विकास की विकृत अवधारणा

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Source
सन्तुलित पर्यावरण और जागृत अध्यात्म, 2006

विज्ञान की गरुड़-उड़ान धरती पर चल रहे सभी मानवी कार्य-कलापों-खेती, उद्योग, आरोग्य, यातायात के साधन, शिक्षा, राज्यतंत्र, सांस्कृतिक जीवन, सुरक्षा-व्यवस्था इत्यादि को नए रूप देने तक ही मर्यादित नहीं रहा; उसने आकाश में, सागरों में पर्वत-चोटियों पर, भू-गर्भ में सर्वत्र अपना विजय-ध्वज फहराकर दिखाया है यह हरेक को मान्य होगा। चंद्र पर स्वयं पहुँचकर वहाँ की वास्तविकता अवलोकन की। मंगल पर जाने की तैयारी की। जीवन के सभी आयामों में नई खोजें करने की स्पर्धा ही शुरू करवा दी। पृथ्वी के सम्पूर्ण प्राकृतिक जीवन का सर्वांगीण शोषण करने वाले त्रिविध प्रदूषणों का स्वरूप हमने यहाँ तक देखा। इस प्राकृतिक जीवन में मानव के साथ पशु-पक्षी, कीट, वृक्ष, जल-स्थल-वायु-आकाश-इन सभी से मिलकर बना हुआ पर्यावरण सहस्त्रों वर्षों से सुरक्षित और सन्तुलित रहता आया है। उसकी निर्मल और निरामय अवस्था विकास की विकृत अवधारणा के कारण नींव से लेकर ऊपर तक हिल गई है।

मनुष्य के अहं-केन्द्रित व्यवहार का परिणाम अखिल दुनिया को भुगतना पड़ रहा है। स्वयं के साथ सबका विनाश करवाने वाले भस्मासुर की कहानी संकट परम्परा को निमंत्रित करने वाले आधुनिक विकास के नाम से मानो मूर्तिमान हो गई है। ऐसे विकास के आधारभूत मूल्य कौन से हैं, यह देखना भी शिक्षाप्रद होगा।

इस विकास का प्रथम मूल्य है : धरती के जीवन का केन्द्र है मानव। मनुष्य की सुख-सुविधा के लिये शेष सारी सृष्टि है। इसलिये अपने उपभोग के खातिर जीव-जन्तुओं के सहित समूचा अस्तित्व ही नदी, सागर, पर्वत, वृक्ष, खनिज सम्पदा, जमीन, आसमान अपने लिये मनुष्य इस्तेमाल कर सकता है। इनका शोषण करने का, इन्हें नष्ट करने का अधिकार भी मनुष्य को है। स्व-पराक्रम से मानव अपनी बुद्धि का अमर्याद विकास कर सकता है। अपनी बुद्धि शक्ति के बल पर अखिल विश्व के प्राकृतिक आविष्कारों पर वह विजय प्राप्त कर सकता है।

ऐसे विजयी वीर मानव द्वारा बनाई हुई यंत्र-मानव की बुद्धि प्रकृति-प्रदत्त मानवी बुद्धि से अनेक गुना अधिक कार्य क्षण-भर में कर सकती है। लंदन की एक प्रदर्शनी में कोने में खड़े रोबो (यंत्र-मानव) ने अपने भाषण में कहा था- ‘आप मनुष्य मूर्ख होते हैं, आप गलतियाँ करते हैं, हम कभी गलती नहीं करते!’ यह यंत्र-मानव मात्र गणित में पारंगत नहीं है, वह चित्रकारी कर सकता है, काव्य-निर्मिति भी करता है और आपके भावी काल का स्वरूप भविष्य कथन भी कर सकता है। मनुष्य की सब प्रकार की सेवा करने वाला, बिल्कुल शिकायत न करने वाला, कहो सो काम करने वाला, आज्ञाधारक नौकर मनुष्य समाज में कहीं मिल सकेगा?

