कोसी मुक्ति संघर्ष समिति की बाकी मांगों के लिए राज्य के जल संसाधन विभाग का मानना है कि यह मांगें उनके विभाग से सम्बद्ध नहीं है अतः वह कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं है। सवाल इस बात का है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने यह पत्र राज्य के मुख्य सचिव को लिखा था, जल-संसाधन विभाग को नहीं। मुख्य सचिव का यह दायित्व बनता था कि वह बाकी सवालों का जवाब भी सम्बद्ध विभागों से लेकर आयोग के सामने अपनी स्थिति स्पष्ट करते मगर ऐसा अभी तक नहीं हुआ है।
पुराने नेताओं जैसे बैद्यनाथ मेहता, जानकी नन्दन सिंह, कौशलेन्द्र नारायण सिंह, जयदेव सलहैता, परमेश्वर कुँअर (अभी कुछ माह पहले उनका देहावसान हुआ), बौकू महतो, खुशीलाल कामत और बहादुर खान शर्मा अब हमारे बीच नहीं हैं पर कोसी तटबन्ध पीड़ितों की तकलीफों को उजागर करने वाले लोग अभी हमारे बीच समाप्त नहीं हुये। शिवानन्द भाई का योगदान 1984 के नवहट्टा हादिसे के समय बड़ा ही महत्वपूर्ण रहा है जिसकी चर्चा हम ने अध्याय-4 में की है।नई पीढ़ी के कार्यकर्ताओं में कोसी मुक्ति संघर्ष समिति, सुपौल के ऐडवोकेट देव कुमार सिंह (ग्राम ढोली, प्रखण्ड भपटियाही, सरायगढ़, जिला सुपौल) ने पिछले कोई 15 वर्षों से इस समस्या को विभिन्न स्तरों पर, बिहार के मुख्य सचिव से लेकर राष्ट्रपति तक, उठाया है। उन्होंने सुपौल और पटना से लेकर दिल्ली तक कितनी बार गोष्ठियों, धरनों और प्रदर्शन का आयोजन किया है और समस्या को पारिभाषित करने और कोसी तटबन्धों के बीच फँसे लोगों की दुःस्थिति के बारे में ज्ञापन दिया है। जब इन सारी कोशिशों का कोई परिणाम नहीं निकला तब हार कर उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को 30 मई 1998 को दखल देने के लिए आवेदन दिया। अपनी 15 सूत्री मांगों में कोसी मुक्ति संघर्ष समिति, सुपौल ने तटबन्धों के भीतर पड़ने वाली जमीन का सरकार से मुआवजा मांगा और इस जमीन पर अब तक के फसलों के हुये नुकसान की क्षतिपूर्ति मांगी। निर्मली-भपटियाही खण्ड में रेल सेवा पुनः बहाल करने के साथ-साथ बराहक्षेत्र में कोसी पर हाई डैम की मांग भी उन्होंने रखी।
इन मुख्य मांगों के साथ साथ कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार के प्रावधानों को लागू करना, तटबन्धों के बीच फँसे लोगों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण तटबन्ध-पीड़ितों का पुनर्वास, उनके लिए सुरक्षित क्षेत्र में पक्के मकान, हर तरह के सरकारी कर्ज की माफी, घाट बन्दोबस्ती को पूरी तरह समाप्त करना, कोसी पीड़ितों के नाम पर नौकरियों में हुई नियुक्ति में धांधली की जांच, आई.टी.आई. में तटबन्ध पीड़ित छात्रों के लिए आरक्षण, पुनर्वास स्थलों पर अवैध दखल की समाप्ति, तटबन्धों के अन्दर की जमीन का नये सिरे से मालिकाना हक के लिए सर्वेक्षण के साथ-साथ इलाके में बड़े उद्योगों की स्थापना की बात कही गई है ताकि लोगों को रोजगार मिल सके।
मानवाधिकार आयोग ने अपने पत्र संख्या 2294/4/97-98, दिनांक 12 अगस्त 1998 की मार्फत बिहार के मुख्य सचिव से इन मांगों पर जवाब मांगा। आयोग को कोई सूचना नहीं मिलने पर उसने अपने पत्र संख्या 746/4/98-99 के माध्यम से बिहार सरकार से 22 मार्च 1999 के पहले अपनी स्थिति स्पष्ट करने का आदेश दिया। इस पत्र का जवाब बिहार सरकार ने पत्र संख्या 3/एच आर सी 1088/99 गृ. आ.-10078 दिनांक 11 अक्टूबर 2001 को दिया। पुनर्वास के प्रश्न का उत्तर देते हुये बिहार सरकार ने कहा कि, ‘‘...तटबन्धों के बीच जो लोग रहते थे उनका पुनर्वास 1957 में अनुमोदित पुनर्वास योजना के तहत कर दिया गया है। बरसात के और बाढ़ के मौसम के बाद कृषि, मत्स्य पालन और दूसरे आर्थिक क्रियाकलाप बहुत आकर्षक हो जाते हैं तब पुनर्वासित लोग अपनी मर्जी से तटबन्धों के अन्दर या बाहर रहते हैं और कोसी तटबन्धों के बीच की अपनी खादिर की जमीन तथा दूसरे आर्थिक अवसरों का लाभ उठाते हैं।’’ 1957 की अनुमोदित पुनर्वास योजना वही 2.12 करोड़ वाली योजना है जिसका जिक्र हमने इसी अध्याय के खण्ड 8.7 में किया है। बिहार सरकार द्वारा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को दिये गये उत्तर में प्रस्तावित बराहक्षेत्र बांध के बारे में कहा गया है कि ‘‘...भारत सरकार और नेपाल सरकार के बीच कोई समझौता हो जाने के बाद ही (कोसी हाई) डैम के निर्माण की दिशा में कोई प्रगति हो सकेगी। जब यह बांध बन जायेगा तब नदी का प्रवाह पूरी तरह स्थिर हो जायेगा और गाद का जमा होना कोई बड़ी समस्या नहीं रह जायेगी।’’
