अलवण जल के संसाधन

Submitted by editorial on Sun, 10/07/2018 - 17:25
Source
पर्यावरण विज्ञान उच्चतर माध्यमिक पाठ्यक्रम

जल प्रदूषण के निवारण एवं नियंत्रणजल प्रदूषण के निवारण एवं नियंत्रण आप अलवण जल के महत्त्व को पहले से ही जान चुके हैं जिसके बिना पृथ्वी पर जीवन का कोई अस्तित्व संभव नहीं है। इस पाठ में आप अलवण जल के स्रोतों एवं इसके उपयोग के बारे में जानेंगे तथा अलवण जल की गुणवत्ता को बचाए रखने के महत्त्व को समझेंगे।

उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के समापन के पश्चात आपः

1. अलवण जल स्रोतों के वितरण के बारे में वर्णन कर पाएँगे ;
2. जल संग्रह करने, उसे संसाधित करने एवं घरेलू उपयोग के लिये उसके वितरण के बारे में सभी तरीकों का वर्णन कर सकेंगे ;
3. घरेलू उपयोग (पीने के पानी) को स्वच्छ करने के सबसे सामान्य उपाय के बारे में वर्णन कर सकेंगे एवं अस्वच्छ पेयजल से होने वाले परिणामों के बारे में बता पाएँगे ;
4. जल की गुणवत्ता की अवधारणा की व्याख्या कर सकेंगे ;
5. घरेलू, औद्योगिक एवं कृषि कार्यों के लिये जल का किस प्रकार उपयोग होता है, का वर्णन कर सकेंगे ;
6. कच्चे माल के रूप में जल के महत्त्व को बता सकेंगे तथा इसमें (घरेलू तथा औद्योगिक) बहिःस्राव को डालने से होने वाले दुष्परिणामों का भी वर्णन कर सकेंगे।

29.1 अलवण जल का वितरण

पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का एक बहुत छोटा भाग यानी सिर्फ 2.7 % भाग ही अलवण जल है जो जीवन के लिये इतना महत्त्वपूर्ण है। प्रायः इसकी अधिकतर मात्रा हिमखंडों, बर्फीली चोटियों (ग्लेशियरों), बादलों में समाहित रहती है। इस जल का बचा हुआ एक छोटा हिस्सा, सदियों से झीलों एवं धरती के नीचे के स्रोतों में जमा रहता है। यह आश्चर्य की बात ही है कि पृथ्वी पर अलवण जल का एकमात्र स्रोत महासागरों का खारा पानी ही है। लगभग 85 % वर्षा का जल सीधे समुद्रों में गिरता है एवं कभी भी पृथ्वी तक नहीं पहुँचता है। कुल वैश्विक अवक्षेपण के बचे हुए छोटे अंश में से, जो धरती पर गिरता है, झीलों, कुओं एवं नदियों में भरता है एवं नदियों को बहने देता है। इस प्रकार मानव जाति को मिलने वाला अलवण जल एक बहुत ही अमूल्य एवं दुर्लभ वस्तु है।

पृथ्वी की सतह का करीब तीन चौथाई भाग जल से आच्छादित है। एक अनुमान के अनुसार कुल जल का परिमाण 1400 mkm3 से भी अधिक है, जो पूरी पृथ्वी को ढकने के लिये पर्याप्त है, जिसकी गहराई 300 मीटर तक हो सकती है। इस जल का 97.3 % भाग महासागरों में रहता है। 2.7 % अलवण जल में से 2.14 % ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ के रूप में जमा रहता है। अतः झीलों एवं नदियों का पूरा जल, वायुमंडल में स्थित जलीय वाष्प, मिट्टी, पेड़-पौधे एवं पृथ्वी के नीचे स्थित जल, कुल भाग का सिर्फ 0.5 % ही होता है। इसमें से भी 0.5 % (जोकि अलवण जल है), 98 % से अधिक भूजल के रूप में होता है, जिसमें से आधा 1000 मीटर से भी अधिक नीचे होता है, अतः सिर्फ 0.1 % ही नदियों में रहता है।

तालिका 29.1 : विश्व में जल का वितरण

स्थान

घनत्व 1012m3

 कुल में से प्रतिशत

जलाशय

  • समुद्र एवं महासागर
  • झील/तालाब/जलाशय
  • दलदल एवं कीचड़
  • नदियां (औसतन तात्कालिक आयतन)
  • मृदा का जलवाष्प
  • भूमिगत जल (2200 फीट से नीचे)
  • हिम शिखर एवं हिमखंड
  • वायुमंडलीय जल

 

1370

125

1.25

67

8350

-

29,200

37,800

 

94

0.01

0.0001

0.005

0.38

0.30

2.05

2.75

वायुमंडल (जल वाष्प)

13

0.001

महासागर

13,20,000

97.25

कुल योग

1,360,000

100

स्रोतः स्मिट्ज (Schmitz) 1996


29.2 भारत में जल संसाधनों का वितरण

भारत में वार्षिक वर्षा 1170 मिमी होती है। विश्व में भारत के आकार के बराबर के अन्य देशों की अपेक्षा यह वर्षा सबसे अधिक है। केवल इस वर्षा से ही, भारत 4000 बिलियन क्यूबिक मीटर (BCM) जल प्राप्त करता है, जिसमें हिमपात भी शामिल है। इसमें से 3/4 भाग केवल मानसून के दौरान ही मिलता है। इसका एक बड़ा भाग वाष्पीकरण एवं पेड़ पौधों की वाष्पोत्सर्जन क्रिया द्वारा नष्ट हो जाता है। जिससे पृथ्वी पर हमारे द्वारा उपयोग करने के लिये इसका आधा भाग ही बचता है। उद्वाष्पन द्वारा जल क्षय के बाद, देश की सतह पर जल प्रवाह का अनुमान 1800 BCM है।

भौगोलिक, हाइड्रोलॉजिकल एवं अन्य रुकावटों के कारण, यह अनुमान लगाया गया है कि केवल 700 BCM सतह के ऊपर के जल को ही उपयोग में लाया जा सकता है। वार्षिक आधार पर पुनःपूर्ति वाले भूजल स्रोतों में करीब 600 BCM जल होने का अनुमान है जिसमें से वार्षिक रूप से इस्तेमाल होने वाले संसाधनों में 420 BCM जल खर्च होता है। स्वतंत्रता के बाद से ही, देश में इस जल के श्रेष्ठतम उपयोग की योजनाएँ बन रही हैं जिसमें इंजीनियरिंग आविष्कारों जैसे बांध एवं बैराज आदि द्वारा इस जल को लंबे समय तक धरती की सतह पर रोके रखना भी शामिल है।

तालिका 29.2: भारत में जल संसाधनों का अनुमानित वितरण

उपखंड

परिमाण, बिलियन क्यूबिक मीटर (BCM)

कुल अवक्षेपण

4000

- तुरंत वाष्पीकरण

700

- मृदा में जल का रिसाव

2150

- मृदा वाष्प

1650

- भूजल

500

- सतही जल

1150


हमारे देश में अलवण जल के तीन मुख्य स्रोत हैं। ये इस प्रकार हैं : नदियां, झीलें एवं भूजल। इन स्रोतों के बारे में संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है।

(i) नदियां
नदियों की विशेषता यह है कि इसमें जल की धारा एक ही दिशा में बहती है। इसमें अपेक्षाकृत अधिक औसत बहाव जो 0.1 से 1 मीटर प्रति सेकेंड तक होता है। नदियों का बहाव समय के साथ तेजी से बदलता रहता है जो अपवाह तरीकों (Drainage pattern ड्रेनेज पैटर्न) एवं जलवायु की स्थिति पर निर्भर है। आमतौर पर लगातार बहती जल धारा तथा इसमें आने वाली अस्थिरता के कारण लगातार एवं समान रूप से लंबवत जल मिलान होता रहता है।

(ii) झीलें

झीलों की विशेषता यह है कि इसमें निम्न औसत बहाव का जल रहता है, जिसका वेग 0.001 से 0.01 मीटर प्रति सेकेंड (सतही मान) होता है। झीलों में जल की धारा अनेक दिशाओं में बहती रहती है। कई झीलों में कुछ समय के अंतराल पर लंबवत जल मिलान तथा स्तर विन्यास होता रहता है जिसका समय अंतराल जलवायु परिस्थितियाँ तथा झील की गहराई द्वारा नियंत्रित होता है।