मानव की नैसर्गिक मस्तिष्क शक्ति दोयम दर्जे के कम्प्यूटर के जितनी ही होती है। इसलिये त्वरित कार्य करने वाले, समय का हिसाब न करने वाले नित्य तत्पर कम्प्यूटर ने सभी ऑफिसों में महत्त्वपूर्ण कार्य-कलापों के लिये अपना स्थान पक्का कर लिया हो तो आश्चर्य कैसा? विकसित देशों के समान विकासशील देशों में भी समाज में हताशा ग्रस्त बेरोजगार युवा-वर्ग को नजरअन्दाज करके कम्प्यूटर को अग्रस्थान दिया गया है। क्योंकि विकास की वैश्विक स्पर्धा में कम्प्यूटर के सिवा टिकना सम्भव ही नहीं होगा।

बीसवीं शताब्दी ने मानव की सर्वोपरी विकसित अवस्था निर्माण की है। विज्ञान की गरुड़-उड़ान धरती पर चल रहे सभी मानवी कार्य-कलापों-खेती, उद्योग, आरोग्य, यातायात के साधन, शिक्षा, राज्यतंत्र, सांस्कृतिक जीवन, सुरक्षा-व्यवस्था इत्यादि को नए रूप देने तक ही मर्यादित नहीं रहा; उसने आकाश में, सागरों में पर्वत-चोटियों पर, भू-गर्भ में सर्वत्र अपना विजय-ध्वज फहराकर दिखाया है यह हरेक को मान्य होगा। चंद्र पर स्वयं पहुँचकर वहाँ की वास्तविकता अवलोकन की। मंगल पर जाने की तैयारी की। जीवन के सभी आयामों में नई खोजें करने की स्पर्धा ही शुरू करवा दी। वैद्यकीय क्षेत्र में कृत्रिम अवयव-निर्माण करके, उनका शरीर में रोपण करके प्रकृति के साथ प्रतिस्पर्धा की। अन्न के अनेक कृत्रिम प्रकार तैयार किये और उनकी गुणवत्ता निसर्ग दत्त अन्न से बढ़-चढ़कर होती है यह सिद्ध किया।

एक वैज्ञानिक ने तो यह जाहिर किया कि भविष्य काल के मनुष्य को प्राकृतिक खेती और वृक्ष इन पर अपना आहार निर्भर रखने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। सिंथेटिक अन्न भी निर्मित हो सकता है, फिर खेती और वन-वर्धन के लिये इतनी भूमि रोक रखने की क्या जरूरत है? शाक-सब्जियाँ, फल, अनाज इनके उत्पादन के लिये, उनकी व्यवस्था लगाने के लिये कितनी शक्ति, पैसा, समय खर्च होता है! यह सारी खट पट समाज को करनी पड़ती है।

मनुष्य को जीने के लिये शरीर में आवश्यक ऐसे बैक्टीरिया छोड़कर शेष प्राकृतिक जीवन की जरूरत ही उसे कहाँ है? पशु-पक्षी, वृक्ष-वल्लरियाँ, कीट-चिटियाँ इनका इतना विस्तार किसलिये चाहिए? ‘वृक्ष-विहीन विश्व’ (world without trees) इस 1980 में छपी किताब में रोबर्ट लेम्ब नाम के लेखक ने यूजीन रॉब्नोविच नाम के वैज्ञानिक के उद्गार आग्रहपूर्वक प्रकट किये हैं। अपना स्वयं का इस पर क्या कहना है वह भी लेम्ब ने लिखा है- ‘वृक्ष-विहीन विश्व’ यानि कोई जंगली जानवर अपनी ही पूँछ के पीछे दौड़ लगाकर जिस जीवनाधार का कोई विकल्प नहीं है उसकी खोज करते-करते अपने ही ऊपर गिर पड़े ऐसी अवस्था है!

