विटामिन (Vitamin) एक बहुत आवश्यक खाद्यांश है। मनुष्य के खाद्य में निम्न पदार्थों का रहना जरूरी है : (1) प्रोटीन, (2) कार्बोहाइड्रेट, (3) बसा, (4) खनिज पदार्थ, (5) विटामिन, तथा (6) जल। ये सब पदार्थ मनुष्य को दिन-प्रतिदिन के आहार से मिलते हैं। विटामिन की प्रतिदिन की आवश्यक मात्रा संतुलित भोजन से प्राप्त होती है (देखें आहार)।
इस शताब्दी में विटामिन के संबंध में अच्छी जानकारी हुई है। किन किन खाद्य पदार्थों में कौन कौन विटामिन हैं, इस जानकारी के अतिरिक्त विटामिनों के संश्लेषण प्रक्रिया द्वारा उत्पादन आदि से भी पर्याप्त जानकारी हो गई है। अब तो इनकी रासायनिक रूपरेखा भी अच्छी तरह जान ली गई है। इनका, अन्य रासायनिक पदार्थों के सदृश मनुष्य की चिकित्सा में, व्यवहार भी किया जाने लगा है। पूर्ण विटामिन की कभी की अवस्था में इनका व्यवहार जादू सा काम करता है और मनुष्य शीघ्र ही लाभ अनुभव करने लगता है। अल्प कमी की अवस्था में विटामिनहीनता के कोई लक्षण दिखई पड़ते हैं और इन अवस्थाओं में संश्लेषित विटामिनों का व्यवहार खूब लाभप्रद होता है। मनुष्य के प्रतिदिन की आवश्यकता की जानकारी अच्छी तरह हो गई है। बहुत अल्प मात्रा में इनकी आवश्यकता होती है।
प्रमुख विटामिन
विटामिन
रासायनिक नाम
हीनता के लक्षण
जलविलेय विटामिन
विटामिन बी1 (B1)
थायामिन (Thiamin)
बेरी बेरी (Beri Beri) तथा स्नायुदौर्बल्य।
विटामिन बी2 (B2)
रिबोफ्लेबिन (Riboflavin)
आँख की केशिकाओं में लाली, होंठों पर फेफरी, मुँह आना, जीभ में विशेष लाली तथा चर्मरोग।
विटामिन बी6 (B6)
पिरिडॉक्सिन (Pyridoxin)
वमन
विटामिन बीपी-पी. (BP-P)
निकोटिनिक अम्ल (Nicotinic acid)
पैलाग्रा (Pellagra)
फोलिक अम्ल
फोलिक अम्ल (Folic acid)
बृहत् लोहिताणु-क्षीणता (Macrocytic anaemia)
विटामिन बी12 (B12)
सायनोकोबलेमाइन (Cyanocobalamin)
दुष्ट रक्तक्षीणता (Pernicious anaemia)
विटामिन सी (C)
ऐस्कॉर्बिक अम्ल (Ascorbic acid)
स्कर्वी (Scurvy)
बसा विलेय विटामिन
विटामिन ए (A)
कैरोटीन (Carotine)
रतौंधी, शुष्कअक्षिपाक (Xerophthalmia) तथा कटेंला (Phrenodermia)
विटामिन डी (D)
कैल्सिफ़ेरोल (Calciferol)
सुखंडी (rickets) तथा अस्थि दौर्बल्य।
विटामिन इ (E)
टोकोफ़ेरोल (Tocopherols)
सामयिक गर्भपात (Habitual abortion)
विटामिन के (K)
मेनाडिओन (Menadion)
रक्त जामव में त्रुटि।
विटामिन पी (P)
हेपैरिन (Heparin)
रक्तस्राव की अवधि में वृद्धि।
यों तो अनेक विटामिनों की जानकारी हुई है, किंतु बारह विटामिन, जो बहुतायत से उपयोग में लाए जा रहे हैं और जिनके विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त हुई है, उन्हीं का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है।
विटामिनों के नाम अंग्रेजी अक्षरों पर रखे गए हैं, जैसे विटामिन ए., बी., सी., (A. B. C. etc.) इत्यादि। आधुनिक विज्ञानशास्त्रों में इनके रसायनिक नाम विशेष रूप से व्यवहृत किए जाते हैं। इनकी विशेष वार्ता करने के पूर्व इन 12 विटामिनों के नाम और इनकी हीनता की अवस्था में जो लक्षण, या रोग उत्पन्न होते हैं उन्हें निम्न सारणी में दिया गया है :
विटामिन बी- यह कई विटामनों का समूह है। इसके सात अवयवों के नाम नीचे की सारणी में दिए गए हैं। इनके अतिरिक्त कुछ और अवयव है जिनकी जानकारी गत कई वर्षों में हुई है, जैसे पैटोथीनिक अम्ल (Pantothenic acid), बायोटिन (Biotin), इनोसिटोल (Inositol), कोलिन (Choline), पाराऐमिनो बेनज़ोइक अम्ल (p-c aminobenzoix acid)। सारणी में दिए गई विटामिनों के अवयवों का विस्तार से वर्ण निम्नलिखित है :
विटामिन बी1 (Vitamin B1)- इसका रासायनिक नाम थायामिन हाइड्रोक्लोराइड (Thiamin hydrochloride) है। इसकी रासायनिक रूपरेखा की जानकारी ठीक प्राप्त है और थायामिन क्लोराइड का उत्पादन औषध के कारखानों में होता है। इसका व्यवहार खाद्यांश और औषध की तरह किया जा रहा है। यह मनुष्य के लिए प्रत्येक दिन 5 मिग्रा (mg.) आवश्यक है और कई बीमारियों में इसकी दैनिक मात्रा कई गुना बढ़ जाती है। इसकी पूर्ण हीनता से मनुष्य में बेरी-बेरी (Beri-Beri) की बीमारी होती है। इसके प्रधान लक्षण शोफ (oedema), बहुतंत्रिका शोथ (polyneuritis), हृदय विकृति और उदर-रोग है। न्यून-हीनता की अवस्था में इन्हीं में से कोई कोई लक्षण दिखाई पड़ते हैं।
इसका व्यवहार बेरी-बेरी के अतिरिक्त अन्य रोगों में किया भी जा रहा है। तंत्रिकाशोथ में यह विशेष मात्रा में प्रयोग किया जाता है। अधिक मदिरा पीने से उत्पन्न तंत्रिकाशोथ की अवस्था में इसका उपयोग लाभकर सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार इसका उपयोग मधुमेह से उत्पन्न तंत्रिकाशोथ भी किया जाता है।
कई उदर रोगों में, जिनमें वमन और दस्त के लक्षण भी वर्तमान रहते हैं, थायामिन का व्यवहार लाभकर सिद्ध होता है। भूख की कमी में भी इसका व्यवहार लाभप्रद होता है।