प्रत्युत्तर में यह स्पष्ट किया गया है कि, ‘‘...इस कथित (पुनर्वास) योजना में 136 पुनर्वास स्थलों का विकास किया गया और गृह निर्माण के अनुदान के रूप में 1.17 करोड़ रुपये खर्च किये गये। जन-सुविधाओं के लिए 1.10 करोड़ रुपयों का भुगतान किया गया। इस तरह से इस योजना के तहत जितनी राशि का प्रावधान था उससे ज्यादा राशि पुनर्वास पर खर्च की गई और 39,527 परिवारों का पुनर्वास किया गया।’’ रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि प्रभावित परिवारों द्वारा पुनर्वास स्थल का उपयोग वर्ष में कुछ समय के लिए एक वैकल्पिक निवास के रूप में होता है। लोग अपने पुराने घर छोड़ने के लिए राजी नहीं हैं। जिसकी वजह से पुनर्वास स्थलों पर 1400 एकड़ जमीन अभी भी खाली पड़ी हुई है। इन प्लॉटों की सालाना बन्दोबस्ती कर दी जाती है ताकि उन्हें (प्रभावित लोगों को-लेखक) ज्यादा-से-ज्यादा फायदा पहुँच सके। ज्यादातर लोगों का पुनर्वास स्थल और अपने पुराने गाँव के बीच आना-जाना लगा रहता है जिसकी वजह से ऐसे बाहरी लोगों को उनकी पुनर्वास की जमीन को दखल करने का मौका मिल जाता है जो कि पुनर्वासितों की वास्तविक सूची में नहीं थे।’’
इस पुनर्वास में एक भी आदमी ऐसा नहीं होगा जिसके पास दस कट्ठा भी जमीन बची हो। यहाँ की हालत यह है कि यहाँ के सर्वे के नक्शे में यह पुनर्वास दिखाया गया है मगर उसमें हमारी जमीन कहाँ है इसका कोई जि़क्र नहीं है। हमारे पास जमीन का कोई कागज भी नहीं हैं। जो जहाँ है, बस वहाँ है। सुपौल के पुनर्वास के रिकार्ड में जमीन का नाम खतियान में दर्ज है, बस उतना ही। उस हालत में यह पुनर्वास अस्थाई है और इसका दफ्तर तो अस्थाई है ही।
सरकार का आश्वासन है कि ऐसे अनाधिकारी लोगों की पहचान की जा रही है और गैर-कानूनी दखल करने वालों को वहाँ से हटाया जायेगा। इस काम के लिए जिला प्रशासन की मदद ली जा रही है। रिपोर्ट यह भी कहती है कि 81 कर्मचारियों के विरुद्ध जाँच जारी है और उनमें से 31 ऐसे कर्मचारियों को, जिनको गलत तरीके से नौकरी मिल गई थी, मुअत्तल कर दिया गया है। कोसी मुक्ति संघर्ष समिति की बाकी मांगों के लिए राज्य के जल संसाधन विभाग का मानना है कि यह मांगें उनके विभाग से सम्बद्ध नहीं है अतः वह कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं है। सवाल इस बात का है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने यह पत्र राज्य के मुख्य सचिव को लिखा था, जल-संसाधन विभाग को नहीं। मुख्य सचिव का यह दायित्व बनता था कि वह बाकी सवालों का जवाब भी सम्बद्ध विभागों से लेकर आयोग के सामने अपनी स्थिति स्पष्ट करते मगर ऐसा अभी तक नहीं हुआ है।तालिका 8.2 में हम उन गाँवों की सूची दे रहे हैं जिनमें कोसी परियोजना के विस्थापितों को पुनर्वास दिया गया था। इस सूची में बिहार के जल संसाधन विभाग द्वारा मानवाधिकार आयोग, दिल्ली को दी गई एक सूचना में ऐसे पुनर्वास स्थलों की संख्या 136 बताई गई है। मगर पुनर्वासित होने वाले गाँवों की सूची मानवाधिकार आयोग को नहीं दी गई है और न ही इस बात के कोई स्पष्ट विवरण कहीं उपलब्ध हैं कि किस पुनर्वास स्थल पर किस-किस गाँव को पुनर्वास दिया गया है। रमेश झा के अनुसार इस तरह की सूची मिल भी नहीं पायेगी क्योंकि पुनर्वास स्थलों में रहने वालों का शायद ही कोई रिकार्ड हो। सुपौल में स्थित कोसी परियोजना के पुनर्वास कार्यालय से वहाँ कार्यरत दस अमीनों की सूची