जलवायु परिवर्तन का विकासशील देशों पर विषमतापूर्ण दुष्प्रभाव पड़ेगा और इससे स्वास्थ्य क्षेत्र भोजन, स्वच्छ जल और अन्य संसाधनों तक पहुँच के मामले में पहले से जारी असमानताएँ और भी बढ़ जाएँगी। भारत जलवायु परिवर्तन के मामले में विशेष तौर पर गम्भीर रूप से चिन्तित है क्योंकि यह जलवायु की दृष्टि से आजीविका के लिये कृषि एवं वानिकी जैसे क्षेत्रों पर निर्भर है, जो जलवायु की दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील है।
वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती मात्रा व सान्द्रण से उत्पन्न ग्रीन हाउस प्रभाव द्वारा भूमण्डलीय तापमान में वृद्धि एवं जलवायु परिवर्तन को सर्वप्रथम वर्ष 1988 में संयुक्त राष्ट्रीय पर्यावरण कार्यक्रम की बैठक में एक महत्त्वपूर्ण वैश्विक मुद्दा घोषित किया गया। उसी साल संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम एवं विश्व-मौसम संगठन द्वारा जलवायु परिवर्तन पर इन्टरगवर्नमेन्टल पैनल की स्थापना की गई।वर्ष 2000 में नीदरलैण्ड के शहर हेग में वैश्विक जलवायु पर वार्ता के छठे दौर में व्यापक विचार-विमर्श के बाद यह तय किया गया कि इक्कीसवीं सदी में बढ़ती पर्यावरणीय समस्याओं एवं उनसे जुड़े कुछ आर्थिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए इन पादप गृह गैसों के उत्सर्जन का सही-सही आकलन व पर्यावरणीय-परितंत्र पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखकर ऐसी प्रबन्ध तकनीकों का विकास किया जाये जो इन्हें न्यून स्तर तक लाने में सक्षम हों।
आई.पी.सी.सी. की तीसरी मूल्यांकन (200 ए) रिपोर्ट के अनुसार ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन द्वारा अगले सौ सालों में भूमंडलीय तापमान में 1.5 से 5.8 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है। इस तथ्य ने पर्यावरण व मौसम वैज्ञानिकों के साथ-साथ विश्व-समुदाय को खुले दिमाग से चिन्तन करने पर मजबूर कर दिया है।
ग्रीन हाउस गैसों द्वारा भूमंडलीय तापमान में योगदान की दृष्टि से कार्बन डाइऑक्साइड पहले नम्बर पर, दूसरी नम्बर पर मिथेन, तीसरे नम्बर पर नाइट्स-ऑक्साइड, और उसके बाद क्लोरो-फ्लोरो कार्बन व अन्य गैसें आती हैं। भूमंडलीय तापमान क्षमता की दृष्टि से इनमें इन्फ्रारेड विकिरण या किरणों को शोषित करने की क्षमता में भिन्नता होती है।
उदाहरण के लिये कार्बन डाइऑक्साइड की अपेक्षा, मीथेन में भूमंडलीय उष्मन क्षमता 21 गुना व नाइट्रस-ऑक्साइड में 310 गुना होती है। इन गैसों की उष्मन क्षमता में भिन्नता, प्रचुरता, स्रोत, वातावरण में जीवन-अवधि अभिगम के कारण वैश्विक तापन प्रभावित होता है।
वैश्विक तापन के परिणामस्वरूप उत्पन्न मौसम एवं जलवायु में परिवर्तन आज वैश्विक समस्याओं में से एक है। आर्थिक एवं विकासात्मक गतिविधियों का विस्तार, बढ़ती जनसंख्या और जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल आदि ऐसे कारण हैं जिनसे मानव जनित ग्रीन हाउस गैसों का अत्यधिक उत्सर्जन हो रहा है।
जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी अनुमानोें से संकेत मिलता है कि विकासशील देशों पर कई तरह के दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं जिनसे अतिवादी घटनाओं जैसे लू चलने और भारी वर्षा होने की आवृत्ति, अवधि और तीव्रता में बदलाव आये हैं। जलवायु परिवर्तन से मानव स्वास्थ्य को रोगवाहकों (मच्छर आदि) से फैलने वाली बीमारियों का खतरा भी बढ़ जाएगा।
जलवायु परिवर्तन का विकासशील देशों पर विषमतापूर्ण दुष्प्रभाव पड़ेगा और इससे स्वास्थ्य क्षेत्र भोजन, स्वच्छ जल और अन्य संसाधनों तक पहुँच के मामले में पहले से जारी असमानताएँ और भी बढ़ जाएँगी। भारत जलवायु परिवर्तन के मामले में विशेष तौर पर गम्भीर रूप से चिन्तित है क्योंकि यह जलवायु की दृष्टि से आजीविका के लिये कृषि एवं वानिकी जैसे क्षेत्रों पर निर्भर है, जो जलवायु की दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील है।
