प्रदूषणों के प्रभाव में जलवायु की चरम घटनाएँ
मध्य प्रदेश के सतना जिले में अप्रैल 2016 में कम वर्षा हुई थी। और फिर महज दो दिनों में 400 मिमी भारी वर्षा होने से समूचे जिले में भीषण बाढ़ आ गई। एक सामान्य वर्ष में इस जिले में इतनी वर्षा दो महीनों की अवधि में होती। वास्तव में अत्यधिक वर्षा के दौर -भारतीय मौसम विभाग 24 घंटे में 204.5 मिमी से अधिक वर्षा को अत्यधिक कहता है, -से जून जुलाई में 18 राज्यों में अनेक स्थानों पर बाढ़ आ गई।
यद्यपि मानसून के महीनों में बिजली गिरने से मौत होना सामान्य बात है, लेकिन इस बार चार दिनों तक यह अभूतपूर्व ढंग से अधिक रहा। 31 जुलाई से 3 अगस्त के बीच ओड़िशा के विभिन्न इलाकों में कम-से-कम 56 लोग बिजली गिरने से मारे गए। जून में मानसून का मौसम शुरू होने के समय से आठ राज्यों में कम-से-कम 400 लोग बिजली गिरने से मारे गए।
2016 का ग्रीष्म मानसून चीन में भी असामान्य ढंग से मजबूत था। इससे जुलाई में भारी वर्षा हुई और बाढ़ आई, 400 लोग मारे गए और एक लाख लोग विस्थापित हुए। अगस्त के आरम्भ में भीषण वज्रपात ने अमेरिका के विभिन्न हिस्सों में तबाही फैला दी। इस तरह की चरम घटनाएँ, तेज आँधी, मेघ फटना और बाढ़ आना विश्व भर में सामान्य हो गई हैं। लेकिन उपग्रह तकनीकों और मौसम मॉडलों की तमाम प्रगति के बावजूद वैज्ञानिक उनके आगमन का पूर्वानुमान नहीं कर पा रहे। एक सर्वसम्मति-सी बन रही है कि पूर्वानुमान की सक्षमता में अनिश्चितता का कारण है -बादल।
भारतीय उष्णकटिबन्धीय मौसम संस्थान, पूणे में भौतिकी और उष्णकटिबन्धीय बादल गतिविज्ञान कार्यक्रम के मुख्य परियोजना वैज्ञानिक थारा प्रभाकरण कहती हैं कि बादल मौसम के वाहक हैं। वे जलविज्ञानी चक्र को सक्षम बनाते हैं और तकरीबन सभी वर्षापात के कारण होते हैं। वे वैश्विक जलवायु प्रणालियों और उनकी स्थानीय अभिव्यक्ति के बीच मध्यस्थ के रूप में भी काम करते हैं। फिर भी वैज्ञानिक उनके बारे में कम ही जानते हैं और इसे मुश्किल से समझते हैं कि वे मौसम को कैसे प्रभावित करते हैं, जलवायु चक्र की तो बात ही अलग है।
मौसम के चरम और मनमौजी परिघटनाओं के बारम्बार होने के साथ तापमान में बढ़ोत्तरी से वैज्ञानिक बादल के पीछे के रहस्यों को जानने के लिये बेचैन हैं। अभी तक अधिकांश वैज्ञानिक एक कारक को स्पष्ट कर सके हैं जो बादल के बनने और विकसित होने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है और इस प्रकार मौसम पर अपने प्रभाव को थोपता है- वह है एयरोसोल।
जटिल नाम से सम्बोधित एयरोसोल सूक्ष्म कार्बनिक और अकार्बनिक कणों को कहते हैं जो वायुमण्डल में निरन्तर मिलते रहते हैं। यह प्राकृतिक हो सकता है जैसे धूल, ज्वालामुखी की राख और पौधों से उत्सर्जित वाष्प या मानव निर्मित जैसे कृषिगत धूल, वाहनों का धुआँ, खदानों के उत्सर्जन या ताप विद्युत प्रकल्पों की कालिख इत्यादि।