(iii) भूमिगत जल अथवा भूजल

भूमिगत जल की विशेषता यह है कि इसमें दिशा तथा वेग के आधार पर अपेक्षाकृत जल का संतुलित बहाव होता है। जल बहाव का औसत वेग सामान्यतः जलभृतों (भूजल जलाशयों) में 10-10 से 10-3 मीटर प्रति सेकेंड पाया जाता है एवं यह बहाव मुख्य रूप से भूवैज्ञानिक पदार्थों की पारगम्यता तथा सरंध्रता पर निर्भर करता है। इसके फलस्वरूप जल मिलान अपेक्षाकृत कमजोर रहता है एवं स्थानीय हाइड्रो-भूवैज्ञानिक विशेषताओं के आधार पर, भूजल के आंकड़ों में काफी अंतर हो सकता है।

पाठगत प्रश्न 29.1

1. पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का कितना भाग अलवण जल है?
2. पृथ्वी की सतह का करीब तीन चौथाई भाग जल आच्छादित है किंतु इसका कितना भाग अलवण जल है?
3. अलवण जल के तीन स्रोतों के नाम लिखो।

29.3 जल संग्रह
घरेलू, औद्योगिक एवं सिंचाई जैसे विभिन्न उपयोगों के लिये जल को संग्रह करके वितरित किया जाता है। घरेलू जल अधिकांशतः पीने, नहाने, कपड़े धोने, सफाई एवं शौचालयों के फ्लश आदि कार्यों के लिये इस्तेमाल होता है। चूँकि घरेलू जल पीने के लिये इस्तेमाल होता है, इसे पूर्णतः विशुद्ध होना चाहिए। पीने के पानी के मुख्य स्रोत हैं नदी, झील एवं भूमिगत जल। पीने का पानी या तो सीधे स्रोत से संग्रह किए जाते हैं जैसा कि ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में होता है अथवा नगर पालिका प्राधिकरण या जन स्वास्थ्य विभागों द्वारा इनकी आपूर्ति की जाती है।

सतही जल को आमतौर से पीने योग्य बनाने के लिये संशोधित करना आवश्यक है क्योंकि यह अक्सर दूषित रूप में ही पाया जाता है। दूसरी तरफ भूमिगत अथवा भूजल आमतौर पर सूक्ष्मजीवों तथा निलंबित ठोस वस्तुओं से मुक्त रहता है क्योंकि यह जल भूमि के नीचे मिट्टी से होकर गुजरते वक्त प्राकृतिक निस्यंदन (natural filtration) की प्रक्रिया से होकर निकलता है। यद्यपि इसमें अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में घुलनशील खनिज पदार्थ पाए जाते हैं जो इसके मिट्टी तथा पत्थरों से सीधे संस्पर्श के दौरान इसमें एकत्र हो जाते हैं।

बड़े-बड़े शहर, नगर एवं गाँव, जहाँ भूजल पीने योग्य नहीं होता है, पृथ्वी की सतह पर स्थित सतही जल को पीने के लिये इस्तेमाल किया जाता है। उन शहरों एवं नगरों जो नदियों तथा झीलों के किनारे बसे हैं, उनसे सीधे पानी लिया जाता है एवं इसे संशोधित करने के बाद घरेलू इस्तेमाल के लिये भेज देते हैं किंतु वे शहर जो किसी भी शहरी जल स्रोत से दूर होते हैं, नहरों एवं पाइप लाइनों के द्वारा इसका वहन करते हैं। बड़े शहरों उदाहरण दिल्ली कई स्रोतों से पानी लेता है जैसे भाखरा जलाशय, ऊपरी गंगा नहर, पश्चिमी यमुना नहर तथा यमुना नदी। घरेलू उपयोग के लिये जल की आपूर्ति करने से पहले कच्चे जल को संशोधित किया जाता है।

29.4 जल संशोधन

मानव उपभोग के लिये जल की आपूर्ति करने से पहले नदी एवं झील के जल को संशोधित अथवा साफ किया जाता है। भूमिगत जल, को भी पीने योग्य बनाने के लिये इसका संशोधन किया जाता है। जल संशोधन का प्राथमिक उद्देश्य है समुदाय के स्वास्थ्य की रक्षा करना। पीने का पानी हानिकारक सूक्ष्मजीवों तथा रसायनों से मुक्त होना चाहिए। यह पानी बिल्कुल शीशे की तरह साफ होना चाहिए जिसमें कुछ भी गंदगी न हो एवं यह रंगहीन, गंधहीन तथा स्वादहीन होना चाहिए। घरों में आपूर्ति के लिये आने वाला पानी जंकरोधक होना चाहिए तथा इससे नलों तथा अन्य पाइप लाइनों पर किसी तरह का कोई जमाव नहीं होना चाहिए। औद्योगिक आवश्यकताएँ इससे भी अधिक कठिन होती हैं, कई उद्योगों के परिसरों में स्वयं के जल संशोधन संयंत्र लगे होते हैं।

पीने के पानी के लिये किस प्रकार का एवं जहाँ तक का संशोधन आवश्यक हो, वह स्रोत की गुणवत्ता पर निर्भर होता है। भूजल के बजाय सतही जल को अक्सर अधिक गहन संशोधन की आवश्यकता होती है क्योंकि अधिकांश जल धाराएँ, नदियां एवं झीलें काफी हद तक प्रदूषित होती हैं। मानवीय आवास से काफी दूर स्थित क्षेत्रों में भी सतही जल में निलंबित मृदा (मिट्टी) होती है, जैविक पदार्थ होते हैं, सड़ी-गली वनस्पति (पेड़-पौधे) तथा सूक्ष्मजीव एवं पशुओं के अपशिष्ट हो सकते हैं।

29.4.1 जल संशोधन के उपाय

जल को कई भौतिक तथा रासायनिक विधियों द्वारा संशोधित किया जाता है। सतही जल का संशोधन तबसे प्रारंभ हो जाता है जब उसे छानने के लिये स्क्रीन लगाई जाती है जिससे मछलियाँ एवं अन्य कचरा संशोधन संयंत्र में प्रवेश करने से पहले ही रोका जा सके। इसका कारण है कि इनसे पंप या अन्य उपकरण (घटक) खराब हो सकते हैं। जल का परंपरागत संशोधन मूल रूप से सफाई (Clarification) एवं विसंक्रमण (Disinfection) द्वारा होता है।

सफाई से अधिकांश गंदगी दूर हो जाती है जिससे जल एकदम शीशे के समान साफ हो जाता है। विसंक्रमण, आमतौर पर पीने के पानी के संशोधन का अंतिम चरण होता है जो रोगजनक सूक्ष्मजीवियों को नष्ट कर देता है। इसके साथ ही कुछ जल, जलस्रोतों में जल का मृदुकरण, वायुमिश्रण (aeration), कार्बन अवशोषण तथा डीफ्लोरीडेशन जैसी प्रक्रियाओं का भी प्रयोग किया जाता है। अलवणीकरण की प्रक्रिया अर्थात जल से अतिरिक्त नमक निकालना, को वहाँ इस्तेमाल किया जाता है जहाँ अलवण जल की आपूर्ति तुरंत उपलब्ध नहीं है अथवा भूमिगत जल खारा है।

(क) विशुद्धिकरण अथवा अवसादन (Sedimentation)

जल की अशुद्धियाँ या तो घुलनशील होती हैं अथवा निलंबित होती हैं। निलंबित पदार्थ स्वच्छता (पारदर्शिता) घटाते हैं एवं इसका सबसे आसान तरीका है, इन निलंबित पदार्थों को जल के नीचे धीरे-धीरे जमने दें।

स्कंदन (Coagulation) तथा ऊर्णन (Flocculation)

सिर्फ जमाव से ही निलंबित कणों को पूरी तरह से निकाला नहीं जा सकता है। बड़े, भारी कण तुरंत नीचे बैठ जाते हैं लेकिन छोटे तथा हल्के कण जल्दी से जमा नहीं होते हैं। इन कणों को कोलायडलीय कण (Colloidal particles) कहा जाता है। इन छोटे कणों को हटाने के लिये फिटकरी (Alum) को पानी में डाला जाता है। फिटकरी से ऊर्णन (फ्लोक्यूलेशन) होता है। ऊर्णन (फ्लोक्यूलेशन) वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सभी सूक्ष्म अघुलनशील कण मिलकर बड़े कण बनाते हैं जिन्हें फ्लॉक (flock) कहा जाता है। ये फ्लॉक फिर आसानी से नीचे जमा हो जाते हैं एवं इन्हें फिर आसानी से अलग कर दिया जाता है। फिटकरी जो वास्तव में एल्यूमीनियम सल्फेट है, आमतौर पर जल के विशुद्धीकरण के लिये इस्तेमाल की जाती है।

