वाराणसी

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वाराणसी 1. जिला, स्थिति : 240 400 से 250 350 उ. अ. तथा 820 140 से 830 350 पू. दे.। यह उत्तर प्रदेश राज्य का एक जिला है। इसका क्षेत्रफल 1,965 वर्ग मील है। इस जिले के उत्तर में जौनपुर एवं गाजीपुर, दक्षिण में मीरजापुर, पश्चिम में इलाहाबाद, पूर्व में शाहाबाद (बिहार) जिले हैं। यहाँ की भूमि की ढाल दक्षिण-पश्चिम से उत्तर पूर्व की ओर है। गंगा नदी जिले को दो भागों में विभक्त करती हुई बहती है। जिले में गंगा के अतिरिक्त वरुणा, गोमती, कर्मनाशा, चंद्रप्रभा, गरई तथा कई बरसाती नदियाँ भी हैं। यहाँ की भूमि काफी उपजाऊ है। यहाँ की मुख्य उपज गेहूँ, धान, चना, सावाँ, कोदो, मक्का, अरहर तथा मटर है। यहाँ जनवरी का औसत ताप 650 स 750 फा तथा मई में 850 से 950 फा. रहता है। इस जिले के प्रमुख नगर वाराणसी, रामनगर तथा भदोही हैं। जिले के दर्शनीय स्थल वाराणसी में सारनाथ, हिंदू विश्वविद्यालय, गंगा के घाट, मंदिर आदि, रामनगर में राजा का किला, तथा चकिया तहसील में चंद्रप्रभा जंतुविहार हैं।

2. नगर, स्थिति 250 150 से 250 230 उ. अ. तथा 820 590 से 830 50 पू. दे.। काशी, बनारस या वाराणसी नगर गंगा नदी के बाईं ओर बसा हुआ है। इसका क्षेत्रफल 28.53 वर्ग मील है। प्राचीन काल में काशी के राजपथ पश्चिम से पूरब गंगा की ओर जाते थे और अब उत्तर से दक्षिण की ओर जाते हैं। नगर में पाँच मुख्य सड़कें हैं। पहली कैंट स्टेशन से काशी हिंदू विश्वविद्यालय तक जाती है। इस मार्ग पर काशी विद्यापीठ है, जिसकी स्थापना 10 फरवरी, 1921 ई. को महात्मा गांधी, डा. भगवानदास और बाबू शिप्रसाद गुप्त के सहयोग से हुई थी। भारत के अनेक नेता इसी संस्थान के छात्र रह चुके हैं। इसके पीछे मुसलमानों का ऐतिहासिक कब्रगाह, फातमान है। काशी विद्यापीठ के आगे भारतमाता मंदिर है। इसका शिलान्यास सं. 1984 वि. में डा. भगवानदास जी के द्वारा हुओ है। यह बाबू शिवप्रसाद गुप्त जी की अविस्मरणीय देन है। मंदिर का भूचित्र संगमरमर और भवन सादे पत्थरों से बनवाया गया है। इसी मार्ग पर आगे नगरमहापालिका का आधुनिक ढंग से निर्मित विशाल भवन, सन्‌ 1898 ई. ऐनीबेसेंट द्वारा स्थापित सेंट्रल हिंदू स्कूल, महाराजकुमार विजयानगरम्‌ का विशाल भवन और काशी का सबसे विशाल भवन, जीवन बीमा निगम, का है। आगे रानी भवानी द्वारा निर्मित दुर्गा जी का मंदिर, कुंड और श्री सुरेका द्वारा निर्मित बहुत ही भव्य मानस मंदिर है। पास ही में गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा स्थापित संकटमोचन का मंदिर है। नगर के अंत में महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी द्वारा स्थापित भारत में अपने ढंग का सबसे विशाल विश्वविद्यालय, काशी हिंदु विश्वविद्यालय, है। इस विश्वविद्यालय में अनेक कालेज हैं तथा प्रत्येक कालेज में एक से अधिक विभाग हैं। वाराणसी का सबसे ऊँचे शिखरवाला विश्वनाथ मंदिर भी विश्वविद्यालय में ही है।

