इन दिनों दिल्ली को सटे हुए महानगर गाजियाबाद से जोड़ने के लिये मेट्रो का काम चल रहा है। 1857 के गदर से लेकर आज तक गाजियाबाद से दिल्ली के बीच हर समय हिण्डन नदी एक बड़ी चुनौती रही है। चटपट नदी के रहे-बचे बहाव को रोककर खम्भे बना दिये गए, हालांकि राष्ट्रीय हरित अभिकरण पहले कई बार आदेश दे चुका है कि हिण्डन के प्रवाह क्षेत्र से छेड़छाड़ ना की जाये। लेकिन लगता है कि इलाके का विकास हिण्डन की बलि देकर ही सम्भव होगा।
देश की राजधानी दिल्ली के दरवाजे पर खड़े गाजियाबाद में गगनचुम्बी इमारतों के नए ठिकाने राजनगर एक्सटेंशन को दूर से देखो तो एक समृद्ध, अत्याधुनिक उपनगरीय विकास का आधुनिक नमूना दिखता है, लेकिन जैसे-जैसे मोहन नगर से उस ओर बढ़ते हैं तो अहसास होने लगता है कि समूची सुन्दर स्थापत्यता एक बदबूदार गन्दे नाबदान के किनारे है।
जरा और ध्यान से देखें तो साफ हो जाता है कि यह एक भरपूर जीवित नदी का बलात गला घोंट कर कब्जाई जमीन पर किया गया विकास है, जिसकी कीमत फिलहाल तो नदी चुका रही है, लेकिन वह दिन दूर नहीं जब नदी के असामयिक काल कवलित होने का खामियाजा समाज को भी भुगतना होगा। गाँव करहेड़ा के लोगों से बात करें या फिर सिंहानी के, उन सभी ने कोई तीन दशक पहले तक इस नदी के जल से साल भर अपने घर-गाँव की प्यास बुझाई है।
यहाँ के खेत सोना उगलते थे और हाथ से खोदने पर जमीन से शीतल-निर्मल पानी निकल आता था। हिण्डन की यह दुर्गति गाजियाबाद में आते ही शुरू हो जाती है और जैसे-जैसे यह अपने प्रयाण स्थल तक पहुँचती है, हर मीटर पर विकासोन्मुख समाज इसकी साँसें हरता जाता है।
इस समय देश में इस बात को लेकर हर्ष है कि सदी का सबसे बेहतरीन मानसून इस बार हो सकता है। लेकिन सहारनपुर से लेकर ग्रेटर नोएडा तक के कई सौ गाँव व शहर इस खबर से भयभीत हैं- यदि ढंग से बारिश हो गई व हिंडन उफन गई तो हजारों लोग बेघर हो जाएँगे व बाढ़ की तबाही को रोकना इंसान के बस का नहीं होगा।
हिंडन का पुराना नाम हरनदी या हरनंदी है। इसका उद्गम सहारनपुर जिले में हिमालय क्षेत्र के ऊपरी शिवालिक पहाड़ियों में पुर का टंका गाँव से है। यह बारिश पर आधारित नदी है और इसका जल विस्तार क्षेत्र सात हजार वर्ग किलोमीटर से ज्यादा है। यह गंगा और यमुना के बीच के दोआब क्षेत्र में मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर और ग्रेटर नोएडा का 280 किलोमीटर का सफर करते हुए दिल्ली से कुछ दूर तिलवाड़ा में यमुना में समाहित हो जाती है।
रास्ते में इसमें कृष्णा, धमोला, नागदेवी, चेचही और काली नदी मिलती हैं। ये छोटी नदियाँ भी अपने साथ ढेर सारी गन्दगी व रसायन लेकर आती हैं एवं हिंडन को और जहरीला बनाती हैं। कभी पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जीवनरेखा कहलाने वाली हिण्डन का पानी इंसान तो क्या जानवरों के लायक भी नहीं बचा है। इसमें ऑक्सीजन की मात्रा बेहद कम है।
लगातार कारखानों का कचरा, शहरी नाले, पूजन सामग्री और मुर्दों का अवशेष मिलने से मोहन नगर के पास इसमें ऑक्सीजन की मात्रा महज दो-तीन मिलीग्राम प्रति लीटर ही रह गई है। करहेड़ा व छजारसी में इस नदी में कोई जीव-जन्तु शेष नहीं हैं, हैं तो केवल काईरोनास लार्वा। सनद रहे दस साल पहले तक इसमें कछुए, मेंढक, मछलियाँ खूब थे।
