प्रदूषण रोकने के लिए सभी वर्गों के लोग साथ आए/ ईपीडब्ल्यू में प्रकाशित:१९ फरवरी 18, 2006 पेज़( 587)/
यह केस स्टडी रिपोर्ट बयान करती है कि किस तरह अहमदाबाद के खारीकट नहर में विभिन्न उद्योगों द्वारा औद्योगिक कचरा फेंकने की समस्या पर काबू पाने के लिए हर वर्ग के लोग साथ आए। श्रीनिवास मुद्राकर्तास जतिन सेठ, जे श्रीनाथ
अहमदाबाद शहर एक समय भारत का मैनचेस्टर कहलाता था क्योंकि वहां सबसे अधिक कपड़ा मिले थीं। इसकी वजह से वहां पर डाई और डाई से संबंधित सामानों की बड़े पैमाने पर छोटी और मझोली औद्योगिक इकाइयां विकसित हुईं। इनमें से अधिकतर गुजरात औद्योगिक विकास निगम(जीआईडीसी) के माध्यम से गुजरात सरकार द्वारा विकसित औद्योगिक क्षेत्रों में विकसित हुईं। इनमें से चार क्षेत्र, नोरोदा, ओधव, वात्या और नारोल अहमदाबाद के पूर्वी किनारे पर हैं। इन इलाकों को सरकार ने सबसे पहले 60 के दशक के आख़िर और 70 के दशक के शुरूआती सालों में बढ़ावा दिया। उस समय औद्योगिक कचरे के हिसाब से जोन थे। लेकिन पर्यावरण की अनदेखी करते हुए औद्योगित कचरे के सुरक्षित निपटान की कोई व्यवस्था नहीं की गई।
औद्योगिक क्षेत्र के अधिकतर कारखानों में पानी का काफी इस्तेमाल होता है। वे औद्योगिक कचरा पास के खारीकट नहर में गिराते हैं जो साबरमती की सहायक खारी नदी में मिलती है। चूंकि नहर साल भर सूखी रहती है इसलिए सरकार इसके दुरुपयोग की उपेक्षा करती है। नारोदा और ओधव से निकलने वाला कचरा एक नहर में गिरता है जो एक नाले विनजोल वाहेला से जुड़ी है। वात्या औद्योगिक क्षेत्र में करीब 2000 उद्योग हैं जिनमें से कम से कम 500 प्रदूषक श्रेणी में आते हैं और वे नाले में भारी मात्रा में कचरा बहाते हैं। ( नारोदाः 3 एमएलडी, ओधवः 1.2 एमएलडी और वात्याः 16 एमएलडी)
गुजरात उच्च न्यायालय के आदेश के बाद तीनों औद्योगिक क्षेत्रों में आम उत्सर्जन शोधन संयंत्र (सीईपीटीपी) लगाए गए। सीईपीटीपी, मानक स्तर तक के पीएच, सस्पेंडे सॉलिड्स, (एसए), तेल एवं ग्रीस, रासायनिक ऑक्सीज़न मांग (सीओडी), जीवविज्ञानी ऑक्सीज़न मांग (बीओडी) का शोधन कर सकने में सक्षम हैं। लेकिन वे कुल घुले सॉलिड्स (टीडीएस), और भारी धातुओं के मामले में मानक स्तर तक शोधन नहीं कर पाते। ये सीईटीपी बहुत उपयोगी नहीं हैं क्योंकि इनका उपयोग करने वाले उद्योग स्वच्छ पर्यावरण के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी से मुंह मोड़ते हैं। जहां तक टीडीएस और भारी धातु का सवाल है गुजरात सरकार ने इसका निकाला है। इसके तहत सीईटीपी और अपनी द्वितीयक शोधन सुविधा वाले संयंत्र अपने उत्सर्जन एक बड़ी पाइपलाइन में गिराते हैं। यह पाइपलाइन पिराना अहमदाबाद नगर पालिका (एएमसी) के सीवेज शोधन संयंत्र में मिलती है। इस संयंत्र में शोधित होने वाले सीवेज से 50 गुना अधिक औद्योगिक उत्सर्जन मिलता है। अंत में सीवेज साबरमती नदी में बहा दिया जाता है। कहा जाता है कि यहां गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (जीपीसीबी) के सभी मानक पूरे होते हैं।