अन्य रसायन जैसे फैरिक सल्फेट या सोडियम ऐल्यूमिनेट का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। फ्लोक्यूलेशन टैंक में लकड़ी के पैडल की तरह के मिक्सर होते हैं जो धीरे-धीरे एक क्षैतिज मोटर चालित शॉफ्ट पर घूमते हैं। फ्लोक्यूलेशन के बाद फ्लॉक को सेटलिंग टैंक में जमा होने दिया जाता है। यहाँ से ऊपरी शुद्ध जल को सैंड फिल्टरों द्वारा पास कराया जाता है। अति सूक्ष्म छन्नियों का इस्तेमाल मुख्य रूप से सतही जल आपूर्ति के परंपरागत गुरुत्वीय प्रवाह निस्यंदन (Gravity flow filtration) से पहले शैवालों को छानने के लिये होता है।

निस्यंदन (Filtration)

स्कंदन तथा ऊर्णन (फ्लोक्यूलेशन) के बाद भी, अवसादन द्वारा पर्याप्त निलंबित अशुद्धियाँ, पानी में से नहीं अलग की जा सकती हैं जिससे इसे शीशे की तरह साफ बनाया जा सके। निस्यंदन (फिल्टेंशन) एक भौतिक प्रक्रिया है जो इन अशुद्धियों को पानी में से निकालती है। इसके लिये पानी को छिद्रित एवं दानेदार पदार्थ जैसे रेत के एक तह से होकर नीचे की ओर भेजा जाता है। निलंबित कण इस माध्यम द्वारा पकड़ लिये जाते हैं जो हानिकारक प्रोटोजोआ तथा प्राकृतिक रंगों को भी हटा देता है। अधिकांश सतही जल की आपूर्ति में स्कंदन तथा अवसादन के विभिन्न चरणों के बाद फिल्टेंशन की आवश्यकता होती है।

फिल्टर की सतह को विपरीत तरफ से धोकर बीच-बीच में साफ करते रहना चाहिए। उल्टी ओर से धोने में साफ पानी को नीचे से ऊपर के बल के साथ भेजा जाता है जिससे फिल्टर माध्यम पर चिपकी सभी अशुद्धियाँ धुल जाएँ। उल्टी ओर से धोने में पानी को समान रूप से फिल्टर के निचले हिस्से अंडरड्रेन सिस्टम के छिद्रयुक्त पाइपों या पोरस टाइल ब्लॉकों के द्वारा जोर से छिड़का जाता है।

इसकी विश्वसनीयता के कारण जल, जल आपूर्ति को संशोधित करने के लिये इस्तेमाल होने वाला सबसे आम प्रकार का फिल्टर होता है ‘‘रैपिड फिल्टर (Rapid Filter)’’। यद्यपि कुछ अन्य प्रकार के फिल्टर जैसे प्रेसर फिल्टर (Pressure filter), डायटोमैशियस अर्थ फिल्टर (Diatomaceous earth filters) एवं माइक्रोस्ट्रेनर (Microstrainers) आदि का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। प्रेशर फिल्टर में दानेदार माध्यम की निचली सतह होती है किंतु ग्रैविटी-फ्लो रेपिड फिल्टर (Gravity flow rapid filter) की तरह यह ऊपर से खुला न होकर, एक सिलिंडर के आकार वाले टैंक में बंद होता है।

फिल्टर में पानी को प्रेशर से पंप किया जाता है। डायटोमैशियस अर्थ फिल्टरों में एक प्राकृतिक पाउडर के जैसा पदार्थ जो सूक्ष्मजीवी जीवों, जिन्हें डायएटम्स (diatomas) कहा जाता है, के शेल से बना होता है, फिल्टर माध्यम के रूप में इस्तेमाल होता है। यह पाउडर एक पतली झिल्ली के रूप में एक कपड़े या धातु की स्क्रीन पर टिका होता है एवं पानी इस झिल्ली से होकर पंप किया जाता है। प्रेशर फिल्टर तथा डायटोमैशियस फिल्टरों का उपयोग अधिकांशतः औद्योगिक क्षेत्रों या जन तरणतालों में होता है।

माइक्रोस्ट्रेनरों में एक महीन स्टेनलेस स्टील का वायरक्लॉथ होता है जो एक घूमते हुए ड्रम पर लगा होता है। यह ड्रम आंशिक रूप से पानी में डूबा होता है। पानी ड्रम के खुले सिरे से प्रवेश करता है और स्क्रीन से होकर बाहर निकलता है जिससे निलंबित ठोस पदार्थ ड्रम में रह जाते हैं। ये ठोस पदार्थ हापर से धोये जाते हैं जब इनको घूमते ड्रम द्वारा पानी से बाहर निकाल लिये जाते हैं। माइक्रोस्टेनरों का प्रयोग मुख्यतः सतही जल से काई निकालने के लिये पारम्परिक ग्रेविटी फ्लो-फिल्ट्रेशन से पहले होता है।

(ख) विसंक्रमण (Disinfection)

विसंक्रमण से रोगजनक बैक्टीरिया (Pathogenic bacteria) अथवा रोगजनक जीवाणु नष्ट होते हैं एवं यह जल संक्रमणकारी रोगों को फैलने से रोकने के लिये आवश्यक है। पीने के पानी के संशोधन प्रक्रिया में अंतिम चरण है, विसंक्रमण। इसे पूरा करने के लिये या तो पानी में क्लोरीन डाली जाती है अथवा ओजोन या पराबैंगनी विकिरण डाला जाता है, जिससे पानी साफ हो जाता है।

क्लोरीनन (Chlorination)

पीने के पानी में क्लोरीन या क्लोरीन यौगिकों को मिलाने की प्रक्रिया को क्लोरीनन (क्लोरिनेशन) कहा जाता है। क्लोरीन यौगिक तरल या ठोस दोनों रूपों में जोड़े जा सकते हैं। उदाहरण के लिये तरल सोडियम क्लोराइड या दोनों अथवा गोलियों के रूप में कैल्शियम। किंतु बड़े पैमाने पर पानी को विसंक्रमित करने के लिये दबाव वाले स्टील के कंटेनरों में से गैसीय क्लोरीन को सीधे मिलाना ही आमतौर पर सबसे सस्ती विधि है।

संशोधन संयंत्रों में क्लोरीन की उपयुक्त मात्रा को नियंत्रित करके, स्वाद एवं गंध की समस्याओं से बचा जा सकता है तथा इस्तेमाल होने वाले स्थानों पर एक सुरक्षित स्तर को सुनिश्चित करने के लिये सम्पूर्ण वितरण प्रणाली में एक अवशिष्ट सांद्रता को बनाए रखा जाता है। जल में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले जैविक यौगिकों के साथ क्लोरीन संलग्न हो जाता है जिससे क्लोरोफॉर्म एवं अन्य कुछ हानिकारक उप-उत्पाद बनते हैं। किंतु यदि कोएगुलेशन, सेडीमेंटेशन तथा फिल्ट्रेशन के बाद क्लोरीन को मिलाया जाए तो यह खतरा काफी कम हो जाता है।

ओजोन
ओजेान गैस का प्रयोग भी पीने के जल को विसंक्रमित करने के लिये होता है। जबकि ओजोन अस्थिर होता है, इसे संग्रहित करके रखा नहीं जा सकता तथा इसे तुरंत ही बनाया जाता है, जिससे यह प्रक्रिया क्लोरिनेशन की अपेक्षा अधिक खर्चीली हो जाती है। ओजोन में यह लाभ है कि यह रंग या गंध की समस्या उत्पन्न नहीं करती है। यह विसंक्रमित पानी में किसी प्रकार के अवशिष्ट नहीं छोड़ता है। इसलिये जैसे ही पानी वितरण सिस्टम द्वारा भेजा जाता है, इसकी गुणवत्ता को लगातार बनाए रखना या उस पर नजर रखना काफी मुश्किल हो जाता है।

