डाउन टू अर्थ के पत्रकार के रूप में मानसून पर नजर रखना पूरे साल का काम है। भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के वार्षिक पूर्वानुमान जारी करने और भारतीय उपमहादेश की सीमाओं में मानसूनी बादलों के बनने के बहुत पहले मई के आरम्भ में ही समाचार कक्ष में मानसून के आगमन की आहट आने लगती है। वैज्ञानिकों-भारतीय और विदेशी को फोन किये जाते हैं, मानसून के बारे में ताजा वैज्ञानिक अध्ययनों को खंगालने में पुस्तकालय बहुत व्यस्त हो जाता है और मौसम के बारे में लोकगाथाओं की फिर से व्याख्या की जाने लगती है ताकि हर भारतीय के प्रश्न का प्रारम्भिक उत्तर पाया जा सके कि क्या इस बार मानसून सामान्य होगा?
यह प्रश्न कई बार बेचैनी का रूप ले लेता है। जैसे 2016 में। पिछले दो वर्षों से भारत घोर अकाल से ग्रस्त रहा जिससे 40 करोड़ लोग पीड़ित हुए। जिन दो लाख गाँवों की भौगोलिक सीमा में कोई जलस्रोत नहीं है, उनके लिये 2016 में अच्छी मानसून की उम्मीद बहुत मूल्यवान वस्तु थी।
मौसम विभाग ने इसकी कामना की और घोषणा किया कि 2016 में वर्षा सामान्य से अधिक होगी। लेकिन, इसका अर्थ क्या है? मानसून साँप-सीढ़ी के खेल का मौसमविज्ञानी समतुल्य हैं। पिछले तीन वर्षों से चूँकी सामान्य मानसून से भी अधिकतम पानी एकत्र करने पर फोकस है, उत्तर-पूर्व में कुछ हो रहा था जिसने एक मुखर सन्देश दिया जिसकी सबों ने अनदेखी कर दी थी। अगस्त के आखिर तक कोई 20 राज्यों में बाढ़ आ गई थी, अधिकांश राज्यों में उसकी तीव्रता रिकॉर्ड तोड़ने वाली थी।
असम में जब अप्रैल 2016 में बाढ़ आई थी, तब किसी ने ध्यान नहीं दिया। वहाँ नई सरकार ने कार्यभार सम्भाला ही था और मीडिया मानसून-पूर्व असामान्य ढंग से अत्यधिक वर्षा पर उतना ध्यान नहीं दे सकी। सबों ने सोचा कि बुढ़ी दीहिंग और दीसांग नदियों में बढ़ता पानी घट जाएगा। ऐसा नहीं हुआ। बाढ़ अगस्त के आखिर तक बनी रही जिसके दायरे में राज्य का 90 प्रतिशत हिस्सा आया और 40 लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए।
गुवाहाटी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. दिनेश चंद्र गोस्वामी ने बताया कि 2016 में मानसून-पूर्व वर्षा कुल मात्रा और भौगोलिक दायरा दोनों मायने में बहुत जबरदस्त थी।
नेशनल रिमोट सेंसिग सेंटर, हैदराबाद के अनुसार अप्रैल के चौथे सप्ताह में भारी वर्षा असम में बाढ़ की पहले चरण की कारण थी। विशेषज्ञों का कहना है कि मानसून-पूर्व भारी वर्षा ने पश्चिमी विक्षोभ की बारम्बारता में बढ़ोत्तरी का निश्चित प्रमाण दिया जो वर्षा लाती है। गुवाहाटी स्थित क्षेत्रीय मौसम विज्ञानी केन्द्र के अनुसार राज्य में मार्च-अप्रैल में वर्षा सामान्य से 21 प्रतिशत अधिक हुई। यह तथ्य भयभीत करने वाला है कि इस तरह की असामान्य वर्षा जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ अधिक सामान्य होती जाएगी।
गुवाहाटी आईआईटी में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर सुभाशीष दत्ता बताते हैं कि यह मानसून के बजाय मानसून-पूर्व वर्षा है जिसमें ग्लोबल वार्मिंग के कारण बढ़ोत्तरी होगी। श्री दत्ता ने 2012 में मध्य ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में बाढ़ पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का अध्ययन किया और पाया कि नदी का सर्वोच्च प्रवाह, बाढ़ का औसत कालखण्ड और मानसून-पूर्व वर्षा की तीव्रता के 2017-2100 के दौरान बढ़ने की सम्भावना है।
