विषूचिका

Submitted by Hindi on Thu, 08/25/2011 - 16:21
विषूचिका इस रोग को कॉलरा अथवा हैजा भी कहते हैं। यह एक तीव्र संक्रामक रोग है, जिसमें चावल के माँड सा वर्णविहीन अतिसार (diarrhoea) और वमन होता है। शरीर से मल और वमन के रूप में जल और लवण का अत्यधिक अंश निकल जाने के कारण मूत्रस्राव रुक जाता है, पेशियों में ऐंठन (cramp) होने लगती है और रोगी पात (collapse) की अवस्था प्राप्त कर लेता है। शरीर का ताप गिर जाता है, रुधिर गाढ़ा हो जाता है, रक्तचाप गिर जाता है, नाड़ी क्षीण हो जाती है और हृदयगति मंद होते होते रुक जाने की संभावना हो जाती है। इस रोग का उद्भवन काल बहुधा तीन दिवस से कम का और कभी तो कुछ घंटों का ही होता है। पाँच दिवस से अधिक का उद्भवन काल विश्वस्त रूप से कभी नहीं पाया गया। यह रोग विशेष रूप से घातक होता है, किंतु यदि उपयुक्त उपायों से शरीर से जल और लवण का ह्रास न होने दिया जाए, या आवश्यकता पड़ने पर उस ह्रास की तुरंत ही पूर्ति कर दी जाए, तो रोगी के प्राण बच जाते हैं।

समस्त संसार के लिए इस घातक रोग का स्थायी निवास बंगाल में गंगा-ब्रह्मपुत्र का डेल्टा क्षेत्र हैं, जहाँ से यह रोग भारत के अन्य भागों में और कभी कभी देश देशांतरों में फैलकर विकराल रूप से घातक हो जाता है। भारत में पूर्वीय समुद्रतट के समीप स्वर्णरेखा, महानदी, लिका झील, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी के डेल्टा क्षेत्र भी विषूचिका के केंद्र हैं। भारत के पश्चिमी तट तथा सिंधु, नर्मदा और ताप्ती के डेल्टा क्षेत्रों में इस रोग का स्थायी निवास नहीं है। बिहार और उत्तर प्रदेश के तीर्थस्थानों में यात्रियों के आवागमन तथा भीड़भाड़ से इस रोग का गहरा संबंध है। जगन्नाथपुरी, गया धाम, काशी, अयोध्या, प्रयाग, चित्रकूट, मथुरा, वृंदावन, हरिद्वार आदि तीर्थ तथा विभिन्न अवसरों पर होनेवाले मेले, त्यौहार, पर्व और विवाहों की बारातें भी इस रोग के प्रसार में सहायक होती हैं।

बंगाल में विषूचिका का आपतन जनवरी के शीतकाल में सबसे कम होता है, पर मई जून तक बढ़ता है, वर्षा के आगमन पर कम हो जाता है और अक्टूबर में दूसरी बार फिर बढ़ने लगता है। बिहार, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, मध्य प्रदेश, बंबई तथा पंजाब में यह रोग महामारी के रूप में अप्रैल से अक्टूबर तक होता रहता है। जो प्रदेश बंगाल के निकट हैं, वहाँ कम समय में और जो दूर हैं वहाँ अधिक समय में यह रोग पहुंच पाता है। उत्तर प्रदेश और उसके निकटवर्ती प्रदेशों में प्रयाग तथा हरिद्वार के कुंभ तथा अर्धकुंभ के वर्षों में रोग अधिक फैलता रहा है। पंजाब में रोग का प्रवेश हरिद्वार से होता है और कुरुक्षेत्र के सूर्यग्रहण के पर्व के समय यह रोग अधिक फैलता रहा है। दक्षिणपूर्वी एशिया में विषूचिका कम नहीं है। वहाँ रोग व्यापक तो बहुत है, परंतु अधिक घातक नहीं। चिकित्साशास्त्र की उन्नति और रोग प्रतिरोधी उपायों के कारण भारत में भी इस रोग की भयंकरता बहुत कम हो गई है, किंतु स्थानिकमारी के (endemic) रूप में रोग की जड़ें अभी जमी हुई हैं। यह स्थानिकमारी समय समय पर भारी उत्पात खड़ा कर देती है। यह निश्चित रूप से कहना कठिन है कि रोग की भयंकरता तथा आपतन में यह कमी स्थायी है, या नहीं।