कुछ छोटी और मझौली औद्योगिक इकाइयां ट्यूबवेलों के माधयम से औद्योगिक कचरे को सीधे मद्यम और गहरे गड्ढ़ों में डाल रहे हैं। स्थानीय रुप से इसे ‘’ रिवर्स बोर तकनीक” कहते हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि 183 मीटर गहराई तक भूमिगत जल प्रदूषित हो गया। इन तीन औद्योगिक क्षेत्रों के करीब 110 गांव पिछले 20 सालों से प्रदूषित ‘रंगीन’ पानी को पीने के लिए अभिशप्त हैं। इनमें से 40 गांव खारीकट नहर और 70 गांव खारी नदी के किनारे बसे हैं। प्रभावित गांव के लोगों की सरकार और प्रदूषण नियंत्रण अधिकारियों के साथ बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला। अंत में अदालत ने प्रभावित गांवों को मुआवज़ा दिलाया। धन का इस्तेमाल स्वास्थ्य और आर्थिक विकास में होना था लेकिन गांववालों और सरकार में सहमति ही नहीं बन पाई कि पैसे का इस्तेमाल किस तरह किया जाना चाहिए।
खारी नदी अहमादाबाद जिले से लगे गांधीनगर के 20 किलोमीटर पूर्व में स्थित नांदोल पहाड़ियों से निकलती है। खेड़ा जिले की सीमा पर वाथुला के पास यह साबरमती की सहायक नदी मेशवो से मिलत है। मेशो 50 किलोमीटर दूर खेड़ा में साबरमती से मिलती है।
80 किलोमीटर लंबी कारीकट नहर रायपुर गांव से शुरू होती है। इसका निर्माण 100 साल पहले ब्रिटिश शासन में हुआ था ताकि अहमदाबाद जिले के दास्क्रोई तालुका और खेड़ा जिले के माहेमदावाद तालुका के 110 गांवों के 10,200 हेक्टेयर भूमि तक सिंचाई की सुविधा मुहैया कराई जा सके। इस समय हज़ारों एकड़ कृषि भूमि पर निर्भर करीब 5 लाख लोग वायु और भूमिगत जल प्रदूषण से प्रभावित हैं।
बीमार नदी, त्रस्त जनता
सीईटीपी लगाने के बावदूद समस्या पूरी तरह से हल नहीं हो सकी है। अब तो खारी नदी और नहर उद्योगों तथा खासकर किनारों के आसपास रहने वाले किसानों के बीच विवाद का कारण बन गई है। इन तीनों औद्योगिक क्षेत्रों में पर्याप्त और उचित निकासी व्यवस्था के अभाव में आसपास के इलाकों का सीवेज खारीकट नहर में गिराया जाता है। नारोदा और ओधव क्षेत्र अपने सीवेज को सोख़्ते और सीईटीपी से जुड़ी पाइपों या घरेलू सीवेज के लिए बनी निकासी पाइपों में गिराते हैं। लेकिन वात्या औद्योगिक क्षेत्र में समस्या सबसे अधिक गंभीर है क्योंकि वहां सीवेज प्रणाली ही नहीं है।
पिछले दो दशक से इस क्षेत्र के लोग भूमि और जल प्रदूषण का सामना कर रहे हैं। इन्हें त्वचा रोग, पेट और आंत की विभिन्न बीमारियां भी हो रही हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि इलाके में मच्छरों की तादाद बर्दास्त से बाहर है और छोटे बच्चे अक्सर रात भर रोते रहते हैं। प्रदूषित पानी ने निकलने वाली बदबू कोढ़ में खाज का काम करती है।
भूमिगत जल
प्रदूषण एक और गंभीर समस्या बन गई है। यह समस्या नदी में रात के दौरान अशोधित कचरे का अवैध रूप से छोड़ा जाने और ट्यूबवेल के माध्यम से ज़मीन के नीचे पहुंचाने से उभरी है। २००२-०३ के दौरान जब 183 मीटर गहरे बोर कुओं में प्रदूषित पानी निकलने लगा तो चौसर, गामड़ी, देयादी, रोपड़ा और विनडोल की पंचायतों ने 250 मीटर गहरे कुएं खुदवाए लेकिन जल्दी ही वहां से भी ‘रंगीन’ पानी निकलने लगा।