‘पृथ्वी के तापमान के बढ़ने तथा धरती की जलवायु में परिवर्तन से केवल समुद्र तल के ऊपर उठने की ही समस्या का सामना होगा, ऐसा बिल्कुल नहीं है। इसके अतिरिक्त सूखा का प्रभाव बढ़ेगा, खासकर दक्षिणी यूरोप में मध्य एशिया में, सहारा के नीचे वाले भाग में अफ्रीका में, दक्षिण पश्चिम अमेरिका, मैक्सिको आदि में।
इन सभी क्षेत्रों में सूखा के कारण कृषि उपज में कमी आएगी, साथ ही मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया, जो इन सभी क्षेत्रों में पहले ही एक बड़ी समस्या है, वह और भी तीव्र हो जाएगी। इसका परिणाम होगा कि लोग बड़ी संख्या में ऐसे क्षेत्र से पलायन करेंगे और स्वाभाविक है कि उनका पलायन अन्य क्षेत्रों के लिये भी समस्या उत्पन्न करेगा। अनुमान है कि वर्ष 2080 के बाद प्रत्येक वर्ष 10 करोड़ लोग केवल बाढ़ से प्रभावित होंगे और जब अधिक तीव्र तूफान तथा टाइफून भी आएँगे तो समस्या और गम्भीर होगी।
‘सन 1896 में स्वान्ते आरहीनियस ने पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन की सम्भावना की भविष्वाणी की थी। उनकी भविष्यवाणी का आधार था कि तेजी से बढ़ रहा उद्योगीकरण और उसके फलस्वरूप वायुमंडल में अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का पहुँचना। उनका विश्वास था कि जिस प्रकार जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा था उसका परिणाम केवल यही हो सकता था कि वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा निरन्तर बढ़ेगी।
उस समय भी उन्होंने यह स्पष्ट किया था कि कार्बन डाइऑक्साइड के वायुमंडल में बढ़ने से पृथ्वी के तापमान में अन्तर होगा। उन्होंने यह भी बताया कि अगर वायमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा दुगनी होती है तो धरती का तापमान कई डिग्री सेल्सियस बढ़ जाएगा। परन्तु इस बात पर लोगों ने अधिक ध्यान नहीं दिया। उस समय तो बस एक ही चिन्ता थी कि किसी भी तरह विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाये। यही कारण था कि एक ओर जहाँ कोयला, खनिज तेल, गैस इत्यादि की खपत बढ़ती गई, दूसरी ओर वनों का क्षेत्र कम होता गया, समुद्र में रहने वाले जीव जो वायुमंडल में उपस्थित कार्बन डाइऑक्साइड का अवशोषण करते हैं, उनकी मात्रा में भी कमी होती गई और नाइट्रस ऑक्साइड, मीथेन तथा सी.एफ.सी. जैसे पदार्थ भी वायुमंडल में जाते रहे।
मौसम और जलवायु:
किसी स्थान विशेष पर, किसी खास समय वायुमंडल की स्थिति को मौसम कहा जाता है। मौसम के अन्तर्गत अनेक कारकों यथा हवा का ताप, दाब, उसके बहने की गति और दिशा तथा बादल, कोहरा, वर्षा, हिमपात आदि की उपस्थिति और उनकी परस्पर अन्तरक्रियाएँ शामिल होती हैं। ये अन्तरक्रियाएँ किसी स्थान के मौसम का निर्धारण करती हैं।
यदि किसी स्थान पर होने वाली इन अन्तरक्रियाओं के लमबे समय तक, उदाहरणार्थ एक पूरे वर्ष, अवलोकन करके जो निष्कर्ष निकाला जाता है तब वह उस स्थान की जलवायु कहलाती है। मौसम लोगों के तेवर से लेकर इतिहास तक को प्रभावित कर सकती है। जलवायु में होने वाले परिवर्तन जीव-जन्तुओं के समूचे वंशों को ही समाप्त कर सकते हैं। अतीत मेें ऐसा अनेक बार हुआ भी है। ये परिवर्तन हिमयुगों के आगमन अथवा उनके समापन जैसी बड़ी घटनाओं के फलस्वरूप बहुत धीरे-धीरे ही प्रकट होते हैं।