इस रोग से कोई पशु पक्षी पीड़ित नहीं होता। यह केवल मनुष्यों का ही रोग है और एक मनुष्य से ही दूसरे को होता है। रोगकारक हैजे का लोलाणु, या विब्रियो कोलरी (Vibrio choleare), एक सूक्ष्म एवं चंचल जीवाणु है, जो रोगी के मल तथा वमन में पाया जाता है। यह रोगी की आंत्रप्रणाली में ही बना रहता है और रुधिर, लसीका ग्रंथियों, अथवा अन्य अवयवों में साधारणत: प्रवेश नहीं कर पाता। आंत्र प्रणाली में ही घातक जीवविष (toxin) उत्पन्न करता है, जो रुधिर द्वारा शरीर के अन्य भागों में पहुंचकर रोगविकार उत्पन्न करता है। बहुत थोड़ा उद्भवन काल (एक या दो दिवस), तीव्र वेग से रोगवृद्धि (कभी केवल 12 घंटों में ही घातक) तथा अत्यधिक विषाक्तता, इस रोग की ये तीन विशेषताएँ हैं। इसका कारण यह है कि लोलाणु की अल्प समय में ही इतनी अधिक वंशवृद्धि हो जाती है कि रोगी का मल इस लोलाणु का संवर्धन (culture) घोल सा प्रतीत होता है और अन्य प्रकार के जीवाणु का प्राय: अभाव सा होता है। यह जीवाणु चंचल होता है और मल की एक सूक्ष्म बूँद में असंख्य लोलाणु सरोवर में मछली की भाँति, एक ही ओर, छोटी बड़ी पंक्ति में चलते दिखाई पड़ते हैं। इसका अंग वक्र होता है। इस कारण इसे कॉमा बैसिलस (Comma bacillus) भी कहते हैं। विषूचिका के लोलाणु से मिलते जुलते कई प्रकार के अन्य लोलाणु भी होते हैं, जो विषूचिका रोग उत्पन्न करने में असमर्थ पाए गए हैं। विषूचिका का वास्तविक लोलाणु वही माना जाता है जो लोलाणु वर्ग के औ-उपभेद प्रथम (O subgroup 1) के अंतर्गत समाविष्ट किया जा सकता है। इसकी विशेषता यह होती है कि इसके प्रथम उपभेद का ओ-सिरम से समूहन (agglutination) हो जाता है। कशाभ एच-समूहन (Figellar H-agglutination) परीक्षा से इस उपभेद का पता नहीं चल सकता, किंतु कायिक ओ-समूहन (Somatic O-agglutination) परीक्षा से इस लोलाणु के अन्य सजातीय लोलाणुओं से अलग पहचाना जा सकता है। इसके इनाबा (Inaba), ओगावा (Ogawa) और हिकोजीमा (Hikojima) नामक तीन प्रकार के भेद हैं जो विषूचिका रोगकारी हैं। जो लोलाणु विषूचिका के लोलाणु से मिलते जुलते प्रतीत होते हैं किंतु ओ-सिरम की समूहन परीक्षा से भिन्न पाए जाते हैं, उन्हें असमूहनीय लोलाणु कहा जाता है। इन असमूहनीय लोलाणुओं का विषूचिका रोग से क्या संबंध है, इसका निर्णय अभी नहीं हो सका है, किंतु यह अवश्य देखने में आया है कि कुछ असमूहनीय लोलाणु विषूचिका के अनुरूप हलका रोग उत्पन्न कर सकते हैं, जिसका उद्भवन काल भी अल्प है और संक्रमण द्वारा रोगप्रसार भी शीघ्र होता है, किंतु मृत्यु संख्या नगण्य सी है। संभव है कि समूहनीय अथवा समूहनीय लोलाणु एक दूसरे की परिवर्तित अवस्थाएँ हों और असमूहनीय लोलाणु समूहन गुण प्राप्तकर, अधिक विषाक्तपूर्ण होकर, रोग उत्पन्न करने में समर्थ हो जाते हों।

