भोग संस्कृति के विकास से संकट में है धरती

Submitted by RuralWater on Sun, 06/19/2016 - 12:19


.भारतीय ज्ञापनीठ की पहचान प्राय ‘स्तरीय कथा साहित्य प्रकाशित करने वाली संस्था के तौर पर होती है, लेकिन हाल ही में उन्होंने प्रकृति पर मँडरा रहे अस्तित्व के संकट की ओर आम लोगों का ध्यान आकृष्ट करवाने के उद्देश्य से ‘ज्ञान गरिमा’ पुस्तकमाला के अन्तर्गत पर्यावरण से जुड़े कुछ आलेखों का संकलन प्रकाशित किया है।

पुस्तक चेतावनी देती है कि अपने साथ मनमाना व्यवहार करने से कूपित प्रकृति किसी भी दिन दबे पाँव आकर, धरती को बुरी तरह कँपाकर तबाही मचा सकती है। जैसे नेपाल के भूकम्प और उत्तराखण्ड में जल प्लावन ने हजारों लोगों को असामयिक मौत के घाट उतार दिया था।

पुस्तक के आलेख भूकम्प की विभीषिका, तालाबों के संरक्षण, धरती के बढ़ते तापमान आदि की चर्चा करते हैं और बताते हैं कि हम भले ही प्राकृतिक आपदाओं के लिये किसी अदृश्य शक्ति को देाष दें, लेकिन वास्तव में यह इंसान की ही गलतियों का परिणाम है। संकलन में अनुपम मिश्र, देवेन्द्र मेवाड़ी, गोपाल कृष्ण गाँधी, उमेश चौहान, सन्तोष चौबे, पंकज चतुर्वेदी, विष्णु नागर और आलोक प्रभाकर के कुल 11 आलेख हैं।

संकलन के सम्पादक लीलाधर मंडलोई की भूमिका अपने-आप में पर्यावरण पर केन्द्रित तथ्यों का खजाना है। अन्त में परिसंवाद खण्ड में कई ख्यातिलब्ध लेखकों-विचारकों की टिप्पणियाँ भी हैं। अनुमान है कि धरती पर हर साल औसतन पाँच लाख भूकम्प आते हैं। विज्ञान अभी तक कोई ऐसा उपकरण नहीं बना पाया है जो भूकम्प की अग्रिम चेतावनी दे सके। इंसान असहाय सा अपनी दुनिया लुटते-बिखरते देखता रह जाता है। ऐसे में कोई भी शहर या कस्बा चाहकर भी ऐसी आपदा से निबटने की तैयारी कर नहीं सकता। अलनीनो, हुदहुद या सूनामी तबाही के कुछ ऐसे नए नाम हैं जो मानवता के लिये खतरा बने हैं। संकलन में भूकम्प पर चार आलेख हैं जोकि बताते हैं कि भूकम्प के खतरे नई बस रही बस्तियों पर क्यों ज्यादा मँडरा रहे हैं। हमने छेड़खानी करके प्रकृति की आत्मा को छलनी कर दिया है। भूकम्प उसकी वजह से आते हों या न आते हों, हमने इस वजह से धरती के विनाश के असंख्य रास्ते खोल दिये हैं।

बदलता मौसम, धरती का बढ़ता तापमान किस तरह से धरती पर इंसान के अस्तित्व के लिये खतरा है और यह हालत निर्मित करने में इंसान की विकास-गाथा कहाँ तक जिम्मेदार है, इसका खुलासा करते हैं तीन आलेख जो कि देवेन्द्र मेवाड़ी व सन्तोष चौबे ने लिखे हैं। अनुपम मिश्र का आलेख ‘अकेले नहीं आते बाढ़ और अकाल’ में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के आत्मजीवन चरित के उस हिस्से का उल्लेख है जहाँ समाज ने अपने बलबूते पर बाढ़ की विभीषिका को नियंत्रित किया।

असल में, जल संकट, जंगल कम होने या फिर भूकम्प, सुनामी और विभिन्न प्रकार की आपदाओं के सामने खुद को असहाय बताना अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना होगा। आपदाओं के अनेक कारक हमारी जीवनशैली से सीधे जुड़े हैं, जिसके कारण प्रकृति का सन्तुलन गड़बड़ा रहा है।

इंसान ने विज्ञान के जरिए प्रकृति पर नियंत्रण करने का सपना पाला और उसी का दुष्परिणाम है कि नदियों, झीलों, समंदरों समेत तमाम जलस्रोत गन्दगी से पटे पड़े हैं, वायु में जहरीला धुआँ भरा है, धरती रासायनिक खादों और कीटनाशकों से जहरीली हो गई है, जंगल पशुओं और पेड़-पौधों से खाली हो रहे हैं, जीव-जन्तुओं और पक्षियों की कई दुर्लभ प्रजातियाँ नष्ट होने की कगार पर हैं।

जड़ी-बूटियों की अनगिनत प्रजातियाँ विलुप्त हो गईं हैं। पंकज चतुर्वेदी के दो आलेख तालाब संरक्षण और जैवविविधता पर मँडरा रहे खतरे पर केन्द्रित हैं। यह पुस्तक सन्देश देती है कि आज धरती की चिन्ता में सहविचारक होने का समय आ गया है। जरूरत इस बात की है कि पृथ्वी पर किये जा रहे प्रत्येक कार्य को विकास और अर्थव्यवस्था के उत्थान के लिये जरूरी घटक के तौर पर ना देखा जाये। यह भी सोचें कि इससे हो रहे प्रकृति के नुकसान की भरपाई क्या किसी तरह से हो पाएगी?

पुस्तक : आपदा और पर्यावरण
सम्पादक : लीलाधर मंडलोई
प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली
पृष्ठ संख्या : 92
मूल्य : 120