यह विडम्बना ही है कि असम बाढ़ को झेल रहा था जबकि इसके कूल मानसूनी वर्षापात में 1 जून से 16 अगस्त के बीच सामान्य से 25 प्रतिशत कमी दर्ज की गई। तो बाढ़ का कारण क्या था? आँकड़े बताते हैं कि बाढ़ के पहले अतिशय वर्षा की परिघटना हुई है। (देखें अंडर वाटर) भारतीय मौसम विभाग अतिशय वर्षापात की परिघटना को दो वर्गों में विभाजित करता है- 24 घंटे में 124.5 से 244.4 एमएम वर्षा को बहुत भारी और उससे अधिक वर्षा को ‘अत्यधिक भारी’। केवल जुलाई में ही असम में छह ‘बहुत भारी’ वर्षा के दिन हुए। 25 जुलाई तक केन्द्रीय जल आयोग ने राज्य के तीन जिलों में सामान्य बाढ़ की घोषणा की जबकि बेकी, संकोष और ब्रह्मपुत्र खतरे के निशान से ऊपर बह रही थी।
आईआईटी गुवाहाटी में सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर अरूप कुमार शर्मा बताते हैं कि 2016 की बाढ़ दूसरे प्रकार से असामान्य थी, इसलिये उसने अधिक नुकसान किया। उन्होंने कहा कि यह आँधी की दिशा की वजह से हुआ, नदी के प्रवाह की दिशा भी वही थी। ऐसी अवस्था में वर्षा ने जलस्तर के बढ़ने में सीधा योगदान किया।
हालांकि, अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में बढ़ोत्तरी का दावा करने के लिये पर्याप्त दीर्घकालीन आँकड़े उपलब्ध नहीं है। उदाहरण के लिये जलवायु परिवर्तन पर राज्य की कार्ययोजना कहता है कि असम में 24 घंटे वर्षा की कोई उल्लेखनीय प्रवृत्ति 1951 से 2010 के बीच नहीं देखी गई। हालांकि यह रिपोर्ट बताता है कि वर्ष 2021 से 2050 के बीच अत्यधिक भारी वर्षा की घटनाओं में 5-38 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हो सकती है और बाढ़ की घटनाओं में 25 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हो सकती है।
फैलाव
असम के अतिरिक्त बाढ़ ने अगस्त के तीसरे सप्ताह तक 19 राज्यों के लगभग 50 लाख लोगों को प्रभावित किया। इनमें से अधिकांश में मानसून की पहली वर्षा से ही शुरुआत हो गई। उल्लेखनीय है कि बाढ़ के तुरन्त पहले कुछ राज्य अकाल से ग्रस्त थे। मध्य प्रदेश में सूखाड़ के बाद अप्रैल-मई में बाढ़ आई।
8 जून 2016 तक राज्य में मानसून ने कींचित ही दस्तक दिया था और मौसम विभाग ने कुछ हिस्से में प्रचण्ड से बहुत प्रचण्ड गरम हवाएँ चलने की भविष्यवाणी की थी। लेकिन 12 जुलाई को आश्चर्यजनक रूप से बुरहानपुर और बैतुल जिलों में 24 घंटे वर्षा हुई जो सामान्य से 1135 प्रतिशत और 1235 प्रतिशत अधिक थी। 18 जुलाई तक राज्य के 23 जिलों में बाढ़ जैसी हालत थी जिसमें 35 लोग मारे जा चुके थे और नौ लापता थे। फिर 20-21 अगस्त को 12 जिलों में अत्यधिक वर्षा हुई। सागर में खुराई मौसम विज्ञानी केन्द्र ने 20 अगस्त को 187.2 मिलीमीटर वर्षा दर्ज किया।