कई हृदय रोगों में विटामिन बी1 की कमी पाई जाती है। इन अवस्थाओं में थायामिन का व्यवहार वांछनीय है। साथ साथ कई शोफ़ की बीमारियों में भी इसको व्यवहृत किया जाता है।
शरीर में इसका कार्य कार्बोहाइड्रेट-उपापचय (metabolism) में होता है। इसकी प्रक्रिया शरीर में सह-ऐंज़ाइम (co-enzyme) की होती है। प्राकृतिक अवस्था में विटामिन बी1 बिना छिले अनाजों, दालों, अंडों, फलों तथा बहुत सी तरकारियों, यकृतों तथा मांस और दूध में पाया जाता है। दूध में प्रोटीन, वसा, खनिज पदार्थ, तथा अन्य विटामिन तो बहुत अधिक मात्रा में होते हैं, किंतु विटामिन बी1 अधिक नहीं होता। इसकी अच्छी मात्रा ईस्ट (yeast) में पाई जाती है।
विटामिन बी2 - (Vitamin B2) इसका रासायनिक नाम रिबोफ्लेविन (Riboflavin) और लेक्टोफ्लेविन (Lactoflavin) है। इसके क्रिस्टल पीले और गंधयुक्त होते हैं।
इसकी पूर्णहीनता से मनुष्य के शरीर में विकृत-लक्षण-समूह दिखाई पड़ते हैं। वे लक्षण हैं : प्ररूपी जिह्वा शोथ (typical glossitis), इसका रंग अधिनिलातिरक्त (magenta colour) होता है, होंठों पर सफेद झुर्रियाँ तथा मुख द्वार पर सफेद झुर्री (जैसा घोड़े को लगाम पहनने पर होता है - लगामी) और विशेष प्रकार क चर्म रोग। ये लक्षण रिबोफ्लेविन के सेवन से शीघ्र ही गायब हो जाते हैं।
मनुष्य की दैनिक आवश्यकता 2 मिलिग्राम की होती है। इसकी हीनता की दशा में, इसकी मात्रा 2 से 10 मिलिग्राम की होती है। कृत्रिम विटामिन खाया जाता है, या इसकी सूई दी जाती है।
प्राकृतिक अवस्था में यह दूध में कुछ मात्रा में मिलता है और लगभग इतनी ही मात्रा में मांस और अंडे में, तथा विशेष मात्रा में यकृत में होता है। गाढ़े दूध तथा सुखाए हुए गाढ़े पनीर (cheese) में इसकी मात्रा अच्छी होती है। ईस्ट में इसकी मात्रा बहुत अच्छी होती हे। गल्ले और दलहन में इसकी मात्रा कम होती है। हरी सब्जियों में इसकी मात्रा गल्ले तथा दलहन से भी कम होती है। चाय की सूखी पत्तियों में इसकी मात्रा बहुत होती है और यह चाय बनाते समय घुलकर पान में आ जाता है।
विटामिन बी6 - विटामिन बी6 का रासायनिक नाम पिरिडॉक्सिन हाइड्रोक्लोराइड (Phridoxinhydrochloride) है। यह क्रिस्टलीय होता है ओर पानी में शीघ्र घुल जाता है।
इसकी हीनता का ज्ञान अभी परिपक्व नहीं है। किंतु प्रायोगिक जानवरों को जब यह विटामिन खाने को नहीं दिया जाता है, तब उन्हें विशेष प्रकार का पांडु और चर्मरोग हो जाता है। किसी किसी जानवर को स्नायुदौर्बल्य और ऐंठन (convulsion) होने लगती किसी किसी का शारीरिक भार घट जाता है और खाने पीने में अरुचि हो जाती है।
मनुष्य में गर्भकालीन वमन में इसका उपयोग हितकर पाया गया है। रश्मिक (radiation) चिकित्सा के सय वमन में भी यह लाभ कर होता है। ऐसी अवस्था में कृत्रिम विटामिन 25 से 100 मिलिग्राम की मात्रा में दिया जाता है।
प्राकृतिक अवस्था में यह जानवरों के यकृत, अंडे, मांस और मछली में पाया जाता है। वह वनस्पतियों, अन्न, दलहन और ईस्ट में अच्छी मात्रा में रहता है।
विटामिन बीपी-पी (Vitamin Bp-p) - पी-पी का अर्थ है पैलाग्रा-निरोधक (Pellagara-preventing)। इसका रासायनिक नाम है निकोटिनिक अम्ल। संश्लेषण से बनाए हुए द्रव्य का क्रिस्टल सफेद सुई के जैसा लंबा लंबा होता है। यह जल विलेय है।
इसकी पूर्ण हीनता मनुष्य में पैलाग्रा रोग उत्पन्न करती है और इसके चिह्न हैं विशेष प्रकार का चर्मरोग, अतिसार और मनोविकृति। अल्पहीनता की अवस्था में मनुष्य में चिड़चिड़ापन, मस्तिष्क पीड़ा, अल्प निद्रा, अजीर्ण, जी मिचलाना तथा वमन के लक्षण पाए जाते हैं। इसकी विशेष-हीनता में चर्म रोग शरीर के उन अंगों पर दिखाई देता है, जो कपड़े से ढँके नहीं जाते हैं जैसे हाथ, पैर का पृष्ठभाग तथा गर्दन। इन अंगों पर काली झुर्री सी पड़ जाती है। मुँह आना और जीभ पर निनामा तथा पेट में दाह और दस्त होने के लक्षण प्रत्यक्ष हो जाते हैं।
मनोविकृति में स्मरणशक्ति का ह्रास, उदासीनता, विभम (delusion), मिनोभ्रंश (dementia) आदि के लक्षण दिखाई पड़ते हैं।
मनुष्य में इसकी दैनिक आवश्यकता 4 मिलिग्राम की होती है। भिन्न प्रकार की हीनता की अवस्था में इसकी मात्रा 12 से 18 मिलिग्राम है। प्रतिदिन 500 मिलिग्राम तक यह खाया जा सकता है।
प्राकृतिक अवस्था में यह अन्न, फल, सब्जी, दूध, अंडा, मांस, मछली और भिन्न भिन्न पेय में पाया जाता है। ढेंकी के छँटे अरवा चावल में इसकी अच्छी मात्रा में होती है, मिल के पॉलिश किए चावल में कम है। चावल की छाँटन (polishings) में इसकी मात्रा विशेष रहती है। प्राय: इतनी ही मात्रा में यह ईस्ट में भी पाया जाता है। फल और सब्जियों में बहुत मात्रा में पाया जाता है। दूध, अंडा, मछली और मांस में इसी मात्रा बहुत कम होती है।