किसी अन्य वैकल्पिक स्रोत के अभाव में लोग वही प्रदूषित पानी पीने को मज़बूर हो गए बहुत से परिवारों को ट्यूबवेल से थोड़ा बेहतर पानी लाने के लिए लंबी दूरी तय करते हैं। पालतू पशुओं की मौत और दूध में कमी के कारण ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ा क्योंकि अतिरिक्त कमाई का स्रोत ख़त्म हो गया।
शादी ? जी नहीं, धन्यवाद
वायु और जल प्रदूषण के कारण लोगों के लिए कई तरह की सामाजिक समस्याएं भी पैदा हुईं। उदाहरण के लिए गामड़ी गांव में शादी के प्रस्तावों में लगातार कमी आती गई हैं। लड़कियों के परिवार को भय रहता है कि दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याएं और मुश्किल रोजाना जीवन से लड़कियों का जीवन मुश्किल हो जाएगा। खासकर पीने के पीने के लिए लंबी दूरी तय करने को लेकर वे अधिक चिंतित नज़र आते हैं। इसके अलावा भूमि के घटते उपजाऊपन से कृषि उत्पादों पर असर पड़ने लगा जिससे उनकी आय कम हो गई। इन सभी कारणों से गांव में जीना मुश्किल हो गया और बहुत से लोग अहमदाबाद शहर की ओर पलायन कर गए।
घटनाक्रम
1978: प्रभावित गावों के लोगों ने सरकार के सामने अपनी समस्याएं रखनी शुरू कीं। 1988-89: गांववालों के एक समूह ने हस्तक्षेप की गुहार लगाते हुए गुजरात उच्च न्यायालय में एक याचिका (विशेष दीवानी आवेदन नंबर 1989 का 7063 और 1989 का 598) दायर की। 1995: खेड़ा जिले में मातर तालुका के नवागांव के दो लोग (एक कलमबंदी१) ने सरकार की निष्क्रियता के ख़िलाफ़ उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (विशेष दीवानी आवेदन नंबर 1995 का 770) दायर की।
1995: गुजरात उच्च न्यायालय ने एक बेहद महत्वपूर्ण आदेश जिसके मुताबिक “प्रदूषक भुगतान करे”। आदेश के मुताबिक “खेड़ा जिले के ११ गांव और दास्क्रोई और माहेमदावड़ तालुका के लाली, नवगाम, बिदज, सारसा, असलाली, जेतलपुर, बारेजा, विनजोल और वात्वा गांव भी लगातार कई सालों से प्रदूषण से बुरी तरह प्रभावित रहे हैं, ऐसे में 765 औद्योगिक इकाइयों को मिलकर मोटी राशि का भुगतान करना चाहिए। इन इकाइयों की 1993-94 या 1994-95 की सकल कारोबार के एक फीसदी में से जो भी ज़्यादा हो, उसे पर्यावरण मंत्रालय द्वारा लेकर प्रभावित गांवों के सामाजिक-आर्थिक बेहतरी और शैक्षिक, स्वास्थ्य और पशु चिकित्सा के लिए ख़र्च की जानी चाहिए।“ (अंतिम निर्णय, पेज 114-बिंदु १२)
1998: अधिकतर बंद पड़ी इकाइयों को तभी दोबारा काम शुरू करने की इजाज़त दी गई जब उन्होंने प्राथमिक शोधन संयंत्र लगा लिए और अदालत को लिखित आश्वासन दिया कि वे द्वितीयक शोधन की ज़िम्मेदारी उठाएंगे। चाहे इसके लिए उन्हें खुद व्यस्था करनी पड़े या सीईटीपी के माध्यम से । 1999: साल के अंत तक तीनों औद्योगिक क्षेत्रों में सीईटीपी की व्यवस्था कर ली गई ताकि छोटे उद्योगों में द्वितीयक स्तर का शोधन हो सके। यह पानी की रोज़ाना 25 किलोलीटर से कम खपत वाले उद्योगों के लिए कारगर थी। पानी की रोज़ाना 25 किलोलीटर से अधिक खपत करने वाली इकाइयों ने खुद ही द्वितीयक शोधन प्लांट लगाए।
