व्यतिकरणमापी (Interferometer)

Submitted by Hindi on Fri, 08/26/2011 - 11:40
व्यतिकरणमापी (Interferometer) एक प्रकाशीय युक्ति है, जो प्रकाश की एक किरण को एक या अनेक भागों में विभक्त करने के बाद इन भागों को एक में मिलाकर व्यतिकरण उत्पन्न करती है। यह युक्ति दूरी, कोण, गति, विस्थापन या आवर्तनांक का मापन तथा संकीर्ण स्पेक्ट्रम क्षेत्र का विश्लेषण प्रकाश की किरणों के व्यतिकरण से करती है।

जब प्रकाश की दो तरंगें मिलती हैं, तब व्यतिकरण होता है। जब एक प्रकाशतरंग का तरंगश्रृंग (crest) प्रकाश की दूसरी तरंग के तरंगश्रृंग से तथा एक का गर्त (trough) दूसरे के गर्त से मिलता है, तब प्रकाश तीव्र होता है; पर इसके विपरीत जब एक तरंग का तरंगश्रृंग दूसरी तरंग के गर्त से मिलता है, तब प्रकाश की दोनों तरंगों का प्रकाश निरसित हो जाता है, अर्थात्‌ अंधकार हो जाता है। यहीश् व्यतिकरण है।

माइकेल्सन व्यतिकरणमापी- प्रोफेसर ए. ए. माइकेल्सन के प्रारंभिक व्यतिकरणमापी में दाहिनी ओर से एक प्रकाशकिरण दर्पण द1 पर आती है। द1 दर्पण का आधा भाग रजतित होता है। जिससे केवल आधा प्रकाश परावर्तित होकर दर्पण द2 पर जाता है और शेष आधा प्रकाश अरजतित भाग से पारगमित होकर सीधा दर्पण द3 पर आपतित होता है तथा अपने पथ पर परावर्तित हो जाता है। दर्पण द2 तथा द3 एक दूसरे पर लंब होते हैं। दर्पण द2 तथा द3 से परावर्तित होनेवाली प्रकाश की किरणपुंजें पुन: दर्पण द1 पर आपतित होती है और प्रेक्षक इन दोनों किरणों के द्वारा बनी व्यतिकरण फ्रंजों को देखता है (देखें माइकेल्सन मॉर्लि प्रयोग)।

माइकेल्सन ने अपने व्यतिकरणमापी की सहायता से प्रकाश का वेग तथा प्रकाश की तरंग लंबाई मापी तथा सर्वप्रथम तारों का कोणीय व्यास ज्ञात किया। बीटेलजूज़ (Betelguese) प्रथम तारा है, जिसका कोणीय व्यास (0.049) ज्ञात किया गया था। दूरदर्शक से युक्त माइकेल्सन व्यतिकरणमापी से अत्यधिक दूर स्थित तारों तथा मंद तारों की मापें ज्ञात करना संभव हो गया है। तारों से प्राप्त होनेवाली प्रकाशतरंगों से व्यतिकरण द्वारा तारों की दिशा, दूरी तथा विस्तार का निर्धारण किया जाता है।

फाब्री (Fabry) तथा पेरो (Perot) व्यतिकरणमापी- उपर्युक्त व्यतिकरणमापी में केवल दो व्यतिकारी किरणपुंजों का उपयोग किया गया है। 1893 ई. में बुलूच (Boulouch) ने सर्वप्रथम बताया कि अनेक व्यतिकारी किरणपुंजों के उपयोग से अधिक सुग्राहिता प्राप्त की जा सकती है। इस सिद्धांत का विकास 1897 ई. में फाब्री तथा पेरो द्वारा किया गया। इनके उपकरण

माइकेल्सन व्यतिकरणमापी
द1 अर्ध दर्पण तथा द2 और द3 पूर्ण दर्पण

में दो समतल समांतर कांचपट्ट रहते हैं, जिनपरश् पतला रजतश् फिल्म रहता है। जब विस्तृत प्रकाशस्त्रोत से ये पट्ट प्रदीप्त किए जाते हैं, तब इन पट्टों केश् मध्य से व्यतिकरण के कारण फ्रंज बनते हैं। ये फ्रंज अनंत परवलय होते हैं और ये समान झुकाव के फ्रंज कहलाते है। ये फ्रंज हाइडिंगर (Haidinger) फ्रंज के समान होते हैं, पर ये वह किरणपुंज के कारण तीव्र और चमकीले होते हैं।

इन बहुकिरणपुंजों के फ्रंजों के अनेकानेक उपयोग हैं। धन डेसिमीटर जल की संहति इस व्यतिकरण से मापी गई है और यह संहति एक किलोग्राम से 27 मिलिग्राम कम है। गैसीय अपवर्तनांक ज्ञात करने के लिए, यह व्यतिकरणमापी मानक साधन है। 1943 ई. में टोलैसकी (Tolansky) ने क्रिस्टल पृष्ठ की रूपरेखा ज्ञात करने में इस व्यतिकरणमापी का उपयोग किया। इससे इतनी परिशुद्धता थी कि क्रिस्टल जालक (crystal lattice) अंतराल को भी प्रकाशतरंगों द्वारा मापा जा सकता था। इस व्यतिकरणमापी से क्रिस्टल के आकृतिक लक्षण से लेकर आण्विक विमाएँ तक उद्घटित हो गई हैं। एकवर्णी तथा श्वेत दोनों प्रकार का प्रकाश इस व्यतिकरण में प्रयुक्त होता है।

परावर्ती सोपानक व्यतिकरणमापी (Reflecting Echelon Interferometer)- 1926 ई. में विलियम ने इस व्यतिकरणमापी को विकसित किया। यह एक मात्र उपकरण है, जो परिशुद्ध तरंगदैर्घ्य बताने में तथा निर्वात क्षेत्र, अर्थात्‌ सुदूर पराबैगनी (ultraviolet) क्षेत्र की अतिसूक्ष्म संरचनाओं (hyperfine structurcs) को व्यक्त करने में समर्थ है।

आधुनिक काल में व्यतिकरणमापी का उपयोग बढ़ता जा रहा है। कोयले की खानों की हवा में मेथेन द्वारा होनेवाले प्रदूषण का पता लगाने के लिए परिवहनीय व्यावहारिक व्यतिकरणमापी का उपयोग किया जाता है। अत्यधिक उच्च ताप, जैसे वात्या भट्टी का ताप, तथा पेंच की परिशुद्धता की जाँच के लिए भी व्यतिकरणमापी प्रयुक्त किया जा रहा है। व्यतिकरणमापी से 1 इंच के 1/10,00,00,000 तक की शुद्धता की जाँच की जा सकती है। (अजित नारायण मेहरोत्रा)

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