फोलिक अम्ल (Folic Acid) - यह कई प्रकार के पत्तों में पाया जाता है। इसलिए इसका नाम फोलिक (Folic=leaf) अम्ल पड़ा। इसका रासायनिक नाम टेरोयलाग्लूटैमिक अम्ल (Pteroylglutamic acid) है। यह प्रथमत: पालक के साग से निकाला गया था, विशुद्धीकरण के बाद इसकी शक्ति बहुत तेज साबित हुई। अब यह संश्लेषण प्रक्रिया द्वारा तैयार किया जाता है।
मनुष्य की दैनिक आवश्यकता 1 मिग्रा की है, किन्तु हीनता की अवस्था में यह 5 से 10 मिग्रा तक व्यवहृत होता है।
इसकी हीनता से दुष्ट रक्तक्षीणता (Pernicions anaemia) और संग्रहणी (Sprue) होती है। यह स्वाभाविक अवस्था में कई पत्तों में, ईस्ट और यकृत में पाया जाता है।
विटामिन बी12 (Vitamin B12) - प्रथमत: यह यकृत से विश्लेषण प्रक्रिया द्वारा निकाला गया था। आजकल एक प्रकार का फफूँद स्ट्रेप्टोमाइसीजग्राइसेस (Streptomyces griseus) से संश्लेषण किया जाता है। अल्प मात्रा में यह मनुष्य के आंत्रों में भी जीवाणु द्वारा संश्लेषण होता है। यह मछली, मांस, दूध, छेना और पनीर में भी पाया जाता है।
इसका रासायनिक नाम सायानोकोबलेमिन (Cyanocobalamin) है। इसका क्रिस्टल कुछ बैगनी रंग का होता है। मनुष्य की दैनिक आवश्यकता बहुत ही कम है। रक्तक्षीणता में यह 500 से 1000 म्यूमिग्रा (m mg,=1/1000 मिग्रा) में प्रतिदिन व्यवहार किया जाता है और इसकी सुई लगाई जाती है। यह कई प्रकार की रक्तक्षीणता और संग्रहणी में लाभप्रद होता है।
विटामिन सी (Vitamin C) - इसका रासायनिक नाम एस्कार्विक अम्ल है। इसका क्रिस्टल सफेद होता है। यह जल में शीघ्र घुल जाता है। इसकी अत्यधिक हीनता की अवस्था में मनुष्य में एक व्याधि उत्पन्न हो जाती है जिसे स्कर्वी (scury) कहते हैं। इसमें मसूड़े सूज जाते हैं।
शरीर में नीले चकत्ते पड़ जाते हैं और बड़ी दुर्बलता जान पड़ती है। मसूड़े और चमड़े पर थोड़ी चोट से रक्त-कोशिकाओं से रक्त निकल जाता है। यही कारण है कि इस व्याधि में मसूड़े से खून निकलता है और चमड़े पर नीले चकत्ते पड़ जाते हैं। आधुनिक अनुसंधान से यह निर्णय हुआ है कि इसका कार्य शरीर के तंतुओं की कोशिकाओं (cells) के बीच बंधन-पदार्थ (cementing substance) एकत्र करना है और जब इस विटामिन की हीनता होती है, तब शरीर की कोशिकाओं, दाँत तथा हड्डी के भीतरी बंधनों में भी विकृति आ जाती है।
इस विटामिन की अल्प हीनता की अवस्था में पूर्ण स्कर्वी के लक्षण प्रत्यक्ष नहीं होते बल्कि कोई कोई चिह्न दृष्टिगोचर होते हैं, जैसे मसूड़े में रक्तस्राव या शरीर पर नीले धब्बे दिखाई देना, इत्यादि।
इसकी दैनिक आवश्यकता एक प्रौढ़ मनुष्य के लिए 75 मिग्रा की है, और गर्भावस्था में इसकी 100 से 150 मिग्रा मात्रा आवश्यक होती है। 12 वर्ष की अवस्था तक दैनिक मात्रा 30 से 75 मिग्रा. तक होती है।
प्राकृतिक अवस्था में यह अधिक मात्रा में नीबू, नारंगी, अमरूद, आँवला, टमाटर, पातगोभी, लेटूस, प्याज और पालक के साग में पाया जाता है। सभी हरे साग, ताजा फल और सब्जियों में यह कुछ न कुछ मात्रा में पाया जाता है।
इस विटामिन की जानकारी 17 वीं शताब्दी से है। जब परिवहन और यातायात की गति द्रुतगामी नहीं थी और लंबी सामुद्रिक यात्रा हाथ से चलाए जाने वाले डाँइ की नाव तथा पाल और पतवार से चलाई जानेवाली नाव द्वारा होती थी, उस समय नाविक, बहुत काल तक हरी सब्जी या ताजा फल न मिलने से स्कर्वी की व्याधि से पीड़ित हो जाते थे और फिर जब ताजी सब्जियाँ और फल मिलते थे तब उनकी यह व्याधि दूर हो जाती थी।
विटामिन ए - यह शरीर में कैरोटीन से बनता है। कैरोटीन हरे और पीले रंग के पौधों में बहुतायात से पाया जाता है। गाजर, जिसे अंग्रेजी में कैरोट (carrot) कहते हैं, से कैरोटीन संबंधित है। कैरोटीन गाजर में बहुत होता है। कृत्रिम विटामिन ए कैरोटीन से बनाई जाती है। कैरोटीन और विटामिन ए की रासायनिक रूपरेखा बहुत पहले निश्चित की गई थी। कैरोटीन के एक अणु से विटामिन ए के दो अणु तैयार होते हैं। विटामिन ए शरीर के रक्त में प्रवाहित रहता है। शरीर कैरोटीन से विटामिन ए बनाता है। संश्लेषित विटामिन ए अमरीका में बहुत सस्ते मूल्य में उपलब्ध है।
इसकी हीनता से मनुष्यों की आँखों में तरह तरह की व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जैसे (1) रतौंधी (Night blindness), (2) शुष्कअक्षिपाक (Xerophthalmia), आँखों के श्वेत भागों पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं और उसपर सफेद दाग पड़ जाता है, (3) आँख के सम्मुख बिचले भाग पर माड़ा (सफेदी) पड़ जाता है और तथा आँखों से दिखाई नहीं देता है श्वेत ढेढर निकल आता है, (4) कंटैला (Phrenodermia), शरीर की त्वचा पर छोटे छोटे कड़े दाने निकल आते हैं, (5) मसूड़े सूज जाते हैं, तथा (6) कभी कभी मूत्रप्रणाली में पथरी की बनावट में इसकी कमी सहायक पाई गई है।