‘ये सूक्ष्म प्रदूषक ऐसे स्थल के रूप में काम करते हैं जहाँ जलीय वाष्प एकत्र होकर बादल की बूँदों का निर्माण करते हैं। सुश्री प्रभाकरण कहती हैं, ‘मौसम पर बादलों का प्रभाव इस अतिसूक्ष्म स्तर से आरम्भ होता है।’ मसलन, वायुमण्डल में विद्यमान एयरोसोल के प्रकार और उनकी मात्रा बादलों के व्यवहार को नियंत्रित करते हैं- क्या यह वर्षापात में परिणत होगा, सौर्य विकिरण को आकाश में वापस लौटा देगा या विकिरित ऊष्मा को पकड़कर रखेगा। स्थानीय मौसम विज्ञानी कारक बादलों के व्यवहार को इसके बाद प्रभावित करते हैं।
प्रदूषित हवा वर्षा को दबा देती है
जेरूसेलम के हिब्रू विश्वविद्यालय में पृथ्वी विज्ञान विभाग के प्रोफेसर डेनियल रोसेनफोर्ड कहते हैं कि एयरोसोल की अधिक संख्या का मतलब बादलों की बूँदों की अधिक संख्या है। लेकिन बादल की बूँदों की अधिक संख्या का मतलब अधिक वर्षा कतई नहीं है। चूँकि बादल का पानी अनेक एयरोसोल में बँट जाता है, जिससे छोटी बूँदों की बहुत अधिक संख्या का निर्माण होता है, इनका बड़ी बूँदों में एकीकृत होना काफी धीमी गति में होती है जो वर्षा के दौरान गिरती हैं। दूसरी भाषा में दूषित वायु अक्सर वर्षापात को दबा देती है।
जर्नल ‘वाटर रिसोर्सेज रिसर्च’ में 2008 में प्रकाशित एक अध्ययन इसका समर्थन करता है। धूल और वर्षा के सम्बन्ध को समझने के लिये अमेरिका के वर्जिनिया यूनिवर्सिटी और नासा गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज के शोधकर्ताओं ने उत्तरी और केन्द्रीय अफ्रीका के सहेलियन पट्टी में 1996-2005 के एयरोसोल सूचकों, हवा की दिशाओं और वर्षा के आँकड़ोंं का विश्लेषण किया। उनके विश्लेषण ने दिखाया कि इस क्षेत्र के धूलकण वर्षा को दबा देती है। इस क्षेत्र में महीन धूल कणों का परिणाम बादल-बूँदों के बहुत सारे बीजारोपण स्थल के रूप में हुआ जो बादल बूँदों के उस आकार में बनने में अवरोध साबित हुए जिससे वर्षा होती। हालांकि यह उथले बादलों के मामले में ही सही है, पर रोसेनफेल्ड कहते हैं कि प्रदूषित बादल बड़ी तबाही करने में सक्षम होते हैं।
बिजली चमकने और बादल फटने में भूमिका
श्री रोसेनफेल्ड कहते हैं कि प्रदूषित बादल कई बार संवहन के कारण अधिक ऊँचाई पर चले जाते हैं। इस स्तर पर बादल बूँदों का व्यवहार बदल जाता है। वे पर्याप्त आकार ग्रहण कर लेती हैं ताकि बड़ी बूँदों में सम्मिलित हो सके जो वर्षा के रूप में गिर सकती हैं।
दुर्भाग्यवश, ये बादल जिन्हें कुमुलोनिम्बस कहा जाता है, चरम घटनाओं जैसे तूफान, अन्धड़, भीषण धूलभरी आँधी, बवंडर और बादल फटने के जिम्मेवार होते हैं। जैसाकि भारतीय मौसम विभाग, दिल्ली में क्षेत्रीय विशेषीकृत मौसम केन्द्र के प्रमुख एम महापात्रा कहते हैं।