धरती पर मनुष्य का सबसे अधिक हक है, अन्य किसी भी प्राणी का नहीं, इसका तत्वज्ञान समझाने के लिये प्रकृति की अद्भुत कार्यकुशलता का मजाक उड़ाने तक वैज्ञानिकों ने हिम्मत दिखाई है। सहस्त्रावधि वर्षों से धरती पर प्राकृतिक जीवन विकसित होता रहा है। समग्र दृष्टि से देखा जाये तो इस विकास में व्यक्त हुए अनगिनत आवर्तन व्यर्थ नहीं हुए थे यह स्पष्ट ही है। लेकिन नोबेल प्राइस के विजेता एक वैज्ञानिक अपने पराक्रम के गुणगान करने के लिये प्रकृति के ‘कला-शून्य काम चलाऊ’ व्यवस्था को हीन दर्जे की करार देते हैं। इसी बात का समर्थन करके एक समाज-शास्त्री ने कहा है; “नदियाँ सरल रेखा में बहती हुई सागर में प्रवेश करके कम-से-कम शक्ति का उपयोग करने के बदले अकारण ही घाटियों में, मैदानों में घूम-फिरकर आलसीपन व्यक्त करती हैं!” वह आगे कहता है : “प्रकृति को सरल रेखा में कुछ करना आता ही नहीं। जहाँ देखें वहाँ टेढ़ा-मेढ़ापन ही है। जैविक विश्व व्यर्थ का अपव्यय करता रहता है। सहस्त्रों जीव निर्मित करके जीते कितने हैं? उंगलियों पर गिन सके इतने ही! मनुष्य को देखो! बुद्धि-कुशलता से कैसे निश्चित प्रमाण में काम करता रहता है।” इसका स्पष्ट अर्थ यही होता है कि प्रकृति का स्वामी बनने की हैसियत केवल मनुष्य में ही है। परन्तु स्वयं मनुष्य प्रकृति की कोख से ही जन्म पाता है यह सत्य अपना स्वामित्व थोपने वाले मानव के ध्यान में कैसे नहीं आता है?

साथ ही यह भी समझना आवश्यक है कि प्रकृति को मात्र मानव का ही विचार नहीं करना होता है। अखिल ब्रह्माण्ड प्रकृति का कार्य क्षेत्र है, अपनी अभिव्यक्ति का प्रांगण है। कम-से-कम समय में, ज्यादा-से-ज्यादा उत्पादन करके दिखाना यह मर्यादित स्वार्थ-केन्द्रित मानव की सिफत है! प्रकृति माता को सभी भूत-मात्रों का संसार सुरक्षित और विकसित करना होता है। उसके लिये सम्पूर्ण जैविक विश्व की महत्त्वपूर्ण व्यवस्था उसे सम्हालनी होती है। अपनी अहंता के विश्व में मशगूल रहने वाले वैज्ञानिक इस आत्मिक एकता में बुने हुए सत्य को क्यों पहचानेंगे?

आधुनिकतम शोध-कार्य के बल पर मानव पृथ्वी पर अकेले का साम्राज्य प्रस्थापित करेगा और शेष चेतन जगत को पराभूत करके दिखाएगा, यही स्वप्न वैज्ञानिक विश्व को भुलावे में डालता आया है। इस विदारक साम्राज्यवाद का समर्थन शिक्षा, राज्य व्यवस्था, व्यापार, मनोरंजन इन सभी मानवीय कार्यक्षेत्रों में प्रगति और विकास के नाम पर करना पड़ रहा है। औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात, पिछले तीन-चार शतकों से जीवन की तरफ देखने की यह संकीर्ण, आत्मघातक आधुनिक दृष्टि खुल गई है। पूरी दुनिया में इसी भूमिका में से विकास की मानव-केन्द्रित परिकल्पना प्रसृत होती आई है।

अखिल सृष्टि अपने लिये भोग्य वस्तु है- यह मान लिया कि उसका अधिक-से-अधिक शोषण करते रहना धर्म बन जाता है। इस गलत धारणा में से अंकुरित होती है उपभोग्य वस्तुओं की बहुलता। जिस समाज में अधिक-से-अधिक भोग उपलब्ध किये जाते हैं वह सबसे अधिक विकसित-यही है विकास की कसौटी इसी को कहते हैं प्रगति! तब आवश्यकताओं को बढ़ाते जाना और उनकी पूर्ति करते रहना यह विकास का दूसरा मूल्य निश्चित हो जाता है। इसमें से अंकुरित हुई उपभोग प्रधान संस्कृति अपने घोषवाक्य जाहिर करता है : कन्ज्यूम ऑर डिक्लाइन! उपभोग करते रहो, अन्यथा अवनत हो जाओगे।

