वितरण- प्राचीन काल में कुछ विशिष्ट क्षेत्रों को छोड़कर अन्य सभी स्थानों वनों से आच्छादित थे। अनुमान है कि पृथ्वी के दो तिहाई भाग पर एक समय वन फैला हुआ था। आज वनों का क्षेत्र बहुत संकुचित हो गया है। एक समय जहाँ 32 अरब एकड़ पर वन फैला हुआ था वहाँ अब वन केवल 10 अरब एकड़ पर रह गया है। दूसरे शब्दों में प्रत्येक 100 एकड़ भूमि में अब केवल 16 एकड़ भूमि पर वन रह गया है।
जलवायु और सघनता के आधार पर वन तीन भागों में विभाजित किए जा सकते हैं : 1. विषुवतीय वन, 2. उत्तर और दक्षिणी शीतोष्ण क्षेत्रीय वन और 3. ध्रुव क्षेत्रीय वन। वन वहाँ ही पनपते हैं, जहाँ की जलवायु गरम, मिट्टी उपजाऊ और वर्षा पर्याप्त होती है। ऐमेजन घाटी और कांगो घाटी के जंगल सबसे अधिक सघन हैं। इसका कारण जलवायु का ऊष्ण होना और वर्षा की प्रचुरता है। अनेक स्थलों पर पेड़ इतने घने हैं और वे इतनी शीघ्रता से उगते हैं कि वहाँ के धरातल पर धूप कदाचित् ही पहुँचती है। अन्य स्थानों के जंगल इतने सघन नहीं हैं। ध्रुव क्षेत्रीय वन सबसे कम सघन हैं। वनों में एक ही प्रकार के वृक्ष नहीं पाए जाते, यद्यपि इसके कुछ अपवाद भी हैं। बड़े बड़े पेड़ों के साथ छोटी-छोटी वनस्पतियाँ भी उपजती हुई पाई जाती हैं। एक ही समान सब तरह के पेड़ों का मिलना वनों के लिए सबसे प्राकृतिक स्थिति है। यह स्थिति उत्तरी शीतोष्ण क्षेत्र के बड़ी पत्ती वाले एवं नुकीली पत्तीवाले वनों में तथा शुष्क उष्णीय एवं उष्ण क्षेत्र के वनों में पाई जाती है, यदि नम उष्ण क्षेत्र के किसी हरे भरे सदाबहार वन का निरीक्षण किया जाए, तो उसके वृक्षों की असमानता ही उसका विशेष गुण होगी। यह स्थिति केवल बड़े वृक्षों तक ही सीमित नहीं रहती, वरन् छोटे वृक्षों में भी रहती है।
ऊपर कहा गया है कि वनों से अनेक लाभ हैं। उनसे हमें बड़ी उपयोगी और प्रति दिन व्यवहार की अनेक वस्तुएँ प्राप्त होती है, जिनमें इमारती लकड़ी, जलावन लकड़ी, काष्ठ कोयला, प्लाईवुड, बाँस, बेंत, लुगदी, सेलुलोस, लिग्निन, अनेक खाद्य फल, फूल और पत्तियाँ, चरागाह, पशुओं के लिए चारे (घास आदि), अनेक ओषधियाँ (कुनैन, कर्पूरादि), अनेक प्रकार के गोंद, धूपादि और तैलरेज़िन, रबर, तारपीन के तेल, रेशेदार पदार्थ, टैनिन, वानस्पतिक रंजक तथा लाख एवं रेशम परिपालक वृक्ष अधिक महत्व के हैं। वनों में अनेक पशु पक्षी भी रहते हैं, जो मनुष्यों के लिए बड़े उपयोगी हैं।
वनों का जलवायु पर प्रभाव- वनों से आसपास की जलवायु पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है। वनों का ताप आसपास की भूमि के ताप से साधारणतया निम्न रहता है। गरमी में यह अंतर लगभग 20 से. तक अधिक और जाड़े में लगभग .10 सें. तक कम रह सकता है। स्थल की ऊँचाई के कारण ताप का अंतर महत्तम होता है। मिट्टी के ताप पर भी वन का प्रभाव पड़ता है। शीत और शिशिर ऋतु में मिट्टी का ताप आसपास की खुली मिट्टी के ताप से ऊँचा रहता है और ग्रीष्म तथा वसंत में ताप निम्न रहता है।
