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पर्यावरण विमर्श
जैसे-जैसे मनुष्य अपनी वैज्ञानिक शक्तियों का प्रयोग करता जा रहा है, वैसे-वैसे प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है। विकसित देशों में वातावरण का प्रदूषण सबसे अधिक बढ़ रहा है और यह ऐसी चिंता एवं समस्या है, जिसे किसी विशिष्ट क्षेत्र या राष्ट्र की सीमाओं में बांधकर नहीं देखा जा सकता। यह विश्वव्यापी समस्या है, इसीलिए सभी राष्ट्रों का संयुक्त प्रयास ही इस समस्या से मुक्ति दिलाने में सहायक हो सकता है। वेद शब्द से वह ज्ञान अभिप्रेत है, जिसको सर्वप्रथम ऋषि-महर्षियों ने खोजा अथवा साक्षात्कृत किया। वेद संपूर्ण वाङ्मय का बोधक शब्द है। ऋषियों ने जिस परमात्मास्वरूप ज्ञान का साक्षात्कार किया, वह दीप्तिपुंज, वेद, भारतीय ज्ञान गंगा का उत्स है, जो अपनी दिव्य आभा से स्वयं भासित है।
वेद अपौरुषेय और अनादि हैं, इसलिए वे स्वयंभू, स्वयं प्रकाश और स्वतः प्रमाण हैं। भारतीय संस्कृति के इतिहास में वेदों का स्थान अत्यंत गौरवपूर्ण है। अपने प्रातिम चक्षु के सहारे साक्षात्कृत धर्म ऋषियों द्वारा अनुभूत अध्यात्म शास्त्र के तत्वों की विशाल शब्दराशि का ही नाम वेद है। लौकिक वस्तुओं का साक्षात्कार करने के लिए जिस प्रकार नेत्र की उपयोगिता है, उसी प्रकार अलौकिक तत्वों का रहस्य जानने के लिए वेद की उपादेयता है। इष्टप्राप्ति तथा अनिष्ट परिहार के लिए कि वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष के द्वारा दुर्बोध तथा अज्ञेय उपाय का ज्ञान स्वयं कराता है।
प्रकृति, भारतीयों के लिए सदा से पूजनीय रही है, चाहे कांति प्राप्ति के लिए सूर्य का पूजन हो, चाहे नारी को स्वामी की दीर्घायु का वरदान मांगना हो या निर्धन को कुबेर बनने का स्वप्न अथवा विद्यार्थी को विद्या प्राप्ति की कामना अथवा हमें जीवन प्रदान करने वाली नदियों की उपासना हो, इन सबके लिए हमें वेदों की शरण में ही जाना पड़ता है। वेदों में वर्णित नदी, सागर, सूर्य, चंद्र, जल और वायु- ये सभी हमारी आस्था के स्रोत रहे हैं। हमने तो वृक्षों से वरदान मांगना भी अपनी संस्कृति में समाहित कर लिया है। प्रकृति के अनेक वृक्षों का समय-समय पर पूजन करके हम यश और कीर्ति के अनुगामी बनते हैं।
अथर्ववेद में वृक्षों एवं वनों को संसार के समस्त सुखों का स्रोत कहा गया है। वृहदारण्यकोपनिषद् में बताया गया है कि वृक्षों में जीवनी शक्ति है। वन में व्याप्त महर्षियों के गुरुकुलों और आश्रम ने ही भारतीय ज्ञान-प्रणाली ने संसार की संपन्नता को विकसित किया। वनों में पले भरत जैसे वीरों ने शेर के दांत गिने। वृक्षों की अपूर्व जीवनदायिनी शांति के कारण वृक्षों को काटना वैदिक धर्म में पातक माना गया है, क्योंकि वृक्ष स्वयं बड़े परोपकारी होते हैं। वन हमारी संपदा रहे हैं और उसके पोषक तत्वों की रक्षा करते हैं। वृक्ष पर्वतों को थामे रखते हैं, वे तूफानी वर्षा को दबाते हैं तथा नदियों को अनुशासन में रखते हैं तथा पक्षियों का पोषण कर पर्यावरण को सुखद, शीतल एवं नीरोग बनाते हैं। अतः वृक्षों को वर्षा का संवाहक कहा जाता है। वन वर्षा के जल को सोखकर अपनी जड़ों द्वारा पानी की धार की बजाए घटाने के बढ़ाते रहते हैं। वेदों तथा पुराणों में दस गुणवान पुत्रों का यश उतना ही है, जितना एक वृक्ष लगाने का सांस्कृतिक विकास ही वनों की प्राकृतिक हरियाली में हुआ है। वनों की हरीतिमा हमारे विकास की प्रतीक है, यह नेत्रों को अपूर्व स्फूर्ति एवं चेतना प्रदान करती है।
