अनावृष्टि का समाधान है कृत्रिम वर्षा (Artificial precipitation)

Submitted by Hindi on Fri, 10/28/2016 - 09:20
Source
विज्ञान गंगा, जुलाई-अगस्त, 2015

क्लाउड-सीडिंगक्लाउड-सीडिंगप्राचीनकाल से ही मनुष्य मौसम, खासतौर पर वर्षा को अपनी इच्छानुसार नियंत्रित करने का स्वप्न देखता रहा है। सम्भवत: सभी संस्कृतियों में वर्षा के आवह्न और अत्यधिक वर्षा को रोकने की प्रार्थना में अनेक कृत्य प्रचलित रहे हैं। भारतीय संस्कृति में इंद्रदेव जो कि वर्षा के देव हैं, सभी देवताओं में सर्वोच्च माने गये हैं। मूल अमरीकी जातियों के वर्षा नृत्य (rain dance), चीन में मौसम के मालिक ड्रेगनों की अर्चना, एजटेक सभ्यता में शिशुओं की बलि इत्यादि ऐसे कुछ उदाहरण हैं जो स्पष्ट करते हैं कि मौसम और उस पर नियंत्रण की इच्छा मानव जाति के लिये बेहद महत्त्वपूर्ण रहे हैं।

वर्षा चूँकि सीधे तौर पर जल की उपलब्धता और कृषि को प्रभावित करती है, इसीलिये यह मानव जाति को प्रभावित करने वाले प्रमुखतम कारणों में से एक है। 1801 से 2002 के बीच अकेले भारतवर्ष में 42 बार सूखे के कारण जन-धन की भारी हानि हुई है। आजादी के बाद 1979 के सूखे ने कृषि पैदावार को 20 प्रतिशत घटा दिया जबकि 1987 में पड़े सूखे से 28.5 लाख लोग प्रभावित हुए।

महाराष्ट्र में बारिश के कमी के कारण कपास उगाने वाले किसानों को भारी नुकसान हुआ। एक आँकड़े के अनुसार 2015 में 671 किसानों ने क्षुब्ध होकर आत्महत्या कर ली। इन सब कारणों से मौसम विज्ञानी वर्षा निर्माण के कारकों को समझने पर खास ध्यान देने लगे और प्राकृतिक वर्षा के विकल्प के रूप में कृत्रिम वर्षा पर विशेष खोज में जुट गये। मौसम के बारे में वैज्ञानिक जानकारी बढ़ने के साथ ईश्वर को प्रसन्न करने के बजाय मौसम को अपने हिसाब से बदलने की आकांक्षा मनुष्य के लिये प्राकृतिक है। वर्तमान में कृत्रिम तरीके से वर्षा करवाना अथवा रोकने के लिये तकनीक विकसित हो चुकी हैं और उनका प्रयोग भी आरम्भ हो चुका है। इसका प्रयोग सबसे पहले अमेरिका में हुआ जो तेजी से विश्व के दूसरे हिस्सों में फैल गया।

भारत में इसका प्रयोग हो रहा है और सूखाग्रस्त इलाकों के लिये यह तकनीक उत्साहवर्द्धक प्रतीत होती है। ऐसा बादलों के बीजीकरण या मेघबीजीकरण के कारण सम्भव हो सका है। यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें उपयुक्त पदार्थ को बादल के भीतर फैलाकर बादलों में नाभिकों या केंद्रिकों (nuclei) को उत्पन्न किया जाता है। इन केंद्रिकों के ऊपर लघु जलसीकारों (water droplets) तथा हिमकणों (ice crystals) के एकत्रित होने से उनके आकार में वृद्धि होती है और पानी की बूँदें तथा हिम गोलियों का निर्माण होता है जिससे वर्षा प्रारम्भ हो जाती है। इसके विपरीत बीजीकरण के लिये प्रयोग में लाये जाने वाले पदार्थ की मात्रा और प्रकृति में बदलाव कर वर्षा/हिमपात अथवा ओलावृष्टि को रोका भी जा सकता है।