इस संस्कृति के और सभ्यता के केन्द्र हैं- अतिविशाल शहरों में प्रचण्ड रूप में फैली खरीददारी की दुकानें! स्वाभाविक रूप से नई-नई उपभोग्य वस्तुओं का निर्माण होता रहे यह जरूरी बन जाता है। लेकिन नई चीजें नित्य नई कैसी रहेगी? वे पुरानी हो गईं तो फिर उनका क्या करेंगे? इस यक्ष-प्रश्न का जवाब आया-‘जो भी पुराना है उसे मृत्यु मार्ग पर अग्रसर करो’ निरुपयोगी, पुरानी चीजें फेंक दो! यह है ‘थ्रो अवे इकोनोमी।’

इस भोगवादी अर्थशास्त्र में मनुष्य के मन का अध्ययन करके उसे मोहजाल में कैसे फँसा देना-इसका तत्त्व-ज्ञान ही विकसित हुआ है। नए-नए खाद्य-पदार्थ, कपड़े, वाहन इत्यादि का आकर्षण केवल बाल-मन को ही रहता है ऐसा नहीं, वयोवृद्ध प्रौढ़ों को भी नई चीजों का लोभ रहता है। यह लोभ बढ़ता जाये इस हेतु से इश्तेहारों का अनुत्पादक विश्व पनपाया गया है। सामान्य, टी.वी. यह कार्य क्यों करेगा? उसके लिये ‘कमर्शियल टेलिविजन’ की जरूरत होती है। उस पर दिखाए जाने वाले इश्तहार लोगों को ‘क्या खरीदें’ क्या खाना क्या पीना, क्या पहनना इत्यादि के लिये सलाह देते रहते हैं। मानव-मन की कमजोर अवस्था पहचान कर उसे भोग के जाल में कैसे खींचना इसका तंत्र भोगवादी विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।

इश्तेहारों का विश्व कागज के छोड़ों को नचाना रहता है। उसे साथ देने वाले अन्य अनुत्पादक उद्योग भी विकास की प्रचण्डता को सम्भालने के लिये खड़े हो गए हैं। बढ़ी हुई चीजों को दूर-दूर तक पहुँचाने-ले जाने के लिये वाहनों की व्यवस्था, नए रास्तों का निर्माण अत्यावश्यक हो जाता है। नई खुली हुई फैक्टरियों की व्यवस्था रखने के लिये मैनेजर्स चाहिए। इस तरह अनुत्पादक व्यवस्थापकों की भीड़ निर्माण हो गई।

इस समूचे उपभोग-तंत्र के केन्द्र स्थान में विराजमान है ‘पैसा’। अन्तरराष्ट्रीय व्यवहार में ‘डॉलर’ को ईश्वर का स्थान प्राप्त हुआ है। जिन्दा रहने के लिये अन्न, वस्त्र और मस्तक पर छप्परवान हैं- शुद्ध प्राणवायु, प्यास बुझाने वाला जल और आधारभूत धरती इनके बिना जीना असम्भव है। भूख के और नींद के समय कागज या धातु का धन किस काम का? पुरानी किसी समय की अर्थव्यवस्था में ‘बार्टर सिस्टम’ होता था। वस्तु का विनिमय वस्तु से ही होता था। चावल के बदले में दाल या अन्य कोई उपयुक्त चीज मिल सकती थी। परन्तु अनावश्यक पैसा बहुत होने पर भी प्रत्यक्ष जीवनाधार बन नहीं सकता। मात्र विनिमय के लिये ही जिसकी निर्मिति हो गई उस पैसे को सबसे ऊँचा सन्मान का स्थान मिलने से यह आधुनिक अर्थशास्त्र अनर्थशास्त्र बन गया है।

यह अनर्थ कहाँ तक पहुँच चुका है? धरातल पर जो जीवन्त विश्व है, उसका स्वरूप नित्य नया, हर समय बदलता रहता है। उसे ‘रिन्यूएबल’-नवीनीकरण हो सकने वाला कहते हैं। उस पशु, पक्षी, वृक्ष, वनस्पति जैसे जिन्दा सृष्टि के अंग-उपांगों को उपभोग्य बनाकर उन्हें नष्ट प्राय अवस्था तक ले जाया गया है। और धरती के गर्भ में अनेक ‘अनरिन्यूएबल’-जिनका नवीनीकरण होना करीब-करीब असम्भव है- ऐसी चीजों का अमर्याद इस्तेमाल करना तो अनर्थकारक ही है।