इसकी मात्रा प्राकृतिक खाद्य पदार्थो में, पशुजन्य वसा, बिना मक्खन निकाला दूध, दही, मक्खन, शुद्ध घी, अंडा, जानवरों के यकृत तथा कॉड (Cod), हैलिबट (Halibut) और शार्क (shark) मछलियों के यकृत के तेल में सबसे अधिक होती है। इनका व्यवहार इस विटामिन की हीनता की अवस्था में किया जाता हैं। शाक तरकारियों में विटामिन ए अधिक मात्रा में नहीं मिलता है, और यह कैरोटीन (Carrotine) के रूप में रहता है जो शरीर में विटामिन ए में परिवर्तित हो जाता है। पातगोभी (करमकल्ला), धनिया, पालक, लेटूस, इत्यादि की पत्तियों में और पके हुए फल, आम, पपीता, टमाटर, नारंगी इत्यादि की पत्तियों में और पके हुए फल, आम, पपीता, टामाटर, नारंगी इत्यादि में यह कैरोटीन बहुतायात से होता है। गाजर में यह बहुत रहता है।
भोजनों में विटामिन ए तथा कैरोटीन की मात्रा इतनी कम है कि साधारण बाटों द्वारा इसे न मापकर अंतरराष्ट्रीय इकाई में मापा जाता है। आधुनिक वैज्ञानिकों का विचार है कि प्रौढ़ मनुष्य के प्रति दिन के भोजन में इस विटामिन की 5,000 अंतरराष्ट्रीय इकाई आवश्य होनी चाहिए।
विटामिन डी (Vitamin D) - यह वसा विलेय विटामिन है। रासायनिक रूप-रेखा के हिसाब से इस प्रकार के स्टेराइड यौगिक (steroid compounds) अनेक हैं। विटामिन डी3 (Vitamin D3) स्वभाविक विटामिन हैं जो मनुष्य की त्वचा में सूर्य किरण, या पराबैंगनी किरणों (vltra rolet rays) के प्रभाव से बनता रहता है। इसी से मिलता जुलता रासायनिक यौगिक जिसकी रूपरेखा प्राय: एक सी है, उसे कैल्सिफेरोल (Calciferol) या विटामन डी2 कहते हैं। यद्यपि डा3 (D3) और डी2 (D2) के रूप में सामान्य अंतर है, तथापि उनका पदार्थगुण एक है। कृत्रिम विटामिन डी2 का व्यवहार चिकित्सा में विशेष रूप से होता है।
इसकी हीनता से शिशु में सुखंडी या रिकेट्स (rickets) होता है और गर्भवती स्त्री में अस्थिमृदता (osteomalacia) होती है। रिकेट्स की बीमारी में बच्चों के शरीर पर चमड़े में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं, शरीर सूखकर दुबला पतला हो जाता है। सिर शरीर की अपेक्षा बड़ा रहता है। पेट फुटबाल के समान निकला रहता है। यह इस उपमा से समानता रखता है 'हाथ पाँव सिरकी पेट नदकोला'। साथ साथ दस्त आने लगते हैं। बच्चा बड़ा ही चिड़चिड़ा हो जाता है और छोटी छोटी सी बातों पर रोता है। गर्दन और मस्तक पर पसीना अक्सर ही रहता है। हाथ पैर की हड्डियाँ टेढ़ी हो जाती हैं। प्रसूता स्त्री और दूध पिलानेवाली माताओं में नितंब और जंघे की हड्डियाँ दुर्बल और अंत में टेढ़ी हो जाती हैं।
प्राकृतिक अवस्था में यह विटामिन भिन्न भिन्न मछलियों, जैसे कॉड, हैलिवट शार्क इत्यादि, के यकृत में पाया जाता है। गाय के दूध में इसकी मात्रा उसके खाद्य पर निर्भर करती है। यदि ये खाद्य पदार्थ सूर्य की किरणों से प्रभावित होते हैं तो इसमें विटामिन उनके चमड़े पर सूर्य की किरणों के पड़ने से बनता रहता है और मनुष्य यह विटामिन अपने आप बनाता रहता है।
विटामिन ई (Vitamin E) - इसका रासायनिक नाम टोकोफ़ेरोल (Tocopherol) है। कई प्रकार के टोकोफ़ेरोलों का जो भिन्न भिन्न सब्जियों से निकाले जाते हैं, व्यवहार किया जाता है। यह गेहूँ के अंकुर के तेल (wheat germ oil) से भी उपलब्ध होता है। विटामिन ई की हीनता का ज्ञान अभी परीपक्व नहीं है तथापि यह जनन विटामिन कहलाता है। सामयिक गर्भपात (Habitual abortions) की अवस्था में यह व्यवहृत किया होता है। पुरुषों के शुक्राणु (Spermatozoa) के दोष में भी यह व्यवहार किया जाता है।
विटामिन के (Vitamin K) - चूँकि के (K) पहला अक्षर कोऐगुलोशन (Koagulation) का है इसलिए यह विटामिन 'के' (K) कहलाता है। कोऐगुलेशन का अर्थ है रक्तजमाव (रक्त का थक्का हो जाना)। यह रुधिर को पतला होने से रोकता है, या यों भी कहा जा सकता है कि यह रुधिर को गाढ़ा करता है। इसका रसायनिक नाम है नैफ्थक्विनोन (Napthaquinone)।
इसकी कमी से रक्त पतला हो जाता है और इसका स्राव भिन्न भिन्न अंगों से होने लगता है। ऐसे रक्तस्राव में इसका व्यवहार किया जाता है। प्रकृति में यह जानवरों के यकृत तथा वनस्पतियों, जैसे हरी सब्जी, सब्जी के तेल और अन्न से प्राप्त होता है।
विटामिन पी (Vitamin P) - इस रासायनिक पदार्थ का नाम है हेपैरिन यह मीठी वर्च मिर्च (Kaprika) तथा नारंगी के छिलके में पाया जाता है। अनेक वैज्ञानिकों का मत है कि यह रक्त केशिकाओं (Blood capillaries) को दृढ़ रखता है और इसकी कमी से इन केशिकाओं से रुधिरस्राव होने लगता है। यद्यपि यह कई रक्तस्राव की व्याधियों में विटामिन सी और के के साथ व्यवहृत किया जाता है किंतु इसका वैज्ञानिक निराकरण अभी परिपक्व नहीं हो सका है।
उपर्युक्त कथन से यह निश्चित है कि विटामिन खाद्यांश हैं और शरीर को उनकी प्राप्ति प्रति दिन के भोजन से होती है। ये सब विटामिन प्रति दिन के भोजन में तभी संभव है, जब भोजन संतुलित हो, और खाद्य पदार्थों की उपलब्धि भिन्न भिन्न प्रकार की खाद्यसामग्रियों से हो। इस दशा में सभी विटामिन यथोचित मात्रा में शरीर को मिलते रहेंगे। (स्व.) बद्रीनारायण प्रसाद)