केन और तमसा नदियाँ पन्ना और रीवा जिलों में भारी वर्षा की वजह से खतरे के निशान से ऊपर बह रही थीं। मानसून की शुरुआत से 22 अगस्त तक राज्य में वर्षा से जुड़ी दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या 102 हो गई थी। इसी तरह की हालत बिहार की रही जहाँ 1 जून से 22 अगस्त 2016 के बीच कुल वर्षा सामान्य से 15 प्रतिशत कम हुई। जबकि 21 अगस्त तक राजधानी पटना समेत 23 जिलों के 38 लाख लोग बाढ़ झेल रहे थे। गंगा बक्सर, मुंगेर, खगड़िया और कटिहार में खतरे के निशान से ऊपर बह रही थी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा कि पश्चिम बंगाल में फरक्का बैराज बनने के बाद नदी तल में जमा गाद की वजह से जलस्तर में बढ़ोत्तरी हुई।
हालांकि बाढ़ मुक्ति अभियान के प्रमुख दिनेश कुमार मिश्र ने कहा कि 2007 से ही राज्य में कुल मौसमी वर्षा असामान्य रूप से कम हो रही है और 2016 की बाढ़ नेपाल में भारी वर्षा के कारण आई। फिर भी राज्य में जून-जुलाई में 11 दिन अत्यधिक वर्षा की परिघटना हुई। 31 जुलाई को मधवापुर मौसम वैज्ञानिक केन्द्र ने 200 मिलीमीटर वर्षा दर्ज किया।
पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में भी गंगा मिर्जापुर, बलिया और वाराणसी में खतरे के निशान से ऊपर बह रही थी जबकि इलाहाबाद का कुछ हिस्सा 21 अगस्त 2016 को बाढ़ में डूब गया था।
राजस्थान में जुलाई तक स्थिति नियंत्रण में थी। मालवीय नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी जयपुर के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर वाई पी माथूर बताते हैं कि अगस्त में वर्षा की तीव्रता में उछाल आया जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। 11 अगस्त 2016 को आधे जिलों में वर्षा सामान्य से 100 प्रतिशत अधिक हुई। पाली और सीकर जिलों में वर्षा सामान्य से आसाधारण रूप से 1058 प्रतिशत और 1100 प्रतिशत अधिक हुई।
स्थानीय अखबारों के अनुसार जोधपुर में वर्षा पिछले 90 वर्षों में सर्वाधिक हुई थी। बिलासपुर डैम के दरवाजे खोलने पड़े ताकि बनास नदी में पानी बहाकर टोंक जिले को बाढ़ से बचाया जा सके। अत्यधिक वर्षा की परिघटना 20-21 अगस्त को राज्य के 16 मौसम विज्ञानी केन्द्रों में दर्ज किये गए। राजस्थान के जलवायु परिवर्तन पर कार्ययोजना के 2010 में प्रकाशित प्रारूप के अनुसार राज्य में अत्यधिक वर्षा की परिघटना की बारम्बारता और तीव्रता में 2017-2100 के दौरान एक दिन में 20 मिलीमीटर बढ़ने की सम्भावना है।
वैज्ञानिक अध्ययन संकेत करते हैं कि जबकि भारत में मानसूनी वर्षा में कमी आ रही है, अत्यधिक वर्षा की परिघटनाओं में बढ़ोत्तरी हो रही है, खासकर जुलाई-अगस्त में। नेचर क्लाइमेट चेंज में 2014 में प्रकाशित एक लेख बताता है कि दक्षिण एशिया में मानसून के दौरान 1980 से अत्यधिक आर्द्र और अत्यधिक शुष्क दौर में बढ़ोत्तरी हो रही है।
यह अध्ययन स्टैडफोर्ड वुड्स इंस्टीट्यूट फार द एनवायरनमेंट के सीनियर फेलो नोह डिफेनबॉघ के मार्गदर्शन में किया गया, वे कहते हैं कि हम अत्यधिक वर्षा को देख रहे हैं जो साल में बहुत कम बार होती है, पर उसका प्रभाव बहुत बड़ा हो सकता है। अध्ययन दल ने भारतीय मौसम विभाग द्वारा संकलित और दूसरे स्रोतों से मिले पिछले 60 साल के जुलाई और अगस्त के आँकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन किया। इसने पाया की पूरे केन्द्रीय भारत में औसत वर्षा में एक दिन में 10 मिलीमीटर से घटकर एक दिन में 9 मिलीमीटर रह गई है। हालांकि इन महीनों में दिन-प्रतिदिन वर्षा की परिवर्तनशीलता में बढ़ोत्तरी हुई है जिससे भारी वर्षा के समय या लम्बे सूखा के दौर में बढ़ोत्तरी हुई है।