जरूर जारी की गई है जिनके अधीन, विभिन्न पुनर्वास स्थल आते हैं इस सूची के अनुसार परियोजना में पुनर्वास स्थलों की संख्या 134 है जिनमें से 60 पुनर्वास स्थल कोसी के तटबन्घ के पूरब और 74 पुनर्वास स्थल कोसी के पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में हैं। इन पुनर्वास स्थलों पर कोई 1400 एकड़ जमीन (लगभग 570 हेक्टेयर) खाली पड़ी हुई है जबकि पुनर्वास के लिए कुल कोई 1200 हेक्टेयर (लगभग 3,000 एकड़) जमीन का अधिग्रहण किया गया था। इसका सीधा-सीधा मतलब यह है कि सरकार की अपनी स्वीकारोक्ति के अनुसार लगभग आधा पुनर्वास खाली है। इसके अलावा जिन पुनर्वास स्थलों में खाली जमीन का ब्यौरा दिया हुआ है उनकी संख्या 110 (पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में 58 तथा पूर्वी तटबन्ध के पूरब में 52) है। पुनर्वास स्थलों की सूची में पूर्वी तटबन्ध के पूरब के गाँव नाकुच को इसी नाम से दिखाया गया है (कॉलम 2) लेकिन तालिका 8.2 में जब पुनर्वास स्थलों में खाली जगहों को दिखाया गया है तब वहाँ नाकुच-क और नाकुच-ख नाम से दो जगहें दर्ज हैं। इस तरह से कॉलम 4 में नाकुच-क और नाकुच-ख को एक ही पुनर्वास मानने पर आंशिक रूप से खाली पुनर्वास स्थल वाले गाँवों की संख्या 109 हो जाती है। अगर पुनर्वास विभाग द्वारा मुहैया की गई कॉलम 2 तथा 3 की सूचनाएँ और जल संसाधन विभाग द्वारा मानवाधिकार आयोग को दी गई कॉलम 4 की सूचनाएं सही हैं तो 25 पुनर्वास स्थल ऐसे हैं जहाँ खाली जमीन के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है। इसका मतलब जो समझ में आता है वह यह कि कम से कम 25 पुनर्वास स्थल ऐसे होने चाहिये जहाँ विस्थापित लोग पूरी-पूरी तरह से आबाद हैं। हमने इन 25 गाँवों को तालिका 8.2 में तारांकित किया है।
तालिका 8.2
उन स्थलों का विवरण जहाँ कोसी तटबन्ध पीड़ितों को पुनर्वास दिया गया।
स्रोत: (प) कॉलम 2-3, पुनर्वास कार्यालय, कोसी परियोजना,
क्र.सं. | पुनर्वास स्थल | पुनर्वास की कुल जमीन हेक्टेयर | पुनर्वास की कुल खाली जमीन –हेक्टेयर |
1. | भीम नगर’ | 3.39 | -- |
2. | साहेबान | 9.51 | 0.4 |
3. | पिपराही बैजनाथपुर | 8.14 | 2.43 |
4. | बैजनाथपुर | 0.93 | 0.3 |
5. | बसावन पट्टी | 12.47 | 3.04 |
6. | पिपराही गोठ/लालमन पट्टी | 2.88 | 1.42 |
7. | नरपत पट्टी/सातन पट्टी | 7.37 | 2.43 |
8. | नरपत पट्टी/ गोपालपुर | 5.8 | 2.43 |
9. | कोढ़ली गोपालपुर | 8.55 | 0.4 |
10. | नोनपार | 13.36 | 2.43 |
11. | सदानन्दपुर/कल्याणपुर | 7.78 | 1.62 |
12. | बिसनपुर/भपटियाही | 10.4 | 3.24 |
13. | पिपरा खुर्द/भपटियाही | 8.5 | 1.21 |
14. | चाँदपीपर उत्तर’ | 4.6 | -- |
15. | चाँदपीपर दक्षिण’ | 7.95 | -- |
16. | मलाढ़ | 15.14 | 7.29 |
17. | थरबिट्टा पूरब | 15.35 | 10.47 |
18. | थरबिट्टा कॉलोनी | 7.59 | 3.59 |
19. | किशनपुर | 12.67 | 7.29 |
20. | अभुआर खखई | 8.7 | 1.16 |
21. | डभारी’ | 4 | -- |
22. | महुआ’ | 8.43 | -- |
23. | बैरिया मंच | 5.69 | 2.67 |
24. | खरैल मलहद | 45.26 | 0.58 |
25. | खरैल परसा कर्णपुर | 37 | 5.9 |
26. | पिपरा खुर्द | 7.3 | 0.61 |
27. | परसा | 6.03 | 3.88 |
28. | सिमरा मल्हनी | 7.22 | 1.42 |
29. | लालचन्द पट्टी/रामदत्त पट्टी | 4.94 | 3.55 |
30. | नेमुआ रामपुर’ | 8.58 | -- |
31. | बसबिट्टी | 4.89 | 0.53 |
32. | डुमरिया | 19.64 | 1.21 |
33. | बराही बिजलपुर | 38.89 | 19.43 |
34. | डुमरा | 16.04 | 2.43 |
35. | धर्मपुर त्रिखुट्टी/चैखुट्टी | 14.79 | 8.91 |
36. | धर्मपुर त्रिखुट्टी/ | 18.85 | 4.86 |
37. | नवहट्टा हेमपुर | 19.35 | 6.07 |
38. | नवहट्टा नौलक्खा | 6.68 | 4.05 |
39. | नवहट्टा साहपुर | 12.47 | 0.95 |
40 | कुम्हरौली’ | 10.19 | -- |
41. | मोहनपुर’ | 15.25 | -- |
42. | औरिया रमौती | 4.94 | 3.24 |
43. | एनायतपुर | 5.07 | 0.81 |
44. | चन्द्राइन | 41.31 | 16.19 |
45. | खिरहो तेघरा | 7.34 | 2.43 |