विश्वविद्यालय से मैदागिन जानेवाली सड़क नगर की दूसरी प्रमुख सड़क है। इसकी बाईं ओर तुलसीघाट पर तुलसी मंदिर है। इस मंदिर में गोस्वामी तुलसीदास की पादुका और कंठी है। यहीं अमरीकी ऐकेडेमी नामक एक संस्था है, जहाँ कला संबंधी पुस्तकों और चित्रों का अद्वितीय संग्रहालय है। यहाँ संसार के श्रेष्ठ कला आलोचक बराबर आते रहते हैं। आगे शिवाला घाट है, जहाँ सन्‌ 1781 में ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों के साथ चेतसिंह और वाराणसी के नागरिकों का घमासान युद्ध हुआ था। पास ही वाराणसी की दूसरी श्मशान भूमि हरिश्चंद्र घाट है। इस घाट के आगे संसारप्रसिद्ध बनारसी साड़ियों के कारीगरों का मुहल्ला, मदनपुरा, है। गोदौलिया से, जो नगर का प्रमुख चौराहा है, एक सड़क पश्चिम की ओर डीज़ल लोकोमेटिव वर्क्स की ओर चली गई है। गोदोलिया से आगे ज्ञानवापी पर काशी का सबसे प्राचीन पुस्तकालय, कारमाइकेल लाइब्रेरी है, जिसकी स्थापना 1872 ई. में हुई थी। पास ही में औरंगज़ेब द्वारा नष्ट किए गए विश्वनाथ मंदिर पर निर्मित ज्ञानवापी मसजिद, विश्वनाथ मंदिर, मानसिंह द्वारा निर्मित आदिविश्वेश्वर मंदिर इत्यादि हैं। यहीं चौक है। काशी का यही प्रमुख बाजार है।

नगर की तीसरी सड़क गोदौलिया से कचहरी तक चली गई है। इस सड़क पर काशी का सबसे प्राचीन कॉलेज, क्वींस कॉलेज, है। 1791 ई. में सर्वप्रथम इसकी स्थापना संस्कृत पाठशाला के रूप में की गई थी। बाद में, 1853 ई. में इसे क्वींस कालेज का रूप दे दिया गया। अब इस भवन में संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित है। क्वींस कालेज लहुराबीर पर स्थानांतरित कर दिया गया है। संस्कृत विश्वविद्यालय के अंतर्गत सरस्वती भवन नामक पुस्तकालय है, जहाँ हस्तलिखित और मुद्रित संस्कृत पुस्तकों का भारत में सबसे बड़ा संग्रहालय है। संस्कृत विश्वविद्यालय से आगे महाराजा बनारस की नंदेश्वर कोठी है। नगर की अंतिम और पाँचवी सड़क कैंट स्टेशन से राजघाट तक गई है। इस मार्ग पर कबीर पंथियों का कबीर मठ, नागरी नाटक मंडली का भवन, 1890 ई. में स्थापित ईश्वरी मेमोरियल अस्पताल, सन्‌ 1877 में स्थापित किंग एडवर्ड अस्पताल (जिसका वर्तमान नाम प्रसिद्ध दानवीर, बाबू शिवप्रसाद गुप्त के नाम पर शिवप्रसाद गुप्त अस्पताल हो गया है), राधास्वामी बाग (यह वह बाग है जहाँ वारेन हेस्टिग्ज़ आकर ठहरा था), भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाम पर 1875 ई. में स्थापित वर्तमान हरिश्चंद्र कालेज, तथा हिंदी की सबसे बड़ी संस्था नागरीप्रारिणी सभा (देखें नागरीप्रचारिणी सभा) है :