वनों का वर्षा और आर्द्रता पर प्रभाव- वनों के कारण आस पास की भूमि में वर्षा कुछ अधिक होती है, ऐसा कुछ लोगों का मत है, पर यह सर्वग्राह्य नहीं है। निरीक्षणों से पता लगता है कि वनों के कारण वर्षा की बारंबारता और प्रचुरता अवश्य बढ़ जाती है और यह वृद्धि 25 प्रतिशत तक हो सकती है। वनों की वायु की आर्द्रता अवश्य बढ़ी हुई रहती है। आसपास की वायु की आर्द्रता से यह 4 से 10 प्रतिशत तक, और कहीं-कहीं 12 प्रतिशत तक, अधिक रह सकती है। इसका कारण है कि वनों में हवा तेज नहीं चलती। इससे जल का वाष्पायन कम होता है और वायु में नमी बनी रहती है। आर्द्रता की अधिकता के कारण वनों के आस पास के खेतों में कुहरा और ओस अधिक पड़ते हैं, जिससे खेतों में पाला पड़ने की घटना या उपलवृष्टि बहुत कम होती है।
मिट्टी का अपरदन से बचाव- वर्षा की बूँदे वनों की धरती पर सीधे नहीं गिरतीं। धरती पर गिरने से पहले वे पेड़ पौधों, उनकी डालियों और पतियों से टकरा जाती हैं, जिससे बूंदों की गति धीमी हो जाती है। बहुधा वे छोटी छोटी बूँदों के रूप, में ही धरती पर गिरती हैं। पेड़ों के नीचे भी सड़ी हुई पत्तियों की सतह बनी रहती है, जिसकी क्षमता बूँदों के आघात सहन करने की तो होती ही है, पर साथ साथ जल के सोखने की भी क्षमता काफी होती है। इससे पानी की बूँदों द्वारा भूमि का कटाव बहुत कम हो जाता है। पानी के बहाव में जितनी ही अधिक अवरुद्धता आती है उतना ही कम कटाव होता है। जहाँ पर वन आवरण नहीं है, वहाँ लगातार वर्षा होने से भूमि की ऊपरी सतह जल्दी भींग जाती हैं और वह पानी से संतृप्त हो जाती है, जिससे पानी नीचे ढलाव की तरफ बहने लगता है। इससे भूमि का अपरदन अधिक होता है। पानी की कमी और बहाव की गति में कमी होने के कारण वन अपरदान को बहुत कुछ रोकते हैं। पेड़ पौधों की जड़ों द्वारा मिट्टी को पकड़े रहने के कारण भी अपरदन में बहुत कमी हो जाती है।
वनों से बाढ़ में कमी- पानी के बहाव और गति में वृद्धि होने से नदियाँ तीव्रगामी हो जाती हैं और उनमें बाढ़ आ जाती है। वनों के वर्षा के पानी में बहाव और गति दोनों ही कम रहते हैं। वर्षा के पानी का पर्याप्त अंश मिट्टी अवशोषित कर पृथ्वीस्तर में नीचे भेज देती है। इससे और पेड़ पौधों के होने के कारण पानी की गति की तीव्रता में कमी हो जाती है तथा नदियों में बाढ़ आने में रुकावट पैदा हो जाती है।
जलाशयों में मिट्टी का जमाव कम करना- जलाशयों या छोटे छोटे पोखरों में वर्षा के कारण मिट्टी बहकर जमा हो जाती है, जिससे वे छिछले हो जाते हैं। वनों के वर्षा के पानी में मिट्टी का अंश बहुत कम रहता है, क्योंकि इस पानी की गति बड़ी मंद रहती है। इससे जलाशयों में मिट्टी के जमने की संभावना कम रहती है।