पद्मपुराण में लिखा है जो मनुष्य सड़क के किनारे तथा जलाशयों के तट पर वृक्ष लगाता है, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षों तक फलता-फूलता रहता है, जितने वर्षों तक वह वृक्ष फलता-फूलता है।
स्वार्थ के वशीभूत होकर बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण लोगों ने पेड़ों को काटना आरंभ कर दिया। वन के वन नष्ट हो गए, इससे देश में अनावृष्टि होने लगी, रेगिस्तान के चरण बढ़ने लगे, धूल भरी आंधियां चलने लगीं। वातावरण और पर्यावरण प्रदूषित हने लगा।
वेदों में पर्यावरण का वर्णन अनेक स्थानों पर मिलता है। पर्यावरण का अर्थ है- पृथ्वी पर विद्यमान जल, वायु, ध्वनि, रेडियोधर्मिता एवं रासायनिक पर्यावरण। जब ये समृद्ध होते हैं तो हमें जीवन एवं नीरोगता प्रदान करते हैं। जब ये पर्यावरण के आवश्यक तत्व दूषित हो जाते हैं तो हमारी चिंता का विषय बन जाते हैं। यही पर्यावरण चिंता प्रदूषण का प्रयोग बन गया है। चारों ओर पर्यावरण में विकृति ही प्रदूषण को जन्म देती है।
आज हमारा वायुमंडल अत्यधिक प्रदूषित हो चुका है, जिसके कारण मानव का जीवन खतरे में आ गया है। दुनिया के प्रसिद्ध यात्री इब्नेबतूता ने भारत आने पर चौदहवीं शती के शासक मुहम्मद तुगलक के जीवनकाल के संस्मरणों में गंगा की पवित्रता एवं निर्मलता का उल्लेख करते हुए प्राथमिकताओं में अपने लिए गंगा के जल का प्रबंध भी सम्मिलित था। गंगाजल को ऊँट, घोड़े, हाथियों पर लादकर दौलताबाद पहुंचाने में डेढ़-दो महीने लगते थे। कहा जाता है कि गंगाजल तब भी साफ एवं मीठा बना रहता था, तात्पर्य यह है कि गंगाजल हमारी आस्थाओं और विश्वासों का प्रतीक इसी कारण बना था क्योंकि वह सब प्रदूषणों से मुक्त था, किंतु अनियंत्रित औद्योगिकरण, हमारे अज्ञान एवं लोभ की प्रवृत्ति ने, देश की अन्य नदियों के साथ गंगा को भी प्रदूषित किया है। वैज्ञानिकों का विचार है कि तन-मन की सभी बीमारियों को धो डालने की उसकी औषधीय शक्तियां अब समाप्त होती जा रही हैं। यदि प्रदूषण इसी गति से बढ़ता रहा तो गंगा के शेष गुण भी शीघ्र नष्ट हो जाएंगे और ‘गंगा तेरा पानी अमृत’ वाला मुहावरा निरर्थक हो जाएगा।
पर्यावरण चिंता में जल, वायु एवं स्थल की भौतिक, रासायनिक और जैविक विशेषताओं में होने वाला वह अवांछनीय परिवर्तन है, जो मनुष्य और उसके लिए लाभदायक दूसरे जंतुओं, पौधों, औद्योगिक संस्थानों तक दूसरे कच्चे माल इत्यादि को किसी भी रूप में हानि पहुंचाता है।
वेदों में कहा गया है कि जीवधारी अपने विकास और व्यवस्थित जीवन-क्रम के लिए एक संतुलित पर्यावरण एवं वातावरण पर निर्भर रहते हैं। संतुलित पर्यावरण में प्रत्येक घटक एक निश्चित मात्रा में उपस्थित रहता है। वातावरण में कुछ हानिकारक घटकों का प्रवेश हो जाता है, परिणामतः समस्त जीवधारियों के लिए किसी-न-किसी रूप में हानिकारक सिद्ध होता है जो पर्यावरणीय चिंता को जन्म देता है।