46. | महिषी उत्तरवारी | 9.85 | 3.64 |
47. | महिषी टीलाभाग’ | 2.58 | -- |
48. | महिषी जामुनबाड़ी | 13.37 | 3.64 |
49. | महिषी महपुरा | 1.82 | 1.62 |
50. | गमरहो | 12.91 | 7.29 |
51. | नाकुच (क) और (ख) | 7.64 | 4.45 |
52. | तिलाठी | 11.28 | 11.28 |
53. | सतरस | 29.04 | 9.31 |
54. | कठघरा | 12.67 | 2.43 |
55. | गोरदह | 16.45 | 12.51 |
56. | भेलवा | 8.18 | 6.88 |
57. | उटेसरा (अन्दर) | 1.72 | 1.72 |
58. | सलखुआ सितुआही | 5.43 | 4.26 |
59. | सलखुआ | 8.95 | 7.84 |
60. | उटेसरा (बाहरी) | 13.81 | 6.07 |
61. | कुनौली (उत्तर) | 1.83 | 1.38 |
62. | कुनौली (दक्षिण) | 6.3 | 1.78 |
63. | हरिपुर | 2.46 | 0.87 |
64. | हरिपुर कमलपुर | 10 | 1.57 |
65. | कमलपुर | 3.04 | 1.34 |
66. | जिरोगा महादेव मठ | 6.33 | 6.19 |
67. | जिरोगा (बी) | 3.7 | 3.48 |
68. | कुलहडि़या | 4.21 | 3.64 |
69. | धरहारा ‘क’’ | 1.85 | -- |
70. | धरहारा ‘ख’’ | 8.9 | -- |
71. | डगमारा’ | 12.38 | -- |
72. | मथही | 3.98 | 3.74 |
73. | महादेव मठ बेलही गिदराही | 2.01 | 0.61 |
74. | बरुआर राजाराम पट्टी | 4.89 | 4.86 |
75 | नेमुआ बरुआर | 8.72 | 7.1 |
76. | औराहा महदेवा | 8.03 | 6.52 |
77. | जिरोगा नरेन्द्रपुर | 9.9 | 7.94 |
78. | छजना बलुआहा | 4.89 | 1.01 |
79. | छजना झिटकी | 2.87 | 2.24 |
80. | छजना लछमिनियाँ | 2.31 | 1.62 |
81. | निर्मली लछमिनियाँ’ | 9.45 | -- |
82. | बेलही पुला | 2.24 | 2.06 |
83. | बेलही परसा | 11.1 | 4.35 |
84. | बेलहा ब्रह्मपुर | 10.54 | 8.1 |
85. | इनरवा’ | 2.79 | -- |
86. | रजुआही पिरोजगढ़ | 21.6 | 16.76 |
87. | मटरस | 10.22 | 0.57 |
88. | बिरौल | 2.08 | 2.08 |
89. | पौनी चपराम | 19.8 | 11.54 |
90. | अज रक्बे पौनी | 4.95 | 4.85 |
91. | मरौना अगरगढ़ा उत्तर | 12.47 | 5.92 |
92. | मरौना अगरगढ़ा दक्षिण | -- | 5.04 |
93. | मरौना सरौनी उत्तर | 11.58 | 9.28 |
94. | मरौना सरौनी दक्षिण | 5.92 | 4.45 |
95. | बनगामा पिपराही | 11.22 | 4.05 |
96 | कालिकापुर | 4.68 | 4.54 |
97. | डेवढ़’ | 1.02 | -- |
98. | तरडीहा बोचही | 2.99 | 0.81 |
99. | सरौनी उत्तर | 9.08 | 8.1 |
100. | सरौनी दक्षिण | 9.22 | 9.09 |
101. | भूमपुर | 9.17 | 8.1 |
102. | नवादा | 5.42 | 5.36 |
103. | भखराइन’ | 7.6 | -- |
104. | भखराइन रतुआर रहुआ | 14.511 | 21.01 |
105. | खरीक मधुसंग्राम | 4.74 | 4.36 |
106. | भेजा’ | 0.73 | -- |
107. | झगरुआ उत्तर | 6.74 | 3.31 |
108. | तरवारा कुबौल | 5.3 | 3.25 |
109. | बलथी खजुरी परसौनी | 22.13 | 17 |
110. | रसियारी परवलपुर | 6.1 | 5.83 |
111. | रसियारी कल्याण’ | 4.42 | -- |
112. | रसियारी बकुनिया | 8.2 | 2.02 |
113. | झगरुआ दक्षिण | 14.4 | 8.12 |
114. | तेतरी पूरब’ | 1.59 | -- |
115. | तेतरी मध्य’ | 0.98 | -- |
116. | तेतरी पश्चिम डंका | 2.44 | 2.44 |
117. | तेतरी जक्सो भुबौल | 18.4 | 14.68 |
118. | भुबौल’ | -- | -- |
119. | जमालपुर उत्तर | 6.05 | 2.45 |
120. | जमालपुर दक्षिण | 9.92 | 5.5 |
121. | अखतवारा उत्तर | 4.65 | 3.85 |
122. | अखतवारा दक्षिण | 4.2 | 2.83 |
123. | अमाही खैसा’ | 2.83 | -- |
124. | अमाही उत्तर’ | 4.24 | -- |
125. | अमाही दक्षिण | 3.07 | 3.07 |
126. | बहरामपुर | 8.7 | 6.48 |
127. | पुनाच गन्डौल | 12.06 | 8.82 |
128 | मल्लै गरौल बघवा | 2.39 | 2.39 |
129. | जल्लै पूरब | 12.34 | 8.5 |
130. | जल्लै मध्य | 4.08 | 1.55 |
131. | जल्लै पश्चिम | 36.85 | 23.77 |
132. | तरवाड़ा’ | 0.68 | -- |
133 | ब्रह्मपुर’ | 3.36 | -- |
134. | घोंघेपुर सहरवा | 25.37 | 21.18 |
योग लगभग | 1229.672 | 554.29 |
(ii) कॉलम 4, जल संसाधन विभाग, बिहार द्वारा मानवाधिकार आयोग, नई दिल्ली को दी गई सूचना (2001)
*वह गांव जहां पुनर्वास स्थल की जमीन के बारे में कुछ नहीं कहा गया है, अतः यह पुनर्वास पूरी तरह से आबाद होने चाहिये।