इस शताब्दी में विटामिन के संबंध में अच्छी जानकारी हुई है। किन किन खाद्य पदार्थों में कौन कौन विटामिन हैं, इस जानकारी के अतिरिक्त विटामिनों के संश्लेषण प्रक्रिया द्वारा उत्पादन आदि से भी पर्याप्त जानकारी हो गई है। अब तो इनकी रासायनिक रूपरेखा भी अच्छी तरह जान ली गई है। इनका, अन्य रासायनिक पदार्थों के सदृश मनुष्य की चिकित्सा में, व्यवहार भी किया जाने लगा है। पूर्ण विटामिन की कभी की अवस्था में इनका व्यवहार जादू सा काम करता है और मनुष्य शीघ्र ही लाभ अनुभव करने लगता है। अल्प कमी की अवस्था में विटामिनहीनता के कोई लक्षण दिखई पड़ते हैं और इन अवस्थाओं में संश्लेषित विटामिनों का व्यवहार खूब लाभप्रद होता है। मनुष्य के प्रतिदिन की आवश्यकता की जानकारी अच्छी तरह हो गई है। बहुत अल्प मात्रा में इनकी आवश्यकता होती है।
प्रमुख विटामिन
विटामिन
रासायनिक नाम
हीनता के लक्षण
जलविलेय विटामिन
विटामिन बी1 (B1)
थायामिन (Thiamin)
बेरी बेरी (Beri Beri) तथा स्नायुदौर्बल्य।
विटामिन बी2 (B2)
रिबोफ्लेबिन (Riboflavin)
आँख की केशिकाओं में लाली, होंठों पर फेफरी, मुँह आना, जीभ में विशेष लाली तथा चर्मरोग।
विटामिन बी6 (B6)
पिरिडॉक्सिन (Pyridoxin)
वमन
विटामिन बीपी-पी. (BP-P)
निकोटिनिक अम्ल (Nicotinic acid)
पैलाग्रा (Pellagra)
फोलिक अम्ल
फोलिक अम्ल (Folic acid)
बृहत् लोहिताणु-क्षीणता (Macrocytic anaemia)
विटामिन बी12 (B12)
सायनोकोबलेमाइन (Cyanocobalamin)
दुष्ट रक्तक्षीणता (Pernicious anaemia)
विटामिन सी (C)
ऐस्कॉर्बिक अम्ल (Ascorbic acid)
स्कर्वी (Scurvy)
बसा विलेय विटामिन
विटामिन ए (A)
कैरोटीन (Carotine)
रतौंधी, शुष्कअक्षिपाक (Xerophthalmia) तथा कटेंला (Phrenodermia)
विटामिन डी (D)
कैल्सिफ़ेरोल (Calciferol)
सुखंडी (rickets) तथा अस्थि दौर्बल्य।
विटामिन इ (E)
टोकोफ़ेरोल (Tocopherols)
सामयिक गर्भपात (Habitual abortion)
विटामिन के (K)
मेनाडिओन (Menadion)
रक्त जामव में त्रुटि।
विटामिन पी (P)
हेपैरिन (Heparin)
रक्तस्राव की अवधि में वृद्धि।
यों तो अनेक विटामिनों की जानकारी हुई है, किंतु बारह विटामिन, जो बहुतायत से उपयोग में लाए जा रहे हैं और जिनके विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त हुई है, उन्हीं का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है।
विटामिनों के नाम अंग्रेजी अक्षरों पर रखे गए हैं, जैसे विटामिन ए., बी., सी., (A. B. C. etc.) इत्यादि। आधुनिक विज्ञानशास्त्रों में इनके रसायनिक नाम विशेष रूप से व्यवहृत किए जाते हैं। इनकी विशेष वार्ता करने के पूर्व इन 12 विटामिनों के नाम और इनकी हीनता की अवस्था में जो लक्षण, या रोग उत्पन्न होते हैं उन्हें निम्न सारणी में दिया गया है :
जल विलेय विटामिन
विटामिन बी- यह कई विटामनों का समूह है। इसके सात अवयवों के नाम नीचे की सारणी में दिए गए हैं। इनके अतिरिक्त कुछ और अवयव है जिनकी जानकारी गत कई वर्षों में हुई है, जैसे पैटोथीनिक अम्ल (Pantothenic acid), बायोटिन (Biotin), इनोसिटोल (Inositol), कोलिन (Choline), पाराऐमिनो बेनज़ोइक अम्ल (p-c aminobenzoix acid)। सारणी में दिए गई विटामिनों के अवयवों का विस्तार से वर्ण निम्नलिखित है :
विटामिन बी1 (Vitamin B1)- इसका रासायनिक नाम थायामिन हाइड्रोक्लोराइड (Thiamin hydrochloride) है। इसकी रासायनिक रूपरेखा की जानकारी ठीक प्राप्त है और थायामिन क्लोराइड का उत्पादन औषध के कारखानों में होता है। इसका व्यवहार खाद्यांश और औषध की तरह किया जा रहा है। यह मनुष्य के लिए प्रत्येक दिन 5 मिग्रा (mg.) आवश्यक है और कई बीमारियों में इसकी दैनिक मात्रा कई गुना बढ़ जाती है। इसकी पूर्ण हीनता से मनुष्य में बेरी-बेरी (Beri-Beri) की बीमारी होती है। इसके प्रधान लक्षण शोफ (oedema), बहुतंत्रिका शोथ (polyneuritis), हृदय विकृति और उदर-रोग है। न्यून-हीनता की अवस्था में इन्हीं में से कोई कोई लक्षण दिखाई पड़ते हैं।
इसका व्यवहार बेरी-बेरी के अतिरिक्त अन्य रोगों में किया भी जा रहा है। तंत्रिकाशोथ में यह विशेष मात्रा में प्रयोग किया जाता है। अधिक मदिरा पीने से उत्पन्न तंत्रिकाशोथ की अवस्था में इसका उपयोग लाभकर सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार इसका उपयोग मधुमेह से उत्पन्न तंत्रिकाशोथ भी किया जाता है।
कई उदर रोगों में, जिनमें वमन और दस्त के लक्षण भी वर्तमान रहते हैं, थायामिन का व्यवहार लाभकर सिद्ध होता है। भूख की कमी में भी इसका व्यवहार लाभप्रद होता है।
कई हृदय रोगों में विटामिन बी1 की कमी पाई जाती है। इन अवस्थाओं में थायामिन का व्यवहार वांछनीय है। साथ साथ कई शोफ़ की बीमारियों में भी इसको व्यवहृत किया जाता है।