पर्यावरण के प्रति चिंता की समस्या का जन्म जनसंख्या वृद्धि के साथ हुआ है। विकासशील देशों में औद्योगिक, रासायनिक कचरे ने जल ही नहीं, वायु और पृथ्वी को भी प्रदूषित किया है। भारत जैसे देशों में घरेलू कचरे और गंदे जल की निकासी ने विकराल रूप ले लिया है।
सभी जीवधारियों के लिए जल बहुत महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। पौधे भी अपना भोजन जल के माध्यम से ही प्राप्त करते हैं, यह भोजन पानी में घुला रहता है। जल में अनेक प्रकार के खनिज तत्व, कार्बनिक-अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली रहती हैं, यदि जल में आवश्यकता से अधिक पदार्थ एकत्र हो जाते हैं तो जल प्रदूषित होकर हानिकारक हो जाता है और वह प्रदूषित जल उदर एवं यकृत के पीलिया जैसे भयंकर रोग को जन्म देता है।
वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसें एक विशेष अनुपात में उपस्थित रहती हैं। जीवधारी अपनी क्रियाओं द्वारा वायुमंडल में ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का संतुलन बनाए रखते हैं। अपनी श्वसन प्रक्रिया द्वारा हम ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते रहते हैं। हरे पौधे प्रकाश की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड लेकर ऑक्सीनज निष्कासित करते रहते हैं। इससे दोनों गैसों का संतुलन बना रहता है, किंतु मानव अज्ञानतावश अपनी आवश्यकता के नाम पर वनों को काटकर इस संतुलन को बिगाड़ता है। मिलों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं के कारण हानिकारक गैसों में सल्फर डाइऑक्साइड गैस का प्रदूषण में प्रमुख योगदान है।
वायु प्रदूषण से मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है, वायु में विकसित अनेक धातुओं के कण जैसे सीसा, कैडमियम, नाइट्रोजन, ओजोन और प्रदूषित वायु शरीर संस्थान में अनेक विकृतियां ला देते हैं। अनेक प्रकार के वाहन, मोटर-कार, बस, जैट विमान, ट्रैक्टर आदि तथा लाउड-स्पीकर, बाजे एवं कारखाने के साइरन व विभिन्न प्रकार की मशीनों आदि से ध्वनि-प्रदूषण उत्पन्न होता है। ध्वनि की लहरें जीवधारियों की क्रियाओं को प्रभावित करती हैं।
अधिक तेज ध्वनि से मनुष्य की सुनने की शक्ति का ह्रास होता है और अनिद्रा रोग सताता है। इससे स्नायुतंत्र विकृत होकर पागलपन को जन्म देता है। कुछ ध्वनियां छोटे-छोटे कीटाणुओं को नष्ट कर देती हैं, परिणामतः बहुत से पदार्थों का प्रकृतिक, रूप से अपघटन नहीं होता।
प्रायः कृषक अधिक पैदावार के लिए कीटनाशक और रोगनाशक दवाओं तथा रसायनों का प्रयोग करते हैं। इनका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। आधुनिक पेस्टीसाइडों का अंधाधुंध प्रयोग भी लाभ के स्थान पर हानि ही पहुंचा रहा है। जब ये रसायन जल के साथ बहकर नदियों द्वारा सागर में पहुंच जाते हैं तो वहां पर रहने वाले जीवों पर घातक प्रभाव डालते हैं। इतना ही नहीं, किसी-न-किसी रूप में मानव-देह भी इनसे प्रभावित होती है।