अगर कुमुलोनिम्बस बादल बड़ी संख्या में एयरोसोल के साथ अधिक ऊपर उठ जाएँ तो बादल के ऊपरी हिस्से में अनेक बर्फ की गोलियाँ बन जाती हैं। बादल के भीतर पानी और बर्फ की गोलियों का निरन्तर और उर्ध्वाधर प्रवाह बड़ी मात्रा में स्थैतिक ऊर्जा को उत्पन्न करती है जो बिजली चमकने और आँधी, तूफान का कारण बनती है। अनेक अध्ययनों ने दिखाया है कि ज्वालामुखी का फटना अक्सर बादलों में एयरोसोल की बड़ी मात्रा होने की वजह से बिजली चमकने के बाद घटित होता है।
इस अवलोकन को भारत के उन इलाकों में प्रयुक्त किया जा सकता है जिनमें बिजली गिरने और वज्रपात से मौत की घटनाएँ होती है। देश में मौसम से सम्बन्धित मौतों की घटनाओं में वज्रपात प्रमुख है। सन 2000 से लगभग 30,000 लोगों की मौत वज्रपात के झटके से हुई है। हालांकि इस सम्बन्ध को पुष्ट करने के लिये कोई घटना आधारित अध्ययन नहीं किया गया है, लेकिन वज्रपात से बुरी तरह प्रभावित क्षेत्रों का भारत के एयरोसोल उत्सर्जन मानचित्र के साथ तुलना करने पर यह अन्तर-सम्बन्ध स्पष्ट दिखता है। देश की मुख्यभूमि में उत्तरी और पूर्वी हिस्से में गंगाघाटी, केन्द्रीय भारत और दक्षिण के पठार के समानान्तर एयरोसोल की मात्रा सर्वाधिक है। इसी क्षेत्र में सर्वाधिक प्रदूषणकारी उद्योग भी हैं। लोग बड़े पैमाने पर जैविक और खेतों के कचरा को जलाते हैं। और यही वह क्षेत्र है जिसमें बिजली गिरने से मौत की घटनाएँ सर्वाधिक होती हैं।
इसके अतिरिक्त ऊँचे बादल ऊर्जा के गमन के एक ऊर्ध्व मार्ग के रूप में काम करते हैं। श्री महापात्रा कहते हैं कि यही कारण है कि हम विमान यात्रा में बादल के बीच से गुजरते हुए अशान्ति का अनुभव करते हैं। बादल के भीतर की पानी की बूँदें और बर्फ निरन्तर और तेजी से ऊपर-नीचे जाती है, इस दौरान वे अनेक बार आपस में टकराती हैं, अतिशय चंचल और खतरनाक बन जाती हैं। एयरोसोल का इस चंचलता पर शक्तिवर्द्धक असर होता है। बादल में एकत्र समूचे पानी के एकबारगी गिरने के लिये किसी एक ट्रिगर या विमोचक की जरूरत भर होती है। यही कारण है कि ऊँचे बादलों के हिमालय की ढाल की ओर आने पर अक्सर बादल फटने की घटनाएँ होती हैं।
बवंडर के लिये उपयुक्त नुस्खा
अत्यधिक वर्षा कुमुलोनिम्बस बादलों के सम्भावित प्रभावों में केवल एक है। वे हवा की तेज गति उत्पन्न कर सकते हैं। बादलों की ऐसी प्रणाली में एयरोसोल कणों की बहुतायत वर्षा में देर करके उनके आकार और जीवनकाल को बढ़ा सकती है और आखिरकार जब वर्षा होती है तो चरम आँधी के साथ होती है। श्री महापात्रा कहते हैं कि इसका परिणाम चरम परिघटनाओं जैसे बवंडर, तूफान, धूलभरी आँधी इत्यादि में होता है। ऑस्टिन के टेक्सास यूनिवर्सिटी, कोलोराडो बौल्डर यूनिवर्सिटी और नासा के जेट प्रोपल्सन लेबोरेटरी के शोधकर्ताओं का एक ताजा अध्ययन श्री महापात्रा की स्थापना को वैधता प्रदान करता है।
