पर्यावरण प्रदूषण की समस्या हाल के वर्षों में एक बड़ी समस्या बनकर उभरी है। इसके दो पहलू हैं। एक विकसित देशों की और दूसरी गरीब, विकासशील देशों की। इस समस्या से तभी निजात मिल पाएगी जब सब साझा मिलकर इसके खिलाफ खड़े होंगे। इसके लिये जरूरत है सबको एक साथ एक मंच पर आने कीभारत का पर्यावरण आन्दोलन कुछ और नहीं, देश की दूसरी तमाम चीजों की तरह, अमीर व गरीब; लोग व प्रकृति के बीच के विरोधाभासों और जटिलताओं में आपसी तालमेल बिठाना है। मगर भारत के आन्दोलन की एक खासियत भी है, जो इसके भविष्य की कुंजी है।
असल में, दुनिया के धनाढ्य देशों में पर्यावरण आन्दोलन तब शुरू हुआ, जब उन्होंने पर्याप्त पूँजी इकट्ठी कर ली, यानी पूँजीवादी देश बनने के दौर के बाद और इसके दुष्प्रभाव के निर्माण के दौर में यहाँ ऐसे आन्दोलनों ने शक्ल अख्तियार कर ली, इसीलिये उन देशों ने दुष्प्रभाव पर नियंत्रण साधने की बात कही। जबकि भारत में पर्यावरण आन्दोलन भारी असमानता और गरीबी के बीच आगे बढ़ा है। तुलनात्मक रूप से गरीब देशों के इस पर्यावरणवाद में, बदलाव तब तक अप्रभावी व असम्भव होता है, जब तक कि उससे जुड़े मसले नहीं हल हो जाते।
हरित क्रान्ति का ही उदाहरण लें। 1970 के दशक के शुरुआती दौर में इस क्रान्ति की नींव पड़ी। उस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने स्टॉकहोम में हुए पर्यावरण सम्मेलन में कहा था, ‘गरीबी सबसे बड़ी प्रदूषण है।’ आज हम पाते हैं कि श्रीमती गाँधी का वह बयान महज कपोल-कल्पना था, क्योंकि उसी दौर में हिमालय में ‘चिपको आन्दोलन’ की वीरांगनाओं ने यह साबित किया कि वास्तव में गरीब कहीं अधिक अपने पर्यावरण का खयाल रखते हैं।
पर्यावरण की बातें कहना भले बाद में एक रवायत बन गया हो, पर उससे कई वर्षों पहले सन 1974 में ऊपरी अलकनन्दा घाटी के सुदूर गरीब गाँव मंडल की महिलाओं ने जंगल को कटने से बचाया था। गरीब महिलाओं के उस आन्दोलन को किसी ने संरक्षण नहीं दिया था, बल्कि स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय समुदायों की माँग की पुरजोर वकालत करते हुए यह आन्दोलन स्वतः किया गया था। महिलाओं को अपने जंगल पर अपना अधिकार चाहिए था, क्योंकि उनका कहना था कि पेड़ उनके अस्तित्व से जुड़ हुए हैं। पेड़ों के बिना उनके जीवन की कल्पना ही नहीं हो सकती। देश भर में उस आन्दोलन को इसी रूप में देखा गया कि गरीबी नहीं, बल्कि शोषणकारी अर्थव्यवस्थाएँ सबसे बड़ी प्रदूषक हैं।
यही वजह है कि अफ्रीका व अन्य क्षेत्रों के बड़े हिस्सों की तरह ही ग्रामीण भारत के ज्यादातर इलाकों में भी नकद मुद्रा की कमी गरीबी नहीं है, बल्कि प्राकृतिक संसाधनों का न्यायोचित इस्तेमाल न कर पाना गरीबी है। गरीबों के पर्यावरण आन्दोलन में, कोई भी ऐसा त्वरित तकनीकी समाधान मुमकिन नहीं, जो अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे लोग अपना सकें। इस तरह के पर्यावरणवाद में हर इंच जमीन की क्षमता बढ़ाने और आवश्यकताओं को कम करने के लिये प्रत्येक टन खनिज और हर बूँद पानी का इस्तेमाल करने की जरूरत होती है।
भारत की आजादी से कई वर्ष पहले महात्मा गाँधी से पूछा गया था कि क्या वह ऐसा स्वतंत्र भारत पसन्द करेंगे, जो अपने औपनिवेशिक स्वामी ब्रिटेन-जैसे देशों की तरह ‘विकसित’ हो? महात्मा गाँधी का जवाब था, ‘नहीं’। जब उनके सामने यह तर्क दिया गया कि ब्रिटेन का मॉडल अनुकरण करने लायक है, तो गाँधीजी का कहना था, “अगर यह मॉडल आधी दुनिया पर शासन का अधिकार ब्रिटेन को देता है, तो भारत को न जाने कितनी दुनिया की जरूरत होगी?”