काशी मुख्यत: मंदिरों और गलियों की नगरी है। गलियों में बसी बस्ती ही प्राचीन काशी है जिसे पक्का महाल' कहा जाता है। बाहरी बस्तियाँ विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं तथा व्यक्तियों के स्मारक के रूप में बसाई गई हैं। जैसे दाराशिकोह के नाम पर दारानगर, नवाब सआदत अली के ठहरने के स्थान पर नवाबगंज, बसे। जहाँ नवाब के खोजे और घसियारे ठहरे थे, वे स्थान खोजवाँ और घसियारी टोला कहलाए। इसी प्रकार मानमंदिर, मानसरोवर औरंगाबाद, मीरघाट और अलईपुर क्षेत्र की अनेक गलियाँ व्यक्तिविशेष के स्मारक हैं। काशी के मुख्य देवता बाबा विश्वनाथ हैं, पर इसका विश्वनाथ नाम तुगलककाल के बाद हुआ है। इसके पूर्व नाम 'अविमुक्तेश्वर' और 'देवदेव स्वामी' रहा। खुदाई से प्राप्त सामग्री तथा अन्य विवरणों से इस बात की पुष्टि होती है। स्वय ह्वेसांग ने काशीवासियों को 'महेश्वर के पूजनेवाले' लिखा है। आज भीकाशी के अनेक मुहल्लों और मंदिरों के नाम मध्यमेश्वर, विश्वेश्वर, शूलटंकेश्वर, पातालेश्वर, मोक्षेश्वर, रामेश्वर जैसे हैं। वाराणसी में मुख्य मंदिर राजघाट के समीप था, जिसे गोरी ने सर्वप्रथम तोड़ा था। इसके बाद हरतीरथ के पास दूसरा मंदिर बनाया गया था। तीसरा विश्वनाथ मंदिर 16वीं शताब्दी के अंतिम चरण में नारायण भट्ट ने राजा टोडरमल की सहायता से बनवाया, जिसे 1669 ई. में औरंगजेब ने ध्वस्त कर दिया। इसके 116 वर्ष बाद वर्तमान विश्वनाथ मंदिर रानी अहिल्याबाई ने बनवाया। आजकल काशी में तीन विश्वनाथ मंदिर हैं, लेकिन काशी में स्थित मंदिर 300350 वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं हैं। काशी का सबसे प्राचीन मंदिर कर्दमेश्वर मंदिर है, जो शहर से काफी दूर होने के कारण ध्वस्त नहीं हुआ। इसका निर्माण 11वीं शताब्दी में कर्णचेदी ने करवाया था।

दर्शनीय स्थल- धार्मिक क्षेत्र होने के कारण काशी प्रत्येक धर्मावलंबी के लिए तीर्थस्थल है ही, इसके अलावा विदेशी यात्रियों के लिए अमरनाथ और काशी के घाट विशेष रूप से दर्शनीय हैं। सारनाथ वाराणसी के उत्तर में 6 मील दूर स्थित है। यहीं बुद्ध ने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया था। इस स्थान को इसीपत्तन, मृगदाब, सारंगनाथ और सारनाथ कहा गया है। ई. पू. तीसरी शताब्दी में अशोक ने यहाँ धमेख स्तूप, धर्मराजिका बनवाया था। गोरी के आक्रमण के बाद से सारनाथ की अवनति होती गई। जगतसिंह नामक व्यक्ति ने वहाँ से अनेक सामग्री लाकर नगर में एक मुहल्ला बसा डाला, बाद में जब ब्रिटिश सरकार का ध्यान इस ओर गया तब इसकी सुरक्षा की व्यवस्था की गई। स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात्‌ प्रांतीय सरकार ने सारनाथ की ओर विशेष ध्यान दिया। नए राजमार्गों के अलावा, हिरणों के विचरण के लिए बाग, नहर और फूलों के बाग लगाए गए हैं। इस स्थान की उन्नति के लिए लंकानिवासी अनागरिक धर्मपाल की देन अविस्मरणीय है। यहाँ सरकार द्वारा स्थापित अजायबघर, चीनी बौद्ध मंदिर, अतिथिशाला और वाराणसी का रेडियो स्टेशन है।