परमाणु शक्ति उत्पादन केंद्रों और परमाणु परीक्षणों के फलस्वरूप जल, वायु तथा पृथ्वी का प्रदूषण निरंतर बढ़ता जा रहा है। यह प्रदूषण आज की पीढ़ी के लिए ही नहीं, वरन् भावी पीढ़ी के लिए हानिकारक सिद्ध होगा। विस्फोट के समय उत्पन्न रेडियोधर्मी पदार्थ वायुमंडल की बाह्य परतों में प्रवेश कर जाते हैं। जहां वे ठंडे होकर संघनित अवस्था में बूंदों का रूप ले लेते हैं, बाद में ओस की अवस्था में बहुत छोटे-छोटे धूल के कणों के रूप में वायु में फैलकर वायुमंडल को दूषित करते हैं। पर्यावरण में होने वाले प्रदूषण को रोकने एवं उसके समुचित संरक्षण के लिए गत कुछ वर्षों से समस्त विश्व में एक नई चेतना उत्पन्न हुई है एवं इसे रोकने के लिए व्यक्तिगत और सरकारी दोनों ही स्तरों पर पूरा प्रयास आवश्यक है। जल-प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण बोर्ड गठित किए गए हैं। इन बोर्डों ने प्रदूषण नियंत्रण की अनेक योजनाएं तैयार की हैं। उद्योगों के कारण उत्पन्न होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए भारत सरकार ने एक महत्वपूर्ण निर्णय यह लिया है कि नए उद्योगों को लाइसेंस दिए जाने से पूर्व उन्हें औद्योगिक कचरे की निस्तारण की समुचित व्यवस्था करनी होगी और इसके लिए विशेषज्ञों से स्वीकृति प्राप्त करनी होगी।
वनों की अनियंत्रित कटाई को रोकने के लिए कठोर नियम बनाए गए हैं। इस बात के लिए प्रयास किए जा रहे हैं कि नए वन क्षेत्र बनाए जाएं और जन सामान्य को वृक्षारोपण के लिए प्रोत्साहित किया जाए। पर्यावरण के प्रति जागरूकता से हम आने वाले समय में और अधिक अच्छा एवं स्वास्थ्यप्रद जीवन व्यतीत कर सकेंगे और आने वाली पीढ़ी को प्रदूषण के अभिशाप से मुक्ति दिला सकेंगे।
जैसे-जैसे मनुष्य अपनी वैज्ञानिक शक्तियों का प्रयोग करता जा रहा है, वैसे-वैसे प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है। विकसित देशों में वातावरण का प्रदूषण सबसे अधिक बढ़ रहा है और यह ऐसी चिंता एवं समस्या है, जिसे किसी विशिष्ट क्षेत्र या राष्ट्र की सीमाओं में बांधकर नहीं देखा जा सकता। यह विश्वव्यापी समस्या है, इसीलिए सभी राष्ट्रों का संयुक्त प्रयास ही इस समस्या से मुक्ति दिलाने में सहायक हो सकता है।
1. पद्मपुराण
2. अथर्ववेद
कृष्ण विहार, थानसिंह
पीलीभीत-262001 (उ.प्र.)
वेद अपौरुषेय और अनादि हैं, इसलिए वे स्वयंभू, स्वयं प्रकाश और स्वतः प्रमाण हैं। भारतीय संस्कृति के इतिहास में वेदों का स्थान अत्यंत गौरवपूर्ण है। अपने प्रातिम चक्षु के सहारे साक्षात्कृत धर्म ऋषियों द्वारा अनुभूत अध्यात्म शास्त्र के तत्वों की विशाल शब्दराशि का ही नाम वेद है। लौकिक वस्तुओं का साक्षात्कार करने के लिए जिस प्रकार नेत्र की उपयोगिता है, उसी प्रकार अलौकिक तत्वों का रहस्य जानने के लिए वेद की उपादेयता है। इष्टप्राप्ति तथा अनिष्ट परिहार के लिए कि वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष के द्वारा दुर्बोध तथा अज्ञेय उपाय का ज्ञान स्वयं कराता है।
प्रकृति, भारतीयों के लिए सदा से पूजनीय रही है, चाहे कांति प्राप्ति के लिए सूर्य का पूजन हो, चाहे नारी को स्वामी की दीर्घायु का वरदान मांगना हो या निर्धन को कुबेर बनने का स्वप्न अथवा विद्यार्थी को विद्या प्राप्ति की कामना अथवा हमें जीवन प्रदान करने वाली नदियों की उपासना हो, इन सबके लिए हमें वेदों की शरण में ही जाना पड़ता है। वेदों में वर्णित नदी, सागर, सूर्य, चंद्र, जल और वायु- ये सभी हमारी आस्था के स्रोत रहे हैं। हमने तो वृक्षों से वरदान मांगना भी अपनी संस्कृति में समाहित कर लिया है। प्रकृति के अनेक वृक्षों का समय-समय पर पूजन करके हम यश और कीर्ति के अनुगामी बनते हैं।