2000: 2000-01 के दौरान अहमदाबाद नगर पालिका ने उद्योगों के सहयोग से एक बड़ी पाइपलाइन बिछाई। यह बड़ी पाइपलाइन मुख्यतः जीआईडीसी के तीनों औद्योगिक क्षेत्रों के औद्योगिक उत्सर्जन को ले जाती है। यह गुजरात वाणिज्य और उद्योग मंडल यानी गुजरात वेपारी महामंडल वसाहत लिमिटेड द्वारा स्थापित ओधव औद्योगिक क्षेत्र और नारोल स्थित औद्योगिक क्षेत्र के कचरे को भी ले जाती है। शोधित उत्सर्जन को पिराना में साबरमती में गिराया जाता है जहां एएमसी द्वितीयक शोधन के बाद सीवेज भी गिराती है। साबरमती में गिराए जा रहे शोधित सीवेज में औद्योगिक उत्सर्जन भी घुले रहते हैं।
2002: सरकार ने नहर को और चौड़ी कर दिया ताकि इससे बारिश का ज्यादा से ज्यादा पानी बह सके और बाढ़ न आए। इसके अलावा सरकार ने नर्मदा के पानी को भी नहर से जोड़ दिया ताकि इसमें साल भर पानी रहे। इससे खारीकट नहर की समस्या लगभग हल हो गई है। आसपास के इलाकों के घरेलू सीवेज और एएमसी की बड़ी पाइपनाइन से कभी कभी होने वाले रिसाव की समस्या अभी बनी है।
2004: कोष के सही उपयोग में अदालत के हस्तक्षेप की मांग को लेकर गांववालों ने एक नयी जनहित याचिका (2004 की एससीए नंबर 4690) दायर की। अदालत ने गांववालों की अनसुलझी समस्याओं को लेकर एक एनजीओ2 द्वार मुख्य न्यायाधीश को लिखी चिट्ठी पर भी स्वतः संज्ञान (2004 की एससीए नंबर 9618) लिया। उद्योगों पर कार्यरत एक समूह की रिपोर्ट को मुख्य सहायक दस्तावेज़ बनाया गया।
नवंबर 2004: गुजरात सरकार ने ख़ासतौर पर खारी नदी और नहर के प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक उच्च अधिकार प्राप्त समिति का गठन किया। इस समिति में जिलाधिकारी के अलावा औद्योगिक संगठनोंस एएमसी, अहमदाबाद शहरी विकास एजेंसी(एयूडीए), जीआईडीसी, जीपीसीबी, सिंचाई, उद्योग और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के प्रतिनिधि शामिल थे।
बचाव की दिशा में एनजीओ की पहल
हालांकि खारीकट नहर औद्योगिक प्रदूषण से लगभग मुक्त हो चुकी थी, लेकिन खारी नदी में अभी भी औद्योगिक कचरा बना हुआ था। इसका कारण हैः
बड़ी पाइपलाउन से जुड़े कुछ मेनहोलों से अक्सर औद्योगिक उत्सर्जन बहने लगता था। वात्या की कुछ औद्योगिक इकाइयों सीईटीपी में शोधन का खर्च बचाने के लिए रात में टैंकरों से औद्योगिक कचरा विनडोल वाहेला में फेंक देती थीं।
गांवों में बड़ी संख्या में बोर कुओं से अभी भी प्रदूषित पानी निकलता है। बारिश के पानी के संरक्षण यानी रेन हार्वेसिंग से कुछ सालों में शायद भूमिगत जल के प्रदूषण में कुछ हद तक कमी आ सके। सामाजिक-आर्थिक विकास कार्यक्रम के बारे में सरकार और प्रभावित गांव के लोगों में अभी तक सहमति नहीं बन पाई है। अदालत के आदेश के बाद मुआवजे के रूप में ब्याज सहित मिले 18 करोड़ रुपए का इस्तेमाल अभी नहीं हो सका है।