विषूचिकाजनक लोलाणु अल्पजीवी है और सुगमता से नष्ट किया जा सकता है। अन्य जीवाणुओं के समान 60 सें. के आर्द्र ताप पर कुछ ही मिनट में यह मर जाता है, किंतु शुष्कता इसके लिए बहुत घातक है। वह सूखी अवस्था में साधारण ताप पर कुछ ही घंटों में मर जाता है। यह शीत वातावरण सहन कर सकता है। हिमांक के ताप पर भी कुछ दिनों तक जीवित रह सकता है। रोगाणुनाशी रासायनिक पदार्थों द्वारा सुगमता से इन लोलाणुओं का नाश किया जा सकता है। तारकोलजन्य फिनोल तथा क्रिसोलयुक्त रोगाणुनाशी पदार्थ इसे मारने के लिए बहुत उपयोगी हैं। यह लोलाणु मल में एक दो सप्ताह में ही मर जाता है और कूओं, तालाब नदी आदि के जल में भी 10-15 दिन से अधिक नहीं जीता। यह लवण और कार्बनिक पदार्थ युक्त जल, अथवा आर्द्र भूमितल, में अधिक समय तक जीवित रहता है। अम्लीय वातावरण की अपेक्षा क्षारीय वातावरण में अधिक पनपता रहता है।

इस रोग का निश्चयात्मक निदान लोलाणुपरीक्षा द्वारा संभव है। परीक्षा के लिए रोगी के मल का कुछ अंश लवणयुक्त प्रतिरोधक बफ़र विलयन में मिलाकर, प्रयोगशाला में भेजा जाता है, जहाँ पेप्टोन के क्षारीय जल में तथा अन्य पौष्टिक पदार्थों पर लोलाणु का संवर्धन कर, विशिष्ट प्रकार के ओ-सिरम से समूहन के अतिरिक्त अन्य परीक्षा कर, रोग का निदान किया जाता है। रोग के लक्षणों से तथा एक साथ अनेक व्यक्तियों के रोगग्रस्त होने से निदान संबंधी अनुमान किया जा सकता है, किंतु जीवाणु संबंधी परीक्षा से निदान पूर्णत: निश्चित हो जाता है। भोजन विषाक्तता तथा संखिया, जमालगोटा एवं कुचले के विष से उत्पन्न लक्षण विषूचिका का भ्रम उत्पन्न कर सकते हैं, परंतु आवश्यक पूरी क्रिया वास्तविकता का पता लगाना संभव है।

विषूचिका का रोगी यदि अन्य स्वस्थ पुरुषों से अलग कर दिया जाए, तो रोग का प्रसार भयंकर रूप से नहीं हो पाता। परंतु रोगी को सबसे अलग करना कठिन होता है। इस कारण रोग का प्रसार होता रहता है, जो कभी कभी बहुत व्यापक हो जाता है। कोई विरला ही मनुष्य ऐसा होगा जो प्राकृतिक रूप से रोग से प्रतिरक्षित हो। रोगी के स्वस्थ हो जाने पर भी प्राकृतिक रूप से उपार्जित प्रतिरक्षा कुछ ही महीनों में लुप्त हो जाती है टीके द्वारा कृत्रिम उपायों से प्राप्त सक्रिय प्रतिरक्षा भी अस्थायी होती है। इस कारण अधिकांश जनता में रोगक्षमता का अभाव ही रहता है। इसके फलस्वरूप थोड़े ही काल में दूर दूर तक रोग की बाढ़ सी आ जाने की संभावना रहती है।

विषूचिका का लोलाणु जल और भोजन के साथ मुख द्वारा शरीर में प्रवेश पाता है। लवण तथा कार्बनिक पदार्थयुक्त क्षारीय जल में लोलाणु अधिक काल तक जीवित रह सकता है। इस कारण समुद्रतट पर तथा नदी के डेल्टा क्षेत्र में विषूचिका प्राय: प्रति वर्ष होता है। गाँवों में शौचालय के अभाव में मलोत्सर्जन का ढंग दोषपूर्ण है। नगरों तथा तीर्थों में भी स्वच्छता का स्तर निराशाजनक है। इस कारण बस्ती के आसपास की आर्द्र भूमि लोलाणुओं से प्रदूषित (polluted) रहती है। ऐसी प्रदूषित आर्द्र भूमि से लोलाणु का जलस्रोत में प्रवेश पा जाना सुगम है, फिर लोलाणुयुक्त जल से भोजन भी दूषित हो जाता है। लोलाणु द्वारा भोजन को दूषित करने में मक्खियाँ भी बहुत सहायक होती है। ये लोलाणुओं को अपने पैर तथा पंखों द्वारा मल अथवा वमन से दूध, मिठाई, फल, भोजन आदि तक पहुँचा देती हैं। इस प्रकार लोलाणुप्रदूषित जल तथा भोजन के सेवन से रोग का प्रसार होता रहता है। विषूचिका संक्रमण का प्रसार मार्ग इस प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है :