न्यूयार्क स्थित नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज (जी.आई.एस.एस.) के मौसम विज्ञानियों के अनुसार वर्ष 2007, वर्ष 2008 के साथ शताब्दी की दूसरा सबसे गर्म वर्ष था। जी.आई.एस.एस. द्वारा दर्ज किये गए आठ सबसे गर्म वर्ष 1998 के बाद के वर्ष रहे हैं जबकि 14 सबसे गर्म वर्ष 1990 के बाद हैं। जी.आई.एस.एस. के निदेशक जेम्स हासेन ने कहा है कि पिछले 30 वर्षों से पृथ्वी पर जो गर्मी बढ़ रही है उसकी मुख्य वजह हम हैं। इस ताप वृद्धि के लिये मानव निर्मित ग्रीन हाउस गैसें जिम्मेदार हैं।
इस शोध के लिये शोधकर्ताओं ने पृथ्वी पर विभिन्न मौसम केन्द्रों से प्राप्त तापमान के आँकड़ों का इस्तेमाल किया, जबकि उपग्रहों के माध्यम से समुद्र में मौजूद हिमखंडों के तापमान लिये गए। पहले यह तापमान जहाजों द्वारा लिया जाता था। इन आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2007 में उत्तरी ध्रुव क्षेत्र और इनसे लगते ऊँचाइयों वाले क्षेत्रों के तापमान में काफी वृद्धि दर्ज की गई।
जलवायु परिवर्तन के लिये उत्तरदायी प्रमुख कारण
आईपीसीसी के प्रमुख डॉ.आर.के. पचौरी ने जलवायु परिवर्तन के लिये निम्न कारणों को उत्तरदायी बताया है-
1. औद्योगी करण (1880) से पूर्व कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 280 पीपीएम थी जो 2005 के अन्त में बढ़कर 379 पीपीएम हो गई है।
2. औद्योगीकरण से पूर्व मीथेन की मात्रा 715 पीपीबी थी और 2005 में बढ़कर 1734 पीपीबी हो गई है। मीथेन की सान्द्रता में वृद्धि के लिये कृषि एवं जीवश्म ईंधन को उत्तरदायी माना गया है।
3. इधर के वर्षों में नाइट्रस ऑक्साइड की सान्द्रता क्रमशः 270 पीपीबी से बढ़कर 319 पीपीबी हो गई है।
4. समुद्र का जलस्तर 1-2 मि.मी. प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है।
5. पिछले 100 वर्षों में अंटार्कटिका के तापमान मेें दोगुना वृद्धि हुई है तथा इससे बर्फीले क्षेत्रफल में भी कमी आई है।
6. मध्य एशिया, उत्तरी यूरोप, दक्षिणी अमेरिका आदि में वर्षा की मात्रा में वद्धि हुई है तथा भूमध्य सागर, दक्षिणी एशिया और अफ्रीका में सूखा में वृद्धि दर्ज की गई है।
7. मध्य अक्षांशों में वायु प्रवाह में तीव्रता आई है।
8. उत्तरी अटलांटिक से उत्पन्न चक्रवातों की संख्या में वृद्धि हुई है।
आईपीसीसी की रिपोर्ट में इस बात की चेतावनी दी गई है कि समस्त विश्व के पास ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन कम करने के लिये मात्र 10 वर्ष का समय और है। यदि ऐसा नहीं होता है तो समस्त विश्व को इसका परिणाम भुगतना पड़ेगा।
पृथ्वी की जलवायु में हो रहा परिवर्तन कोई नई बात नहीं है। इधर के वर्षों में पृथ्वी पर हो रहे जलवायु परिवर्तन चूँकि मानव के अस्तित्व से जुड़े हुए हैं इसी कारण आज यह विषय मुख्य रूप से चर्चा में है। भौतिकीय कालक्रम में पृथ्वी पर हुए जलवायु परिवर्तनों की सही प्रकृति तथा महत्त्व को समझने में मानव जीवन की लघु अवधि या मानव सभ्यता के इतिहास की कालावधि हमेशा आड़े आती रही है।
पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन आना एक प्राकृतिक घटना है। इसकी रफ्तार बहुत धीमी होती है। सैकड़ों और कभी-कभी हजारों साल बाद इसका पता लगता है। इसका मुख्य कारण धरती की निर्धारित कक्षा सूर्य के चारों ओर चक्कर काटने का पथ में धीरे-धीरे सूक्ष्म परिवर्तन आना है। इससे धरती को मिलने वाली सौर ऊर्जा में घट-बढ़ होती है, जो अन्त में जलवायु परिवर्तन का कारण बनती है। इसी आधार पर वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि अगला हिमयुग 5000 साल बाद प्रारम्भ हो सकता है। उल्लेखनीय है कि उत्तरी यूरोप सोलहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के बीच हिमयुग झेल चुका है। उस दौरान वहाँ जाड़ों में तमाम नदियों और नहरें जम गई थीं। लोग इन पर मैदान की तरह खेल खेलते थे।