2003 में विक्रम साराभाई संवाद विकास केंद्र ने प्रदूषण की समस्या को समझने के लिए 5 गावों का अध्ययन किया। दिसंबर २००३ में नारोदास ओधव, वात्या ओर नारोल को केंद्र में रखाकर साबरमती स्टेकहोल्डर्स फोरम (एसएसएफ) के एक उपसमूह ने एक कोर समूह का गठन किया। एएएफ उद्योग कोर समूह और की नियमित मासिक बैठकों में भूमिगत जल , खारी नदी और खारीकट नहर के प्रदूषण के बारे में हुई चर्चाओं से सदस्यों को कार्रवाई करने में मदद मिली। सरकारी विभागों ने भी आंकड़े मुहैया कराकर, बैठकों में शिरकत और अपने विचार प्रकट करके अपना सहयोग देना शुरू किया। एक कार्यकारी समूह की स्थापना की गई और उसने 25 किलोमीटर के दायरे में नदी और नहर का दौरा किया। पानी के नमूनों को एकत्रित कर उनका विश्लेषण किय गया। कोर समूह की बाद की बैठकों में रिपोर्ट पर चर्चा हुई। बाद में इसे जीपीसीबी को सौंपी गई। इसके साथ ही मासिक बैठकों के ब्योरों को सभी सदस्यों के साथ साझा किया गया।
समस्या बनी हुई है…
वहां तीन मुख्य समस्याएं हैं। पहली यह कि कुछ कारखानों ने सहयोग करने से इनकार कर दिया और वे नदी में अशोधित कचरे को लगातार फेंकते रहे। दूसरी समस्या नारोदा और ओधव औद्योगिक क्षेत्रों में बड़ी पाइपलाइन में रिसाव की है। तीसरी यह कि सरकारी निगरानी और नियंत्रण नाकाफी है। जबकि उद्योगों की ओर से इस समस्या के निदान के लिए गंभीर प्रयास होने चाहिए थे, वे किसी मामले की जानकारी प्रदूषण अधिकारियों को देकर निश्चिंत हो जाते हैं। उद्योग जगत की ओर से बड़े भावुक किस्म के तर्क सामने आते हैं। मसलन उद्योग लोगों को नौकरियां देकर राज्य, देश और लोगों के आर्थिक विकास में योगदान देते हैं। इसलिए सरकार कारखानों के कचरे की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए। सीवेज शोधन में आने वाली अतिरिक्त लागत से उनके मुनाफ़े में सेध लग रही है। वैश्विक प्रतियोगी बाज़ार के नज़रिए से यह एक मुश्किल स्थिति है। मिट्टी और भूमिगत जल को हुए नुकसान से उत्पादकता को नुकसान पहुंचा है। प्रदूषण के कारण उपजी समस्याओं के कारण घरेलू अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है। इसके साथ ही स्वास्थ्य और सामाजिक समस्याएं भी उपजी हैं। कुल मिलाकर आय के स्रोतों को बड़ा नुकसान पहुंचा है और उद्योग बंद होने की स्थिति में पैदा होने वाली बेरोज़गारी के मुक़ाबले दीर्घकालिक मुश्किलें बढ़ी हैं।
…लेकिन उम्मीद अब भी बाकी है
उद्योग कोर समूह की बैठक में कई सरकारी विभागों की भूमिका उत्साहजनक रही है। इस सकारात्मक नज़रिए ने स्टेकहोल्डर्स फोरम को मज़बूती दी। इसके बाद नवंबर 2004 में राज्य के मुख्य सचिव के नेतृत्व में खारी नदी के प्रदूषण पर गठित उच्चाधिकार प्राप्त समिति से भी सही संदेश गया। अभी तक एसएसएफ एस समिति की सदस्य नहीं है। अगर दोनों समूह साथ-साथ आकर काम करें तो यह सही दिशा में उठाया गया एक और कदम होगा।