मेघबीजीकरण का प्रारम्भ


हालाँकि मेघबीजीकरण का सिद्धान्त एकदम सीधा सा प्रतीत होता है, इस प्रक्रिया के वर्तमान रूप का इतिहास काफी दिलचस्प है। इस प्रक्रिया को सर्वप्रथम विंसेट शेफर (1906-1993) द्वारा जुलाई 1946 में प्रस्तावित किया गया। बाद में नोबल पुरस्कार विजेता इर्विंग लेंगुइमीर के साथ मिलकर उन्होंने अत्यधिक ठंडे (super cooled) बादलों पर शोध किए। उन्होंने टेलकम पाउडर, नमक, मिट्टी, धूल के कण और विविध पदार्थों के प्रयोग पर शोध किए। उसी समय वैज्ञानिक बेरनाद वोन्नेवेत ने सिल्वर आयोडाइड AgI का प्रयोग कर मेघबीजीकरण का नया तरीका ईजाद कर लिया था। शेफर का तरीका बादलों के ऊष्मा बजट में बदलाव पर केन्द्रित था जबकि वोन्नेगट का क्रिस्टल संरचना में बदलाव पर।

13 नवम्बर 1946 को शेफर ने प्राकृतिक बादलों के बीजीकरण का पहला प्रयास किया। वह छ: पाउंड ड्राइ आइस के प्रयोगकर पश्चिमी मेस्साचुसेट्स में स्थित माउंट ग्रेयलोक्क पर हिमपात करने में सफल रहे थे। इसके बाद कई प्रयोग जारी रहे। शुरुआत के अधिकतर प्रयोगों में AgI के मात्र छिड़काव का असर देखा जाता था लेकिन समय के साथ बादलों और मौसम विज्ञान की जानकारी में वृद्धि के कारण छिड़काव के सही समय, स्थान, मात्रा और सफलता/असफलता की आशंका की गणना भी की जाने लगी जिससे इस तकनीक को सस्ता और अधिक प्रभावी बनाया जा सके। 1950 के दशक में सूखे से पीड़ित इलाकों में इस प्रक्रिया का जमकर प्रयोग किया जाने लगा था। उस समय सफलता का प्रतिशत काफी कम था परन्तु यह तकनीक विवादों के घेरे में आ गई क्योंकि इसका प्राकृतिक मौसम के ऊपर क्या प्रभाव हो सकता था, इसके बारे में जानकारी नगण्य थी। अत: इससे जुड़े शोध अत्यन्त वांछनीय थे। वर्तमान में भी सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त नहीं हो पायी है, हालाँकि मेघबीजीकरण का प्रयोग कई देशों में वृहद स्तर पर किया जा रहा है।

प्रक्रिया


बीजीकरण के लिये सामान्यत: सिल्वर आयोडाइड (AgI) पोटैशियम आयोडाइड (KI), ड्राइ आइस और तरल प्रोपेन जो की गैस में फैलता है, दूसरे हयग्रोस्कोपिक रसायन जैसे साधारण नमक का प्रयोग किया जाता है। इनमें AgI का प्रयोग सर्वाधिक किया जाता है। आण्विक स्तर पर AgI की संरचना बर्फ की संरचना के बहुत समान होती है।

Fig-1सम्भवत: इसीलिये बर्फ इससे बॉन्ड करना चाहता है। इन पदार्थों को विमानों, विशिष्ट जनरेटरों या रॉकेट लाँचरों कि सहायता से बादलों के बीच पहुँचाया और फैलाया जाता है (चित्र 1)।

सही पदार्थ का चयन बादल के प्रकार, ऊँचाई, तापमान और अन्य वायुमंडलीय स्थितियों पर निर्भर करता है। बीजीकरण का प्रयोग दो तरीकों से किया जाता है :