शोधकर्ताओं ने भूस्थिर उपग्रह से 2430 बादल प्रणालियों का विश्लेषण किया और निष्कर्ष निकाला कि एयरोसोल का संकेन्द्रण आँधी के जीवन काल को स्थानीय मौसम विज्ञानी परिस्थितियों के अनुसार तीन घंटे से 24 घंटे तक बढ़ा सकती है। राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी की कार्यवाही में जून 2015 में प्रकाशित आलेख के प्रमुख लेखक सुदीप चक्रवर्ती कहते हैं, ‘‘एयरोसोल कणों के उच्च संकेन्द्रण के कारण बूँदों का आकार छोटा हो जाता है जिससे वर्षा में विलम्ब हो सकती है और आँधी वाले बादलों के मामले में यह आँधी के जीवनकाल और तीव्रता को बढ़ा देता है।’’
ऐसी परिकल्पनाओं की कमी नहीं है जो कहती है कि कुमुलोनिम्बस बादल अधिकांश में मौसम की चरम घटनाओं में परिणत होती हैं। श्री चक्रवर्ती के नेतृत्व में हुआ अध्ययन अकेला अध्ययन है जो बादलों के गुणधर्म को बदलने में एयरोसोल की भूमिका को दिखाता है।
आईआईटी दिल्ली में जलवायु विज्ञान केन्द्र के सहायक प्राध्यापक सांगनिक डे कहते हैं कि इसका मुख्य कारण बादलों के गुणधर्म के बारे में आँकड़ों का अभाव है। चूँकि आँकड़े संख्यात्मक और गुणात्मक दोनों लिहाज से उपग्रह से प्राप्त उन्नत और विस्तृत तस्वीरों के माध्यम से बेहतर होंगे, इसलिये शोधकर्ता बादलों के गुणधर्म में उन परिवर्तनों के अध्ययन में अधिक दिलचस्पी ले रहे हैं जिनका परिणाम मौसम की मनमौजी और असामान्य परिघटनाएँ होती हैं।
‘बादल बनने को प्रभावित करता है प्रदूषण’ जलवायु परिवर्तन शोध केन्द्र (सीसीसीआर) की स्थापना केन्द्र द्वारा आईआईटीएम के फिजिक्स एंड डायनेमिक्स अॅाफ ट्रॉपिकल क्लाउड प्रोग्राम के अन्तर्गत किया गया जो उस संवहन और वितरण की बनावट का अध्ययन करता है जिसका परिणाम बादल बनने और वर्षापात में होता है। हम प्रदूषण और बादल बनने के बीच के सम्बन्ध और प्रदूषण का वर्षा पर प्रभाव को बेहतर ढंग से समझने का प्रयास भी करते हैं। हमारे शोध का दूसरा क्षेत्र एयरोसोल के निहितार्थ और अनुप्रयोग है। हमने पाया है कि एयरोसोल उनके प्रकार के अनुसार बादल को बना या छितरा सकते हैं। हम यह देखने के लिये प्रयोग कर रहे हैं कि कम ऊँचाई पर वर्षा की बूँदों के बनने में बादलों के घनीकरण के केन्द्रक के रूप में कतिपय एयरोसोल का उपयोग किस तरह किया जा सकता है। इस प्रायोगिक संरचना को बादल बीजारोपण कहा जाता है। हम वर्षा लाने वाले बादलों पर प्रदूषण के प्रभावों को भी समझना चाहते हैं। हमने देखा है कि