अथर्ववेद में वृक्षों एवं वनों को संसार के समस्त सुखों का स्रोत कहा गया है। वृहदारण्यकोपनिषद् में बताया गया है कि वृक्षों में जीवनी शक्ति है। वन में व्याप्त महर्षियों के गुरुकुलों और आश्रम ने ही भारतीय ज्ञान-प्रणाली ने संसार की संपन्नता को विकसित किया। वनों में पले भरत जैसे वीरों ने शेर के दांत गिने। वृक्षों की अपूर्व जीवनदायिनी शांति के कारण वृक्षों को काटना वैदिक धर्म में पातक माना गया है, क्योंकि वृक्ष स्वयं बड़े परोपकारी होते हैं। वन हमारी संपदा रहे हैं और उसके पोषक तत्वों की रक्षा करते हैं। वृक्ष पर्वतों को थामे रखते हैं, वे तूफानी वर्षा को दबाते हैं तथा नदियों को अनुशासन में रखते हैं तथा पक्षियों का पोषण कर पर्यावरण को सुखद, शीतल एवं नीरोग बनाते हैं। अतः वृक्षों को वर्षा का संवाहक कहा जाता है। वन वर्षा के जल को सोखकर अपनी जड़ों द्वारा पानी की धार की बजाए घटाने के बढ़ाते रहते हैं। वेदों तथा पुराणों में दस गुणवान पुत्रों का यश उतना ही है, जितना एक वृक्ष लगाने का सांस्कृतिक विकास ही वनों की प्राकृतिक हरियाली में हुआ है। वनों की हरीतिमा हमारे विकास की प्रतीक है, यह नेत्रों को अपूर्व स्फूर्ति एवं चेतना प्रदान करती है।
पद्मपुराण में लिखा है जो मनुष्य सड़क के किनारे तथा जलाशयों के तट पर वृक्ष लगाता है, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षों तक फलता-फूलता रहता है, जितने वर्षों तक वह वृक्ष फलता-फूलता है।
स्वार्थ के वशीभूत होकर बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण लोगों ने पेड़ों को काटना आरंभ कर दिया। वन के वन नष्ट हो गए, इससे देश में अनावृष्टि होने लगी, रेगिस्तान के चरण बढ़ने लगे, धूल भरी आंधियां चलने लगीं। वातावरण और पर्यावरण प्रदूषित हने लगा।
वेदों में पर्यावरण का वर्णन अनेक स्थानों पर मिलता है। पर्यावरण का अर्थ है- पृथ्वी पर विद्यमान जल, वायु, ध्वनि, रेडियोधर्मिता एवं रासायनिक पर्यावरण। जब ये समृद्ध होते हैं तो हमें जीवन एवं नीरोगता प्रदान करते हैं। जब ये पर्यावरण के आवश्यक तत्व दूषित हो जाते हैं तो हमारी चिंता का विषय बन जाते हैं। यही पर्यावरण चिंता प्रदूषण का प्रयोग बन गया है। चारों ओर पर्यावरण में विकृति ही प्रदूषण को जन्म देती है।
आज हमारा वायुमंडल अत्यधिक प्रदूषित हो चुका है, जिसके कारण मानव का जीवन खतरे में आ गया है। दुनिया के प्रसिद्ध यात्री इब्नेबतूता ने भारत आने पर चौदहवीं शती के शासक मुहम्मद तुगलक के जीवनकाल के संस्मरणों में गंगा की पवित्रता एवं निर्मलता का उल्लेख करते हुए प्राथमिकताओं में अपने लिए गंगा के जल का प्रबंध भी सम्मिलित था। गंगाजल को ऊँट, घोड़े, हाथियों पर लादकर दौलताबाद पहुंचाने में डेढ़-दो महीने लगते थे। कहा जाता है कि गंगाजल तब भी साफ एवं मीठा बना रहता था, तात्पर्य यह है कि गंगाजल हमारी आस्थाओं और विश्वासों का प्रतीक इसी कारण बना था क्योंकि वह सब प्रदूषणों से मुक्त था, किंतु अनियंत्रित औद्योगिकरण, हमारे अज्ञान एवं लोभ की प्रवृत्ति ने, देश की अन्य नदियों के साथ गंगा को भी प्रदूषित किया है। वैज्ञानिकों का विचार है कि तन-मन की सभी बीमारियों को धो डालने की उसकी औषधीय शक्तियां अब समाप्त होती जा रही हैं। यदि प्रदूषण इसी गति से बढ़ता रहा तो गंगा के शेष गुण भी शीघ्र नष्ट हो जाएंगे और ‘गंगा तेरा पानी अमृत’ वाला मुहावरा निरर्थक हो जाएगा।
