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राष्ट्रीय सहारा ईपेपर (हस्तक्षेप), 10 जुलाई 2012
जब मानसून केरल से कश्मीर की ओर या फिर बंगाल से राजस्थान की ओर बढ़ता है तो लोगों की धड़कनें बढ़ने लगती हैं। इसलिए मेरा मानना है कि मानसून पर निर्भरता कम करने के बजाए हमें मानसून के साथ खुद को जोड़ने की कोशिश ज्यादा करनी चाहिए। हमें मानसून के दौरान जमीन पर आने वाली बरसात की हर एक बूंद का इस्तेमाल सीखना होगा। पूरे देश से इसके लिए एक समान भाव आना चाहिए। हमें जगह-जगह जल संरक्षण के उपायों को बढ़ाना होगा। अगर हम ऐसा करते हैं तो तभी हमारा जीवन सुरक्षित होगा।
मानसून की बात पर मेरे दिमाग में कई सारे सवाल उठते हैं। मसलन, हम मानसून के बारे में कितना जानते हैं? यह हर भारतीय के जीवन में इतना महत्वपूर्ण क्यों है? बारिश क्यों होती है? क्या हम जानते हैं कि वैज्ञानिक आज भी इसका पता लगा रहे हैं कि मानसून की परिभाषा क्या होगी? हम तो यही जानते हैं कि यह मौसमी हवा होती है, जो खास दिशा में चलती है और जब यह रास्ता बदलती है तो सब घबराने लगते हैं। क्या हम यह जानते हैं कि हमारा मानसून एक भूमंडलीय प्रक्रिया है? यह पैसिफिक महासागर के बहाव से, तिब्बत के पहाड़ों के तापमान से, यूरोशियाई पर्वतीय तापमान और बंगाल की खाड़ी के पानी से बना एकीकृत रूप है, जो सब से जुड़ा हुआ भी है। क्या हम यह जानते हैं कि हमारे देश के मानसून वैज्ञानिक कौन लोग हैं और वे किस तरह से मानूसन के बारे में हर जानकारी जुटाते हैं? इसे जानना हमारे अस्तित्व के लिए बेहद जरूरी है। भारतीय मानसून के पितामह कहे जाते हैं-पीआर पीशारायते। उन्होंने बताया है कि मानसून हर साल महज 100 घंटों के लिए ही आता है जबकि एक साल 8,765 घंटों का होता है।इसका मतलब है कि हमारे सामने मानसून को संभालने की चुनौती बड़ी है। पर्यावरणविद् अनिल अग्रवाल ने भी मानसून को समझाते हुए बताया था कि किस तरह से प्रकृति छोटी-छोटी ताकतों से अपना काम करती है। जरा सोचिए कि तापमान में बारीक अंतर से 40 हजार बिलियन टन समुद्री जल को बरसात के जरिए मानसून पूरे भारत में उड़ेलता है। पर्यावरण से जुड़ी जानकारियों का अभाव ही पर्यावरण पर संकट बढ़ा रहा है। अगर इस बात पर हम फिर से विचार करें तो एक और बात साफ होगी। हम ऊर्जा के स्रोत के तौर पर कोयला और प्राकृतिक तेल का इस्तेमाल करते हैं। इससे पर्यावरण प्रदूषण और क्लाइमेट चेंज जैसी बड़ी-बड़ी मुश्किलें पैदा होती हैं। अगर हम प्रकृति के तरीके को समझ लें तो ऊर्जा के कहीं-कहीं छोटे साधनों का इस्तेमाल करेंगे; मसलन सोलर इनर्जी का। हम बरसात के जल का इस्तेमाल शुरू करेंगे न कि नदियों और ताल-तलैयों तक पहुंचने का इंतजार करेंगे।
अनिल अग्रवाल के मुताबिक बीते सौ सालों के दौरान मनुष्यों ने नदियों और जल संरक्षण के दूसरे स्रोतों का जमकर इस्तेमाल करना शुरू किया, जो दोहन के खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है। ऐसे में, 21वीं सदी का मनुष्य एक बार फिर बरसात के जल के इस्तेमाल की ओर लौटेगा। अगर अनिल की बातों को दूसरे शब्दों में कहें तो हम मानसून को जितना ज्यादा समझेंगे, उतना ही ज्यादा हम सतत विकास के लिए प्रकृति की जरूरत को समझेंगे। एक और अहम सवाल मेरे मन में उमड़ता है। यह सवाल है- हम मानसून के बिना जीना कितना सीख पाए हैं? मुझे यकीन है कि आप लोगों ने निश्चित तौर पर इसे सुना होगा कि हम जल्दी ही मानसून को विकसित कर लेंगे और आने वाले दिनों में हमें इस मानसून पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं होगी। तो यहां समझने की जरूरत है कि ऐसा निकट भविष्य तो नहीं होने जा रहा है।
आजादी के 65 सालों के बाद और सिंचाई की सुविधाओं पर भारी-भरकम खर्च के बावजूद देश की ज्यादातर कृषि भूमि मानसून पर निर्भर है। लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं है। हमें यह भी जानना होगा कि देश की सिंचित भूमि का 60 से 80 फीसद हिस्से की सिंचाई भी जमीन से निकाले गए पानी से होती है। भूजलस्तर भी मानसून पर ही निर्भर होता है। मानसून के इंतजार के साथ ही जलस्तर नीचे खिसकने लगता है। यही वजह है कि हर साल जब मानसून केरल से कश्मीर की ओर या फिर बंगाल से राजस्थान की ओर बढ़ता है तो लोगों की धड़कनें बढ़ने लगती हैं। इसलिए मेरा मानना है कि मानसून पर निर्भरता कम करने के बजाए हमें मानसून के साथ खुद को जोड़ने की कोशिश ज्यादा करनी चाहिए।
हमें मानसून के दौरान जमीन पर आने वाली बरसात की हर एक बूंद का इस्तेमाल सीखना होगा। पूरे देश से इसके लिए एक समान भाव आना चाहिए। हमें जगह-जगह जल संरक्षण के उपायों को बढ़ाना होगा। अगर हम ऐसा करते हैं तो तभी हमारा जीवन सुरक्षित होगा। आज क्या हो रहा है? मानसून की देरी के वजह से हम तरह-तरह की आशंका से घिरे हैं। यह तभी रुकेगा जब हम मानसून में गिरने वाली हर एक बूंद का इस्तेमाल करना सीखेंगे। दरअसल, मानसून हमारे जीवन से सीधे जुड़ा हुआ है और हमें इसके साथ रहने की अच्छी कला सीखनी होगी। तभी न तो हम मानसून के लिए तरसेंगे और न ही मानसून हमें तरसाएगा।
प्रस्तुति- प्रदीप कुमार
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