1. ग्‍लेशिओजेनिक बीजीकरण : अत्यधिक ठंडे बादलों में (-7-200C ) जोकि सामान्यत: अधिक ऊँचाई पर होते हैं, जल की बूँदें केंद्रिकों के ऊपर जमने लगती हैं जो तत्पश्चात भारी होने पर आकाश से गिर पड़ती हैं और मार्ग में पिघल कर वर्षा/हिमकणों का रूप ले लेती हैं। इस प्रकार के बादलों में यदि केंद्रिकों की कमी हो तो उनका बीजीकरण किया जाता है। इस प्रक्रिया को स्टेटिक बीजीकरण भी कहा जाता है। मुख्य ग्लेशिओजेनिक केंद्रक AgI और ड्राई आइस है।

2. हाईग्रोस्‍कोपिक बीजीकरण : अपेक्षाकृत गरम बादल जिन्हें कुमुलोनिम्बस कहा जाता है और जो कि कम ऊँचाई पर बनते हैं, उनमें हाईग्रोस्कोपिक केंद्रक डाले जाते हैं जिसके लिये सोडियम, लिथियम या पोटैशियम के लवणों का प्रयोग किया जाता है। ऐसे बादलों में बड़े केन्द्रक जलवाष्प को संघनित और एकत्रित करने में मदद करते हैं। इस प्रक्रिया को डाइनैमिक बीजीकरण भी कहा जाता है।

समुचित प्रयोग एवं आशंकाएं


शुष्क इलाकों में पानी की आपूर्ति के लिये बारिश या बर्फबारी बढ़ाई जा सकती है। साथ ही बारिश या हिमपात को किसी जगह पर होने से रोका या उसका स्थाना बदला जा सकता है। ऐसा कुछ परिस्थितियों में लाभप्रद हो सकता है। मेघबीजीकरण की प्रक्रिया मात्र वर्षा करने तक ही सीमित नहीं रह गई है अपितु वैज्ञानिक इस तकनीक से बादलों में अन्य ऐसे बदलाव कर सकते हैं जिनसे अन्य एच्छिक प्रभाव उत्पन्न किए जा सकें। येल विश्वविद्यालय के जलवायु वैज्ञानिक तृद स्टोरेमो के अनुसार साइर्स बादल जो कि 5-15 km की ऊँचाई पर पाया जाता है और जिसके बारे में वैज्ञानिक अच्छी तरह से जानते हैं, उसे इस तकनीक के प्रयोग से महीन या अधिक सफेद बनाया जा सकता है जिससे की बादल के कारण होने वाले ऊष्मण को नियंत्रित किया जा सके। इससे स्थानीय मौसम को बदलने में सफलता मिलेगी। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार बादलों के रंग को हल्का कर उन्हें सूर्य की रोशनी को परिवर्तित करने के प्रयोग में लाया जा सकता है जिससे कि ग्लोबल वार्मिंग को कुछ हद तक कम किया जा सके (मोर्टन, 2009)।

हालाँकि वैज्ञानिक ये भी मानते हैं कि इसके दुष्परिणामों के बारे में अभी जानकारी बेहद कम है और वृहद स्तर पर इसका प्रयोग घातक हो सकता है। इसमें प्रयोग होने वाले पदार्थ जैसे कि AgI, अपने वातावरण में अनपेक्षित परिणाम उत्पन्न कर सकते हैं (बॉल, 2013)। AgI का लगातार सम्पर्क मनुष्यों और अन्य जीवों के लिये घातक हो सकता है। यदि मेघबीजीकरण की प्रक्रिया योजना के अनुरूप न हो पाये या फिर किसी भी अन्य कारण से किसी भी अवयव में बदलाव हो जाए तो, पूरी प्रक्रिया बेकार हो जाती है जो कि आर्थिक रूप से हानिकारक होता है। कुछ वैज्ञानिक अस्थिर पर्यावरणों में AgI की जगह BiI3 को बेहतर मानते हैं क्योंकि ये पदार्थ बर्फ के बनने में मदद करता है। मेरीलैंड विश्वविद्यालय, यूएसए के वैज्ञानिक झंकिंग ली आशंका व्यक्त करते हैं कि यदि सही स्थिति न हो तो बीजीकरण से वर्षा होने के बजाय बादल की प्राकृतिक वर्षा क्षमता घट सकती है। वायु प्रदूषण के कारण उत्पन्न ऐरोसोल्स के ऐसे प्रभाव पहले से ही देखे जा रहे हैं।