पर्यावरण चिंता में जल, वायु एवं स्थल की भौतिक, रासायनिक और जैविक विशेषताओं में होने वाला वह अवांछनीय परिवर्तन है, जो मनुष्य और उसके लिए लाभदायक दूसरे जंतुओं, पौधों, औद्योगिक संस्थानों तक दूसरे कच्चे माल इत्यादि को किसी भी रूप में हानि पहुंचाता है।
वेदों में कहा गया है कि जीवधारी अपने विकास और व्यवस्थित जीवन-क्रम के लिए एक संतुलित पर्यावरण एवं वातावरण पर निर्भर रहते हैं। संतुलित पर्यावरण में प्रत्येक घटक एक निश्चित मात्रा में उपस्थित रहता है। वातावरण में कुछ हानिकारक घटकों का प्रवेश हो जाता है, परिणामतः समस्त जीवधारियों के लिए किसी-न-किसी रूप में हानिकारक सिद्ध होता है जो पर्यावरणीय चिंता को जन्म देता है।
पर्यावरण के प्रति चिंता की समस्या का जन्म जनसंख्या वृद्धि के साथ हुआ है। विकासशील देशों में औद्योगिक, रासायनिक कचरे ने जल ही नहीं, वायु और पृथ्वी को भी प्रदूषित किया है। भारत जैसे देशों में घरेलू कचरे और गंदे जल की निकासी ने विकराल रूप ले लिया है।
सभी जीवधारियों के लिए जल बहुत महत्वपूर्ण एवं आवश्यक है। पौधे भी अपना भोजन जल के माध्यम से ही प्राप्त करते हैं, यह भोजन पानी में घुला रहता है। जल में अनेक प्रकार के खनिज तत्व, कार्बनिक-अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली रहती हैं, यदि जल में आवश्यकता से अधिक पदार्थ एकत्र हो जाते हैं तो जल प्रदूषित होकर हानिकारक हो जाता है और वह प्रदूषित जल उदर एवं यकृत के पीलिया जैसे भयंकर रोग को जन्म देता है।
वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसें एक विशेष अनुपात में उपस्थित रहती हैं। जीवधारी अपनी क्रियाओं द्वारा वायुमंडल में ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का संतुलन बनाए रखते हैं। अपनी श्वसन प्रक्रिया द्वारा हम ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते रहते हैं। हरे पौधे प्रकाश की उपस्थिति में कार्बन डाइऑक्साइड लेकर ऑक्सीनज निष्कासित करते रहते हैं। इससे दोनों गैसों का संतुलन बना रहता है, किंतु मानव अज्ञानतावश अपनी आवश्यकता के नाम पर वनों को काटकर इस संतुलन को बिगाड़ता है। मिलों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं के कारण हानिकारक गैसों में सल्फर डाइऑक्साइड गैस का प्रदूषण में प्रमुख योगदान है।
वायु प्रदूषण से मनुष्य के स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है, वायु में विकसित अनेक धातुओं के कण जैसे सीसा, कैडमियम, नाइट्रोजन, ओजोन और प्रदूषित वायु शरीर संस्थान में अनेक विकृतियां ला देते हैं। अनेक प्रकार के वाहन, मोटर-कार, बस, जैट विमान, ट्रैक्टर आदि तथा लाउड-स्पीकर, बाजे एवं कारखाने के साइरन व विभिन्न प्रकार की मशीनों आदि से ध्वनि-प्रदूषण उत्पन्न होता है। ध्वनि की लहरें जीवधारियों की क्रियाओं को प्रभावित करती हैं।