भूगर्भ में प्राकृतिक गैस, कोयला, पेट्रोल-डीजल जैसे तेल के भण्डार निर्माण होने में सहस्त्रों वर्ष लगे हैं और ये कहीं-कहीं ही उपलब्ध हैं, इनका अस्तित्व मर्यादित है। लेकिन औद्योगीकरण की तीव्रगति ने अविवेकी कदम उठाकर इनके भण्डार समाप्ति के निकट पहुँचा दिये हैं। मिट्टी-जल-वायु के प्रदूषणों के कारण इन जीवनाधारों का आरोग्यदायी नवीनीकरण होना भी मुश्किल सा हो गया है। यह कैसी विकास योजना है कि जिसे कल की सोच न हो? बिस्तर देखकर पैर पसारना न आता हो?

कोई भी आवश्यक कार्य कर नहीं सकते ऐसी भाषा आधुनिक विकास के शास्त्र में मान्य नहीं है। सभी रोगों पर, समूचे दुःख दैन्य पर हमारे पास अमोघ रामबाण दवा है यह इस शास्त्र का दावा है। असंख्य विकृतियों को लेकर विकसित हुए देशों का एक तंत्र है : मानव समाज के सभी प्रश्नों का सुलझाव इसी में है कि अधिक-से-अधिक औद्योगीकरण और आर्थिक बहुतायत करते रहो।

एशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिका इन- राष्ट्र समूहों को अविकसित उद्घोषित करने पर आर्थिक उन्नति करना उनकी दरिद्रता समाप्त करना-इसकी जिम्मेदारी भी विकसित देश स्वयं आगे होकर उठाने वाले बन जाते हैं और इसके इन राष्ट्र समूहों के लिये एक ही प्रतिबन्धात्मक उपाय बना देंगे। विकसित राष्ट्रों की गुलामी स्वीकार करके अपना उत्पादन बढ़ाओ, आर्थिक प्रगति करो। रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करके खेती का उत्पादन बढ़ाओ, कन्डोम जैसे संतति-नियमन के साधनों द्वारा आबादी मर्यादित करो। और इन सबके लिये नए कारखाने खड़े करने के लिये विकसित देशों को निमंत्रित करो या उनसे मदद की भीख माँगो!

इसी सन्दर्भ में यह भी सवाल खड़ा होता है कि किस कारण से अविकसित या विकासशील देशों में, राष्ट्र-समूहों में आबादी का विस्फोट हुआ है? और आधुनिक काल का ऐसा कौन-सा दोष इन राष्ट्रों में पनप गया, जिसके परिणामस्वरूप शहरों का आकारहीन भीमकाय रूप खचाखच भीड़ कर तंग बस्तियों का असंस्कृत विस्तार मात्र बनकर रह गया? इवान एलिच जैसे विचार वान इसके लिये उन्हीं को दोषी ठहराते हैं। जिन्होंने पूरे विश्व को विकसित बनाने का ठेका लिया है। जब देहातों के कच्चे माल को शहरों के लिये उपयुक्त माना गया तब इस माल के साथ देहातों की बुद्धि, शरीर की शक्ति और मन की प्रेरणाएँ भी शहरी बाजारों में पहुँच गईं।

अपनी स्वतंत्रता खोकर मजदूरों का परावलम्बी जीवन जीने की मजबूरी जिनको झेलनी पड़ी उन अनपढ़ देहातियों को मन बहलाव के शहरी मनोरंजन के साधनों का आकर्षण सहज ही उपलब्ध हो सका। देहात में पारिवारिक जीवन था- जमीन के साथ, जंगलों के साथ सम्बन्ध था, एक अलग संस्कृति थी, भाषा थी।