वनों से भूपृष्ठ के जल का संरक्षण- भूपृष्ठ से पानी उड़कर हवा में मिलता रहता है। इससे भूमि का जल जल्दी उड़ जाता है। पर वनों के भूपृष्ठ से जल उतनी जल्दी नहीं उड़ता। वनों में जल पेड़ पौधों से ही उड़कर हवा में मिलता रहता है। ऐसे जल की मात्रा भूपृष्ठ से उड़े जल की अपेक्षा बहुत कम, लगभग आधा ही, रहती है। अत: वनों से भूपृष्ठ के जल का संरक्षण होता है।
हवा का प्रभाव- हवा साधारणतया भूपृष्ठ की मिट्टी का कटाव करती है, जिससे मिट्टी उड़कर एक स्थान को चली जाती है। इसी प्रकार रेत के फैलने से मरुभूमि का विस्तार होता है। ऐसे विस्तार के रोकने का एक उपाय पेड़ पौधों को उगाना है, क्योंकि हवा का प्रभाव सीधे धरती पर न पड़कर पेड़ पौधों पर पड़ता है, जिससे मिट्टी का स्थानांतरण रुक जाता है।
मिट्टी की उर्वरता पर प्रभाव- वनों से मिट्टी की उर्वरता बढ़ जाती है। कार्बनिक पदार्थों के सड़ने गलने से वानस्पतिक पदार्थ मिट्टी में मिल जाते हैं, जिससे मिट्टी में ह्यूमस की मात्रा बढ़ जाती है। वानस्पतिक पदार्थों में अकार्बनिक खाद भी रहती है, जो मिट्टी में मिल जाती हैं। यह खाद वस्तुत: पेड़ पौधों की जड़ों द्वारा बहुत गहरी मिट्टी से लाकर पत्तियों में इकट्ठा होती है, जिनके सड़ने पर वह पुन: सतह की मिट्टी में मिलकर उसकी उर्वरता को बढ़ाती है।
वन और स्वास्थ्य- वनों का स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। वनों की वायु शुद्ध रहती है तथा उसमें धुँआ, हानिकर गैसें और धूल के कण बहुत कम रहते हैं। यहाँ की वायु में जीवाणु भी 23 से 28 प्रतिशत कम रहते हैं। ये पेड़ पौधों की पत्तियों द्वारा छन जाते हैं और सूर्य की धूप से नष्ट हो जाते हैं। यह देखा गया है कि वनों के निकट गांवों में हैजा और टायफाइड ज्वर बहुत कम होता है। यही कारण है कि सैनिकों के शिविर जंगलों के आसपास ही स्थापित किए जाते हैं।
पशु पक्षियों का संरक्षण- कुछ पशु पक्षियों का वनों से संरक्षण होता है। यदि वन नहीं होते, तो वे अब तक नष्ट हो गए होते और उनका अस्तित्व ही मिट गया होता। इधर वन्य पशुओं के संरक्षण का विशेष प्रयत्न हो रहा है और उनके रहने के लिए कुछ स्थान सुरक्षित घोषित कर दिए हैं, जहाँ बिना विशेष आज्ञा से उनका शिकार नहीं किया जा सकता है। ऐसे रक्षित वन विहार के हजारीबाग जिले, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में और असम, मैसूर आदि स्थानों में हैं।
नीचे की तालिका में सन् 1950-51, 1955-56 और 1957-58 में वनों का क्षेत्रफल दिखाया गया है।
उत्पादन दृष्टि से, वन का क्षेत्रफल (वर्ग मील में)
| 1950-51 | 1955-56 | 1957-58 |
उपयोगी वन | 2,25,714 | 2,18,122 | 2,14, 886 |
दुर्गम वन | 51,518 | 53,562 | 59,528 |
योग | 2,77,232 | 2,71,684 | 27,44,14 |
कानून की दृष्टि से, वन का क्षेत्रफल (वर्ग मील में)