अधिक तेज ध्वनि से मनुष्य की सुनने की शक्ति का ह्रास होता है और अनिद्रा रोग सताता है। इससे स्नायुतंत्र विकृत होकर पागलपन को जन्म देता है। कुछ ध्वनियां छोटे-छोटे कीटाणुओं को नष्ट कर देती हैं, परिणामतः बहुत से पदार्थों का प्रकृतिक, रूप से अपघटन नहीं होता।
प्रायः कृषक अधिक पैदावार के लिए कीटनाशक और रोगनाशक दवाओं तथा रसायनों का प्रयोग करते हैं। इनका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। आधुनिक पेस्टीसाइडों का अंधाधुंध प्रयोग भी लाभ के स्थान पर हानि ही पहुंचा रहा है। जब ये रसायन जल के साथ बहकर नदियों द्वारा सागर में पहुंच जाते हैं तो वहां पर रहने वाले जीवों पर घातक प्रभाव डालते हैं। इतना ही नहीं, किसी-न-किसी रूप में मानव-देह भी इनसे प्रभावित होती है।
परमाणु शक्ति उत्पादन केंद्रों और परमाणु परीक्षणों के फलस्वरूप जल, वायु तथा पृथ्वी का प्रदूषण निरंतर बढ़ता जा रहा है। यह प्रदूषण आज की पीढ़ी के लिए ही नहीं, वरन् भावी पीढ़ी के लिए हानिकारक सिद्ध होगा। विस्फोट के समय उत्पन्न रेडियोधर्मी पदार्थ वायुमंडल की बाह्य परतों में प्रवेश कर जाते हैं। जहां वे ठंडे होकर संघनित अवस्था में बूंदों का रूप ले लेते हैं, बाद में ओस की अवस्था में बहुत छोटे-छोटे धूल के कणों के रूप में वायु में फैलकर वायुमंडल को दूषित करते हैं। पर्यावरण में होने वाले प्रदूषण को रोकने एवं उसके समुचित संरक्षण के लिए गत कुछ वर्षों से समस्त विश्व में एक नई चेतना उत्पन्न हुई है एवं इसे रोकने के लिए व्यक्तिगत और सरकारी दोनों ही स्तरों पर पूरा प्रयास आवश्यक है। जल-प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण बोर्ड गठित किए गए हैं। इन बोर्डों ने प्रदूषण नियंत्रण की अनेक योजनाएं तैयार की हैं। उद्योगों के कारण उत्पन्न होने वाले प्रदूषण को रोकने के लिए भारत सरकार ने एक महत्वपूर्ण निर्णय यह लिया है कि नए उद्योगों को लाइसेंस दिए जाने से पूर्व उन्हें औद्योगिक कचरे की निस्तारण की समुचित व्यवस्था करनी होगी और इसके लिए विशेषज्ञों से स्वीकृति प्राप्त करनी होगी।
वनों की अनियंत्रित कटाई को रोकने के लिए कठोर नियम बनाए गए हैं। इस बात के लिए प्रयास किए जा रहे हैं कि नए वन क्षेत्र बनाए जाएं और जन सामान्य को वृक्षारोपण के लिए प्रोत्साहित किया जाए। पर्यावरण के प्रति जागरूकता से हम आने वाले समय में और अधिक अच्छा एवं स्वास्थ्यप्रद जीवन व्यतीत कर सकेंगे और आने वाली पीढ़ी को प्रदूषण के अभिशाप से मुक्ति दिला सकेंगे।
जैसे-जैसे मनुष्य अपनी वैज्ञानिक शक्तियों का प्रयोग करता जा रहा है, वैसे-वैसे प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है। विकसित देशों में वातावरण का प्रदूषण सबसे अधिक बढ़ रहा है और यह ऐसी चिंता एवं समस्या है, जिसे किसी विशिष्ट क्षेत्र या राष्ट्र की सीमाओं में बांधकर नहीं देखा जा सकता। यह विश्वव्यापी समस्या है, इसीलिए सभी राष्ट्रों का संयुक्त प्रयास ही इस समस्या से मुक्ति दिलाने में सहायक हो सकता है।
संदर्भ
1. पद्मपुराण
2. अथर्ववेद
कृष्ण विहार, थानसिंह
पीलीभीत-262001 (उ.प्र.)