29.4.2 पानी को साफ करने के परंपरागत तरीके

प्राचीन काल में पानी की शुद्धता के महत्त्व को काफी प्रशंसा एवं आदर मिलता था। 2000 ई.पू. के लिखे संस्कृत लेखों में यह बताया गया है कि किस प्रकार गंदे पानी को उबालकर तथा छानकर साफ किया जा सकता है। लेकिन उन्नीसवीं सदी के मध्य तक भी हैजा तथा प्रदूषित जल के बीच एक सीधा संबंध नहीं निकल पाया। और इसी सदी के अंत में एक जर्मन जीवाणुवैज्ञानिक रॉबर्ट कोच ने हैजा रोग की जर्मथ्योरी सिद्ध की जिससे पीने के पानी के विसंक्रमण एवं संशोधन का एक वैज्ञानिक आधार स्थापित हुआ।

जल संशोधन का अर्थ है कि एक निश्चित लक्ष्य तक पहुँचने के लिये जो गुणवत्ता जरूरी है उसे पाने के लिये जल के स्रोत में परिवर्तन करना। 19वीं सदी का अंत एवं 20वीं सदी की शुरूआत में खतरनाक जल संक्रमणकारी रोगों से मुक्ति ही मुख्य लक्ष्य बना। उसी समय से रोगजनक या रोग उत्पन्न करने वाले सूक्ष्मजीवी जीवाणुओं को नष्ट करने के लिये आम जनता के लिये दिया जाने वाला पीने का पानी संशोधित किया जाने लगा। संशोधन के उपायों में सैंड फिल्ट्रेशन के साथ-साथ विसंक्रमण के लिये क्लोरीन का उपयोग शामिल था।

विकासशील देशों में, जलजनित रोग अभी भी पानी की गुणवत्ता को लेकर मुख्य चिंता का विषय है लेकिन औद्योगिक देशों में यह चिंता रासायनिक प्रदूषण से स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों पर है। उदाहरण के तौर पर, पीने के पानी में मिलने वाले कुछ सिंथेटिक जैविक पदार्थों द्वारा मनुष्यों में कैंसर होने का खतरा रहता है। अतः पीने के पानी के मानकों में ऐसे कई तथ्य शामिल होते रहते हैं जिनसे लगातार स्वास्थ्य संबंधित खतरों को कम करने का अतिरिक्त लक्ष्य भी प्राप्त किया जा सके।

29.4.3 जल संशोधन के अन्य तरीके

कभी-कभी प्राकृतिक संदूषणकारी तत्वों जैसे फ्लोराइड, आयरन या आर्सेनिक भी जल में उपस्थित रहते हैं। ये अशुद्धियां मानव स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होती हैं। इन अशुद्धियों को हटाने के कई उपाय हैं।

फ्लोराइड को पृथक करना

सभी प्राकृतिक जल में फ्लोराइड पाया जाता है। कुछ स्तर तक इनकी सांद्रता हानिकारक नहीं होती है। पर एक स्तर के बाद यह हड्डियों के लिये खतरा बन जाता है। इसमें हड्डियाँ टूटने लगती हैं। इस बीमारी को फ्लूरोसिस (Fluorosis) कहते हैं। हमारे देश के बहुत से भागों में फ्लोराइड की समस्या है। भारतीय मानक ब्यूरो के अनुसार पीने के पानी में फ्लोराइड की मात्रा 1.0 मिलीग्राम प्रति लीटर तक आवश्यक हैं एवं 1.5 मिलीग्राम प्रति लीटर अधिकतम स्वीकार्य सीमा है। किसी भी जल में यदि उच्च मात्रा में फ्लोराइड हो तो इसे सुरक्षित बनाने के लिये, इसमें फ्लोराइड को हटाने के लिये जल को संशोधित करना आवश्यक होता है। घरों में इसके लिये जो सरल उपाय अपनाए जा सकते हैं वह नीचे दिए जा रहे हैं:

घरेलू डीफ्लोरीडेशन

घरों में डीफ्लोरीडेशन की प्रक्रिया एक 60 लीटर क्षमता वाले बर्तन (बाल्टी) में की जा सकती है। बाल्टी में नीचे से 3.4 सेमी ऊपर एक नल लगा होना चाहिए जिससे साफ पानी निकाला जा सके। फ्लोरीन मिले जल को बाल्टी में लें, इसमें उपयुक्त मात्रा में ऐल्यूमीनियम सल्फेट (फिटकरी) का घोल, सोडियम कार्बोनेट या चूना तथा ब्लीचिंग पाउडर मिलाएँ। ये सब पानी में रहने वाले फ्लोराइड एवं क्षारकता (कार्बोनेट के सांद्रण तथा कार्बोनेट के घनत्व) पर निर्भर है। फिटकरी के घोल को पहले डालकर अच्छी तरह मिलाया जाता है।

इसके बाद चूना या सोडियम कार्बोनेट का घोल डालकर 20 मिनट तक पानी को हिलाया जाता है एवं इसके बाद पानी को 1 घंटे तक स्थिर होने के लिये छोड़ दिया जाता है। इसके बाद पानी को पीने के लिये नल में से निकाला जा सकता है। नीचे जमा हुआ कचरा फेंक दिया जाता है। आमतौर पर 40 लीटर पानी में जिसमें फ्लोराइड की मात्रा 2 से 9 मिलीग्राम प्रति लीटर होती है, को संशोधित करके स्वीकृत स्तर तक लाने के लिये 100 से 600 मिलीलीटर ऐलम के घोल को मिलाया जाता है।

सामुदायिक स्तर पर डीफ्लोरीडेशन

सामुदायिक जल आपूर्ति के लिये इस्तेमाल होने वाली तकनीक नालगोंडा तकनीक (Nalgonda Technique) कहलाती है जिसे नेशनल एनवायरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इन्स्टीट्यूट, नागपुर (National Environmental Engineering Research Institute : Nagpur) ने तैयार किया है। इसमें निम्न भाग होते हैं :

- रिएक्टर
- संप वेल (Sump well)
- स्लज ड्राइंग बेड (Sludge drying bed)

यह करीब 200 लोगों के समुदाय के लिये एक सामूहिक उपाय है। टैंक में एक मैकेनिकल एजिटेटर लगा होता है जो हाथ से या एक इलेक्ट्रिक मोटर द्वारा चलाया जाता है। टैंक में पानी को डाला जाता है या पंप द्वारा भेजा जाता है और इसके साथ आवश्यक मात्रा में ऐलम, लाइम या सोडियम बाइकार्बोनेट तथा ब्लीचिंग पाउडर डालकर लगातार हिलाया जाता है। इन सभी को धीरे- धीरे 10 मिनट तक हिलाकर 2 घंटे के लिये स्थिर होने के लिये छोड़ दिया जाता है। इसके बाद डीफ्लोरीनेटेड सुपरनेटेंट (Defluridated supernatant water) पानी को निकालकर घरों में भेजा जाता है। टैंक के नीचे जमा कचरे या स्लज (Sludge) को हटा दिया जाता है।

आयरन (लोहे) को हटाना

हमारे देश के कई भागों में पीने के पानी में अधिक आयरन की समस्या देखने को मिलती है। विशेष रूप से ऐसा उत्तर-पूर्व क्षेत्र में होता है। आयरन से पीने के पानी का रंग और स्वाद दोनों खराब हो जाता है। भारतीय मानक ब्यूरो ने आयरन की स्वीकार्य सीमा 0.3 मिलीग्राम प्रति लीटर निर्धारित की है। आयरन को हटाना जरूरी है।

घरेलू स्तर पर

यह NEERI द्वारा विकसित सबसे आसान इकाई है। इसमें कच्चे पानी पर कोक, मार्बल/कैल्साइट की परतों के ऊपर से वायु मिश्रण डालते हैं और इसके बाद इसका धीरे-धीरे से सैंड फिल्ट्रेशन होता है। इसमें किसी प्रकार के रसायन की जरूरत नहीं पड़ती है। इसमें प्रति घंटे लगभग 200 लीटर पानी संशोधित किया जाता है।

सामुदायिक स्तर पर

यह संशोधन वायु मिश्रण, अपचयन-सह-निःसादन (Reaction Cum Setting) तथा निस्यंदन (Filtration), इन तीनों को मिलाकर बनी एक शृंखलाबद्ध प्रक्रिया है। इस संशोधन संयंत्र का मुख्य भाग एक लंबाकार बेलनाकार (Vertical cylindrical) पात्र होता है जिसमें निम्न भाग होते हैं :

1. वायुमिश्रण सह ऑक्सीकरण चैंबर (कक्ष)
2. निःसादन-सह-निस्यंदन चैंबर (कक्ष)
3. संशोधित जल जमा करने के लिये चैंबर (कक्ष)