बीते साल आईआईटी दिल्ली के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के छात्रों ने यहाँ तीन महीने शोध किया था और अपनी रिपोर्ट में बताया था कि हिंडन का पानी इस हद तक विषैला होगा या है कि अब इससे यहाँ का भूजल भी प्रभावित हो रहा है।
इधर उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का दावा है कि हिण्डन में जहर घुलने का काम गाजियाबाद में कम होता है, यह तो यहाँ पहले से ही दूषित आती है। बोर्ड का कहना है कि जनपद में 316 जल प्रदूषणकारी कारखाने हैं जिसमें से 216 एमएलडी गन्दा पानी निकलता है, लेकिन सभी इकाइयों में ईटीपी लगा है।
इन दावों की हकीकत तो करहेड़ा गाँव में आ रहे नाले से ही मिल जाती है, असल में कारखानों में ईटीपी लगे हैं, लेकिन बिजली बचाने के लिये इन्हें यदा-कदा ही चलाया जाता है। हिण्डन का दर्द अकेले इसमें गन्दगी मिलना नहीं है, इसके अस्तित्व पर संकट का असल कारण तो इसके प्राकृतिक बहाव से छेड़छाड़ रहा है।
कभी पंटून पूल वाला रास्ता कहलाने वाले इलाके में करहेड़ा गाँव के पास बड़ा पुल बनाया गया, ताकि नई बस रही कालोनी राजनगर एक्सटेंशन को ग्राहक मिल सकें। इसके लिये कई हजार ट्रक मिट्टी-मलबा डालकर नदी को संकरा किया गया और उसकी राह को मोड़ा गया। मामला नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में भी गया। एनजीटी ने एक पिलर बनाने के साथ-साथ कई निर्देश भी दिये। इस लड़ाई को लड़ने वाले धर्मेन्द्र सिंह बताते हैं कि बिल्डर लॉबी इतनी ताकतवर है कि उसकी शह पर सरकारी महकमे भी दबे रहते हैं और एनजीटी के आदेशों को भी नहीं मानते हैं।
यही नहीं बीते दस सालों में अकबरपुर-बहरामपुर, कनावनी गाँव के आसपास नदी सूखी नहीं कि उसकी जमीन पर प्लाट काटकर बेचने वाले सक्रिय हो गए। कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसे लोग रसूखदार होते हैं। आज कोई 10 हजार अवैध निर्माण हिण्डन के डूब क्षेत्र में सिर उठाए हैं और सभी अवैध हैं। स्थानीय प्रशासन ने इन अवैध निर्माणों को जल-बिजली कनेक्शन दे रखा है।
एनजीटी ने इन निर्माणों को हटाने के आदेश दिये हैं तो लोग इसके विरुद्ध हाईकोर्ट से स्टे ले आये। करहेड़ा में तो सरकारी बिजलीघर का निर्माण भी डूब क्षेत्र में कर दिया गया। जिले का हज हाउस भी नदी के डूब क्षेत्र में ही खड़ा कर दिया गया।
पर्यावरण के लिये काम कर रहे अधिवक्ता संजय कश्यप बताते हैं कि अभी कुछ साल पहले तक इसका जल प्रवाह दोनों सिरों पर चार-चार सौ मीटर था जो अब सिकुड़कर कुल जमा दो सौ मीटर रह गया है।
हिण्डन को समेटने का काम कुछ साल से नहीं हो रहा है, बल्कि जैसे-जैसे दिल्ली की बढ़ती आबादी को अपने यहाँ खपाने के लिये गाजियाबाद का अनियोजित विकास होता गया, वैसे-वैसे हिंडन तिल-दर-तिल मरती रही। पिछले दिनों हिण्डन के किनारे बसे मेरठ जिले के आलमगीरपुर व गाजियाबाद के सुठारी में हुई पुरातत्व खुदाई में हड़प्पा काल के अवशेष मिले हैं। इतिहासविद सम्भावना व्यक्त करते हैं कि हड़प्पा कालीन नगरों में जल की आपूर्ति इसी नदी से होती थी। लेकिन आज यह नदी एक बदबूदार नाला बन चुकी है।