गाँधीजी के नजरिए को समझने की जरूरत है। आज जब भारत और चीन अमीर देशों में शामिल होने के लिये होड़ कर रहे हैं, तो विकास की इस दौड़ में पर्यावरण की हो रही अनदेखी पर हमें चिन्तन करना चाहिए। विकास के जिस पश्चिमी मॉडल का अनुसरण भारत और चीन करना चाहते हैं, वह मूलतः विषाक्त हो चुका है। इस मॉडल में संसाधनों का जबरदस्त दोहन होता है और हद से अधिक अपशिष्ट पैदा किया जाता है।
औद्योगिक दुनिया के देशों ने अत्यधिक निवेश करके पूँजी निर्माण के प्रतिकूल प्रभाव को कम करना सीख लिया है, मगर ये उन प्रभावों को नियंत्रित करना अब भी नहीं खोज सके हैं। हो सकता है कि औद्योगिक देशों ने अपने शहरों को साफ रखना सीख लिया हो, पर जिस कदर उन्होंने उत्सर्जन किया है, उससे पूरी दुनिया के जलवायु तंत्र पर जोखिम बढ़ गया है और जलवायु परिवर्तन के कारण लाखों लोगों के जीवन पर खतरे के बादल मँडराने लगे हैं।
क्या विकास का यही मॉडल अब गरीब देश अपनाना चाहते हैं? वैसे अपनाएँ भी क्यों नहीं, दुनिया ने ऐसी कोई दूसरी सफल राह उन्हें दिखाई भी कहाँ है? मगर वास्तव में, कारोबार तभी फायदेमन्द होता है, जब पुरानी समस्याओं के नए समाधान तलाशे जाएँ। इसीलिये मेरा मानना है कि अविकसित व विकासशील देशों को कहीं बेहतर करना चाहिए।
भारत, चीन और इसके तमाम पड़ोसियों के पास विकास के ऐसे पहिए को बदलने का विकल्प है। जब औद्योगिक देश जबरदस्त विकास के दौर से गुजर रहे थे, तो उनकी प्रति व्यक्ति आय एशियाई देशों की मौजूदा आय से कहीं बेहतर थी। तेल की कीमतें कम थीं, जिसका मतलब है कि विकास कार्य करने में उन्हें ज्यादा निवेश नहीं करना पड़ा।
मगर एशियाई देश आज उसी विकास मॉडल को अपना रहे हैं, यानी पूँजी पर दबाव काफी ज्यादा बढ़ेगा और यह सामाजिक तौर पर विभाजक साबित होगा, जिसका दुष्प्रभाव अन्ततः बढ़ते प्रदूषण के रूप में दिखेगा। एशियाई देशों के पास इतनी क्षमता नहीं है कि वे समानता और स्थिरता बरकरार रखते हुए निवेश कर सकें। यह विकास के प्रतिकूल प्रभावों को उग्र बना सकता है जो जाहिर तौर पर खतरनाक व जोखिम भरा है।
एशियाई देश सभी गाँवों-शहरों में स्थानीय भोजन, पानी और आजीविका को सुरक्षित रखकर एक सुरक्षा कवच बनाएँ। यह कहीं अधिक बड़ी चुनौती होगी और ऐसा करने के दौरान, उन्हें औद्योगिक देशों के उन विकास-प्रतिमानों को भी नए सिरे से गढ़ना होगा, जो अमीरों व गरीबों के बीच खाई को गहरा करते हैं। उन्हें अपनी ओर से प्रयास करते हुए कुछ नया करना होगा और सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि इन तमाम देशों को आवाजहीन मुल्कों की आवाज बनना चाहिए, ताकि सभी के हित में वैश्वीकरण के कायदों में बदलाव सम्भव हो सके।
एक मजबूत लोकतंत्र का कर्तव्य समझा जाना चाहिए टिकाऊ विकास करना और यह कोई तकनीकी मसला नहीं है, बल्कि राजनीतिक फ्रेमवर्क बनाने का मुद्दा है। वैकल्पिक विकास की रणनीति बनाने से पहले एशियाई देशों के सामने दो आवश्यक शर्तें हैं- पहली लोकतंत्र की मजबूती; ताकि गरीब, हाशिए पर मौजूद लोग या पर्यावरण आपदा के शिकार लोग बदलाव के लिये मुखर हो सकें और दूसरी है, नए ज्ञान के साथ बदलाव सम्भव बनाया जाये, जो आविष्कार कुशल व अलहदा भी हो।