अत्यधिक प्रदूषित इलाकों में बादलों का बनना प्रभावित होता है और जल की बूँदें अक्सर बहुत छोटी और अधिक बिखरी हुई होती हैं। प्रदूषण का प्रकार भी बादल बनने को प्रभावित करता है। इस बारे में स्पष्ट तस्वीर अगले पाँच से दस वर्षों में बनेगी। हालांकि यह शोध उपकरण आधारित है और अक्सर खर्चिला होता है। हम आँकड़े एकत्र करते हैं और विमानों के सहारे अवलोकन करते हैं। हमारा बादल-प्रयोगशाला महाबालेश्वर में है। पिछले दिनों हम दो विमान किराए पर लेने में सफल हुए-शोध और बीजारोपण के लिये एक-एक। वर्तमान में केन्द्र सरकार की ओर से बजट में कटौती की वजह से हम केवल एक विमान शोधकार्यों के लिये भाड़ा पर ले सके जिस पर एक साल में 10 से 20 करोड़ खर्च होंगे। हमें एक उन्नत रडार की भी आवश्यकता है जो उन बादलों की निगरानी कर सके जिनका फैलाव लगभग 200 किलोमीटर त्रिज्या में होता है। लेकिन इसका लागत करीब 14 करोड़ होगा। उम्मीद है कि हम इसे खरीद सकेंगे और आने वाले वर्षों में बीजारोपण के प्रयोग जारी रख सकेंगे। हम अन्तरराष्ट्रीय साझीदारों के साथ तकनीकी सहभागिता करने की कोशिश कर रहे हैं। -तारा प्रभाकरण, आईआईटीएम पूणे में फिजिक्स एंड डायनेमिक्स ऑफ ट्रॉपिकल क्लाउड में मुख्य प्रोजेक्ट वैज्ञानिक हैं।) |
‘मानसून को प्रभावित करते अनेक कारक’ सेंटर फॉर ऐटमॉस्फेरिक एंड ओसीनिक साइंसेज (सीएओएस) का कामकाज मोटे तौर पर मानसून के इर्द-गिर्द घूमता है, लेकिन इसी में सीमित नहीं रहता। हम जलवायु और समुद्र का विभिन्न पैमाने पर निरीक्षण करते हैं जिसमें बादल की छतरी से लेकर जलवायु परिवर्तन तक शामिल है। हम मानसून के अन्तर-मौसमी और अन्तर-वार्षिक विचलन और उन पर एयरोसोल व समुद्रों के प्रभाव को समझने का प्रयास करते हैं। इसका कारण है कि समुद्र की सतह की भौतिक प्रक्रियाएँ गहरी स्तरों की भौतिक व्यवस्थाओं से बहुत भिन्न होती हैं। हम ओसियन मिक्सिंग एंड मानसून (ओएमएम) कार्यक्रम के अंग होने के अतिरिक्त अनेक भारतीय और अमेरीकी संस्थानों के सहयोगी हैं जिसके माध्यम से हम यह जानने की कोशिश में हैं कि हवा, लहरों और ज्वार से मिलने के बावजूद बंगाल की खाड़ी में निरन्तर एक उथला, ताजा स्तर क्यों बरकरार रहता है और इसे समझने का प्रयास कर रहे हैं कि यह स्तर समुद्र के ताप-गतिविज्ञान, हवा-समुद्री ज्वार और हवा-समुद्री सम्बन्धों को किस तरह प्रभावित करता है। अगले साल हम ब्रिटिश संस्थानों की साझेदारी में तीन बड़े क्षेत्र-प्रयोग करने जा रहे हैं जिससे भारतीय क्षेत्र की जलवायु, एयरोसोल और ऊपरी समुद्री सतह को समझ सकें। -रविशंकर नान्जुदिया, जलवायु और समुद्री विज्ञान केन्द्र, भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलुरु के अध्यक्ष हैं। |