विषूचिका के संक्रमण का स्थायी आश्रय मनुष्य ही है। इस कारण विषूचिका के प्रसार में स्वस्थ रोगवाही व्यक्तियों का योगदान अवश्य होता होगा, परंतु बहुत खोज करने पर भी ऐसे स्वस्थ रोगवाही व्यक्ति नहीं मिले जिनके मल में ओ उपभेद प्रथम के समूहनशील विषूचिकाकार लोलाणु विद्यमान हों। आभाव काल में, अथवा एक महामारी के अंत के पश्चात्‌ और दूसरी के आरंभ होने के पूर्व के अंतर्काल में, जब कोई मनुष्य रोगी पाया जाता है, तब यह लोलाणु भूमितल, नदी, तालाब आदि कहीं नहीं मिलता और न किसी स्वस्थ व्यक्ति के मल में मिलता है। असमूहनीय लोलाणु अवश्य मिलते हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि रोगाभाव काल में समूहनीय, विषूचिकाजनक लोलाणु कहाँ छिपा रहता है। रोग के प्रारंभ होते ही रोगी के मल तथा वमन में लोलाणु के मिलने के समय यह फिर नदी, तालाब तथा भूमितल पर मिलने लगता है। अनुमानत: असमूहनीय लोलाणु जो निरंतर ही पाए जाते हैं, समूहन गुण प्राप्त कर रोगकारी हो जाते हैं, किंतु यह परिवर्तन निश्चयात्मक रीति से सिद्ध नहीं हो पाया है। हिलसा जाति की मछली के शरीर में यह परिवर्तन होने की संभावना बताई जाती है।

विषूचिका की रोकथाम के उपाय कई देशों में सफल सिद्ध हुए हैं। भारत में भी कुछ सफलता अवश्य मिली है, किंतु स्थानिकमारी के क्षेत्र में रोग की जड़ें पूर्ववत्‌ जमी हुई हैं। पूरी सफलता के लिए बहुमुखी, स्थायी प्रयास आवश्यक है। अब तक केवल अधूरे और अस्थायी उपाय ही व्यवहार में लाए गए हैं, जिनसे केवल आंशिक सफलता मिल पाई है। रोग पर पूर्ण विजय पाने के लिए स्वास्थ्यशिक्षा तथा स्वास्थ्यप्रद साधनों द्वारा स्वच्छ वातावरण में रहने के लिए प्रत्येक प्राणी को सभी आवश्यक सुविधाएँ यथासंभव शीघ्र ही प्राप्त होनी चाहिए। अस्वच्छता ही रोग की जननी है। ग्रामों तथा नगरों की पूरी पूरी सफाई द्वारा ही रोग की रोकथाम संभव है। उच्चस्तरीय स्वच्छता का आदर्श सभी को अपनाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक वैधानिक नियम भी होने चाहिए, जिनका उल्लंघन दंडनीय हो। स्वास्थ्य के प्रति जनता की चेतना जागृत होनी चाहिए। धार्मिक संस्थाओं में हस्तक्षेप न करने की नीति के कारण मठ मंदिरों की जल तथा भोजन व्यवस्था में सुधार नहीं हो पाता। धनाभाव के कारण भी स्वच्छता का स्तर गिरा हुआ है। गंदी बस्तियाँ सर्वत्र ही देखने को मिलती हैं। घृणोत्पादक कुकर्म जनता द्वारा निरंकुश और निस्संकोच रूप से संपन्न होते रहते हैं। स्थायी उपायों में शुद्ध, स्वच्छ, निर्दोष और पर्याप्त मात्रा में जल वितरण की व्यवस्था सबसे महत्वपूर्ण है। ग्रामों की सफाई के लिए सामरिक ढंग की तत्परता आवश्यक है। जल के स्रोतों को अर्थात्‌ कूप, बावड़ी, ताल, तलैया, नदी आदि को, पूर्ण देखभाल और सुरक्षा द्वारा दूषित न होने देना चाहिए। जल की शुद्धता के अभाव में भोजन की शुद्धता असंभव है। अब अनेक मनुष्यों को बाजार में हलवाई, होटल तथा जलपानगृहों से भोजन प्राप्त करना पड़ता है। इस कारण भोजन में स्वच्छता संबंधी कोई त्रुटि न होने देनी चाहिए। पान, शर्बत, गन्ने का रस, मलाई की बर्फ, सड़े गले फल, दूध, शाक, मिठाई आदि को धूल और मक्खियों से सुरक्षित रखने के नियमों का उल्लंघन दंडनीय होना चाहिए।

