विश्वन्यायाधिकरण (International Tribunal)

Submitted by Hindi on Thu, 08/25/2011 - 15:25
विश्वन्यायाधिकरण (International Tribunal) एक तदर्थ (Ad hoc) संस्था है, जो राष्ट्रों के बीच उत्पन्न विवाद को, समझौते की शर्तों के अनुसार, सुलझाने के लिए स्थापित की जाती है। राजनीतिक सम्मेलनों को छोड़कर, कहा जा सकता है कि आधुनिक विश्व न्यायाधिकरण की उत्पत्ति अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के क्षेत्र से ही हुई है।

प्राचीन काल में राष्ट्र बहुधा अपने विवाद शांतिपूर्वक सुलझाने के लिए किसी मध्यस्थ का निर्वाचन कर लेते थे। उस समय वह मध्यस्थ एक न्यायाधिकरण का रूप धारण कर लेता था। यद्यपि सोलहवीं, सत्रहवीं और अट्ठारहवीं शताब्दी में अंतरराष्ट्रीय विधि में काफी उन्नति हुई, तथापि इस बीच मध्यस्थता के बहुत कम दृष्टांत मिलते हैं।

19 नवंबर, 1794 को संयुक्त राष्ट्र-अमरीका और ग्रेट ब्रिटेन के बीच हुई जे संधि (Jay Treaty) को वर्तमान मध्यस्थता की नींद माना जाता है। मध्यस्थता के कुछ उदाहरण जैसे 1870 की अलाबामा मध्यस्थता (Alabama Arbitration), 1893 की वेहरिंग सागर मध्यस्थता (Behring sea Arbitration), और 1897 की ब्रिटिश गायना मध्यस्थता (British Guiana Arbitration) ऐसे हैं जिनमें मध्यस्थता का कार्य योग्य न्यायाधिकरणों द्वारा निष्पादित किया गया था, जिससे इस बात की संभावना उत्पन्न हो गई कि राष्ट्र अपने राजनैतिक तथा प्रादेशिक विवाद भी विधिक रीति से निपटा सकेंगे।

29 अक्टूबर, 1899 को हेग शांतिसम्मेलन ने अंतरराष्ट्रीय विवादों को शांतिपूर्वक सुलझाने के विषय पर एक प्रस्ताव पास किया जिसके द्वारा एक स्थायीमध्यस्थन्यायालय (Permanent Court of Arbitration) की स्थापना की गई। पर यह स्थायी न्यायालय केवल रीति (method) और एक प्रक्रिया (Procedure) ही था, वास्तव में वह एक स्थायी न्यायालय नहीं था, बल्कि कहना चाहिए कि वह न्यायालय ही नहीं था।

पहले महायुद्ध के पश्चात्‌, सन्‌ 1919 की पेरिस शांतिसंधि में यह तय हुआ कि अंतरराष्ट्रीय विवादों को सुलझाने के लिए एक स्थायी न्यायालय स्थापित किया जाए। इस कारण सन्‌ 1920 में लीग ऑव नेशन्स के चार्टर के अंतर्गत एक स्थायी अंतरराष्ट्रीयन्यायालय (Permanent Court of Internation Justice) स्थापित किया गया। परंतु इस न्यायालय की स्थापना ने राष्ट्रों के आपसी मतभेदों को दूसरे न्यायाधिकरणों द्वारा सुलझाए जाने के अधिकार को किसी प्रकार भी हम नहीं किया। उदाहरणार्थ 1922 से 1937 तक जर्मनी और पोलैंड के बीच दो प्रादेशिक न्यायाधिकरण परिरक्षित किए गए। पहला अपर साइलेशियन मिक्स्ड कमीशन (Upper Silesian Mixed Commission) तथा दूसरा अपर साइलेशियन मध्यस्थ न्यायाधिकरण (Upper Silesian Arbitral Tribunal)। इस न्यायालय की सफलता के कारण अनेक दूसरे न्यायाधिकरणों की स्थापना के प्रस्ताव भी किए गए हैं। बहुत से अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में संवणिक (Commercial) विवादों को निपटाने के लिए एक स्थायी न्यायाधिकरण की माँग की गई है। इसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय पारितोषिक न्यायालय (International PrizeCourt) तथा अंतरराष्ट्रीय दंड न्यायालय (International Criminal Court) की माँग भी कई बार प्रस्तावित की जा चुकी है।

दूसरे महायुद्ध की समाप्ति पर, यूनाइटेड नेशन्स चार्टर के अंतर्गत, स्थायी अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (Permanent Court of International Justice) को समाप्त कर इंटरनेशनल कोर्ट ऑव जस्टिस (International Court of Justice) की स्थापना की गई। यद्यपि विधिक दृष्टि से यह एक दूसरा न्यायालय है तथापि वास्तव में यह पहले न्यायालय का ही अनवरित रूप है, जैसा यू. एन. चार्टर के 92वें अनुच्छेद से प्रतीत होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि 150 वर्ष के अनवरत प्रयत्नों ने विश्व न्यायाधिकारणों को एक ऊँचे स्तर पर पहुँचा दिया है।