शरीर में इसका कार्य कार्बोहाइड्रेट-उपापचय (metabolism) में होता है। इसकी प्रक्रिया शरीर में सह-ऐंज़ाइम (co-enzyme) की होती है। प्राकृतिक अवस्था में विटामिन बी1 बिना छिले अनाजों, दालों, अंडों, फलों तथा बहुत सी तरकारियों, यकृतों तथा मांस और दूध में पाया जाता है। दूध में प्रोटीन, वसा, खनिज पदार्थ, तथा अन्य विटामिन तो बहुत अधिक मात्रा में होते हैं, किंतु विटामिन बी1 अधिक नहीं होता। इसकी अच्छी मात्रा ईस्ट (yeast) में पाई जाती है।
विटामिन बी2 - (Vitamin B2) इसका रासायनिक नाम रिबोफ्लेविन (Riboflavin) और लेक्टोफ्लेविन (Lactoflavin) है। इसके क्रिस्टल पीले और गंधयुक्त होते हैं।
इसकी पूर्णहीनता से मनुष्य के शरीर में विकृत-लक्षण-समूह दिखाई पड़ते हैं। वे लक्षण हैं : प्ररूपी जिह्वा शोथ (typical glossitis), इसका रंग अधिनिलातिरक्त (magenta colour) होता है, होंठों पर सफेद झुर्रियाँ तथा मुख द्वार पर सफेद झुर्री (जैसा घोड़े को लगाम पहनने पर होता है - लगामी) और विशेष प्रकार क चर्म रोग। ये लक्षण रिबोफ्लेविन के सेवन से शीघ्र ही गायब हो जाते हैं।
मनुष्य की दैनिक आवश्यकता 2 मिलिग्राम की होती है। इसकी हीनता की दशा में, इसकी मात्रा 2 से 10 मिलिग्राम की होती है। कृत्रिम विटामिन खाया जाता है, या इसकी सूई दी जाती है।
प्राकृतिक अवस्था में यह दूध में कुछ मात्रा में मिलता है और लगभग इतनी ही मात्रा में मांस और अंडे में, तथा विशेष मात्रा में यकृत में होता है। गाढ़े दूध तथा सुखाए हुए गाढ़े पनीर (cheese) में इसकी मात्रा अच्छी होती है। ईस्ट में इसकी मात्रा बहुत अच्छी होती हे। गल्ले और दलहन में इसकी मात्रा कम होती है। हरी सब्जियों में इसकी मात्रा गल्ले तथा दलहन से भी कम होती है। चाय की सूखी पत्तियों में इसकी मात्रा बहुत होती है और यह चाय बनाते समय घुलकर पान में आ जाता है।
विटामिन बी6 - विटामिन बी6 का रासायनिक नाम पिरिडॉक्सिन हाइड्रोक्लोराइड (Phridoxinhydrochloride) है। यह क्रिस्टलीय होता है ओर पानी में शीघ्र घुल जाता है।
इसकी हीनता का ज्ञान अभी परिपक्व नहीं है। किंतु प्रायोगिक जानवरों को जब यह विटामिन खाने को नहीं दिया जाता है, तब उन्हें विशेष प्रकार का पांडु और चर्मरोग हो जाता है। किसी किसी जानवर को स्नायुदौर्बल्य और ऐंठन (convulsion) होने लगती किसी किसी का शारीरिक भार घट जाता है और खाने पीने में अरुचि हो जाती है।
मनुष्य में गर्भकालीन वमन में इसका उपयोग हितकर पाया गया है। रश्मिक (radiation) चिकित्सा के सय वमन में भी यह लाभ कर होता है। ऐसी अवस्था में कृत्रिम विटामिन 25 से 100 मिलिग्राम की मात्रा में दिया जाता है।
प्राकृतिक अवस्था में यह जानवरों के यकृत, अंडे, मांस और मछली में पाया जाता है। वह वनस्पतियों, अन्न, दलहन और ईस्ट में अच्छी मात्रा में रहता है।
विटामिन बीपी-पी (Vitamin Bp-p) - पी-पी का अर्थ है पैलाग्रा-निरोधक (Pellagara-preventing)। इसका रासायनिक नाम है निकोटिनिक अम्ल। संश्लेषण से बनाए हुए द्रव्य का क्रिस्टल सफेद सुई के जैसा लंबा लंबा होता है। यह जल विलेय है।
इसकी पूर्ण हीनता मनुष्य में पैलाग्रा रोग उत्पन्न करती है और इसके चिह्न हैं विशेष प्रकार का चर्मरोग, अतिसार और मनोविकृति। अल्पहीनता की अवस्था में मनुष्य में चिड़चिड़ापन, मस्तिष्क पीड़ा, अल्प निद्रा, अजीर्ण, जी मिचलाना तथा वमन के लक्षण पाए जाते हैं। इसकी विशेष-हीनता में चर्म रोग शरीर के उन अंगों पर दिखाई देता है, जो कपड़े से ढँके नहीं जाते हैं जैसे हाथ, पैर का पृष्ठभाग तथा गर्दन। इन अंगों पर काली झुर्री सी पड़ जाती है। मुँह आना और जीभ पर निनामा तथा पेट में दाह और दस्त होने के लक्षण प्रत्यक्ष हो जाते हैं।
मनोविकृति में स्मरणशक्ति का ह्रास, उदासीनता, विभम (delusion), मिनोभ्रंश (dementia) आदि के लक्षण दिखाई पड़ते हैं।
मनुष्य में इसकी दैनिक आवश्यकता 4 मिलिग्राम की होती है। भिन्न प्रकार की हीनता की अवस्था में इसकी मात्रा 12 से 18 मिलिग्राम है। प्रतिदिन 500 मिलिग्राम तक यह खाया जा सकता है।
प्राकृतिक अवस्था में यह अन्न, फल, सब्जी, दूध, अंडा, मांस, मछली और भिन्न भिन्न पेय में पाया जाता है। ढेंकी के छँटे अरवा चावल में इसकी अच्छी मात्रा में होती है, मिल के पॉलिश किए चावल में कम है। चावल की छाँटन (polishings) में इसकी मात्रा विशेष रहती है। प्राय: इतनी ही मात्रा में यह ईस्ट में भी पाया जाता है। फल और सब्जियों में बहुत मात्रा में पाया जाता है। दूध, अंडा, मछली और मांस में इसी मात्रा बहुत कम होती है।
फोलिक अम्ल (Folic Acid) - यह कई प्रकार के पत्तों में पाया जाता है। इसलिए इसका नाम फोलिक (Folic=leaf) अम्ल पड़ा। इसका रासायनिक नाम टेरोयलाग्लूटैमिक अम्ल (Pteroylglutamic acid) है। यह प्रथमत: पालक के साग से निकाला गया था, विशुद्धीकरण के बाद इसकी शक्ति बहुत तेज साबित हुई। अब यह संश्लेषण प्रक्रिया द्वारा तैयार किया जाता है।