1. यह रकबा 21.01 हेक्टेयर से अधिक होना चाहिये।
2. पुनर्वास स्थलों के रकबे में विसंगति होने के कारण ‘लगभग’ लिखा गया है।
इस तालिका के अनुसार पूर्वी तटबन्ध के पूर्व में भीम नगर, चांद पीपर उत्तर, चांद पीपर दक्षिण, डभारी, महुआ, नेमुआ रामपुर, कम्हरौली, मोहनपुर तथा महिषी टीलाभाग के नौ पुनर्वास स्थलों पर कोई भी स्थान खाली नहीं है यानी इन पुनर्वासों में वह सभी लोग आबाद होने चाहिये जिन्हें यहाँ पुनर्वासित किया गया है। ऐसा ही एक पुनर्वास स्थल है मोहनपुर। यह गाँव महिषी को नवट्टा से जोड़ने वाली सड़क (?) के दोनों ओर बसा है। तटबन्धों के अन्दर फंसने वाले गढि़या कुन्दह रेवेन्यू मौजे के दो टोलों—फकिराही और परसबन्ना तथा रेवेन्यू मौजे मुहम्मदपुर के दो टोलों--मुहम्मदपुर और मिसिरौलिया को 40.20 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर के मोहनपुर गाँव में अलग-अलग पुराने नामों से ही पुनर्वास दिया गया था। तटबन्धों के निर्माण होने के साथ-साथ ही 1957 में इन टोलों में नदी ने कटाव करना शुरू कर दिया। दो-तीन साल तक तो इन गाँवों के लोग तटबन्धों के अन्दर ही इधर-उधर अपना अपना बिस्तर ‘उठाते और बिछाते रहे’ मगर 1960 के आस-पास इन लोगों को मजबूरन पुनर्वास में आना पड़ा। पुनर्वास में मिसिरौलिया की जमीन सबसे ऊपर थी सो वह लोग सबसे पहले आ कर बसे। परसबन्ना और फकिराही बीच में थे और सबसे सबसे निचली जमीन मुहम्मदपुर पुनर्वास की थी। यह भी एक इतिफाक ही था कि मूल गाँव में मुहम्मदपुर की जमीन सबसे बाद में कटी और जब इन लोगों को अपना गाँव छोड़ कर भागना पड़ा तब उनकी पुनर्वास की जमीन पर कमर भर पानी था। इसलिए यह लोग पुनर्वास में न जा कर तटबन्ध पर ही बस गये और आज भी (2006) वहीं हैं।
पुनर्वास स्थलों में जो दूसरे लोग आ कर बस गये या जिन्होंने ने दूसरी जगह पुनर्वास ले लिया, उनके बारे में भी कोई जानकारी उपलबध नहीं है। वैसी परिस्थिति में बिहार के जल-संसाधन विभाग को मानवाधिकार आयोग से यह कहना कि बरसात और बाढ़ के मौसम के बाद कृषि, मत्स्य-पालन और दूसरे आर्थिक क्रिया-कलाप बहुत आकर्षक हो जाते हैं वास्तव में तटबन्ध पीड़ितों के जख्मों पर नमक छिड़कने के अलावा दूसरा कुछ नहीं है।ले-दे कर फकिराही, परसबन्ना और मिसिरौलिया के लोग ही पुनर्वास में हैं और वह भी आधे-अधूरे। फकिराही के हाफिज ऐनुल हक (70) बताते हैं कि, ‘‘जिसका पूर्ण रूप से विनाश हो गया वही आदमी आपको पुनर्वास में मिलेगा। इस तटबन्ध की वजह से हम लोग दर-दर के भिखारी बन गये। हमारी तटबन्धों के अन्दर की जमीन या तो नदी में समा गई या उस पर बालू की मोटी परत पड़ी है। इस पुनर्वास में एक भी आदमी ऐसा नहीं होगा जिसके पास दस कट्ठा भी जमीन बची हो। यहाँ की हालत यह है कि यहाँ के सर्वे के नक्शे में यह पुनर्वास दिखाया गया है मगर उसमें हमारी जमीन कहाँ है इसका कोई जि़क्र नहीं है। हमारे पास जमीन का कोई कागज भी नहीं हैं। जो जहाँ है, बस वहाँ है। सुपौल के पुनर्वास के रिकार्ड में जमीन का नाम खतियान में दर्ज है, बस उतना ही। उस हालत में यह पुनर्वास अस्थाई है और इसका दफ्तर तो अस्थाई है ही। हमारे गाँव के बहुत से लोग कहाँ चले गये वह हम नहीं जानते और इसी तरह कितने ही लोग बाहर से आकर इस जमीन पर बस गये, उसका भी कोई हिसाब-किताब नहीं है। इन सब के बावजूद हमारे गाँव का कोई भी आदमी गरीबी रेखा के नीचे नहीं है मगर ट्रैक्टर, मोटर साइकिल और दुमंजिले मकानों वाले लोग इस लिस्ट में मौजूद हैं।... केदली, जहाँ 1984 में तटबन्ध टूटा था, के एक बासुदेव मेहता थे जो कि पुनर्वास के मसले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने की बात करते थे। वकील भी ठीक कर लिया था मगर वकील का कहना था कि कोई 80,000 रुपये खर्च होंगे। अब हम लोग इतना पैसा कहाँ से लाते? यह बहुत साल पहले की बात है। अब तो मेहता जी को गुजरे हुये कितना जमाना बीत गया। फिर भी अगर आप कहते हैं कि पूरा मोहनपुर पुनर्वास आबाद है तो हम क्या कह सकते हैं?’’