ऐसे में, सवाल यह है कि एशियाई देशों को सबसे ज्यादा जरूरत किसकी है? मौजूदा औद्योगिक विकास मॉडल का प्रतिकूल असर सबसे ज्यादा यह दिखा है कि इसने एशियाई देशों के योजनाकारों की सोच कुँद कर दी है। उन्हें यह विश्वास दिला दिया गया कि उनके पास कोई हल नहीं है, बस समस्याएँ हैं और जिनका समाधान धनी देशों के जाँचे-परखे मॉडल में छिपा है।
मगर मेरा स्पष्ट तौर पर मानना है कि अगर दुनिया टिकाऊ विकास का सपना पूरा करना चाहती है और जलवायु परिवर्तन से लड़ना चाहती है तो संसाधनों को साझा करने की जरूरत के बारे में इन आन्दोलनों से सीखना चाहिए, तभी हम सब बिना किसी तकलीफ के इस धरा पर रह सकेंगे। साल 2018 इसी दिशा में आगे बढ़ने वाला वर्ष साबित हो, यही कामना है।
वायु प्रदूषण
1. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़ों के अनुसार 2012 में सत्तर लाख लोगों की मौत वायु प्रदूषण से हुई। वायु प्रदूषण से हर साल लगभग 26 लाख लोगों की मौत हो रही है।
2. विश्व के बीस सर्वाधिक वायु प्रदूषित शहरों में 13 भारत के हैं। दिल्ली सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में है। यह दुनिया के 91 देशों के 1600 शहरों में सबसे प्रदूषित शहर है। इस वर्ष दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर सत्रह गुना ज्यादा था।
3. अमेरिका के एनवायरनमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी और नासा द्वारा किये अध्ययन में पाया गया कि किडनी की बीमारी के 44 हजार 793 नए मामले और किडनी फेल होने के 2 हजार 438 मामलों में वायु प्रदूषण के स्तर को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
4. विश्व की आधी शहरी आबादी ऐसी प्रदूषित हवा इस्तेमाल करने पर मजबूर है, जो सुरक्षित माने जाने वाले मानकों के हिसाब से ढाई गुना अधिक है।
5. उपग्रहों से लिये गए आँकड़ों के आधार पर तैयार रिपोर्ट के मुताबिक विश्व 189 शहरों में प्रदूषण स्तर भारतीय शहरों में पाया गया। भारत का सिलिकॉन वैली बंगलुरु वायु प्रदूषण के मामले में अमेरिका के पोर्टलैंड के बाद दूसरे स्थान पर है। यहाँ 2002-2010 के बीच वायु प्रदूषण स्तर में 34 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई।
6. हाल के वर्षों में वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा घटी है और दूषित गैसों की मात्रा बढ़ी है। कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में तकरीबन 25 फीसदी की वृद्धि हुई है।
7. वायु प्रदूषण का दुष्प्रभाव ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासतों पर भी पड़ रहा है। गत वर्ष देश के 39 शहरों की 138 ऐतिहासिक इमारतों पर वायु प्रदूषण का घातक असर पाया गया।
8. वायु के सबसे प्रदूषक सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, सॉलिड पार्टिकुलेट मेटेरियल, लौह कण, ओजोन, मीथेन, विकिरण और कार्बन डाइऑक्साइड हैं। गाड़ियों और कल-कारखानों से सबसे ज्यादा प्रदूषण होता है।
(लेखिका सीएसई की पर्यावरणविद और महानिदेशक हैं)
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