जल और भोजन के दूषित हो जाने का मुख्य कारण ग्रामों तथा नगरों में मलोत्सर्जन के लिए शौचालयों का अभाव है। जब घरों की ही व्यवस्था नहीं है, तो फिर शौचालयों का प्रबंध कैसे संभव है? प्रत्येक परिवार के लिए स्वीकृत नमूने के परिशुद्ध शौचालयों की व्यवस्था होनी चाहिए, जिनकी सफाई भी निरंतर होती रहे। मल के निस्तारण का ढंग ऐसा होना चाहिए जिससे भूमिगत दूषित न हो और जल के स्रोत स्वच्छ बने रहें। नगरों में जलप्रक्षालित शौचालय तथा ग्रामों में खनित कूप शौचालय, अथवा परिशोधी गुणों से युक्त किसी अन्य प्रकार के शौचालय, निर्माण किए जाने चाहिए। पशुओं का गोबर, लीद और घरों तथा गलियों के कूड़ा कर्कट का निस्तारण परिशोधी ढंग से हो, जिससे मक्खियों की वंशवृद्धि न हो सके। मल द्वारा जल तथा भोजन के दूषित होने से जो जो रोग फैलते हैं, उन सभी की रोकथाम में ये स्थायी उपाय सहायक हैं।

अस्थायी उपाय रोग की संभावना होने पर, या रोग के फैलने पर, तुरंत ही किए जाते हैं। ये उपाय तात्कालिक हैं और इनके लिए और संक्रमण के प्रसार को रोकने के लिए, उसे अन्य व्यक्तियों से अलग रखना आवश्यक है। रोगी के घर पर चिकित्सा का तथा पृथक्करण का प्रबंध करना कठिन है। इस कारण उसे संक्रामक रोग चिकित्सालय में भेज देना चाहिए। स्थान स्थान पर आवश्यक सामग्री से सुसज्जित चिकित्सालय स्थापित करने चाहिए। बड़े बड़े नगरों में तथा तीर्थस्थानों में संक्रामक रोग चिकित्सालय स्थायी होने चाहिए रोग का निदान भी शीघ्रातिशीघ्र हो सके, इसकी व्यवस्था भी आवश्यक है। रोग की सूचना स्वास्थ्याधिकारियों को तुरंत ही मिल सके, इसकी अचूक और विश्वस्त व्यवस्था होनी चाहिए। सूचना देने में देर करने का भयंकर परिणाम हो सकता है, क्योंकि रोग शीघ्र ही आग के समान फैलता है। एक दिन की देर भी अत्यंत घातक हो सकती है। सूचना पाते ही रोगी को चिकित्सालय में भेजना चाहिए और उसके मल वमन तथा अन्य प्रदूषित पदार्थो के प्रयोग द्वारा मल और वमन पर न बैठने देना चाहिए और भोजन को मक्खियों से बचाना चाहिए। गरम गरम ताजा भोजन खाना चाहिए। बासी, अजीर्णकारी और मक्खियों से दूषित पदार्थ खाना वर्जित है। संदिग्ध अवस्था में पकाया भोजन भी दूषित हो सकता है। भूखे पेट रहना भी ठीक नहीं है। विरंजक चूर्ण से शोधित जल व्यवहार में लाना चाहिए, अन्यथा जल उबालकर प्रयोग करना चाहिए। कूओं तथा जल के अन्य स्रोतों पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए और उनके जल को विरंजक चूर्ण से शुद्ध कर जनता में स्वच्छतापूर्ण रीति से वितरण करना चाहिए।