हैंडपंप से पानी को ऊपर से डाला जाता है। इससे संपूर्ण वायु के लिये हवा का संपर्क सुनिश्चित होता है। आयरन का मुख्य भाग यहीं पर ऑक्सीकृत होता है। तब आयरन पानी को ऑक्सीकारक माध्यम (लाइम स्टोन) के साथ रासायनिक क्रिया करने का मौका दिया जाता है। बचा हुआ आयरन, चैंबर में ऑक्सीकृत किया जाता है। इस प्रकार वायु मिश्रण एवं पुनः ऑक्सीकरण से घुलनशील आयरन को अघुलनशील फेरिक हाइड्रॉक्साइड में बदला जाता है। यह अघुलनशील आयरन फिल्ट्रेशन द्वारा आसानी से निकाला जा सकता है। इसके बाद जल को किसी फिल्टर माध्यम (रेत एवं कंकड़ों का फिल्टर) से पास किया जाता है। फिल्ट्रेट जल में आयरन स्वीकार्य सीमा के अंदर ही होता है।

आर्सेनिक को पृथक करना

पश्चिम बंगाल के कुछ भागों में भूजल में आर्सेनिक पाया जाता है। आर्सेनिक की प्रकृति काफी विषाक्त होती है। इससे कई तरह के त्वचा विकार यहाँ तक कि कैन्सर भी हो सकता है। भारतीय मानक ब्यूरो ने आर्सेनिक की स्वीकार्य मात्रा 0.05 मि.ग्रा. प्रति लीटर बताई है। आर्सेनिक को पृथक करना अत्यंत आवश्यक है। इसके संशोधन की तकनीक इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ एंड हाइजीन, कोलकाता (Institute of public Health and Hygiene, Kolkata) ने विकसित की है जो आमतौर पर इस्तेमाल की जाती है। यह तकनीक ऑक्सीकरण, स्कंदन, ऊर्णन, अवसादन तथा निस्यंदन पर आधारित है।

आर्सेनिक को पृथक करने के लिये ब्लीचिंग पाउडर तथा ऐलम का प्रयोग किया जाता है। इसमें तीन चैंबर होते हैं। पहले चैंबर में रसायन मिलाए जाते हैं। इस मिश्रण को फिर निःसादन टैंक नामक अगले चैंबर में भेजा जाता है, जहाँ इसे 2 घंटे स्थिर होने के लिये छोड़ दिया जाता है। स्थिर स्वच्छ पानी को एक धीमें सैंड फिल्टर द्वारा छाना जाता है। फिल्टर किए गए पानी में आर्सेनिक की मात्रा स्वीकार्य सीमा के भीतर होती है।

पाठगत प्रश्न 29.2

1. इस्तेमाल किए जाने वाले पानी को संशोधन की आवश्यकता क्यों पड़ती है?
2. जल संशोधन के विभिन्न चरण के नाम बताइये?
3. फ्लोरोसिस क्या है?
4. सामुदायिक स्तर पर जल से आयरन को किस प्रकार अलग किया जाता है?
5. यदि आर्सेनिकयुक्त जल का सेवन किया जाए तो इससे क्या हानियाँ होती है?

29.5 जल की गुणवत्ता की अवधारणा

जल पृथ्वी पर उपलब्ध सबसे श्रेष्ठ विलायक पदार्थ है जो बड़ी मुश्किल से ही विशुद्ध अवस्था में मिलता है। प्रकृति में जल वाष्पीय अवस्था में सबसे शुद्ध होता है। जैसे ही ये वाष्प घनीभूत होती है इसमें अशुद्धियाँ मिल जाती हैं। जलीय चक्र में, जल वायुमंडल, मृदा तथा अन्य पदार्थों के संपर्क में आता है एवं भूमिगत धातुओं के सम्पर्क में भी यह होता है। इस सम्पर्क के दौरान जल में अनेक अशुद्धियां मिल जाती हैं। मानव गतिविधियाँ इन अशुद्धियों में और भी वृद्धि करती हैं जो औद्योगिक तथा घरेलू अपशिष्टों, कृषि में इस्तेमाल होने वाले रसायनों तथा अन्य दूषित पदार्थों के रूप में होते हैं।

अतः गुणवत्ता शब्द को जल के प्रस्तावित उपयोग के अनुसार तय किया जाना चाहिए। अतः जल की गुणवत्ता को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता हैः ‘‘जल की वे भौतिक, रासायनिक अथवा जैविक विशेषताएँ होती हैं जिनके द्वारा उपभोक्ता जल की स्वीकार्यता का आकलन करता है।’’ उदाहरण के लिये, मानव स्वास्थ्य के लिये हमें चाहिए कि जल की आपूर्ति पूरी तरह से शुद्ध हो, स्वास्थ्यवर्धक हो एवं पीने योग्य हो। उसी प्रकार कृषि के लिये हमें पता होना चाहिए कि घुलनशील धातुओं एवं अन्य विषाक्त पदार्थों के प्रति विभिन्न फसलों की संवेदनशीलता कैसी है। कपड़ा, कागज, शराब बनाने वाले एवं दर्जनों अन्य कारखानों में जिनमें जल का उपयोग होता है, अपनी-अपनी निश्चित जल गुणवत्ता की आवश्यकताएँ होती हैं।

एक जल भंडार की गुणवत्ता के प्रबंधन के लिये हमें जल की गुणवत्ता की आवश्यकताएँ परिभाषित करनी होंगी अथवा उस जल राशि के लिये जल की गुणवत्ता के उद्देश्य परिभाषित करने होंगे। जैसे कि पहले बताया गया है, प्रत्येक जल प्रयोग क्षेत्र की अपनी खास जल गुणवत्ता की आवश्यकताएँ हैं अतः एक जल राशि के लिये जल गुणवत्ता के उद्देश्य निर्धारित करने के लिये, यह आवश्यक है कि उस जलराशि का प्रयोग कहाँ हो रहा है, इसकी पहचान हो। भारत में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) जो जल गुणवत्ता प्रबंधन में एक अग्रणी संस्था है, ने ‘‘निर्दिष्ट सर्वोत्तम उपयोग’’ की अवधारणा को विकसित किया है।

इसके अनुसार एक जलराशि के कई तरह के उपयोगों में से, वह उपयोग जिसमें अधिकतम गुणवत्ता का जल प्रयोग होता है, ‘‘निर्दिष्ट सर्वोत्तम उपयोग’’ माना जाता है एवं इसी के आधार पर जल राशियों को A, B, C, D, E नाम दिया जाता है। इसी आधार पर (1) pH, (2) घुलित ऑक्सीजन, mg/l, (3) BOD (20°C) mg/l, (4) पूर्ण कॉलीफार्म (Coliform) (MPN/100 ml), (5) मुक्त अमोनिया mg/l, (6) विद्युतीय चालकता इत्यादि। CPCB ने पाँच इस प्रकार के सर्वोत्तम उपयोग निर्धारित किए हैं। जिन्हें तालिका 29.3 में दिया गया है।

तालिका 1 : भारत में सतही जल का उपयोग आधारित वर्गीकरण

निर्दिष्ट सर्वोत्तम उपयोग

गुणवत्ता श्रेणी

पीने के पानी का स्रोत जिसका परंपरागत संशोधन हुआ हो लेकिन जिसका क्लोरीनेशन हुआ है।

A

बाहरी स्नान (व्यवस्थित)

B

पीने के पानी के स्रोत जिनका परंपरागत तरीके से संशोधन किया गया हो।

C

वन्य जीव एवं मछली पालन को बढ़ावा देने के लिये

D

सिंचाई, औद्योगिक शीतलन एवं नियंत्रित अपशिष्ट निपटान

E


CPCB ने अपने-अपने राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की साझेदारी में देश की सभी जलराशियों को जिसमें तटीय जल भी शामिल है, उनके ‘‘निर्दिष्ट सर्वोत्तम उपयोग’’ के आधार पर वर्गीकृत किया है। यह वर्गीकरण जल गुणवत्ता प्रबंधकों एवं योजनाकारों को जल गुणवत्ता के लक्ष्य निर्धारित करने में मदद करता है तथा देश में स्थित विभिन्न जलराशियों के लिये जल गुणवत्ता पुनःप्राप्य कार्यक्रम की प्राथमिकता तथा आवश्यकता की पहचान करने में मदद करता है। प्रसिद्ध गंगा एक्शन प्लॉन एवं साथ-साथ ही राष्ट्रीय रिवर एक्शन प्लान इस प्रकार के प्रयासों का परिणाम है।