| 1950-51 | 1955-56 | 1957-58 |
(अ) सुरक्षित श्श् (Reserved) | 1,32,975 | 1,38,791 | 1,31,586 |
(ब) संरक्षित श्श् (Protected) | 45,532 | 65,767 | 93,759 |
(स) अवर्गीकृत श् (Unclassed) | 98,725 | 65,730 | 49,066 |
श्श् श्श्श्श्योग | 2,77,232 | 2,69,588 | 274,411 |
उपज- निम्नलिखित तालिका में सन् 1150-51, 1955-56 एवं 1957-58 की इमारती एवं जलावन लकड़ियों की पैदावार की मात्रा तथा कीमत दी गई है।
इमारती एवं जलावन लकड़ियों की पैदावार की मात्रा (हजार घन फुट में) तथा उनका मूल्य
वर्ष | इमारती लकड़ी | गोली लकड़ी | लुगदी (pulp) तथा दियासलाई की लकड़ी | जलावन लकड़ी | कोयले की लकड़ी | योग | मूल्य (हजार रुपए में) |
1950-51 | 105676 | 29549 | 475 | 394319 | 27569 | 557588 | 190807 |
1955-56 | 119867 | 25437 | 1481 | 326057 | 55661 | 528503 | 276882 |
1957-58 | 133232 | 29656 | 1978 | 360191 | 27388 | 552446 | 289330 |
भारत में लगभग 3 लाख वर्ग मील के क्षेत्र में वन फैले हुए हैं। अपेक्षाकृत यहाँ पर वन का क्षेत्रफल कम होने के साथ साथ असमान रूप से भी वितरित है तथा अन्य देशों की तुलना में प्रति वर्ष औसत उपज भी कम है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय वन अधिनियम सन् 1952 में प्रस्तावित किया गया कि वन का क्षेत्रफल पूरे भूमि के क्षेत्रफल के 33.3 प्रतिशत तक बढ़ाया जाए। 60 प्रतिशत पहाड़ी क्षेत्र तथा 20 प्रतिशत मैदानी क्षेत्र में वनवृद्धि का लक्ष्य रखा गया।
विकास योजनाएँ- पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत वनों से पैदावार बढ़ाने के लिए विभिन्न प्रांतों में योजनाएँ बनाई गई हैं, जिनसे कृषि कार्य में आने वाली लकड़ियों की पैदावार में वृद्धि, लाभकर वन विकास, नष्ट होते हुए वनों का पुनरुद्धार, वनों में आवागमन के साधनों का सुधार एवं विकास, वन अनुसंधानों में उन्नति, वनों एवं वन जंतुओं के संरक्षण आदि की व्यवस्था हो सके। शीघ्र बढ़नेवाले ऐसे पेड़ों की जातियों को पैदा करने के लिए, जिन्हें दियासलाई, प्लाईउड, कागज, लुगदी आदि के कारखानों में प्रयुक्त करते हैं, एक विशेष योजना बनाई है, जिसके लिए 2.75 करोड़ रुपया तृतीय पंचवर्षीय योजना में निर्धारित हुआ है। दो अन्य योजनाएँ संयुक्त राष्ट्र विशिष्ट कोश (U. N. special fund) की सहायता से प्रारंभ होनेवाली हैं, जिनमें से एक का उद्देश्य विभिन्न प्रांतों के दुर्गम वनों से कच्चे माल की उपलब्धि के बारे में जाँच पड़ताल करना है और इसके लिए 1.27 करोड़ रुपया दिया गया है। दूसरी योजना देहरादून, जबलपुर, गोहाटी, कोयंबटूर आदि केंद्रों पर वन विद्या की उन्नतिशील शिक्षा देने के लिए है और इसके लिए 30 लाख रुपया निर्धारित हुआ है। (संत सिंह)
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