कुछ प्रमुख उदाहरण


वर्तमान में अनेक देश किसी रूप में मेघबीजीकरण के प्रयोग कर रहे हैं और कुछ कम्पनियाँ भी खासतौर पर इस क्षेत्र में अपनी सेवाएँ दे रही हैं। ऑस्ट्रेलिया, ईरान, चीन और यूएसए इनमें अग्रणी हैं। कैलिफोर्निया में 3 मिलियन यूएस डॉलर के खर्च पर प्रतिवर्ष 4 प्रतिशत अधिक वर्षा उत्पन्न की जाती है जोकि 370-490 मिलियन क्यूबिक मीटर के बराबर है। अन्य देश जहाँ पर ये तकनीक तेजी से प्रयोग में लायी जा रही है में थाइलैंड, इन्डोनेशिया, मलेशिया एवं सिंगापुर प्रमुख हैं। उनके अलावा मेघबीजीकरण के कुछ महत्त्वपूर्ण एतिहासिक उदाहरण भी हैं :

1. वियतनाम युद्ध में प्रयोग : मार्च 1967 से जुलाई 1972 के बीच वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिकी सेना ने AgI का प्रयोग हो-चि-मिन्ह पथ में अत्यधिक वर्षा कर बाढ़ लाने के लिये किया जो कि अमेरिका के लिये अत्यधिक विवादास्पद एवं शर्मनाक बन गया।

2. रैपिड सिटी में बादल का फटना : 1972 में बादल फटने के कारण 200 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गयी। इसके कारण बादल फटने से पहले किये गये मेघबीजीकरण को माना गया, हालाँकि दोनों के बीच में मजबूत संबंध नहीं मिले।

3. व्‍योममिंग (यूएसए) के पर्वतों पर से हिमपात में वृद्धि : लगातार छः वर्षों तक शोध की दृष्टि से AgI का छिड़काव किया जाता रहा और 2014 में उसके विस्तृत निरीक्षण पर पाया गया कि कृत्रिम तरीके से वर्षा अथवा हिमपात में 5-15 प्रतिशत हुई (वित्जे, 2014)। इस शोध में 14 मिलियन यूएस डॉलर से ज्यादा का खर्च हुआ। इस दीर्घकालिक परीक्षण के बाद वैज्ञानिक काफी उत्साहित हैं और मेघबीजीकरण को सफल बता रहे हैं। इस कार्य में वैदर मॉडिफिकेशन र्इंकोर्पोरेशन ऑफ फार्गो, उत्तरी डकोटा नामक कम्पनी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस तकनीक को कम्पनियाँ मुनाफे का एक महत्त्वपूर्ण जरिया मान रही हैं। इस दौरान 118 बार बीजीकरण किया गया जिससे कई बार AgI छिड़काव के बाद पवन के साथ दूसरे स्थान पर पहुँच जाती थी। साथ ही कभी-कभी प्राकृतिक कारणों से होने वाले हिमपात को कृत्रिम रूप से कराये गए हिमपात से अलग कर पाना मुश्किल होता था। लेकिन ऐसे कई प्रयोगों से मेघबीजीकरण से संबंधित कई चुनौतियों को समझने और उनके समाधान में मदद मिली है।

4. प्रोजेक्ट स्टोर्मफ्यूरी : 1960 में अमेरिकी मिलिट्री ने अटलांटिक बेसिन में हरिकेनों को नियंत्रित करने के लिये इस प्रक्रिया का प्रयोग किया। कुछ हेरिकेनो की प्रवृत्ति में बदलाव अवश्य देखे गए लेकिन इस शोध को उसके संभवत: अप्रत्याशित परिणामों कि आशंका में रोक दिया गया।