इसी तरह पश्चिमी तटबन्ध के पश्चिम में 16 ऐसे पुनर्वास स्थल बताये गये हैं जहाँ कि पुनर्वास की जमीन खाली नहीं है। इन गाँवों (पुनर्वास स्थलों) के नाम धरहरा ‘क’ धरहरा ‘ख’, डगमारा, निर्मली लछमिनियाँ, इनरवा, डेवढ़, भखराइन, भेजा, रसियारी कल्याण, तेतरी पूर्व, तेतरी मध्य, भुबौल, अमाही खैसा, अमाही उत्तर, तरवाड़ा और ब्रह्मपुर हैं। हमने नमूने के तौर पर घोघरडीहा प्रखण्ड के इनरवा पुनर्वास तथा निर्मली प्रखण्ड के निर्मली-लछमिनियाँ पुनर्वास का एक जायजा लिया।
इनरवा में गाँव वाले बताते हैं कि इस गाँव में बसुआरी, हरड़ी और बसखोड़ा गाँव के पुनर्वास के लिए 2.79 हेक्टेयर (6.85 एकड़) जमीन ली गई थी-यह तो बताने वाला अब कोई शायद बचा नहीं है मगर कहते हैं कि इनरवा के मुनिलाल मुखिया, चुन्नीलाल यादव, मुनिलाल यादव, रामलखन यादव, बिलट यादव और डेवढ़ के तारणी सिंह देव की जमीन पुनर्वास के लिए अधिगृहित की गई थी। 1961-62 के आसपास तटबन्ध के अन्दर के गाँव वाले यहाँ बसने के लिए आये जिसमें ज्यादातर लोग बसुआरी के थे। बसुआरी यहाँ से 4 किलोमीटर दूर पश्चिमी कोसी तटबन्ध और कोसी नदी के बीच फंसा हुआ था। इनरवा के ग्रामवासियों का मानना है कि बसुआरी गाँव वाले यहाँ आये जरूर और यहाँ घर भी बनाया मगर जल्दी ही वापस चले गये। यहाँ रहना उनके लिए मुमकिन भी नहीं था क्योंकि उनके खेत यहाँ से कम से कम 4 किलोमीटर दूर थे। इनरवा के सुखदेव यादव (62) बताते हैं कि उनके समेत चार लोग इनरवा पुनर्वास में बचे। सुखदेव यादव सरकारी कर्मचारी थे और तटबन्ध के अन्दर निघमा गाँव से सम्बद्ध थे तथा उनका पुनर्वास मुजौलिया टोल में मिला था जिसे उन्होंने अपने सम्पर्क से इनरवा में बदलवा लिया था और वहीं रह रहे हैं। उनके अलावा अपने ससुराल के सम्बन्ध से लक्ष्मी मुखिया को इनरवा में पुनर्वास मिला। देा अन्य लोग, हरड़ी के रसिक लाल यादव तथा सांघी के कवि पंडित का पुनर्वास भी बाद में प्रमाणित हुआ। बाकी लोग आये और गये। पुनर्वास की जमीन जब खाली होने लगी तो गाँव के लोगों ने ही इस पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया। कुछ लोगों ने घर बना लिए तो कुछ लोगों ने खेती शुरू कर दी। जिसकी जैसी ताकत उसका वैसा ही दखल और यह कब्जा हटाया नहीं जा सकता। कितनी बार निर्मली और सुपौल के पुनर्वास कार्यालय द्वारा दखल हटाये जाने की कोशिशें हुईं मगर कोई परिणाम नहीं निकला। जब तक पुनर्वास कार्यालय निर्मली में था तब तक खेती के लिए पुनर्वास की जमीन की बन्दोबस्ती होती रही जो कि अब बन्द है। घोघरडीहा से इनरवा जाने वाले रास्ते पर इनरवा गाँव में घुसते ही बाईं तरफ एक विश्वकर्मा मन्दिर पड़ता है। इसी मन्दिर के सामने सड़क की दूसरी तरफ खाली जमीन पड़ी है जिस पर कभी इनरवा पुनर्वास हुआ करता था। इस जमीन पर सुविधा और सामथ्र्य के अनुसार अतिक्रमण की छूट है। फिलहाल इस जमीन पर बसुआरी का कोई भी आदमी नहीं रहता मगर जल-संसाधन विभाग द्वारा मानवाधिकार आयोग को दी गई सूचना के अनुसार इस पुनर्वास में कोई खाली जमीन नहीं है।
। अब चलते हैं बसुआरी। यहाँ गाँव के बुर्जुग बताते हैं कि उन दिनों (1950 के दशक में) गाँव में तीन सौ-सवा तीन सौ परिवार रहे होंगे जोकि अब बढ़ते-बढ़ते 1600 के आस-पास हो गये हैं। जब तटबन्ध के कारण पुनर्वास की बात उठी तो बसुआरी के लगभग 300 परिवारों को पुनर्वास मिला बेलहा में और बाकी के 20-25 परिवारों को इनरवा में पुनर्वास दिया गया। दूरी अधिक होने के कारण इनरवा से तो सभी विस्थापित वहाँ जा कर तुरन्त ही वापस लौट आये मगर बेलहा पुनर्वास में अभी भी बसुआरी के 4 परिवार रहते हैं जिनके मुखिया के नाम नथुनी महतो, राम सेवक साव, फनिक लाल महतो और अनन्दा मंडल हैं। बसुआरी के ही जय कृष्ण यादव (58) का कहना है कि उनके पिता जी की पीढ़ी ने पुनर्वास में घर जरूर बनाया था मगर उसके अनुदान का सारा पैसा दलालों ने हड़प लिया था। जब किसी तरह की कोई सुविधा ही नहीं थी और पैसा भी नहीं मिला तब लोग रातों-रात अपना छप्पर-छानी उजाड़ कर पुनर्वास से वापस बसुआरी चले आए और इस तरह ‘‘पुनर्वास तो उड़ गया हवा में’’।