प्राकृतिक जलवायु परिवर्तन के कुछ और भी कारण हैं जैसे ज्वालामुखी विस्फोट, सूर्य द्वारा ऊर्जा निष्कासन में परिवर्तन और वातावरण तथा सागर की आपसी क्रियाओं में परिवर्तन। वैज्ञानिकों ने हिमक्रोड (आइस कोर) का अध्ययन करके धरती के पिछले कई हजार सालों के औसत तापमान का पता लगाया है। पिछले लगभग सौ सालों का तापमान तो सीधे रिकार्ड किया गया है पता लगा है कि सन 1880 से अब तक धरती का औसत तापमान 0.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। अगर यह बदलाव समान रूप से धीरे-धीरे होता तो इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं थी, पर ऐसा नहीं हुआ है।
सन 1920 से 1940 के बीच धरती का तापमान बहुत तेजी से बढ़ा। इसके बाद लगभग तीस सालों तक तापमान स्थिर रहा। अब तक रिकार्ड किये गए धरती के सबसे गर्म पाँच वर्ष पिछले दशक में देखे गए। इनमें सन 1990 सबसे गर्म था। इसके अलावा उत्तरी गोलार्ध में जगह-जगह पर तापमान में भारी अन्तर पाया गया। ऐसा लगता है कि भविष्य में भी तापमान में क्षेत्रीय विभिन्नता दिखाई देगी। तापमान में यही अनिश्चित वृद्धि और क्षेत्रीय विभिन्न ग्रीन हाउस प्रभाव के सक्रिय होने का संकेत देती हैं।
जलवायु परिवर्तन: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
जलवायु परिवर्तनों को जब हम भौतिकीय काल-क्रम के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो हिमयुग विशेष उल्लेखनीय प्रतीत होते हैं। पृथ्वी के जलवायु इतिहास में इन हिमयुगों का विशेष महत्त्व है। इन हिमयुगों ने सम्पूर्ण व्यवस्था का कायाकल्प कर दिया। अब तक ऐसे पाँच महत्त्वपूर्ण हिमयुग पृथ्वी पर आये हैं। इन हिमयुगों में पूर्व कैम्ब्रियन काल के दो हिमयुग, आर्डोविशियन काल के अन्त में एक, काबोनिफेरस-परमियन काल का एक तथा सेनोजोईक काल के हिमयुग महत्त्वपूर्ण हैं।
पूर्व कैम्ब्रियन तथा कार्बोनिफेरस-परमियन काल के हिमयुग सम्भवतः बहुत ही विस्तृत प्रकृति के थे क्योंकि इनके कारण पृथ्वी का अधिकांश भूभाग प्रभावित हुआ था। रौलूरियन काल का हिमयुग भी अपने आप में प्रभावशाली रहा है। इन हिमयुगों के समय सम्पूर्ण भूमंडल शीतलता की ओर अग्रसर था। वैसे तो शीतल जलवायु वाली कई एक अन्य अवधियाँ भी पृथ्वी पर आई परन्तु इन सब में हिमनदियों का प्रादुर्भाव नहीं मिलता।
‘मेसोजोइक काल के मध्य से प्रारम्भिक सेनोजोइक काल तक के लम्बे अन्तराल में पृथ्वी की जलवायु सामान्य से उष्ण प्रवृत्ति वाली रही है। इसमें प्रारम्भिक क्रिटेशियस काल विशेष रूप से उष्ण था। कैम्ब्रिन तथा हिवोनियन काल का ज्वालामुखी गर्म था। सम्भवतः इस अवधि में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड तथा जल वाष्प की मात्रा अधिक रही हो तथा सागर वायुमंडल व्यवस्था द्वारा विकिरण की अत्यधिक मात्रा पृथ्वी पर रोक ली गई हो। इसके साथ ही भौमिकीय काल क्रम में वर्षा सम्बन्धी रिकार्ड देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक हिमयुग के पश्चात पृथ्वी पर वर्षा की मात्रा भी अत्यधिक रही है। इस प्रकार की प्रक्रिया प्रारम्भिक सेनोजोइक तथा प्रारम्भिक कार्बनिफेरस काल में दृष्टिगोचर होती है।
पृथ्वी की जलवायु में हो रहा परिवर्तन कोई नई बात नहीं है। इधर के वर्षों में पृथ्वी पर हो रहे जलवायु परिवर्तन चूँकि मानव के अस्तित्व से जुड़े हुए हैं इसी कारण आज यह विषय मुख्य रूप से चर्चा में है। भौतिकीय कालक्रम में पृथ्वी पर हुए जलवायु परिवर्तनों की सही प्रकृति तथा महत्त्व को समझने में मानव जीवन की लघु अवधि या मानव सभ्यता के इतिहास की कालावधि हमेशा आड़े आती रही है। परन्तु पृथ्वी की जलवायु में कालांतर से हो रहे परिवर्तनों के प्रमाण हमेें भू वैज्ञानिकों अभिलेखों के रूप में आज भी उपलब्ध हैं जिनकी सहायता से आज भूवैज्ञानिक समसामयिक जलवायु परिवर्तनों की प्रकृति तथा महत्त्व का लेखा-जोखा तैयार करते हैं।