29.6 विभिन्न उपयोगों के लिये जल गुणवत्ता की आवश्यकता

स्वाभाविक रूप से ही पानी एक बहुउपयोगी संसाधन है। औद्योगीकरण तथा बढ़ती आबादी के कारण पानी की आवश्यकता का क्षेत्र काफी विस्तृत हो गया है। पानी के मुख्य उपयोग हैं जब जल आपूर्ति, बाहरी स्नान तथा मनोरंजन, मछली पालन एवं वन्य पशुओं के पालन के लिये, सिंचाई एवं अन्य कृषि उपयोगी उपयोग के, पॉवर संयंत्रों में शीतलन, कचरे का निपटान तथा नौसंचालन आदि। पीने का पानी इसमें सबसे शुद्ध होना चाहिए जबकि कचरे के निपटान के लिये किसी भी प्रकार का पानी हो सकता है। हाल ही में जैसे-जैसे पानी की माँग बढ़ी है, उसकी उपलब्धता उतनी नहीं है। अतः पूरे विश्व में ‘‘पानी की गुणवत्ता प्रबंधन’’ की अवधारणा काफी महत्त्वपूर्ण हो गई है।

29.7 पारिस्थितिकी जल आवश्यकताएँ

पारिस्थितिकी गुणवत्ता बनाए रखने के लिये अक्सर काफी मात्रा में जल नदी में प्रवाहित होना आवश्यक है। प्रत्येक नदी की धारा के साथ-साथ इसका अपना पारिस्थितिक तंत्र बनता जाता है जिसमें विभिन्न प्राणी एवं ऋतुएँ शामिल होती है। सभी जैविक प्रक्रियाएँ समयबद्ध एवं समान अंतराल पर होती हैं। इन प्रक्रियाओं के संचालन के लिये, कम स्तर के जल की जरूरत होती है। जल की मात्रा का कई तरह से पारिस्थितिक प्रभाव पड़ता है। बाढ़ का पानी गंदगी को हटाकर साफ नए पत्थरों को जमा कर देता है एवं इसी तरह पहाड़ों से रेत बारिश के जल के साथ बह जाती है। बांधों द्वारा पानी के प्रवाह को नियंत्रित करने से सफाई एवं नवीकरण दोनों में ही रुकावट आती है। पानी का तेज बहाव, नदी की धारा के साथ नीचे की रेत, पत्थर एवं मिट्टी भी बहाकर ले जाता है जो मछलियों के जीवन-यापन के लिये अथवा प्रजनन के लिये आवश्यक होते हैं।

बीते समय में और अभी भी, एक धारा की स्वशुद्ध कारक क्षमता एवं ‘‘प्रदूषण का समाधान’’ जो स्वीकार्य है वह है तनुकरण (Dilution) अर्थात पानी को पतला करना। यह भारत सरकार द्वारा 1986 में पर्यावरण (प्रोटेक्शन) एक्ट के तहत नोटीफाइड अधिकांश बहिर्वाह मानकों में शामिल हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि कम से कम 10 गुना तनुकरण एक धारा में वहाँ उपलब्ध होती है जहाँ से बहिःस्राव को हटाया जा रहा होता है क्योंकि सभी दूषित पदार्थ अपशिष्ट जल संशोधन में साफ नहीं किए जाते हैं ; एक नदी के स्वास्थ्य की रक्षा के लिये तनुकरण का महत्त्व काफी अधिक हो हमारे देश में, मीठे पानी की आवश्यकता काफी तेजी से बढ़ रही है। अतः पानी की प्रत्येक बूँद का सही इस्तेमाल करना ही हमारा उद्देश्य हो गया है। इसके परिणामस्वरूप हमारे देश की अधिकांश नदियों के प्रवाह की स्थिति में आशातीत कमी आई है। प्रवाह में आई इस कमी से इसमें अपशिष्ट का भार बढ़ा है जिसे अधिकांश नदियां पारिस्थितिक रूप से मृतप्राय हो गई हैं। अतः जल संसाधन प्रबंधन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

29.8 भारत के मुख्य जल गुणवत्ता के मुद्दे

भारत के संदर्भ में जल गुणवत्ता के मुख्य मुद्दों को नीचे बताया जा रहा हैः

(क) जल की कमी

1. अलग-अलग समय में अलग-अलग जगहों पर वर्षा का असमान वितरण एवं कृषि, औद्योगिक तथा घरेलू गतिविधियों के लिये जल संसाधनों का जरूरत से ज्यादा प्रयोग किया जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप कई जल-राशियाँ, साल के अधिकांश समय में सूखी या सिकुड़ी रहती हैं।

2. संरक्षण के लक्ष्यः अत्यधिक उपयोग से मांग को कम करना, कम से कम पानी को व्यर्थ बहाना, पानी का वाष्पीकरण अथवा रिसाव से होने वाला नुकसान कम करना, घरेलू उपयोगों में संरक्षण के प्रयास, भूमिगत जल स्तर को बढ़ाना, वर्षाजल का संचयन, जंगलों का पुनर्स्थापन, पुनःचक्रण एवं पुनः प्रयोग आदि इस समस्या से छुटकारा पाने के कुछ महत्त्वपूर्ण उपाय हैं।

(ख) रोगजनक प्रदूषण

1. जल संक्रमण से होने वाले रोग, भारत में सबसे महत्त्वपूर्ण जल गुणवत्ता के मुद्दे हैं। यह मुख्यतः बेकार बहने वाले जल के परिवहन तथा संशोधन व्यवस्था पर्याप्त न होने के कारण होता है। अतः मानव आवासों से उत्पन्न बेकार पानी या गंदे पानी का अधिकांश हिस्सा, प्राकृतिक जल में मिलाए जाने से पहले ढंग से न तो प्रवाहित होता है और ना ही संशोधित होता है। इसके फलस्वरूप सतही जल एवं भूजल दोनों ही दूषित हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त विसरित स्रोतों के द्वारा रोगजनित रोगाणुओं का योगदान भी काफी महत्त्वपूर्ण है। अतः अधिकांश सतही जल भंडार तथा कई भूमिगत जलस्रोत भी अशुद्धियों से युक्त होते हैं।

(ग) ऑक्सीजन का अभाव

1. जैसा कि ऊपर बताया गया है, गंदे जल का एक बड़ा हिस्सा जलस्रोतों में बिना किसी उपचार के सीधे ही भेज दिया जाता है। इसमें से एक बड़ा भाग घरेलू स्रोत से आता है। इस गंदे जल में काफी मात्रा में जैविक पदार्थ मिले होते हैं। कई उद्योग जैसे कृषि-आधारित उद्योग भी बहिर्स्राव (Effluent) का त्याग करते हैं जिनमें काफी मात्रा में जैविक पदार्थ होता है। यह जैविक पदार्थ जब पानी में सूक्ष्मजीवीय प्रक्रियाओं द्वारा ऑक्सीकृत हो जाता है, तो घुलनशील ऑक्सीजन को ग्रहण कर लेता है क्योंकि पानी में ऑक्सीजन की उपलब्धता काफी सीमित है, यदि उपलब्धता से खपत अधिक हो जाएगी तो ऑक्सीजन का अभाव हो जाएगा और जलीय प्राणियों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा।

2. कई जल राशियों में जैविक पदार्थों का जरूरत से ज्यादा आगमन, बहते हुए जल में कई रासायनिक तथा जैविक घटनाओं की श्रृंखला को जन्म देता है। जीवाणुओं की अधिक जनसंख्या, कठिन असहनीय गंध आदि सब ऑक्सीजन के अभाव की ओर इशारा करते हैं। पानी की सतह पर अक्सर, पानी की सतह से आने वाले ऐसी कीचड़ का गुच्छा तैरता नजर आता है। मानसून के दौरान, बाढ़ आने पर, नदियों या धाराओं की तह में जमा कीचड़ बहकर ऊपर आ जाता है और तैरने लगता है जिससे पानी से ऑक्सीजन निकलने लगती है। इस प्रकार अचानक हुए ऑक्सीजन के अभाव से, प्रतिवर्ष, मानसून के आरंभ होते ही पहली बाढ़ के बाद बहुत सारी मछलियाँ मरने लगती हैं।

3. CPCB के जल गुणवत्ता मॉनीटरन के परिणामों के आधार पर, वर्ष के अधिकांश समय में बहुत सी नदियाँ व झीलें इस समस्या का सामना पहले से ही कर रही हैं।