वित्तीय बर्बादी
बाढ़ के कारण मौत के अतिरिक्त बड़े पैमाने पर वित्तीय नुकसान होता है। खेती के लिये यह बड़ा संकट हैं जो हर साल 75 लाख हेक्टेयर खेतों को प्रभावित करती है खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार और असम जैसे देहाती राज्यों में। असम में हर साल लगभग एक लाख लोग राहत शिविरों में शरण लेते हैं। बिहार की हालत भी ऐसी ही है जहाँ हजारों लोग चार से पाँच महीना शिविरों में गुजारते हैं।
डाउन टू अर्थ के एक विश्लेषण के अनुसार असम और बिहार की सरकारें आधिकारिक तौर पर हर साल सात महीने बाढ़ राहत और पुनर्वास कार्य में संलग्न रहती हैं और यह स्थिति अब अधिक खराब होने वाली है। आँकड़े बताते हैं कि देश के बाढ़ प्रभावित इलाके में 1960 से अब तक 162 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। बाढ़ से औसत क्षति में भी सालाना 160 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है, राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के अनुसार यह नुकसान 1947-1995 में 1805 करोड़ प्रतिवर्ष से बढ़कर 1996-2005 में 4745 करोड़ प्रतिवर्ष हो गया है।
ताजा आकलन उपलब्ध नहीं है, पर यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि बढ़ते शहरीकरण की वजह से पिछले दशक में नुकसान बढ़ा ही होगा। बाढ़ प्रबन्धन पर कार्यदल जिसका गठन पूर्ववर्ती योजना आयोग ने 2011 में किया था, के अनुसार बाढ़ नियंत्रण पर देश में 1953 से 1,26,000 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं और बाढ़ की वजह से आर्थिक नुकसान 2011 के मूल्यों पर 8,12,500 करोड़ रुपए हो चुका है। कार्यदल ने कहा कि इस कीमत में हर वर्ष 10 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होती है। इसका मतलब है कि 2015 में कुल नुकसान 11,46,940 करोड़ या भारत के 2016-17 के लिये अनुमानित जीडीपी का 7.6 प्रतिशत होगा। स्थिति अधिक बुरी है, राज्य समस्या को गम्भीरता से नहीं लेते क्योंकि संविधान में बाढ़ प्रबन्धन का उल्लेख केन्द्रीय सूची, राज्यसूची या समवर्ती सूची में स्पष्ट तौर पर नहीं किया गया है।
सीडब्ल्यूसी के एक अधिकारी ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा कि राज्य नुकसानों का ब्यौरा केवल केन्द्रीय राहत पैकेज प्राप्त करने के लिये तैयार करते हैं। कार्यदल के कार्यकाल के दौरान विचार-विमर्श में केवल बिहार, असम, राजस्थान और केरल ने हिस्सा लिया। इनमें भी दो राज्यों ने पहली बैठक के बाद हिस्सा नहीं लिया। देश में बाढ़ से हुए कुल नुकसान के बारे में योजना आयोग का आकलन आने के पाँच साल बाद भी राज्यों ने इसकी परिशुद्धता की पुष्टि या खंडन नहीं किया है।
(पेज-11-देश के बाढ़ ग्रस्त इलाके में 1960 से अब तक 162 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हो चुकी है।)
(पेज-10 पानी के भीतर2016 में अधिकांश बाढ़ अति-वृष्टि के फलस्वरूप आई। वर्षा एक दिन में 124.5 मिमी या अधिक हुई।)
(पेज-92016 में भारी मानसून-पूर्व वर्षा पश्चिमी विक्षोभ की बारम्बारता में बढ़ोत्तरी का पक्का प्रमाण प्रस्तुत करते है।)