जब हम इन परिवर्तनों को भूवैज्ञानिक कालक्रम में देखते हैं तब हमें इनकी सार्थकता का पता चलता है। यह एक सर्वविदित सत्य है कि पृथ्वी की जलवायु कालान्तर से ही परिवर्तनशील रही है। ये जलवायु परिवर्तन बहुत नाटकीय थे तथा इन्होंने पृथ्वी के प्राणियों तथा वनस्पतियों के उद्भव, विकास तथा विनाश के इतिहास को भी निरन्तर प्रभावित किया है। प्राणी तथा वनस्पतियाँ और उनका भौतिक व रासायनिक पर्यावरण सदैव से ही एक-दूसरी पर निर्भर रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन तथा उनके प्रभावों की जानकारी हेतु चतुर्थ महाकल्प (क्वार्टनरी काल) के हिमयुग तथा अन्तरा-हिमयुगों का विशेष महत्त्व है। इस काल में प्रमुखतः चार हिमानी तथा चार अन्तरा-हिमानी अवधियों का उल्लेख किया जाता है। सामान्यतः इस काल की जलवायु खगोलीय बारम्बारता, वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड, भूमंडलीय जैव-भार तथा हिम आयतन द्वारा प्रभावित हुई है। इन परिवर्तनों के मध्य सागर के स्तर तथा गम्भीर जल के तापमान में हुए परिवर्तन भी महत्त्वपूर्ण रहे हैं।
इन हिमयुगों के दौरान ध्रुवीय प्रदेशों की धरती पर लगभग 3 किमी. मोटाई तक की बर्फ रहती थी। उत्तरी अमेरिका तथा यूरोप का अधिकांश भाग बर्फ से ढँक गया था। साथ ही इन हिमयुगों के शिखर काल में पृथ्वी का औसत तापमान 3 डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया था। सामान्यतः एक हिमयुग के समाप्त होने पर हिम चादर बहुत कम हो जाती थी। बर्फ पिघलने के कारण सागर का जल स्तर लगभग 100 मीटर से भी अधिक ऊँचा हो चला था।
‘वर्तमान अन्तरा हिमानी (उष्ण काल) में पृथ्वी पर मानव सभ्यता का विकास लगभग लाखों वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुआ। ऐसा विश्वास किया जाता है कि वर्तमान अन्तरा हिमानी काल के प्रारम्भ में मानसून प्रबल प्रकृति का था। 4500-3700 वर्ष ई.पू. पूर्व सिंधु घाटी में आज की तुलना में दुगुनी वर्षा होती थी। उसके पश्चात आने वाले सूखे के कारण वृहद हड़प्पा संस्कृति का अन्त हो गया।
15 से 17वीं सदी का लघु हिमयुग भी विगत 10,000 वर्षों की जलवायु परिवर्तनों का महत्त्वपूर्ण अंश है। ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान अन्तरा हिमानी काल की तापीय परिस्थितियों में लगातान परिवर्तन होते रहे हैं। 1880 से 1940 तक के सतह वायु के तापक्रम में जो विभिन्नता पाई गई है वह इस तथ्य की द्योतक है कि पृथ्वी की जलवायु धीरे-धीरे उष्ण होती जा रही है। इस अवधि में आर्कटिक सागर में विद्यमान हिम की मात्रा भी लगभग 10 प्रतिशत तक कम हुई है तथा हिम चादर की मोटाई मेें भी एक तिहाई की कमी आ गई है।
विश्व में अधिकांश अंचलों में विद्यमान हिमानियाँ संकुचित होती जा रही है। इसके साथ ही नदियों में बाढ़ का प्रकोप भी बढ़ा है। पिछली सदी में भारत में मानसून द्वारा हुई वर्षा के उतार-चढ़ाव का जब हम अध्ययन करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि 1930-1960 के उष्ण काल में सूखा बहुत कम पड़ा जबकि विगत तीन दशकों में ठीक इसके विपरीत सूखा पड़ने की बारम्बारता अधिक रही है। इन नवीन परिवर्तित जलवायु परिस्थितियों में जीव-जन्तु वनस्पतियों तथा कृषि पैदावार इत्यादि में भी परिवर्तन आया है। जब इन परिवर्तनों की ओर वैज्ञानिकों का ध्यान गया तो इनके कारणों की जाँच-पड़ताल प्रारम्भ हुई तथा भविष्य में इन परिवर्तनों के परिणामों की सम्भावनाओं पर ही गहन विश्लेषण होने लगे।
‘अब यह बात स्पष्ट है कि आज से हजारों लाखों वर्ष पूर्व की जलवायु तथा वर्तमान सदी की जलवायु में अत्यधिक अन्तर विद्यमान है। इस अन्तर के लिये कौन से कारण जिम्मेदार हैं? जलवायु परिवर्तन के प्राकृतिक कारणों के साथ-साथ मानवीय कारण भी महत्त्वपूर्ण हो गई हैं क्योंकि मानव के आर्थिक एवं औद्योगिक विकास की प्रक्रियाओं के कारण पृथ्वी के वायुमंडल के रासायनिक संघटन में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं।
