विंध्याचल

Submitted by Hindi on Thu, 08/25/2011 - 10:59
विंध्याचल विंध्याचल नगर मिर्जापुर से 4 मील पश्चिम गंगा नदी के दाहिने तट पर बसा हुआ है। इसी के अंचल में भगवती श्री विंध्यवासिनी दुर्गा जी का सर्वपूजित प्रसिद्ध मंदिर है। तीर्थयात्रियों तथा भ्रमणार्थियों के लिए यह महत्वपूर्ण स्थान प्राचीन काल से ही आकर्षण तथा श्रद्धा का केंद्र रहा है। कहा जाता है, मनु तथा उनकी स्त्री शतरूपा ने मंदाकिनी के तट पर कठोर तप किया था। देवी ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिया और चतुर्भुजी विंध्यवासिनी के रूप में विंध्याचल में अवतरित हुईं। आठवीं शती में वाक्पति ने अपने गौड़वहो काव्य में विंध्यवासिनी की मूर्ति का विशद वर्णन किया है। तब से अगणित साधुओं तथा तांत्रिकों का आवागमन यहाँ होता रह है। सिद्धपीठ तथा शक्तिपीठ होने के कारण स्थान स्थान पर चट्टियों तथा गुफाओं को देखने से उन कर्मठ योगियों तथा तांत्रिकों के त्याग और तपस्या के चिह्न अवशेष रूप में अब भी प्राप्त होते हैं।

अप्रैल तथा अक्टूबर मास ऋतु-परिवर्तन-काल माना जाता है। इन्हीं दो मासों में नाना प्रकार के संक्रामक रोगों का आक्रमण होता है। और मृत्युसंख्या बढ़ जाती है। शास्त्रानुसार इन महीनों में महाचंडी दुर्गा की पूजा आराधना रोग तथा अन्य उपद्रवों से मुक्ति पाने के लिए की जाती है। इससे सुख समृद्धि की वृद्धि तथा मानव कल्याण होता है। इसी से प्रत्येक वसंत तथा शरद् में नवरात्र पूजा अथवा दूर्गापूजा का प्रचलन और महात्म्य है। विंध्याचल के तीन मील के दायरे में तीन प्रमुख महाशक्तियों, महालक्ष्मी (विंध्यवासिनी), महासरस्वती (अष्टभुजा) तथा महाकाली के परम पुनीत सुरम्य स्थान हैं। इन तीनों स्थानों पर तीन स्थायी निर्झरिणियाँ हैं, जिनके नाम क्रमश: सीताकुंड, भैरवकुंड तथा कालीकुंड हैं। इनका जल बड़ा स्वास्थ्यवर्धक माना जाता है। अष्टभुजा देवी का मंदिर नगर से तीन मील पश्चिम लगभग 300 फुट की ऊँचाई पर स्थित है जिसपर जाने के लिए 160 पत्थर की सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। देवी की प्रतिमा एक लंबी और अँधेरी गुफा में है। गुफा के अंदर घृत दीप जलता रहता है, जिसके प्रकाश में यत्री देवी जी का दर्शन करते हैं। यह स्थान बड़ा दिव्य और रमणीक है।

प्रसिद्ध श्री रामेश्वर जी के मंदिर से लेकर 'राम-गया' तथा प्रेतशिला तक अनेक शिलालेख और जैन तथा बुद्ध की खंडित प्रस्तरमूर्तियाँ उस काल की कला का दर्शन कराती हैं। रामेश्वर जी के मंदिर के ठीक नीचे एक बौद्धकालीन उद्यान था जिसमें विभिन्न प्रकार की ओषधियों के पौधे तथा जड़ी बूटियाँ लगाई गई थीं जिसका भग्नावशेष अब भी वर्तमान है। दक्ष प्रजापति का यज्ञस्थल भी यह भूमि रह चुकी है। कहते हैं, यहीं पर सती ने अग्नि में प्रवेश कर शरीर त्याग किया था। यहाँ से चार मील दक्षिण पूर्व की ओर सप्तसागर नाम का स्थान पड़ता है। पुराणों में वर्णित है कि इसी के कूल का बैठकर ब्रह्मा जी ने तपस्य की थी। इस स्थान का दृश्य वर्षाकाल में अत्यंत मनोहर हो जाता है।

विंध्याचल उपनगर की पश्चिमी सीमा पर हनुमान जी का एक मंदिर तथा उसकी विपरीत दिशा में भैरव जी का मंदिर है। ये दोनों मूर्तियाँ बड़ी विशाल हैं। भैरव जी के मंदिर के उत्तर गंगा जी के तट पर नवीं शताब्दी के दानवराय के प्रसिद्ध दुर्ग का भग्नावशेष विद्यमान हैं।

छठी देवी- विंध्याचल त्रिकोण यात्रांतर्गत आनंदमयी आश्रम के निकट ही षष्ठी देवी का प्राचीन मंदिर था। षष्ठी देवी नव दुर्गा में से छठी देवी हैं इसलिए इन्हें षष्ठी देवी कहा जाता है। किंतु दुर्गासप्तशती के अनुसार इनका वास्तविक नाम कात्यायनी देवी है। इनके पूजन से शुभ और शांति की वृद्धि तथा रोग का नाश होता है।

सन्‌ 1954 ईसवी में यहाँ तत्कालीन जिलाधीश श्री नरसिंहप्रसद चटर्जी की संरक्षता में खुदाई हुई जिसमें प्राप्त कुछ खंडित तथा सर्वांगसुंदर मूर्तियाँ, स्तंभ, नकाशी की हुई चौकियाँ आदि मिलीं। जिससे ज्ञात होता है कि ये पूर्व मध्यकालीन युग (700-1200) के बाद की वास्तुकला की आर्यशैली से संबंध रखती है।

मोतिया तालाब- अष्टभुजा से दो फर्लांग पश्चिम विंध्य शिखर पर एक विशाल तालाब है जिसे मोतिया तालाब कहते हैं। उसके किनारे शंकर जी का विशाल मंदिर है, जहाँ कोई न काई साधक अथवा योगी प्राय: रहा ही करता है।

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