किसी भी विश्वन्यायाधिकरण का प्रथम कार्य उन विवादों का न्यायिक निर्धारण करना है, जो राष्ट्रों के बीच उत्पन्न होते हैं और जिन्हें विवादग्रस्त राष्ट्र उसे निर्णय के लिए समर्पित करते हैं। विश्व न्यायाधिकरणों संचालन में कुछ सामान्य समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। पहली समस्या होती है उसका निर्माण। सबसे साधारण प्रकार के विश्वन्यायाधिकरण में एक ही सदस्य होता है, जिसमें किसी सुप्रसिद्ध मनुष्य का निर्वाचन किया जाता है, जैसे प्राचीन काल में बहुधा पोप को मध्यस्थ चुना जाता था। कभी कभी किसी देश के राजा को भी यह स्थान प्रदान किया जाता था, उदाहरणार्थ सन्‌ 1931 में इटली सम्राट् ने फ्रांस और मेक्सिको के बीच क्लीपिर्टन द्वीप (Clipperton Island) के विवाद को निपटाया था। दूसरे प्रकार का विश्वन्यायाधिकरण एक मिश्रित कमीशन के रूप में होता है, जिसमें प्रत्येक पक्ष के सदस्य होते हैं। इसका उदाहरण एलास्का सीमा न्यायाधिकरण (Alaskan Boundary Tribunal) है, जो संयुक्त राष्ट्र अमरीका और ग्रेट ब्रिटेन के बीच सन्‌ 1903 में स्थापित किया गया था। एक तीसरे प्रकार का विश्वन्यायाधिकरण, जो सबसे अधिक प्रचलित है, एक मिश्रित कमीशन के रूप में होता है जिसमें दोनों पक्ष बराबर संख्या में सदस्य भेजते हैं, और ये सदस्य मिलकर एक अन्य सदस्य को चुनते हैं जो किसी भी पक्ष का नहीं होता। पर जब बहुत से राष्ट्र मिलकर एक स्थायी न्यायाधिकरण स्थापित करते हैं, तो उसका रूप कुछ अलग होता है। स्थायी अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का विधान लिखते समय न्यायतत्वज्ञों की समिति ने एकमत हो यह निश्चय किया कि इस न्यायाधिकरण के स्वतंत्र न्यायाधीश, जो संख्या में 15 होंगे, बिना राष्ट्रीयता को विचार में रखते हुए निर्वाचित किए जाएँगे। यही बात इंटरनेशनल कोर्ट ऑव जस्टिस के दूसरे और तीसरे अनुच्छेदों में भी दी गई है।

दूसरा महत्त्वपूर्ण तथा कठिन प्रश्न है विश्वन्यायाधिकरण के सदस्यों के चुनाव का। संसार में कुछ ही मनुष्य इतने योग्य होते हैं कि उनकी योग्यता में सबको विश्वास हो। अस्थायी न्यायाधिकरण के सदस्यों की संख्या कम होती है तथा उन्हें किसी विशेष विवाद में ही निर्णय देना होता है, जिसका प्रभाव केवल विवादग्रस्त देशों पर ही पड़ता है, अत: उसके सदस्यों के चुनाव में कोई विशेष कठिनाई नहीं होती। किंतु स्थायी न्यायाधिकरण के सदस्यों की समस्या भिन्न है, क्योंकि उनकी संख्या अधिक होती है और उन्हें भिन्न भिन्न प्रकार के विवादों को सुलझाने का भार उठाना पड़ाता है, तथा उनके निर्वाचन में भी बहुत से देशों को भाग लेना पड़ता है। एक विश्व न्यायाधिकरण के सदस्य के निर्वाचन में उसके निम्नलिखित गुण विचारधीन होते हैं : नैतिक सच्चाई, राष्ट्रीयता, व्यवसाय, भाषाओं की योग्यता, उम्र तथा आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण । इंटरनेशल कोर्ट ऑव ज़स्टिस के विधान के दूसरे अनुंच्छेद में यह दिया है कि उसके सदस्य उन उच्य चरित्रवाले मनुष्यों में से निर्वाचित किए जाएँगे, जो कि उन विशेषणों से युक्त हैं जिनकी उनके देश में उच्चतम न्याय अधिकारी की नियुक्ति के लिए आवश्यकता है, अथवा जो अंतरराष्ट्रीय विधि में मानी हुई योग्यता के न्यायतत्वज्ञ हैं।