इसी से मिलती जुलती कहानी है निर्मली लछमिनियाँ पुनर्वास की जहाँ पूरा पुनर्वास आबाद बताया जाता है। यहाँ मनोहर पट्टी मौजा बड़हरा और पंचगछिया-दानों मरौना प्रखंड के गाँवों को पुनर्वास दिया गया था। बड़हरा यहाँ से 7 किलोमीटर की दूरी पर है इसलिए लोग आये और गये। यहाँ पुनर्वास की जमीन पर 1.26 हेक्टेयर (लगभग 3.15 एकड़) में निर्मली कॉलेज आबाद है और इस जमीन की रजिस्ट्री भी अब कॉलेज के नाम कर दी गई है और फिर भी कहा जाता है कि पुनर्वास खाली नहीं है। बाकी जमीन में कुछ लोग तो बड़हरा/पंचगछिया के अभी भी रहते हैं मगर अधिकांश पर, चाहे मान-मनौवल से हो या जबर दखल से, दूसरे-दूसरे लोगों का कब्जा है। इसी गाँव में सहरसा जिला परिषद के भूतपूर्व अध्यक्ष भूषण गुप्ता के परिवार को भी पुनर्वास मिला था और उनके वारिसों में से कुछ लोग यहाँ अभी भी रहते हैं पर अधिकांश लोग अपने मूल गाँव को वापस चले गये हैं।
उधर सुपौल के पुनर्वास कार्यालय के अधिकारियों का (अनौपचारिक रूप से) मानना है कि पुनर्वास स्थल आबाद हैं और अगर कोई जमीन खाली भी है तो उसकी बन्दोबस्ती खेती के लिए वार्षिक तौर पर किसानों के लिए कर दी जाती है और इस तरह से पुनर्वास जमीन का कोई भी हिस्सा खाली नहीं है। अनुलग्नक-1 में हम उन सभी गाँवों की प्रखण्डवार सूची दे रहे हैं जो कि तटबन्धों के अन्दर पड़ते हैं या जिन्हें तटबन्ध काटता है।
अब वह कोसी मुक्ति संघर्ष समिति हो या कोई भी ऐसा संगठन हो तो क्या करेगा? धरना, जलूस, प्रदर्शन, घेराव के साथ-साथ ज्यादा से ज्यादा चुनाव का बहिष्कार कर लेगा। वह भी 1999 में लोकसभा के चुनाव और 2000 के विधान सभा के चुनाव के समय कर के देखा जा चुका है। नेताओं को वोट चाहिए और वह इसके जवाब में अपनी आदत के अनुसार तसल्ली दे कर लोगों को बरगला कर चले गये।वास्तव में कोसी परियोजना में पुनर्वास का पूरा मसला बहुत ही पेंचदार हो गया है। किस गाँव में किन-किन गाँवों को पुनर्वास मिला, इसके बारे में कोई स्पष्टता नहीं है। पुनर्वास में जाने के बाद रोजी-रोटी की तलाश में जो लोग बाहर जाकर अपने गाँव वापस लौट आये उनके बारे में तो कुछ कहा भी जा सकता है मगर जो बाहर या दूसरी जगहों पर चले गये और लौट कर नहीं आये, उनके बारे में नाते-रिश्ते वाले भी नहीं जानते। पुनर्वास स्थलों में जो दूसरे लोग आ कर बस गये या जिन्होंने ने दूसरी जगह पुनर्वास ले लिया, उनके बारे में भी कोई जानकारी उपलबध नहीं है। वैसी परिस्थिति में बिहार के जल-संसाधन विभाग को मानवाधिकार आयोग से यह कहना कि ‘‘बरसात और बाढ़ के मौसम के बाद कृषि, मत्स्य-पालन और दूसरे आर्थिक क्रिया-कलाप बहुत आकर्षक हो जाते हैं’’ वास्तव में तटबन्ध पीड़ितों के जख्मों पर नमक छिड़कने के अलावा दूसरा कुछ नहीं है।
एम. एम. प्रसाद (1956) ने कोसी तटबन्धों के बीच परिवारों की कुल संख्या 45,291 बताई थी (खण्ड-8.5) और बिहार राज्य का जल संसाधन विभाग (2001) में पुनर्वासित व्यक्तिओं के परिवारों की संख्या केवल 39,527 बताता है जिसका मतलब है कि लगभ 6,000 परिवारों का पुनर्वास तो सरकार के खुद के ही हिसाब से नहीं हुआ। इसके अलावा जब एम. एम. प्रसाद ने घरों की संख्या गिनाई थी उस समय कोसी के पूर्वी तटबन्ध की महिषी से कोपड़िया और पश्चिमी तटबन्ध की भंथी से घोंघेपुर तक के विस्तार की बात ही नहीं थी। जाहिर है महिषी से लेकर कोपड़िया तक के कोसी और पूर्वी कोसी तटबन्ध के बीच फँसे परिवार इस 45,291 की संख्या से अतिरिक्त हैं। यही बात भंथी से घोंघेपुर के बीच फँसे परिवारों पर भी लागू होती है। जब तक