उत्तराखंड में वनों की आग बड़ी चुनौती बनती जा रही है। इस सीजन में विशेषकर कुमाऊं के अल्मोड़ा और नैनीताल में स्थिति ज्यादा भयावह है। वन विभाग के आंकड़ों पर ही गौर करें तो अल्मोड़ा में अब तक 515.7 और नैनीताल में 243.24 हेक्टेयर वन क्षेत्र राख हो चुके हैं।
वन महकमे ने हाई अलर्ट जारी किया हुआ है, लेकिन इसके बावजूद हालात गंभीर होते जा रहे हैं। गढ़वाल मंडल में भी स्थिति बेहतर नहीं है, पौड़ी और टिहरी जिलों में भी आग विकराल हो गई है। यह सही है कि प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का वश नहीं है, लेकिन यही सोचकर खामोश तो नहीं रहा जा सकता है। आखिर इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए कुछ तो इंतजाम करने ही पड़ेंगे। बावजूद इसके विभाग ने इस पर कोई गंभीर पहल की हो, ऐसा अब तक प्रतीत नहीं हो रहा है।
हैरत यह है कि वर्ष 2016 की घटना से भी विभाग ने कोई सबक नहीं लिया। वर्ष 2016 में जंगल में फैली आग इस कदर भयावह थी कि पहली बार सरकार को सेना की मदद लेनी पड़ी। हेलीकाॅप्टर की सहायता से जंगलों की आग पर किसी तरह काबू पाया जा सका। दरअसल, गर्मियों में जंगल का सुलगना एक सामान्य प्रक्रिया है। तापमान बढ़ने पर हालात पर काबू पाना बेहद मुश्किल हो जाता है। अब सवाल यह है कि ऐसी परिस्थितियां हर वर्ष उत्पन्न होती हैं। फिर क्या वजह है कि विभाग अब तक इसके लिए कोई ठोस कार्य योजना नहीं बना पाया?
अधिकारियों के अनुसार कुमाऊं में जंगल सुलगने का एक प्रमुख कारण बीते दो माह में बारिश का कम होना भी रहा है। जाहिर है कि विभाग पूरी तरह से भगवान के भरोसे है। पानी ठीक बरस गया तो सब कुछ ठीक रहेगा और गर्मी बढ़ी तो आग का विकराल होना तय है। फायर सीजन का समय 15 फरवरी से माना जाता है। इस दौरान बकायदा फायर लाइन काटी जाती है, लेकिन जब कभी जंगलों में आग बढ़ती है तो विभाग के पास सिवाय झांपे (टहनियों से बनी झाड़ू) के और काई उपकरण नहीं है। यह एक पारंपरिक तरीका है।
जाहिर है कि आग के भयावह होने पर यह तरीका कारगर नहीं रहता। संसाधनों की कमी का रोना रोता विभाग स्टाफ और आधुनिक उपकरणों के अभाव की दुहाई देता है। हालांकि काफी हद तक यह सच भी है, लेकिन सिक्के के दूसरे पहलू को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। आखिर वन और जन को जोड़ने की विभागीय पहल गंभीरता के अभाव में नाकाम रही है। वन पंचायतों का सक्रिय सहयोग लेने में भी विभाग विफल रहा है। जाहिर है कि दृष्टिकोंण में बदलाव के बिना हालात नहीं बदल सकते।