जीवाश्मी, ईंधन के दहन, वनों की लगातार कटाई, जैवभार में वृद्धि, विभिन्न विषैले रसायनों के प्रयोग में वृद्धि तथा मिट्टी का बढ़ता कटाव इत्यादि का वायुमंडल के रासायनिक संघटन पर सीधा प्रभाव देखा गया है। इन रासायनिक परिवर्तनों से भूमंडलीय जैव व्यवस्था, कृषि, जलस्रोत तथा सागर के स्तर में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। आखिर इन कारणों से वायुमंडल गर्म कैसे होता है? सही में पृथ्वी के वायुमंडल तथा जलवायु के परिसंचरण के लिये सूर्य का विकिरण ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। चूँकि सूर्य बेहद गर्म है इसलिये जो भी सौर विकिरण पृथ्वी तक पहुँचता है वह लघु तरंग क्षेत्रों में सान्द्रित हो जाता है।
इस ऊर्जा का कुछ अंश वायुमंडल द्वारा अन्तरिक्ष में परावर्तित कर दिया जाता है। पृथ्वी के सतह की यह परिवर्तनशीलता (एल्बिडो) यह निर्धारित करती है कि इस विकिरण का कितना अंश सतह द्वारा अवशोषित हो सकता है। इसी के अनुसार पृथ्वी वायुमंडल व्यवस्था ऊर्जा को अन्तरिक्ष में परावर्तित करती है। इस स्थलीय परावर्तन दीर्घ तरंगों की लम्बाई पर सान्द्रित होती है क्योंकि सूर्य की तुलना में पृथ्वी बहुत शीतल है।
स्थलीय विकिरण को वायुमंडल अवशोषित कर लेता है तथा उसके कुछ अंश को अन्तरिक्ष में परावर्तित करता है तथा कुछ अंश पुनः पृथ्वी पर परावर्तित होकर लौट आती है। पृथ्वी की वक्रता, अक्ष पर झुकाव तथा गोलाकार स्वरूप के कारण और विकिरण का अक्षांशीय तथा ऋतु सम्बन्धी उतार-चढ़ाव निर्भर करता है। सौर विकिरण का अधिकतर प्रभाव भूमध्यरेखीय अंचलों में तथा निम्नतम ध्रवीय क्षेत्रों में पाया जाता है।
‘ओजोन को छोड़ कर, वायुमंडल के अधिकांश गैसीय अवयव पृथ्वी पर जाने वाली सौर विकिरण के लिये पारदर्शी है। ओजोन के कारण ही सौर विकिरण की हानिकारक पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की सुरक्षा हो पाती है। जब यह निर्गमित स्थलीय दीर्घ तरंग विकिरण के समीप आती है तो वायुमंडल बिल्कुल ही भिन्न प्रकार से व्यवहार करता है यही वह सबसे बड़ी उपलब्धि है जो पृथ्वी को उसके वायुमंडल के कारण उसे प्राप्त है।
दो गैसीय अवयव, कार्बन डाइऑक्साइड तथा जलवाष्प यद्यपि वायुमंडल में बहुत कम मात्रा में उपस्थित होते हैं परन्तु वे बड़ी सतर्कता से पृथ्वी की सतह से वापस जाने वाली सौर विकिरण की अधिकतम मात्रा को रोकने में सक्षम होते हैं। यदि वायुमंडल का व्यवहार इस प्रकार का न होता तो आज पृथ्वी की सतह का तापमान-18 डिग्री सेल्सियस होता।
भूवैज्ञानिक दृष्टि से पृथ्वी की सतह तथा अभ्यन्तर के बीच लगातार प्रवाहित होने वाले पदार्थ का, जो कि आश्मिक प्लेट को इसकी सतह की ओर चालित करता है, स्थल मंडल तथा जैव मंडल सम्बन्धों पर महत्त्वपूर्ण तथा दीर्घकालिक प्रभाव डालता है। आश्मिक प्लेट की गति का सागरीय तथा वायुमंडलीय परिसंचरण तथा भूमंडलीय जलवायु पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। नवविवर्तनिक गतिविधियाँ जलवायु परिवर्तनों को बहुत कम समय में प्रभावित करती हुई पाई गई है।