शहरों में पहुँचकर वहाँ की चकाचौंध दुनिया में एक बार फँस जाने पर वापस नीरस देहातों में जाने का कोई नाम नहीं लेता। और शहरों के तनाव-ग्रस्त, अस्त-व्यस्त जीवन में-फुटपाथ पर या झोपड़पट्टियों में रात काटने वालों के संसार में एकमात्र मन बहलाव का, तृप्ति का साधन क्या रहता है। यही कारण है कि असंख्य व्यसन-दारू व अन्य ड्रग्स इनकी लत और बच्चे पैदा करते जाना- इसकी आदत जीवन के साथ जुड़ी रहती है गरीबों के लिये। यह मानसिकता और शारीरिक आवश्यकता अमीर देशों के इन्द्रिय-सुख-सम्पन्न वातावरण में जीने वालों के लिये नहीं रहती, इसलिये वहाँ आबादी का विस्फोट नहीं होता। आधुनिक विकास का यह दोहरा रूप सर्वत्र परिचित हो चुका है।

इसी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप न्यून गण्डका, गुलामी मनोवृत्तिका, अशान्त और परस्पर अविश्वास तथा स्पर्धा का जाल अनायास बुन जाता है। राष्ट्र-राष्ट्रों के विरोध में, धर्म-धर्मों के विरोध में खड़े किये जाते हैं। इस जाल मे केवल अविकसित विकासशील देश ही फँस जाते हैं ऐसा नहीं दूसरों के बखेड़ों में पड़े विकसित देशों की स्थिति भी दयनीय बन जाती है।

सूर्य प्रकाश के जितना स्पष्ट यह सत्य जानबूझकर नजरअन्दाज करने के कारण कई बार युद्ध की ज्वालाएँ भड़क उठी हैं। इस रोग का उपचार भी वही है: नवीनतम शस्त्र-अस्त्र के कारखाने खोलना और उत्पादित शस्त्रास्त्रों की खपत बढ़ाने हेतु युद्ध की अग्नि प्रज्वलित रखना। विकास की भोगवादी परिकल्पना ने युद्धवाद को जन्म दिया है। इस दुष्ट-चक्र से दुनिया कैसे मुक्त होगी यह सभी तत्त्वदर्शी विचारकों के लिये अबूझ पहेली है।

विकासशीलता का यह रोग अपने देश को भी सताने लगा है। इससे उपस्थित हुए कर्जे के बोझ तले आर्थिक स्वतंत्रता दब गई है। दिवाला निकले हुए देशों में भारत का अग्र स्थान है। और यही विकास का मार्ग प्रशस्त होता रहेगा तो ‘भिक्षांदेही’ की झोली हाथ से कभी छूटेगी नहीं! भवितव्य का अन्दाज करने वाले जानकार लोगों को यही दिखाई पड़ रहा है।

एक निवर्तित मंत्री ने देश के भावी का चित्र खींचते समय दुःख से कहा है : इस तरह का विकास अधिकतर 10 से 15 फीसदी लोगों को ही ‘अमीर’ संज्ञा से विभूषित कर पाएगा। इन लोगों के ऑफिसों में और घरों में सभी सुख-सुविधाएँ प्रमाणपूर्वक खड़ी हो जाएँगी। फ्रीज, कपड़े धोने की मशीन, रेडियो, टेलीविजन, एयरकंडिशनिंग की ठंडक-यह सब उपलब्ध होगा इन लोगों को। किन्तु देश के 85 प्रतिशत लोगों की अवस्था गन्ने का रस निकालने वाले मशीन से रस निचोड़कर बचे हुए शुष्क अवशेषों के समान होगी, उसका क्या करेंगे? देश की गरीबी बढ़ जाएगी, असमानता पनपेगी, महंगाई के कारण भ्रष्टाचार फैलेगा। हताशा और गुनहगारी की फसल सार्वत्रिक अभिशाप का रूप लेगी। श्रम निष्ठा को तिलांजली दी जाएगी।

इसी दारिद्र में से और हताशा की कोख से अपने देश में और दुनिया में कई स्थानों पर आतंकवाद की आँधी उठी है। अन्तरराष्ट्रीय डिल्पोमेसी का एक हिस्सा बनकर भी आतंकवाद प्रचलित है। युद्ध की तैयारी महँगी पड़ती है। आतंकित करके शत्रु को सताते रहना सरल और सस्ता है। युद्ध के पर्याय के रूप में आतंकवाद का उपाय प्राचीनकाल से आजमाया जाता रहा है।