तटबन्धों के बीच फँसे परिवारों की सही संख्या का निर्धारण नहीं हो जाता तब तक यह कैसे पता लगेगा कि सरकार ने अपने दायित्व का निर्वाह किस हद तक किया या नहीं किया? इसके अलावा कोसी परियोजना का फेज-I जब 1985 में समाप्त हुआ था तब तक केवल निर्माण कार्यों पर 180 करोड़ रुपया खर्च हुआ था जब कि परियोजना का प्रारंभिक और अनुमोदित एस्टीमेट 37.31 करोड़ रुपयों का था अर्थात फेज-I की समाप्ति पर मूल प्राक्कलन से करीब साढ़े चार गुना अधिक खर्च निर्माण कार्यों पर हुआ। जब चीज़ों के दाम इस कदर बढ़ रहे थे तब पुनर्वास की लागत में 2.12 करोड़ रुपयों के मुकाबले 2.27 करोड़ का ही खर्च कैसे हुआ। यह मूल्य वृद्धि पुनर्वास कार्यक्रमों में क्यों नहीं दिखाई पड़ती जबकि बहुत से गाँवों के पुनर्वास के लिए अभी तक जमीन का अधिग्रहण तक नहीं हुआ है। रमेश चन्द्र झा ने अपने बयान में इस तरह के बहुत से गाँवों के नाम गिनाये हैं।
बिहार सरकार के प्रतिवेदन को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने वापस कोसी मुक्ति संघर्ष समिति को भेजा (13 मई 2004) और उस पर उनकी राय मांगी। जवाब में समिति ने अन्य बहुत सी बातों के साथ संविधान के मौलिक अधिकार के अनुच्छेद (कानून के समक्ष सब की समानता) की बात उठाई है। इस पूरे मसले पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग अब पुनर्विचार कर रहा है और यह प्रक्रिया अभी जारी है। मसला बहुत ही साफ है, मेरा पड़ोसी मेरे घर के सामने की मेरी जमीन पर अपनी छत पर गिरने वाले बरसाती पानी को नहीं गिरा सकता तो फिर सरकार मेरे गाँव के ऊपर से कोसी जैसी 9 लाख क्यूसेक प्रवाह वाली नदी कैसे बहा देगी कि मेरे घर-बार सहित मेरी जीविका का स्रोत ही बह जाय? यह कहाँ का इन्साफ है? कोई भी सरकारी कर्मचारी क्यों मेरे गाँव को समाप्त (खत्म) गाँव कह कर सम्बोधित करेगा जहाँ कोई विकास का काम हो ही नहीं सकता? क्यों प्रखण्ड या चुनाव कार्यालय के नक्शों में तटबन्धों के भीतर के गाँवों पर पोचारा फेरा रहता है? क्यों हम किसी नेता या अधिकारी से यह नहीं कह सकते कि हमारे गाँव को सड़क से जोडि़ये और यहाँ स्कूल या अस्पताल बनवा दीजिये? संविधान के सामने हमारी सबसे बराबरी का क्या हुआ? हम अपने पुरुषार्थ से कमाते खाते थे। हम को क्यों रिलीफखोर के खिताब से नवाजा गया?
ऐसा सुन कर लगता है कि तटबन्धों के बाहर रहने वाले यह सब मांग रख सकते हैं। यह बात अगर कोसी के पश्चिमी तटबन्ध और कमला के पूर्वी तटबन्ध के बीच के तथाकथित बाढ़ से सुरक्षित निचले क्षेत्र के लोगों से की जाय तो वह आप की नादानी पर तरस खायेंगे। इंजीनियरिंग के मूर्खता और शरारतपूर्ण उपयोग का अगर कोई करिश्मा देखना हो तो आंख बंद कर कमला-कोसी के बीच के क्षेत्र में चले आइये। इस क्षेत्र के बारे में जानकारी अन्यत्र उपलब्ध है। अब वह कोसी मुक्ति संघर्ष समिति हो या कोई भी ऐसा संगठन हो तो क्या करेगा? धरना, जलूस, प्रदर्शन, घेराव के साथ-साथ ज्यादा से ज्यादा चुनाव का बहिष्कार कर लेगा। वह भी 1999 में लोकसभा के चुनाव और 2000 के विधान सभा के चुनाव के समय कर के देखा जा चुका है। नेताओं को वोट चाहिए और वह इसके जवाब में अपनी आदत के अनुसार तसल्ली दे कर लोगों को बरगला कर चले गये।
आशा की जाती है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इस पूरे मसले पर लोकहित में कोई निर्णय जरूर लेगा। इसके बाद तटबन्ध पीड़ितों के पास माथा टेकने के लिए केवल एक ही चैखट बचती है और वह है सोसाइटी फॉर प्रिवेन्शन ऑफ क्रुएलिटी टू ऐनिमल्स (SPCA) यानी जानवरों के प्रति निर्दयता के विरु( समिति, जिससे कहा जा सकता है कि वही कोई पहल करे। तटबन्धों ने यहाँ के बाशिन्दों को जानवरों के बराबर ला खड़ा किया है, जब वह आदमी रहे ही नहीं तब उन्हें वहीं फरियाद करनी चाहिए जहाँ उनकी सुनवाई हो सके।