अवरक्त विकिरण इन दो पारदर्शी गैसीय अवयवों के कारण ताप के लिये वायुमंडल में एक कम्बल जैसी भूमिका प्रस्तुत करती है परन्तु सौर विकिरण को अन्दर आने भी देती है। इस प्रक्रिया को ‘ग्रीन हाउस प्रभाव’ के नाम से जाना जाता है। इन गैसीय अवयवों की सान्द्रता में हुई वृद्धि ‘ग्रीन हाउस प्रभाव’ को और भी त्वरित करती है जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वी वायुमंडल व्यवस्था में उष्णता और भी बढ़ेगी।‘सामान्यतः पृथ्वी वायुमंडल व्यवस्था उतनी ही सौर ऊर्जा को प्राप्त करती है जितनी वह उत्सर्जित कर सकती है। अब ऐसा विश्वास किया जाने लगा है कि जलवायु में होने वाले परिवर्तन प्रमुखः पृथ्वी पर आने वाले सौर विकिरण द्वारा नियंत्रित होते हैं। धरती की सतह पर सौर विकिरण की जो मात्रा अवशोषित होती है वह मरुस्थलीय परिस्थितियों में बहुत कम होती जाती है जबकि बर्फीले अंचलों में यह बढ़ जाती है। यह एल्बिडो की अधिकता के कारण होता है। इसके साथ ही धरती की सतह पर होने वाले परिवर्तन भी सौर विकिरण को प्रभावित करते हैं जिनका प्रभाव अन्ततः वायुमंडल तथा वर्षा की मात्रा पर भी पड़ता है।
वायुमंडल में उपस्थित ऐरोसोल की मात्रा तथा बादल भी सौर विकिरण के परिवर्तन को प्रभावित करते हैं जब इन अवयवों की मात्रा बढ़ जाती है तब सौर विकिरण का परावर्तन भी बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त ज्वालामुखी उद्गारों द्वारा सूक्ष्मकणी पदार्थ तथा संघनित होने वाली गैसों की मात्रा भी वायुमंडल के एरोसॉल को बढ़ाने में सहायक होती है। इनमें से कुछ पदार्थ वायुमंडल से बाहर होकर पृथ्वी की सतह पर आ जाते हैं परन्तु अति सूक्ष्मकणी अवयव तथा सल्फ्यूरिक एसिड जैसे एरोसॉल ऊपरी वायुमंडल में बहुत अधिक दिनों तक बने रहते हैं।
पृथ्वी की शीतलता इनके कारण भी बढ़ती है। जब किसी क्षेत्र में ज्वालामुखी का उद्गार बहुत अधिक होता है तब वहाँ के तापमान में विशेष कमी आँकी गई है। इसी प्रकार यदि पृथ्वी पर कोई बहुत बड़ा नाभिकीय युद्ध होता है तो उससे वायुमंडल में पहुँचने वाले अवयव पृथ्वी के जलवायु को शीतल ही करेंगे। नाभिकीय युद्ध के कारण पृथ्वी पर ठंडक अचानक बढ़ जाएगी जिसे वैज्ञानिक भाषा में नाभिकीय शीत ऋतु की संज्ञा दी जाती है।
‘यहाँ एक विशेष तथ्य पर भी गौर किया जाना भी जरूरी है कि पृथ्वी की विभिन्न भूगतिक प्रक्रियाएँ भी कालान्तर से जलवायु परिवर्तनों द्वारा नियंत्रित होती रही हैं। भूवैज्ञानिक दृष्टि से पृथ्वी की सतह तथा अभ्यन्तर के बीच लगातार प्रवाहित होने वाले पदार्थ का, जो कि आश्मिक प्लेट को इसकी सतह की ओर चालित करता है, स्थल मंडल तथा जैव मंडल सम्बन्धों पर महत्त्वपूर्ण तथा दीर्घकालिक प्रभाव डालता है। आश्मिक प्लेट की गति का सागरीय तथा वायुमंडलीय परिसंचरण तथा भूमंडलीय जलवायु पर स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। नवविवर्तनिक गतिविधियाँ जलवायु परिवर्तनों को बहुत कम समय में प्रभावित करती हुई पाई गई है।
प्रलयंकारी ज्वालामुखी गतिविधियाँ जो कि प्लेट की गति से सम्बन्धित हैं, भी कम समय में भूमंडलीय पारितंत्र पर अत्यधिक प्रभाव डालने की क्षमता रखती हैं। कार्बन डाइऑक्साइड मीथेन, सीएफसी गैसों की वृद्धि के साथ-साथ फास्फोरस-चक्र में भी विशेष परिवर्तन हुए हैं। जलमंडल तथा जैव-मंडल के उद्भव तथा विकास पर इसका दूरगामी प्रभाव होता है, अतः फास्फोरस-चक्र तथा सम्पूर्ण पारितंत्र पर पड़ने वाले प्रभाव के परिणामों का आकलन जलवायु परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में शोध का एक नवीन क्षेत्र हो सकता है। आज सौर वितरण द्वारा आने वाली ऊर्जा के संकेन्द्रण तथा पृथ्वी के जैव भार की उत्पादकता के सन्दर्भ में उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।
भारत की जलवायु पर प्रभाव
वायुमंडल से ग्रीन हाउस गैसों की सान्द्रता में वृद्धि होने के परिणामस्वरूप पृथ्वी के हर क्षेत्र की जलवायु समान रूप से उष्णतर नहीं हो रही है। कहीं अपेक्षाकृत अधिक उष्ण हो गई है और कहीं कम। निश्चय ही उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों की जलवायु होने का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। उष्ण कटिबन्धों में 118 देश और इलाके आते हैं। ये अधिकांशतः विकासशील देश हैं। इनमें हमारा देश भारत भी शामिल है।