मनुष्य की दैनिक आवश्यकता 1 मिग्रा की है, किन्तु हीनता की अवस्था में यह 5 से 10 मिग्रा तक व्यवहृत होता है।
इसकी हीनता से दुष्ट रक्तक्षीणता (Pernicions anaemia) और संग्रहणी (Sprue) होती है। यह स्वाभाविक अवस्था में कई पत्तों में, ईस्ट और यकृत में पाया जाता है।
विटामिन बी12 (Vitamin B12) - प्रथमत: यह यकृत से विश्लेषण प्रक्रिया द्वारा निकाला गया था। आजकल एक प्रकार का फफूँद स्ट्रेप्टोमाइसीजग्राइसेस (Streptomyces griseus) से संश्लेषण किया जाता है। अल्प मात्रा में यह मनुष्य के आंत्रों में भी जीवाणु द्वारा संश्लेषण होता है। यह मछली, मांस, दूध, छेना और पनीर में भी पाया जाता है।
इसका रासायनिक नाम सायानोकोबलेमिन (Cyanocobalamin) है। इसका क्रिस्टल कुछ बैगनी रंग का होता है। मनुष्य की दैनिक आवश्यकता बहुत ही कम है। रक्तक्षीणता में यह 500 से 1000 म्यूमिग्रा (m mg,=1/1000 मिग्रा) में प्रतिदिन व्यवहार किया जाता है और इसकी सुई लगाई जाती है। यह कई प्रकार की रक्तक्षीणता और संग्रहणी में लाभप्रद होता है।
विटामिन सी (Vitamin C) - इसका रासायनिक नाम एस्कार्विक अम्ल है। इसका क्रिस्टल सफेद होता है। यह जल में शीघ्र घुल जाता है। इसकी अत्यधिक हीनता की अवस्था में मनुष्य में एक व्याधि उत्पन्न हो जाती है जिसे स्कर्वी (scury) कहते हैं। इसमें मसूड़े सूज जाते हैं।
शरीर में नीले चकत्ते पड़ जाते हैं और बड़ी दुर्बलता जान पड़ती है। मसूड़े और चमड़े पर थोड़ी चोट से रक्त-कोशिकाओं से रक्त निकल जाता है। यही कारण है कि इस व्याधि में मसूड़े से खून निकलता है और चमड़े पर नीले चकत्ते पड़ जाते हैं। आधुनिक अनुसंधान से यह निर्णय हुआ है कि इसका कार्य शरीर के तंतुओं की कोशिकाओं (cells) के बीच बंधन-पदार्थ (cementing substance) एकत्र करना है और जब इस विटामिन की हीनता होती है, तब शरीर की कोशिकाओं, दाँत तथा हड्डी के भीतरी बंधनों में भी विकृति आ जाती है।
इस विटामिन की अल्प हीनता की अवस्था में पूर्ण स्कर्वी के लक्षण प्रत्यक्ष नहीं होते बल्कि कोई कोई चिह्न दृष्टिगोचर होते हैं, जैसे मसूड़े में रक्तस्राव या शरीर पर नीले धब्बे दिखाई देना, इत्यादि।
इसकी दैनिक आवश्यकता एक प्रौढ़ मनुष्य के लिए 75 मिग्रा की है, और गर्भावस्था में इसकी 100 से 150 मिग्रा मात्रा आवश्यक होती है। 12 वर्ष की अवस्था तक दैनिक मात्रा 30 से 75 मिग्रा. तक होती है।
प्राकृतिक अवस्था में यह अधिक मात्रा में नीबू, नारंगी, अमरूद, आँवला, टमाटर, पातगोभी, लेटूस, प्याज और पालक के साग में पाया जाता है। सभी हरे साग, ताजा फल और सब्जियों में यह कुछ न कुछ मात्रा में पाया जाता है।
इस विटामिन की जानकारी 17 वीं शताब्दी से है। जब परिवहन और यातायात की गति द्रुतगामी नहीं थी और लंबी सामुद्रिक यात्रा हाथ से चलाए जाने वाले डाँइ की नाव तथा पाल और पतवार से चलाई जानेवाली नाव द्वारा होती थी, उस समय नाविक, बहुत काल तक हरी सब्जी या ताजा फल न मिलने से स्कर्वी की व्याधि से पीड़ित हो जाते थे और फिर जब ताजी सब्जियाँ और फल मिलते थे तब उनकी यह व्याधि दूर हो जाती थी।
वसा विलेय विटामिन
विटामिन ए - यह शरीर में कैरोटीन से बनता है। कैरोटीन हरे और पीले रंग के पौधों में बहुतायात से पाया जाता है। गाजर, जिसे अंग्रेजी में कैरोट (carrot) कहते हैं, से कैरोटीन संबंधित है। कैरोटीन गाजर में बहुत होता है। कृत्रिम विटामिन ए कैरोटीन से बनाई जाती है। कैरोटीन और विटामिन ए की रासायनिक रूपरेखा बहुत पहले निश्चित की गई थी। कैरोटीन के एक अणु से विटामिन ए के दो अणु तैयार होते हैं। विटामिन ए शरीर के रक्त में प्रवाहित रहता है। शरीर कैरोटीन से विटामिन ए बनाता है। संश्लेषित विटामिन ए अमरीका में बहुत सस्ते मूल्य में उपलब्ध है।
इसकी हीनता से मनुष्यों की आँखों में तरह तरह की व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं जैसे (1) रतौंधी (Night blindness), (2) शुष्कअक्षिपाक (Xerophthalmia), आँखों के श्वेत भागों पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं और उसपर सफेद दाग पड़ जाता है, (3) आँख के सम्मुख बिचले भाग पर माड़ा (सफेदी) पड़ जाता है और तथा आँखों से दिखाई नहीं देता है श्वेत ढेढर निकल आता है, (4) कंटैला (Phrenodermia), शरीर की त्वचा पर छोटे छोटे कड़े दाने निकल आते हैं, (5) मसूड़े सूज जाते हैं, तथा (6) कभी कभी मूत्रप्रणाली में पथरी की बनावट में इसकी कमी सहायक पाई गई है।