(घ) सुपोषण (यूट्रोफिकेशन)

घरेलू गंदा पानी, कृषि से वापस आने वाला पानी या इस्तेमाल किया गया पानी एवं कई औद्योगिक बहिःस्राव पानी में फॉस्फेट तथा नाइट्रेट जैसे पोषक तत्व पाये जाते हैं। इन पोषक तत्वों के कारण जल राशियों में शैवाल (शैवाल प्रस्फुटन) की उपज अधिक होती है। यह संतुलित जलीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिये वांछनीय नहीं है।

(ड.) लवणता

1. ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ सतही जल एवं भूमिगत जल दोनों में लवणीयता बढ़ती जा रही है। भूजल में लवण की अधिकता का कारण मुख्य रूप से बढ़ती हुई सिंचाई की गतिविधियाँ हैं या तटीय क्षेत्रों में समुद्री जल का प्रवेश हो सकता है। जबकि सतही जल में लवण की अधिकता का होना मुख्यतः औद्योगिक गंदे जल या कृषि से वापस आने वाले जल का इसमें मिलना है।

2. लवणता से पानी की योग्यता पीने या सिंचाई के लिये कम हो जाती है। यह सतही जल में पारिस्थितिकी तंत्र को भी प्रभावित कर सकता है।

3. कई जल राशियाँ विशेषकर भूमिगत जल में लवणीयता बढ़ रही है जिसका कारण है अधिक (सघन) सिंचाई वाले कृषि क्षेत्रों में बने हुए नमक का रिसाव।

4. बड़ी संख्या में औद्योगिक गतिविधियाँ ऐसा गंदा जल परित्याग करते हैं जिसमें उच्च मात्रा में घुलनशील ठोस पदार्थ होते हैं जो पानी की लवणीयता बढ़ाते हैं।

(च) विषाक्त प्रदूषण

1. कई उद्योगों से निकलने वाले विषाक्त बहिःस्राव एवं कृषि में रासायनों का प्रयोग बढ़ने की वजह से तथा उनका क्रमिक योगदान जो जलराशियों में होता रहता है, के कारण, देश की अधिकांश जल राशियाँ विषाक्त पदार्थों की उपस्थिति के कारण प्रदूषित हैं।

2. विषाक्त पदार्थों की उपस्थिति से पानी की गुणवत्ता में कमी आ जाती है जिससे यह मानव उपयोग, जलीय जीवजन्तु तथा सिंचाई के लिये अनुपयोगी हो जाता हैं।

(छ) पारिस्थितिक स्वास्थ्य

- हमारे जलीय पर्यावरण में कई ऐसे क्षेत्र हैं जो जलीय एवं उभयचर पेड़-पौधों तथा जीव जन्तुओं की दुर्लभ प्रजातियों को सहारा देते हैं तथा ये क्षेत्र पारिस्थितिक रूप से बहुत संवेदनशील होते हैं। इन्हें विशेष सुरक्षा की आवश्यकता होती है।

पाठगत प्रश्न 29.3

1- ‘‘जल गुणवत्ता’’ का क्या अर्थ है?
2. जल गुणवत्ता की अवधारणा, जल के उपयोग के प्रयोजन से अलग है, इसे एक उदाहरण देकर समझाइए।
3. हमारे देश के दो मुख्य जल गुणवत्ता के मुद्दे क्या हैं? नाम लिखिए।
4. यूट्रोफिकेशन (सुपोषण) क्या है?
5. कुछ विशेष जल क्षेत्रों को विशेष सुरक्षा की आवश्यकता क्यों होती है?

29.9 भारत में जल का उपयोग

भारत में जल के उपयोग को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है अर्थात जल को निकाल कर प्रयोग करना एवं जल को जल धारा में से ही प्रयोग करना। इन उपयोगों का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया हैः-

(1) जल को निकाल कर प्रयोग करना

जल को निकालकर प्रयोग करने के अन्तर्गत घरेलू जल आपूर्ति, सिंचाई, पानी का औद्योगिक उपयोग शामिल है। इसका वर्णन नीचे दिया गया हैः-

(क) घरेलू जल आपूर्ति

वे शहर जो जल निकायों के किनारे बसे होते हैं, लेकिन परंपरागत संशोधन के बाद पानी को पीने तथा अन्य कार्यों के लिये इस्तेमाल करते हैं। भारत में करीब 14 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी प्रतिवर्ष घरेलू जल आपूर्ति में इस्तेमाल होता है। भारत में करीब 85 % जनसंख्या घरेलू इस्तेमाल के लिये एक जल स्रोत के रूप में भूजल पर निर्भर है। कुछ शहरी तथा ग्रामीण जनता, घरेलू कार्यों के लिये परंपरागत संशोधन के बाद सतही जल का भी इस्तेमाल करती हैं।

(ख) सिंचाई

भारत में पानी का सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग सिंचाई है। लगभग 84 % पानी केवल सिंचाई के लिये इस्तेमाल होता है। सिंचाई के लिये प्रतिवर्ष इस्तेमाल होने वाले कुल पानी का अनुमान 460 BCM है।

(ग) औद्योगिक उपयोग

काफी मात्रा में पानी औद्योगिक प्रयोजनों के लिये भी उपयोग किया जाता है। CPCB के अनुमान के अनुसार करीब 30 BCM प्रति वर्ष पानी थर्मल पॉवर संयंत्रों में शीतलन जल के रूप में इस्तेमाल होता है।

(2) जल-धारा के रूप में जल का प्रयोग

जल धारा के रूप में जल के प्रयोग निम्न हैं :

(क) हाइड्रोपॉवर (जलशक्ति)

भारत में हाइड्रोपॉवर (जल से प्राप्त ऊर्जा) के विकास की कुल संभावना अनुमानित तौर पर 84,000 मेगावाट है, जिसका 60 प्रतिशत लोड फैक्टर है। अब तक 13,400 मेगावाट पनबिजली पैदा की जा चुकी है एवं तीन योजनाएँ जिनकी कुल क्षमता करीब 5420 मेगावाट है, निर्माणाधीन है।

(ख) मत्स्य पालन
भारत में जलस्रोतों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर पूरे देश में मत्स्य पालन के लिये होता है। भारत विश्व में सातवाँ सबसे बड़ा मछली उत्पादन करने वाला देश है तथा चीन के बाद सबसे बड़ा अंतर्देशीय मात्स्यिकी वाला देश है।

(ग) नौसंचालन (Navigation)

वर्तमान में नदियों के तंत्र को पूरी तरह नौसंचालन के लिये इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। लेकिन हमारे नदियों के तंत्र के लंबे चौड़े विस्तार को नौसंचालन के लिये इस्तेमाल करने की योजना बनी है। अंतर्देशीय जल पथ जो पब्लिक सेक्टर में है, सरकार द्वारा अधिकृत सेंट्रल इनलैंड वॉटर ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन (Central Inland Water Transport Corporation, IWTC) द्वारा संचालित है। इसके साथ-साथ निजी सेक्टर की कंपनियाँ इनलैंड वॉटरवेज ट्रैफिक के मुख्य हिस्से का संचालन करती है (इसमें यात्रा के लिये पानी के जहाज, नावों आदि का प्रयोग होता है)। अंतर्देशीय जलपथ पथ का ट्रैफिक (Inland Waterways Traffic), देश के कुल ट्रांसपोर्ट द्वारा प्रभावित रहता है। IWT ट्रैफिक पर घरेलू, कृषि एवं औद्योगिक उपयोगों इत्यादि के लिये पानी निकाले जाने पर, विपरीत प्रभाव पड़ता है।

(घ) सामुदायिक स्नान एवं धुलाई

सभी सतही जल स्रोतों का इस्तेमाल स्नान एवं धुलाई के लिये होता है। विशेष सांस्कृतिक तथा धार्मिक अवसरों पर लाखों लोग हमारी पवित्र नदियों में पवित्र स्नान करते हैं। ये अवसर हैं ‘गंगा स्नान’, ‘कुंभ मेला’ आदि।

(ड.) मवेशियों को नहलाना तथा पानी पिलाना

सतही जल के किनारे बसे अधिकांश नगर एवं गाँव इस जल का प्रयोग मवेशियों को नहलाने तथा उन्हें पानी पिलाने या उनकी सफाई के लिये करते हैं।