रोगी की चिकित्सा के लिए सगंध तेल के स्थान में अब सल्फाग्वानिडीन (sulphaguanidine) का उपयोग किया जाता है। रोगी के शरीर से जल और लवण का ह्रास रोकने की चेष्टा करनी चाहिए और यदि ह्रास हो गया हो, तो उसकी पूर्ति पिचकारी द्वारा आवश्यक लवणोंयुक्त जल को रुधिर में प्रवेश कराकर की जाती है। इस रोग में मृत्यु का मुख्य कारण जल तथा शरीर के लवणों का ह्रास ही है। जब रोगी स्वस्थ होने लगता है, शरीर का ताप बढ़ने लगता है और नाड़ी की गति सुधर जाती है। नीरोग हो जाने पर बहुधा इस भयंकर रोग का कोई विकार भी शेष नहीं रहता।

जनता को रोग से सुरक्षित रखने के लिए, उपर्युक्त स्थायी और अस्थायी उपायों के अतिरिक्त टीके द्वारा सक्रिय रोगक्षमता प्रदान करना अत्यंत लाभकारी है। टीके से प्रतिरक्षित अधिकांश मनुष्य रोग से सर्वथा बचे रहते हैं, किंतु यह रोगक्षमता केवल पाँच छह महीनों में ही जाती रहती है। इस टीके के वैक्सीन के प्रति मिलीलिटर में इनाबा जाति के चार अरव और ओगाबा जाति के भी चार अरब मृत लोलाणु होते हैं। साधारणत: प्रत्येक वयस्क का एक मिलीलिटर की मात्रा टीके द्वारा दी जाती है। एक सप्ताह के अंतर से दो बार टीका लेना अधिक लाभकारी है। पहली बार आधा मिलीलिटर और दूसरी बार एक मिलीलिटर की मात्रा दी जाती है। विदेशी यात्रियों को दो टीके लगाए जाते हैं। रोग के फैलने की संभावना होने पर तुरंत ही टीका लेना चाहिए। देर करना अनुचित है। टीके के बाद चार पाँच दिवस में ही प्रतिरक्षा उत्पन्न होने लगती है और प्राय: दस दिन में पूर्ण प्रतिरक्षा उत्पन्न हो जाती है। यह टीका रोग की रोकथाम में इतना अधिक सफल सिद्ध हुआ है कि बड़े बड़े मेले, त्योहारों और पर्वों पर सभी यात्रियों के लिए टीका अनिवार्य कर दिया जाता है और कोई भी यात्री बिना टीके के उस मेले या पर्व में सम्मिलित नहीं हो सकता। विषूचिका की रोकथाम में यह टीका अन्य सभी उपायों की अपेक्षा अधिक लाभकारी सिद्ध हुआ है। प्रतिरक्षा के लिए यह आवश्यक है कि रोग की संभावना होने पर संक्रमण होने के पश्चात्‌ उद्भवन काल में लिया हुआ टीका रोगनिरोध के लिए निरर्थक है। रोगी को टीका नहीं दिया जाता। यह टीका सर्वथा निर्दोष है और स्वास्थ्य विभाग द्वारा नि:शुल्क दिया जाता है। ओषधि अधिनियम के अंतर्गत, इस वैक्सीन का निर्दोषपूर्ण रीति से निर्माण होता है। टीके द्वारा रोग का प्रसार रुकता है, किंतु उसके उन्मूलन के लिए स्थायी उपायों की व्यवस्था आवश्यक है। विषूचिका के समूल नाश के लिए सर्वत्र पूर्ण स्वच्छता ही अमोघ अस्त्र है। प्रतिरक्षा तथा रोगचिकित्सा के लिए स्थान स्थान पर स्वास्थ्य केंद्र स्थापित किए जाने चाहिए, जिससे जनता के स्वास्थ्य सवंर्धन और संरक्षण के साथ साथ रोगचिकित्सा के साधन भी सुलभ हो सकें। प्रति वर्ष समय समय पर ग्रामों और छोटी छोटी बस्तियों की सफाई कराने के लिए सामूहिक प्रयास द्वारा स्वच्छता अभियान का आयोजन करना चाहिए। (स्व.) भवानी शंकर याज्ञिक)

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संदर्भ
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बाहरी कड़ियाँ
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