इसकी मात्रा प्राकृतिक खाद्य पदार्थो में, पशुजन्य वसा, बिना मक्खन निकाला दूध, दही, मक्खन, शुद्ध घी, अंडा, जानवरों के यकृत तथा कॉड (Cod), हैलिबट (Halibut) और शार्क (shark) मछलियों के यकृत के तेल में सबसे अधिक होती है। इनका व्यवहार इस विटामिन की हीनता की अवस्था में किया जाता हैं। शाक तरकारियों में विटामिन ए अधिक मात्रा में नहीं मिलता है, और यह कैरोटीन (Carrotine) के रूप में रहता है जो शरीर में विटामिन ए में परिवर्तित हो जाता है। पातगोभी (करमकल्ला), धनिया, पालक, लेटूस, इत्यादि की पत्तियों में और पके हुए फल, आम, पपीता, टमाटर, नारंगी इत्यादि की पत्तियों में और पके हुए फल, आम, पपीता, टामाटर, नारंगी इत्यादि में यह कैरोटीन बहुतायात से होता है। गाजर में यह बहुत रहता है।
भोजनों में विटामिन ए तथा कैरोटीन की मात्रा इतनी कम है कि साधारण बाटों द्वारा इसे न मापकर अंतरराष्ट्रीय इकाई में मापा जाता है। आधुनिक वैज्ञानिकों का विचार है कि प्रौढ़ मनुष्य के प्रति दिन के भोजन में इस विटामिन की 5,000 अंतरराष्ट्रीय इकाई आवश्य होनी चाहिए।
विटामिन डी (Vitamin D) - यह वसा विलेय विटामिन है। रासायनिक रूप-रेखा के हिसाब से इस प्रकार के स्टेराइड यौगिक (steroid compounds) अनेक हैं। विटामिन डी3 (Vitamin D3) स्वभाविक विटामिन हैं जो मनुष्य की त्वचा में सूर्य किरण, या पराबैंगनी किरणों (vltra rolet rays) के प्रभाव से बनता रहता है। इसी से मिलता जुलता रासायनिक यौगिक जिसकी रूपरेखा प्राय: एक सी है, उसे कैल्सिफेरोल (Calciferol) या विटामन डी2 कहते हैं। यद्यपि डा3 (D3) और डी2 (D2) के रूप में सामान्य अंतर है, तथापि उनका पदार्थगुण एक है। कृत्रिम विटामिन डी2 का व्यवहार चिकित्सा में विशेष रूप से होता है।
इसकी हीनता से शिशु में सुखंडी या रिकेट्स (rickets) होता है और गर्भवती स्त्री में अस्थिमृदता (osteomalacia) होती है। रिकेट्स की बीमारी में बच्चों के शरीर पर चमड़े में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं, शरीर सूखकर दुबला पतला हो जाता है। सिर शरीर की अपेक्षा बड़ा रहता है। पेट फुटबाल के समान निकला रहता है। यह इस उपमा से समानता रखता है 'हाथ पाँव सिरकी पेट नदकोला'। साथ साथ दस्त आने लगते हैं। बच्चा बड़ा ही चिड़चिड़ा हो जाता है और छोटी छोटी सी बातों पर रोता है। गर्दन और मस्तक पर पसीना अक्सर ही रहता है। हाथ पैर की हड्डियाँ टेढ़ी हो जाती हैं। प्रसूता स्त्री और दूध पिलानेवाली माताओं में नितंब और जंघे की हड्डियाँ दुर्बल और अंत में टेढ़ी हो जाती हैं।
प्राकृतिक अवस्था में यह विटामिन भिन्न भिन्न मछलियों, जैसे कॉड, हैलिवट शार्क इत्यादि, के यकृत में पाया जाता है। गाय के दूध में इसकी मात्रा उसके खाद्य पर निर्भर करती है। यदि ये खाद्य पदार्थ सूर्य की किरणों से प्रभावित होते हैं तो इसमें विटामिन उनके चमड़े पर सूर्य की किरणों के पड़ने से बनता रहता है और मनुष्य यह विटामिन अपने आप बनाता रहता है।
विटामिन ई (Vitamin E) - इसका रासायनिक नाम टोकोफ़ेरोल (Tocopherol) है। कई प्रकार के टोकोफ़ेरोलों का जो भिन्न भिन्न सब्जियों से निकाले जाते हैं, व्यवहार किया जाता है। यह गेहूँ के अंकुर के तेल (wheat germ oil) से भी उपलब्ध होता है। विटामिन ई की हीनता का ज्ञान अभी परीपक्व नहीं है तथापि यह जनन विटामिन कहलाता है। सामयिक गर्भपात (Habitual abortions) की अवस्था में यह व्यवहृत किया होता है। पुरुषों के शुक्राणु (Spermatozoa) के दोष में भी यह व्यवहार किया जाता है।
विटामिन के (Vitamin K) - चूँकि के (K) पहला अक्षर कोऐगुलोशन (Koagulation) का है इसलिए यह विटामिन 'के' (K) कहलाता है। कोऐगुलेशन का अर्थ है रक्तजमाव (रक्त का थक्का हो जाना)। यह रुधिर को पतला होने से रोकता है, या यों भी कहा जा सकता है कि यह रुधिर को गाढ़ा करता है। इसका रसायनिक नाम है नैफ्थक्विनोन (Napthaquinone)।
इसकी कमी से रक्त पतला हो जाता है और इसका स्राव भिन्न भिन्न अंगों से होने लगता है। ऐसे रक्तस्राव में इसका व्यवहार किया जाता है। प्रकृति में यह जानवरों के यकृत तथा वनस्पतियों, जैसे हरी सब्जी, सब्जी के तेल और अन्न से प्राप्त होता है।
विटामिन पी (Vitamin P) - इस रासायनिक पदार्थ का नाम है हेपैरिन यह मीठी वर्च मिर्च (Kaprika) तथा नारंगी के छिलके में पाया जाता है। अनेक वैज्ञानिकों का मत है कि यह रक्त केशिकाओं (Blood capillaries) को दृढ़ रखता है और इसकी कमी से इन केशिकाओं से रुधिरस्राव होने लगता है। यद्यपि यह कई रक्तस्राव की व्याधियों में विटामिन सी और के के साथ व्यवहृत किया जाता है किंतु इसका वैज्ञानिक निराकरण अभी परिपक्व नहीं हो सका है।
उपर्युक्त कथन से यह निश्चित है कि विटामिन खाद्यांश हैं और शरीर को उनकी प्राप्ति प्रति दिन के भोजन से होती है। ये सब विटामिन प्रति दिन के भोजन में तभी संभव है, जब भोजन संतुलित हो, और खाद्य पदार्थों की उपलब्धि भिन्न भिन्न प्रकार की खाद्यसामग्रियों से हो। इस दशा में सभी विटामिन यथोचित मात्रा में शरीर को मिलते रहेंगे। (स्व.) बद्रीनारायण प्रसाद)
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