5. चीन में वर्षा करना और ओलावृष्टि को रोकना : चीन विश्व के सबसे बड़े मौसम नियंत्रण कार्यक्रमों में से कुछ के लिये जाना जाता है। इन कार्यक्रमों पर सालाना 60-100 मिलियन यूएस डॉलर का खर्च होता है और तकरीबन 32,000 कर्मी खासतौर पर मेघबीजीकरण के लिये बनाए गए 35 विमानों, 5000 रॉकेट लॉन्चर्स और अन्य मशीनों का संचालन करते हैं। चाइना मेट्योरोलॉजिकल एसोशिएशन के अनुसार 1999 से 2006 के बीच 250 मिलियन टन वर्षा कृत्रिम तरीके से कराई गयी। चीन में कृषि की सुरक्षा के लिये ओलावृष्टि को भी इसी तकनीक से रोका जाता है।

बीजिंक ओलंपिक्‍स में वर्षा नियंत्रण


Fig-22008 के बीजिंग ओलंपिक्स के लिये चीन सभी कुछ अपने नियंत्रण में करना चाहता था। खेलों की घोषणा के साथ ही बीजिंग मेट्योरोलॉजिकल ब्यूरो ने खेलों के दौरान मौसम का अंदाजा लगाना शुरू कर दिया था। ओलिंपिक्स के उद्घाटन समारोह में वर्षा की सशक्त आशंका थी इसलिये 21 अलग-अलग जगहों से वर्षा वाले बादलों के बीच रॉकेट लॉन्चर्स की मदद से AgI फैलाया गया जिसकी वजह से बादलों को बीजिंग पहुँचने से पहले ही बाओडिंग सिटी पर बरसाया जा सका।

भारत में प्रयोग


1951 में टाटा कम्पनी ने पश्चिमी घाटों पर मेघबीजीकरण के कुछ प्रयोग किए। उसके बाद सीएसआईआर, नई दिल्ली ने रेन एंड क्लाउड फिजिक्स रिसर्च यूनिट के गठन का प्रस्ताव दिया जो बाद में पुणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मीटियोरोलॉजी का हिस्सा बन गया। 1957 से अब तक ये संस्थान देश के विभिन्न हिस्सों में मेघबीजीकरण से संबंधित प्रयोग करता रहा है। 1983-87 और 1993-04 के दौरान तमिलनाडू में सूखे से कुछ हद तक बचने के लिये इस प्रक्रिया का प्रयोग किया। बाद में 2003-04 में कर्नाटक और महाराष्ट्र में भी इसका प्रयोग किया गया। आज भारत में कई कम्पनियाँ अपनी सेवाएँ देना चाहती हैं क्योंकि हमारे यहाँ सिंचाई की समुचित सुविधा न होने के कारण कृषि का बड़ा हिस्सा मॉनसून पर आश्रित है। वर्तमान सरकारें भी सूखा प्रभावित क्षेत्रों में इसका प्रयोग करना चाहती हैं।

मेघबीजीकरण की सफलता शत-प्रतिशत नहीं है फिर भी तुरन्त राहत के लिये इसका प्रयोग कुछ जगहों पर उपयुक्त माना जाता है। हालाँकि यह सर्वोत्तम विकल्प नहीं है क्योंकि अंतत: वर्षा मॉनसून पर ही निर्भर करती है। सतत फायदे के लिये कृषि एवं जल प्रबंधन सर्वोपरि हैं क्योंकि फसल की उपज मात्र वर्षा पर ही नहीं अपितु अन्य अनेक कारणों पर निर्भर करती हैं और सूखा हमारे देश में आम है। इसके अलावा विस्तृत तौर पर इस तकनीक का प्रयोग भविष्य में बादलों के स्वामित्व को लेकर विवाद उत्पन्न कर सकता है क्योंकि किसी स्थान के जगह कहीं और वर्षा कराना एक प्रकार का जल आवंटन माना जा सकता है। अत: अन्य सभी तकनीकों की तरह इस तकनीक का प्रयोग भी बेहद सोच समझकर और दूर-दृष्टि के साथ करना होगा।

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