(च) कच्चे माल के रूप में पानी एवं ना कि कचरा फेंकने की जगह

औद्योगीकरण तथा बढ़ती जनसंख्या के कारण, जल की आवश्यकताओं का दायरा बढ़ा है। इसके परिणामस्वरूप जलस्रोतों में से जल का स्तर धीरे-धीरे कम हो रहा है तथा इसकी गुणवत्ता भी धीरे-धीरे घट रही है। जल का प्रत्येक उपयोग जिसमें जल की सिंचाई भी शामिल है, की गुणवत्ता को प्रभावित करता है। इन निश्चित उपयोगों के अलावा, ऐसी कई मानव गतिविधियाँ होती हैं जिनका जल गुणवत्ता पर अप्रत्यक्ष एवं अवांछनीय (यद्यपि भयंकर नहीं) प्रभाव पड़ता है।

इसके उदाहरण हैं: अनियंत्रित भूमि प्रयोग, जंगलों की कटाई, दुर्घटनावश (या अनधिकृत) रूप से रसायनों को डालना, बिना संशोधन के या आंशिक संशोधन के कचरे को डालना या ठोस कचरे में से विषाक्त तरल पदार्थों का पानी में घुल जाना आदि हैं। इसी तरह उर्वरकों तथा कीटनाशकों का अनियंत्रित अथवा जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल भी सतही एवं भूमिगत जल स्रोतों पर दूरगामी प्रभाव छोड़ता है।

प्राकृतिक जल चक्र में संरचनात्मक हस्तक्षेप जो नहरों, एवं बांधों के निर्माण के द्वारा होता है, नदियों से पानी को काटकर उसका रुख मोड़ने से होता है तथा जलभृतों की अधिक पंपिंग से होता है, वातावरण को दूरगामी नुकसान पहुँचाते हैं।

पाठगत प्रश्न 29.4

1. जल का एक-एक उपयोग जल को निकालकर एवं जल-धारा के रूप में कीजिए।
2. नदियों पर नहरें और बांध बना लिये जाते हैं, तो इनका क्या लाभ होता है?
3. हमारी नदियों को होने वाले दूरगामी पारिस्थितिकी नुकसान के दो कारण बताइए।

आपने क्या सीखा

1. पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का एक छोटा हिस्सा ही अलवण जल है। भारतवर्ष में करीब 4000 बिलियन क्यूबिक मीटर (BCM) वर्षा पूरे वर्ष में होती है। यद्यपि जल की मात्रा 1150 BCM है। अब तक हम केवल 600 BCM जल का ही उपयोग कर पाए हैं।

2. अलवण जल के मुख्य स्रोत नदियां, झीलें तथा भूमिगत जल हैं।

3. पीने के पानी की आपूर्ति के लिये सतही जल को संशोधित किया जाता है जबकि भूमिगत जल को सीधे ही विसंक्रमित करके इस्तेमाल किया जा सकता है।

4. पीने के पानी के संशोधन में स्कंदन, निस्यंदन तथा विसंक्रमण जैसी प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं।

5. स्कंदन में ऐलम को मिलाया जाता है, जो महीन निलंबित कणों को मिलाकर फ्लॉक (Floc) बनाता है जो आसानी से नीचे जमा होकर फिल्टर किया जा सकता है।

6. विसंक्रमण विधि में, जल में से हानिकारक जीवाणु मर जाते हैं और जल रोगजनकों से मुक्त हो जाता है।

7. संशोधित जल को, आवास क्षेत्रों तक वितरण तंत्र द्वारा भेजा जाता है।

8. कुछ विशेष प्रदूषकों जैसे फ्लोराइड, आयरन या आर्सेनिक को विशेषतः रासायनिक संशोधनों द्वारा हटाया जाता है।

9. जल गुणवत्ता वह शब्द है जो एक खास उपयोग के लिये जल की योग्यता को परिभाषित करता है। प्रत्येक जल उपयोग के लिये विशेष जल गुणवत्ता आवश्यक है। भारत में जल की गुणवत्ता, वॉटर एक्ट, 1974 द्वारा नियंत्रित की जाती है।

10. जल को या तो जल की धारा में ही उपयोग किया जाता है अथवा इसे जल धारा में से निकाल कर इसका उपयोग होता है।

11. जल को निकालकर होने वाले उपयोग हैं घरेलू, औद्योगिक तथा कृषि क्षेत्र में सिंचाई जबकि जल धारा में रहते हुए जल के उपयोग हैं हाइड्रोपॉवर उत्पादन, मत्स्य पालन, नौसंचालन, बाहरी स्नान आदि।

12. रोगजनक प्रदूषण, भारत में जल प्रदूषण में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रदूषण का एक प्रकार है।

13. कुछ जल राशियां ऑक्सीजन का अभाव झेल रही हैं जबकि कुछ अन्य में विषाक्तता की समस्या या लवणीयता की समस्याएँ हैं।

14. कई मानव गतिविधियों जैसे कृषि, औद्योगिक तथा शहरों का जल की गुणवत्ता पर विशिष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।

पाठांत प्रश्न

1. पृथ्वी पर अलवण जल के वितरण का वर्णन कीजिए।
2. संक्षेप में भारत में जलस्रोतों के विभाजन के बारे में बताइए।
3. पीने के लिये पानी को किस प्रकार शुद्ध किया जाता है?
4. पानी को पीने के लिये शुद्ध करने की आवश्यकता क्यों पड़ती है?
5. भूमिगत जल पीने के लिये सुरक्षित क्यों है?
6. जल से अतिरिक्त फ्लोराइड को किस प्रकार हटाया जा सकता है?
7. जलधारा में रहते हुए जल के उपयोग से जल की गुणवत्ता किस प्रकार प्रभावित होती है?
8. भारत में जल गुणवत्ता के मुख्य मुद्दे क्या हैं?
9. एक कृषि क्षेत्र की गतिविधि जल की गुणवत्ता को किस तरह प्रभावित करती है?
10. जल की गुणवत्ता को कचरा फेंककर किस प्रकार बदला जाता है?

पाठगत प्रश्नों के उत्तर
29.1

1. लगभग 2.7%
2. 1400 मिलियन किमी3 से अधिक
3. झीलें, नदियां, भूमिगत जल

29.2
1. क्योंकि जल का प्रयोग पीने, नहाने, कपड़े धोने, सफाई आदि में किया जाता है और समुदाय के स्वास्थ्य की रक्षा के लिये भी है।
2. जल संशोधन (उपचार) के चरणः -
(क) विशुद्धिकरण या अवसादन
स्कंदन एवं ऊर्णन
(ख) विसंक्रमण, क्लोरीनेशन, ओजोन
3. फ्लोरोसिस एक अशक्त बनाने वाला एवं दर्दयुक्त रोग है जो फ्लोराइड के लेने से होता है।
4. वायु मिश्रण- अभिक्रिया सह निःसादन एवं निस्यंदन प्रक्रिया के क्रमबद्ध चरणों का प्रयोग करके।
5. इसके कारण विभिन्न प्रकार के त्वचीय विकार यहाँ तक कि कैंसर भी हो जाता है।

29.3

1. जल के उन भौतिक, रासायनिक या जैविक विशिष्टताओं को जिनके द्वारा उपयोग करने वाला जल की स्वीकारात्मकता का मूल्यांकन कर सकता है।
2. यह जल की भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणवत्ता पर आधारित, मानव स्वास्थ्य के लिये विषालु पदार्थों को हटाना है, हमें जल आपूर्ति के लिये पूरी तरह से शुद्ध एवं पीने योग्य पानी की आवश्यकता है।
3. पूरी तरह से शुद्ध एवं पेयजल की कमी है। रोगजनक प्रदूषण, ऑक्सीजन अपक्षय इत्यादि या अन्य कोई।
4. पोषक तत्वों से फॉस्फेटों एवं नाइट्रेटों की अधिकता। जल निकायों में शैवालों की अधिकतम वृद्धि को बढ़ावा देती है।
5. क्योंकि दुर्लभ प्रजातियों के संरक्षण एवं जलीय पर्यावरण की उत्तरजीविता के लिये।

29.4
1. (क) घरेलू जल आपूर्ति, सिंचाई (कोई अन्य)।
(ख) जल विद्युत शक्ति, मात्स्यकी एवं नौ संचायन (कोई अन्य)।
2. पर्याप्त मात्रा के सिंचाई के लिये जल, विद्युत-उत्पादन।
3. नदी धाराओं की दिशा परिवर्तन एवं लंबे समय तक पर्यावरण बदलाव, प्रदूषण।

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