मानव-विश्व को आन्तर्बाह्य ग्रस्त करने वाली, असन्तुलित और विषाक्त बनाने वाली परिस्थिति की आहट जिनको लगी उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिये, रोग-निवारण के लिये छोटे-छोटे उपायों की योजना किस तरह से करना आवश्यक समझा है, इसके अल्प से दर्शन हमने प्रारम्भ में ही किये हैं।

प्राणायाम, योगासन और प्रवचन श्रवण-मनन इनकी मदद से अपनी आन्तरिक व्यथा, बाह्य अस्वस्थता और आस-पास का अशुद्ध वातावरण, कुछ थोड़े अंशों में ही सही, सुधारने के ये प्रयास हैं। लेकिन इतने से दुनिया में सर्वव्याप्त बनी समस्याओं का निराकरण होना सम्भव नहीं है, यह आसानी से कोई भी समझ सकता है। आज की विकट परिस्थिति मूल में ही हुई किसी गम्भीर गलती का परिणाम है यह स्पष्ट है। वह गलती, वह गम्भीर गुनाह मिटाकर नया निरोग, स्वस्थ वातावरण निर्मित करने के लिये मूलभूत जीवन-दर्शन का स्पष्ट चित्र रेखांकित करना आवश्यक है। क्या अपेक्षित था और अकल्पित जैसा विपरीत क्यों घटित हुआ इसका हिसाब स्पष्ट देख लेना चाहिए।

पिछले शतक के प्रारम्भिक काल में विज्ञान के अभूतपूर्व शोधकार्य के कारण विकास का भव्य-दिव्य भविष्य-स्वरूप चित्रित किया गया था। आशावाद इतना गगन-स्पर्शी हो गया था कि दुनिया में कोई गरीब नहीं, रोग-ग्रस्त नहीं और अज्ञानी एवं गुनहगार भी नहीं, ऐसा आनन्दपूर्ण, सुखस्वरूप नंदनवन निर्माण होने वाला था; परन्तु एक शतक इसे पूर्ण होने से पहले ही प्रत्यक्ष में उतरा एक विदारक दृश्य!

अमीर एवं गरीब उभय वर्गों को अशान्ति का, शरीर-मानसिक- सांस्कृतिक बेचैनी का अभिशाप जलाता जा रहा है। गलत राह पर चल पड़े विकास के आदर्श को चिपके रहने से केवल सृष्टि जीवनाधार प्रदूषित नहीं हुए, मनुष्य का चारित्र्य ही दूषित हो गया, यह बहुत बड़ी शोकांतिका घटित हुई। मनुष्य सृष्टि से और स्वयं अपने से टूटकर अलग हो गया। जिसका आन्तरिक सन्तुलन खो गया उस मनुष्य ने बाह्यवर्ती दिखने वाली सृष्टि को असन्तुलित बना डाला। यह तर्क-संगत ही है।

 

सन्तुलित पर्यावरण और जागृत अध्यात्म

 

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम संख्या

अध्याय

1.

वायु, जल और भूमि प्रदूषण

2.

विकास की विकृत अवधारणा

3.

तृष्णा-त्याग, उन्नत जीवन की चाभी

4.

अमरत्व की आकांक्षा

5.

एकत्व ही अनेकत्व में अभिव्यक्त

6.

निष्ठापूर्वक निष्काम सेवा से ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति

7.

एकात्मता की अनुभूति के लिये शिष्यत्व की महत्त्वपूर्ण भूमिका

8.

सर्व-समावेश की निरहंकारी वृत्ति

9.

प्रकृति प्रेम से आत्मौपम्य का जीवन-दर्शन

10.

नई प्रकृति-प्रेमी तकनीक का विकास हो

11.

उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम

12.

अपना बलिदान देकर वृक्षों को बचाने वाले बिश्नोई

13.

प्रकृति विनाश के दुष्परिणाम और उसके उपाय

14.

मानव व प्रकृति का सामंजस्य यानी चिपको

15.

टिहरी - बड़े बाँध से विनाश (Title Change)

16.

विकास की दिशा डेथ-टेक्नोलॉजी से लाइफ टेक्नोलॉजी की तरफ हो

 


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