जहाँ तक विश्व न्यायाधिकरण के अधिकारक्षेत्र (jurisdiction) का प्रश्न है, आमतौर पर राष्ट्र ही अपने विवाद उसके सम्मुख उपस्थित कर सकते हैं। यही बात इंटरनेशनल कोर्ट ऑव जस्टिस के 34 अनुच्छेद में भी दी गई है। स्थायी अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने माइनारिटी स्कूल्स इन अपर साइलेशिया (Minorityschools in Upper Silesia, 1928) वाद में, अपने निर्णय में कहा है कि 'न्यायालय का अधिकारक्षेत्र पक्षों की इच्छा पर निर्भर है'। इसी प्रकार इंटरनेशनल कोर्ट ऑव जस्टिस ने कारफ्यू चैनल [Corfu channel (preliminary objection) case 1948.] वाद में कहा : 'पक्षों की सहमति न्यायालय को अधिकारक्षेत्र प्रदान करती है। 'यह सहमति दो प्रकार की हो सती है, पहली व्यापक रूप में, दूसरी किसी विशिष्ट वाद में।

विश्व न्यायाधिकरण की क्रियाविधि (Procedure) अधिकतर वही होती है, जो उसके स्थापन करनेवाले आलेख में लिखी हो, पर उसको यह अधिकार भी दिया जाता है कि वह ऐसे नियम बना ले जो उसका कार्य सुचारु रूप से चलाने के लिए आवश्यक हों। इंटरनेशनल कोर्ट ऑव जस्टिस के विधान के 38वें अनुच्छेद में दिया हुआ है कि उसको विवादों का निर्णय अंतरराष्ट्रीय विधि के अनुसार करना होगा, और इसमें उसको अंतरराष्ट्रीय प्रथाओं (Conventions), अंतरराष्ट्रीय आचार (Customs) तथा सभ्य देशों द्वारा अंगीकृत विधि के सामान्य सिद्धांतों को विशेष ध्यान में रखना होगा। पर इसके अतिरिक्त विवादग्रस्त पक्ष न्यायाधिकरण को किसी और सिद्धांत को भी, निर्णय देते समय, ध्यान में रखने को कह सकते हैं। यह विश्वन्यायालयों या न्यायाधिकरणों के समक्ष विवादास्पद कार्यवाही (Contentious Proceedings) एक निर्णय या पंचनिर्णय के रूप में प्रगट होती है। स्थायी अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने मौसुल वाद (Mosul case, 1925) में कहा है कि 'मध्यस्थ न्यायाधिकरणों ने आत तौर से यह सिद्धांत मान लिया है कि उनका निर्णय वही होगा जो बहुमत द्वारा दिया गया हो।' उक्त न्यायालय के विधान में इसका समावेश है कि विमत या असहमत (dissenting) न्यायाधीश अपना मत अलग प्रगट कर सकते हैं। एक बार जब विश्वन्यायाधिकरण गुण दोष के आधार पर निष्पत्ति (decision on merits) दे देता है तो वह स्थिर और अंतिम होती है।

जब कोई विश्वन्यायाधिकरण अपना अंतिम निर्णय दे देता है, तो उसका कार्य समाप्त हो जाता है, क्योंकि उस निर्णय को प्रचलित करने (enforcing) का अधिकार उसके पास नहीं होता। पर यह एक विशेष ध्यान देनेवाली वात है कि विश्वन्यायाधिकरणों द्वारा दिए गए निर्णय बहुत कम ही राष्ट्रों द्वारा ठुकराए गए हैं।

उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण से एक आंदोलन चला है, जो राष्ट्रों को अपने विवादों को शांतिपूर्ण रीतियों से सुलझाने तथा न्यायाधिकरणों को विवादों में एक प्रकार का बाध्यकारी अधिकारक्षेत्र (Obligatory jurisdiction) प्रदान करने की प्रेरणा देता है। जैसे जैसे अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता की निष्पक्षता तथा न्यायिक चरित्रता दृढ़ होती जाएगी, वैसे वैसे राष्ट्रों के अपने अंतरराष्ट्रीय विवादों को विश्व न्यायाधिकरणों को न सौंपने की क्रिया में कमी होती जाएगी।

सं. ग्रं.  हडसन, एम. ओ. : इंटरनेशनल ट्राइव्यूनल्स; रालस्टोन, जे. एच. : इंटरनेशनल आरबिट्रेशन फ्राम एथेन्स टू लोकारनो; डारबी, डव्लू. ई. : इंटरनेशनल ट्राइव्यूनल्स, 1904; श्वाज़नबरजर, जी. : इंटरनेशनल ला, पहला खंड; लाटरपेट, एच. : दि डेवलपमेंट ऑव इंटरनेशनल ला बाई दि परमानेंट कोर्ट ऑव इंटरनेशनल जस्टिस। ( जे. एन. सक्सेना)

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संदर्भ
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