम को तोड़ते हैं तो वह अतिक्रमण कहलाता है। इसके ठीक उलटा है प्रतिक्रमणः किसी क्रिया के केंद्र की ओर या मन की आवाज के स्रोत बिंदु की ओर लौटना ही प्रतिक्रमण है। संस्कृत के ये दोनों शब्द हमारे संकट व उससे उबरने के संभावित रास्ते को समझने के लिए उपयोगी दृष्टि उपलब्ध कराते हैं। अपनी आत्मा को जानने के लिए गंभीर आत्ममंथन की जरूरत है। हमें खुद से यह पूछने की जरूरत है कि क्या हम अपनी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं या बस अपनी लालच को पूरा करने में उलझते चले जा रहे हैं। और यह सब करते हुए हम इस धरती को कुछ स्वस्थ बना रहे हैं या उसे पहले से भी ज्यादा बीमार!
बदलता तापमान और उससे लगातार गरम होती जा रही धरती के मामले में पेट्रोलियम पदार्थों के प्रति हमारी यह निर्भरता अतिक्रमण ही कहलाएगी। हवा, पानी व धूप से तैयार की गई ऊर्जा, बिजली की ओर लौटना प्रतिक्रमण होगा। हमारे प्रतिक्रमण की शुरुआत का पहला कदम होगा उपभोक्तावाद पर लगाम लगाना। पश्चिम के बहुत-से देशों में नए हाईवे, एक्सप्रेस-वे जैसी योजनाओं को बनने व बढ़ने से रोकना होगा। पूरी दुनिया में उद्योग बनती जा रही खेती पर तत्काल रोक लगानी ही पड़ेगी। एक बार जब पेट्रोल के इस्तेमाल पर रोक लगा लेंगे, तभी सुधार का काम व परंपरागत संसाधनों की तरफ लौटने की अपनी यात्रा की शुरुआत हो सकेगी। यदि हम अपनी इस वापसी यात्रा पर सावधानी से चल पड़ते हैं तो वह बहुप्रचारित सर्वविनाश भी थाम लिया जा सकेगा। गरम होती धरती की चुनौती से निपटने के लिए हमें अपनी उपभोक्ता की भूमिका को बदल कर रचयिता की भूमिका पर आने की जरूरत है। कम-से-कम अब तो हम यह जान जाएं कि मानव जीवन की खुशहाली, शांति व आनंदपूर्ण जीवन, सादगी भरे जीवन से ही हासिल हो सकता है।
हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर, चकाचौंध से भव्यता की ओर, पीड़ा से राहत की ओर, धरती को जीतने के बदले उसके संवर्द्धन की ओर लौटने के एक शानदार मोड़ पर खड़े हैं।
चारों तरफ फैल रही निराशा के बीच आशा रखने का मन बनाना भी एक बड़ा कर्तव्य है।
सतीश कुमार इंग्लैंड से प्रकाशित ‘रिसर्जेंस’ पत्रिका के संपादक हैं। यह पत्रिका प्रकृति, अध्यात्म, ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और रचनात्मक विचारों की पोषक और वाहक है।
हम बढ़ते तापमान के इस संकट की भयावहता को नजरअंदाज नहीं करते हम उन वैज्ञानिकों का आदर करते हैं, जो भविष्य को मानवता के लिए खतरनाक बता रहे हैं। हमारी वर्तमान जीवन-पद्धति जीवाश्म ईंधन, पेट्रोल पर इस कदर निर्भर है कि अब वह कगार तक पहुंच चुकी है। यानी यदि हम जरा भी आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से खाई में जा गिरेंगे। इसलिए ऐसे में हमारे पास वापस लौटने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है। तो आइए न, हम इसे ‘वापस लौटने का क्षण कहें’। अब हमें ऐसी जीवन पद्धति की ओर लौटना ही होगा जो पेट्रोल की खतरनाक निर्भरता से मुक्त हो।