चार दरवाजों के बीच बसे पुराने गाजियाबाद को कई दशक पहले जीडीए कार्यालय के सामने पुश्ता बनाकर समेटा गया। फिर पटेल नगर, लोहिया नगर आदि के लिये शिब्बनपुरा पर पुल बनाया, उससे नदी का रहा-बचा स्वरूप नष्ट हो गया। इसके बाद राष्ट्रीय राजमार्ग-58 और राजनगर एक्सटेंशन के पुल ने नदी का नामों-निशान मिटा दिया। असल में आज हिण्डन के नाम पर जो बह रहा है वह केवल कारखानों और नालों का दूषित पानी है।
कुल मिलाकर इसमें 80 गन्दे नाले गिर रहे हैं। सबसे पहला नाला सहारनपुर में स्टार पेपर मिल का है। मुजफ्फरनगर के मंसूरपुर औद्योगिक क्षेत्र का विशाल नाला इसकी सहायक नदी काली में गिरता है। गाजियाबाद में आठ बड़े नालों की गन्दगी इसकी मौत का परवाना लिख देती है। लोनी ट्रोनिका सिटी औद्योगिक क्षेत्र का नाला गाँव जावली होते हुए फर्रखनगर में गिरता है तो उससे कुछ सौ मीटर दूर ही करहेड़ा में मोहन नगर इंडस्ट्रियल एरिया की गन्दगी इसमें मिल जाती है।
श्मशान घाट के पास गाजियाबाद शहर की 10 लाख से ज्यादा आबादी की पूरी गन्दगी लेकर आने वाला नाला बगैर किसी परिशोधन के हिण्डन का अस्तित्व मिटाता है। इससे आगे इंदिरापुरम, विजयनगर, क्रॉसिंग रिपब्लिक आदि में नई बस्तियों की गन्दगी सीधे इसमें मिलती है। कुल मिलाकर यह अब गन्दगी ढोने का मार्ग बन गई है। इसमें से इंदिरापुरम के नाले का ही पानी ऐसा है जो एक एसटीपी से होकर आता है।, हालांकि उसकी क्षमता पर सवाल खड़े हैं।
प्रशान्त वत्स ‘हरनंदी कहिन’ नाम से एक मासिक पत्रिका निकालते हैं और वे हिण्डन नदी के किनारे रहने वाले लोगों को इसके पर्यावरण के प्रति जागरूक बनाने की मुहिम चला रहे हैं। प्रशान्त वत्स बताते हैं कि हिण्डन नदी के शुद्धिकरण का मसला हर चुनाव में उछाला जाता है, हर बार कुछ धनराशि भी व्यय होती है, लेकिन हिण्डन की मूल समस्याओं को समझा नहीं जाता है। एक तो इसके नैसर्गिक मार्ग को बदलना, दूसरा इसमें शहरी व औद्योगिक नालों का मिलना, तीसरा इसके जलग्रहण क्षेत्र में अतिक्रमण- इन तीनों पर एक साथ काम किये बगैर नदी का बचना मुश्किल है।
हाँ यह तय है कि जिस तरह से नदी के इलाके में कंक्रीट की लहरें पिरोई जा रही हैं, वे जल्द ही बड़े संकट का इशारा कर रही हैं। एक तो नदी के डूब क्षेत्र की जमीन भीतर से दलदली होती है, दूसरा नदी अपने प्राकृतिक मार्ग पर हर समय टकराती रहती है। अब यहाँ बीस-बीस मंजिल की खड़ी इमारतें एक फुसफुसी, कीचड़ वाली जमीन पर तनी हैं, जिन्हें नीचे से गहराई में पानी की चोट भी लग रही हैं। यह इलाका भूकम्प के लिये बेहद संवेदनशील है।
दिल्ली के गाँधी नगर व यमुना पार की कई कालोनियों के उदाहरण साामने हैं जहाँ, यमुना का जलस्तर बढ़ने पर बेसमेंट में सीलन आई व भवन गिर गए। साथ ही यहाँ के भूजल का स्तर नीचे गिरने व उसके जहरीले होने की जो रफ्तार है उससे साफ जाहिर है कि भले ही नदी की जमीन घेरकर भवन बना लो, लेकिन इंसानी जीवन के लिये जरूरी जल कहाँ से लाओगे।
इंसान के लालच, लापरवाही ने हिण्डन को ‘हिण्डन’ बना दिया है लेकिन जब नदी अपना रौद्र रूप दिखाएगी तब मानव जाति के पास बचाव के कोई रास्ते नहीं मिलेंगे। एक बात और सरकार भले ही यमुना के प्रदूषण निवारण की बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाए, जब तक उसमें मिलने वाली हिण्डन जैसी नदियाँ पावन नहीं होंगी, सारा श्रम व धन बेमानी ही होगा।
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