काशी के घाट सबसे महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल हैं। गंगा यहाँ आकर इस प्रकार उत्तरवाहिनी हुई हैं कि काशी के घाटों को धनुषाकार रूप ग्रहण करना पड़ा है। काशी की सुरक्षा तथा इस तरह धनुषाकार रूप में घाटों को बसाने का एकमात्र श्रेय काशीनरेश बलवंत सिंह को दिया जा सकता है, जिन्होंने भारत के विभिन्न देशी राजाओं को गंगातट पर घाट बनवाने के लिए आमंत्रित किया था। काशी के अधिकांश घाट भारत के देशी राजाओं की देन हैं। इन घाटों के कारण ही प्राचीन काशी सुरक्षित है। घाटों के अलावा रामनगर का किला, भारतमाता मंदिर, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, मानमंदिर घाट पर स्थित वेधशाला, ललिता घाट पर स्थित नेपाली मंदिर आदि दर्शनीय स्थल हैं।

धर्म और साहित्य- प्राचीन काल से ही काशी आर्य धर्म और संस्कृत का केंद्र रही है। वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म के अलावा हिंदू धर्म की अन्य शाखाओं के मठ और पीठस्थान यहाँ हैं। शंकराचार्य द्वारा सनातन धर्म का उद्धार करने के पश्चात्‌ काशी संन्यासियों का गढ़ बन गया। रामानुज, निंबार्क, चैतन्य, गौड़, माधवाचार्य, बल्लभाचार्य, नानकपंथी, गोरखपंथी, अघोरपंथी, लिंगायत, राधास्वामी, तोताद्रि मठवालों के अखाड़े और पीठ यहाँ हैं। नगर में रामकृष्ण मिशन, भारतसेवा संघ आदि की शाखाएँ हैं तथा आनंदमयी माँ का आश्रम है।

काशी की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि काशी बिना प्रांतीयता का भेदभाव बरते, प्रत्येक व्यक्ति को संस्कृत भाषा के अध्ययन में सहयोग देती रही। फलस्वरूप संस्कृत के विकास में काशी की देन अक्षुण्ण है और यह संसारप्रसिद्ध विद्वानों का गढ़ बन गई। इन विद्वानों के कारण भारत की प्राचीन संस्कृति और धर्म सुरक्षित है। भाषाविज्ञान के आचार्यों के मत से हिंदी साहित्य का मूल स्थान काशी है। भक्ति साहित्य का सूत्रपात करनेवाले रामानंद के शिष्य कबीर एवं रैदास ने निर्गुण भक्ति साहित्य तथा गोस्वामी तुलसीदास ने सगुण भक्ति साहित्य का निर्माण यहीं किया था। आधुनिक हिंदी साहित्य के जन्मदाता भारतेंदु हरिश्चंद्र, छायावाद के महान्‌ कवि जयशंकर प्रसाद, ब्रजभाषा के अंतिम कवि जगन्नाथदास 'रत्नाकर', महान्‌ आलोचक रामचंद्र शुक्ल तथा अमर उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद काशी के ही रहे। काशी हास्यरस के लेखकों का भी गढ़ है। शीघ्र ही भारत में इसे अरबी साहित्य के विकास की केंद्रभूमि बनने का गौरव भी प्राप्त हो जाएगा।

अब काशी में औद्योगिक विकास की ओर भी ध्यान दिया जा रहा है। यहाँ की बनारसी साड़ियाँ, लकड़ी के खिलौने, पीतल के बरतन तो प्रसिद्ध रहे ही हैं अब काशी देश को प्रति वर्ष रेलवे इंजन देने लगा है। बनारस लँगड़े, अमरूद, नीबू और भंटों के लिए भी प्रसिद्ध है।

इतिहास- देखें काशी।
सं. ग्रं.  प्रो. भोलानाथ सिंह तथा श्री फूलदेव सहाय वर्मा, संपादक : बनारस; डा. मोतीचंद्र : काशी का इतिहास; डा. वासुदेव शरण अग्रवाल : प्राचीन काशी; विश्वनाथ मुखर्जी : बना रहे बनारस तथा अतीत और वर्तमान काशी : डा. संपूर्णानंद : चेतसिंह का विद्रोह। (बिभा मुकर्जी)

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अन्य स्रोतों से




संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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