फिलहाल, हम अपनी यात्राओं, पास-दूर आने-जाने पर, खाने-पीने पर, कपड़े-लत्तों पर, मकान, प्रकाश और तो और मनोरंजन पर भी प्रति-दिन लाखों बैरेल, करोड़ों लीटर पेट्रोलियम पदार्थ फूंकते रहते हैं। ऐसी जीवन पद्धति, हम सबके जीने का यह तरीका न केवल बेकार है, बहुत अस्थिर है, डगमग है, बल्कि खतरनाक भी है। जिस पेट्रोल के खजाने को जमा करने में प्रकृति को कोई बीस करोड़ वर्ष लगे थे, उसे हम मात्र 200 वर्षों के भीतर ही लगभग समाप्त कर चुके हैं। जिस गति से हम पेट्रोल, गैस के इस दुर्लभ खजाने को लूट रहे हैं, वह जरा भी ठीक नहीं कहा जा सकता। यह न्यायसंगत नहीं है।
आज नहीं तो कल हमें वापस तो लौटना ही होगा। इस वापसी के बिंदु के लिए संस्कृत में एक सुंदर शब्द हैः प्रतिक्रमण। यह अतिक्रमण शब्द से ठीक उलटा है। अतिक्रमण का अर्थ है अपनी स्वाभाविक सीमाओं से बाहर निकल जाना। जब हम किसी अटल नियम को तोड़ते हैं तो वह अतिक्रमण कहलाता है। इसके ठीक उलटा है प्रतिक्रमणः किसी क्रिया के केंद्र की ओर या मन की आवाज के स्रोत बिंदु की ओर लौटना ही प्रतिक्रमण है। संस्कृत के ये दोनों शब्द हमारे संकट व उससे उबरने के संभावित रास्ते को समझने के लिए उपयोगी दृष्टि उपलब्ध कराते हैं। अपनी आत्मा को जानने के लिए गंभीर आत्ममंथन की जरूरत है। हमें खुद से यह पूछने की जरूरत है कि क्या हम अपनी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं या बस अपनी लालच को पूरा करने में उलझते चले जा रहे हैं। और यह सब करते हुए हम इस धरती को कुछ स्वस्थ बना रहे हैं या उसे पहले से भी ज्यादा बीमार!
बदलता तापमान और उससे लगातार गरम होती जा रही धरती के मामले में पेट्रोलियम पदार्थों के प्रति हमारी यह निर्भरता अतिक्रमण ही कहलाएगी। हवा, पानी व धूप से तैयार की गई ऊर्जा, बिजली की ओर लौटना प्रतिक्रमण होगा। हमारे प्रतिक्रमण की शुरुआत का पहला कदम होगा उपभोक्तावाद पर लगाम लगाना। पश्चिम के बहुत-से देशों में नए हाईवे, एक्सप्रेस-वे जैसी योजनाओं को बनने व बढ़ने से रोकना होगा। पूरी दुनिया में उद्योग बनती जा रही खेती पर तत्काल रोक लगानी ही पड़ेगी। एक बार जब पेट्रोल के इस्तेमाल पर रोक लगा लेंगे, तभी सुधार का काम व परंपरागत संसाधनों की तरफ लौटने की अपनी यात्रा की शुरुआत हो सकेगी। यदि हम अपनी इस वापसी यात्रा पर सावधानी से चल पड़ते हैं तो वह बहुप्रचारित सर्वविनाश भी थाम लिया जा सकेगा। गरम होती धरती की चुनौती से निपटने के लिए हमें अपनी उपभोक्ता की भूमिका को बदल कर रचयिता की भूमिका पर आने की जरूरत है। कम-से-कम अब तो हम यह जान जाएं कि मानव जीवन की खुशहाली, शांति व आनंदपूर्ण जीवन, सादगी भरे जीवन से ही हासिल हो सकता है।
हम स्थूल से सूक्ष्म की ओर, चकाचौंध से भव्यता की ओर, पीड़ा से राहत की ओर, धरती को जीतने के बदले उसके संवर्द्धन की ओर लौटने के एक शानदार मोड़ पर खड़े हैं।
चारों तरफ फैल रही निराशा के बीच आशा रखने का मन बनाना भी एक बड़ा कर्तव्य है।
सतीश कुमार इंग्लैंड से प्रकाशित ‘रिसर्जेंस’ पत्रिका के संपादक हैं। यह पत्रिका प्रकृति, अध्यात्म, ज्ञान-विज्ञान, कला-संस्कृति और रचनात्मक विचारों की पोषक और वाहक है।