विभिन्न सरकारी विभाग विभागों सहित अधिकतर संबंधित पक्षों गांववालों की समस्याओं के समाधान के प्रति गंभीर रुख अपनाया है। अख़बार भी लोगों के विचार सामने रखकर अपनी भूमिका निभा रहे हैं। उम्मीद की किरणें अब भी बाकी हैं और संवाद प्रक्रिया आगे बढ़ी है। गांववाले प्रदूषण की समस्या के हर पहलू से निजात दिलाने की प्रार्थना कर रहे हैं। उनकी कुछ बुनियादी ज़रूरते हैं। इनमें सबसे प्रमुख है पीने का साफ़ पानी। हर तरह के प्रदूषण के ख़ात्में के बाद ही पालतू पशुओं की समस्या दूर हो सकती है। उन्हें उम्मीद है कि नगर पालिका गांववालों को पीने का साफ़ पानी मुहैया कराएगी। उनकी यह भी मांग है कि कड़े कदम उठाकर भूमिगत जल के प्रदूषण को रोका जाए। मिट्टी का उपजाऊपन बेहतर करने के लिए तकनीकी सहयोग दिया जाना चाहिए। आसपास के इलाकों में मुफ्त या सस्ती चिकित्सा सेवाएं मुहैया करानी चाहिए। एक विशेष बुनियादी ढांचा विकास कोष बनाना चाहिए जिससे अच्छी सड़कें, स्कूल, जल निकासी व्यवस्था, सार्वजनिक प्रसाधन, एक सामुदायिक केंद्र और एक पुस्तकालय बनाया जा सके।
आगे दी गई योजनाओं को लागू करने के लिए एक कार्यक्रम क्रियान्वयन और निगरानी समिति का गठन किया जाना चाहिए। इसके लिए गैर सरकारी संगठनों का भी सहयोग लिया जाना चाहिए।
वैज्ञानिक आधार पर कृत्रिम तरीकों सूखे कुओं, तालाबों, टैंकों का इस्तेमाल करते हुए भूमिगत जल की गुणवत्ता सुधारने की कोशिश की जानी चाहिए। विकसेट के पास पुष्ट किए जा सकने वाले आंकड़े हैं। [मुद्राकर्ता 2004].
किसानों को बोर कुओं के लिए सब्सिडी दी जानी चाहिए ताकि कुओं को मज़बूती से बनाया जाए और भविष्य में बोर कुएं की पाइप को टूटे से बचाया जा सके।
प्रदूषण से प्रभावित लोगों को चिकित्सा सुविधा के साथ उचित मुआवज़ा पैकेज दिया जाना चाहिए।
स्टेकहोल्डर्स फोरम के कारण यहां के लोगों को 25 साल के लंबे इंतज़ार के बाद ही सही आख़िरकार उम्मीद की किरणें नज़र आने लगी हैं।
ईमेल: mail@viksat.org
स्पष्टीकरण
1 कलमबदी (समझौते से बंधे) ऐसे गांव हैं जिनका ब्रिटिश सरकार से सिंचाई के लिए खारीकट नहर के पानी का इस्तेमाल करने के लिए क़रार था।
2 एसएसएफ उद्योग कोर समूह का भी सदस्य
3 कोर समूह में चारों औद्योगिक संगठनों के अध्यक्ष और सचिव, नारोदा और वात्वा के सीईपीटी के प्रतिनिधि, कंज़्यूमर एजुकेशन एंड रिसर्च काउंसिल, सेंटर फॉर इनवार्नमेंट एजुकेशन और सेंटर फॉर सोशल जस्टिस जैसे गैर सरकारी संगठन और सरकारी विभाग/एजेंसियों मसलन गुजरात जल संसाधन विकास निगम, गुजरात भूमिडल विभाग, गुजरात प्रदूषण नियंण बोर्ड, अहमदाबाद नगर पालिका, अहमदाबाद शहरी विकास प्राधिकरण आदि के प्रतिनिधि भी शामिल थे। इसके अलावा इसमें कुछ वकील, वैज्ञानिक, आर्किटेक्टस इंजीनियर, भूवैज्ञानिक और विभिन्न शोध एवं अकादमिक संस्थानों जैसे फिजिकल रिसर्च लैब्रोटरी, अहमदाबाद टेक्सटाइल एंड इंडस्ट्री रिसर्च एसोसिएशन के सामाजिक वैज्ञानिक भी शामिल थे।
संदर्भ
मुद्राकर्ता एस, S (2004): 'एनश्योरिंग वाटर सिक्युरिटी दो रेनवाटर हार्वेस्टिंग : ए केस स्टडी ऑफ सारगासन, गुजरातक, वाटर नेपाल, खंज 11, संख्या 1 पेज़ 75-83, अगस्त-जनवरी
‘वाटर कॉन्फिक्टस इन इंडिया-ए मिलियन रिवोलट्स इन दे मेकिंग’-टेलर एंड फ्रांसिस बुक्स इंडिया प्रा. लिमिटिड में प्रकाशित।