‘भारत के लिये ग्रीन हाउस गैसों की सान्द्रता में वृद्धि के प्रभावों का आकलन करना कठिन नहीं है क्योंकि यहाँ मौसम का दैनिक अवलोकन करने और प्राप्त आँकड़ों का विश्लेषण करने की परम्परा काफी पुरानी है। पिछले 90 वर्ष (सन 1901 से 1989) के मौसम सम्बन्धी आँकड़ों के विश्लेषण से यह ज्ञात हुआ है कि इस दौरान वार्षिक ताप में निश्चित रूप से वृद्धि हुई है। इस दौरान वायुमंडल के ताप में लगभग 0.4 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। ताप में यह वृद्धि हर ऋतु में एक समान नहीं है। मानसून पूर्व (मार्च-मई) महीनों में यह वृद्धि आमतौर से 0.4 डिग्री सेल्सियस रहती है।
मानसून के महीनों में (जून से सितम्बर तक) ताप बढ़ने के बजाय घटने लगता है (औसत ह्रास 0.3 डिग्री सेल्सियस) जबकि दिसम्बर से लेकर फरवरी तक वृद्धि 0.7 डिग्री सेल्सियस जैसी अधिक हो जाती है। साथ ही देश के कुछ भागों में यथा पश्चिमी तट, दक्षिणी प्रायद्वीप के आन्तरिक भाग देश के उत्तर मध्य और उत्तर पूर्व भागों में ताप वृद्धि बहुत कम अथवा बिल्कुल भी नहीं होती। इस बारे में विलक्षण बात यह है कि सन 1940 के बाद के दशक में उत्तरी गोलार्द्ध के ताप में होने वाली कमी भारत में नहीं हुई।
देश के विभिन्न भागों में स्थित 25 मौसम अवलोकन केेन्द्रों द्वारा 81 वर्षों (सन 1875 से 1955 तक) एकत्रित आँकड़ों के विश्लेषण से पता चला कि भारत में होने वाली वर्षा की मात्रा में कोई स्थायी परिवर्तन नहीं हो रहा है यद्यपि कहीं-कहीं किसी वर्ष सूखा पड़ जाता है तो किसी वर्ष अतिवृष्टि हो जाती है। यहाँ न तो किसी क्षेत्र में वर्षा की मात्रा में स्थायी रूप से कमी होते जाने के आसार नजर आये हैं और न ही वृद्धि के। विश्व के अनेक संस्थानों में विभिन्न माँडलों की मदद से सुपर कम्प्यूटरों द्वारा आने वाली शताब्दी में भारत की जलवायु में होने वाले सम्भावित परिवर्तनों के बारे में जो अनुमान लगाए गए हैं वे इस प्रकार हैं-
1. इक्कीसवीं सदी में वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाने से ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण भारत की जलवायु भी कुछ गर्म हो जाएगी वायुमंडल के ताप में सबसे अधिक वृद्धि (3.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक) भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी इलाके में होगी। पर अरब सागर और बंगाल की खाड़ी की ताप वृद्धि होगी लगभग 2.5 डिग्री सेल्सियस।
2. वायुमंडल के ताप में वृद्धि होने का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रभाव वर्षा के वितरण पर पड़ सकता है। वायुमंडल मे उष्णतर होते जाने से मानसून द्रोणी के उत्तर की ओर सरक जाने की सम्भावना है। यदि ऐसा हो गया तब भारतीय उपमहाद्वीप पर होने वाली वर्षा की मात्रा में वृद्धि हो सकती है। यह वृद्धि 6 मिमी. प्रति मास जैसी हो सकती है। सबसे अधिक वृद्धि के मध्य भारत क्षेत्र में होने की सम्भावना है। सर्दी की ऋतु में होने वाली वर्षा की मात्रा में वृद्धि हो सकती है। सबसे अधिक वृद्धि भारत के पूर्व तट पर होगी।
3. बंगाल की खाड़ी में चक्रवात उस समय पैदा होते हैं जब सागर सतह का ताप 27 डिग्री सेल्सियस या अधिक होता है। वायुमंडल के ताप में वृद्धि हो जाने से बंगाल की खाड़ी में सतह के पानी के ताप के बढ़ जाने की सम्भावना है। इसके फलस्वरूप अधिक विनाशकारी चक्रवातों के पैदा होने की सम्भावना बढ़ जाएगी।
4. वायुमंडल के ताप में वृद्धि होने के प्रभाव हमारे निकटवर्ती सागरों पर भी पड़ेंगे। समझा जाता है कि भारत के वायुमंडल के ताप में वृद्धि हो जाने के फलस्वरूप वर्ष 2080 के आसपास तक अरब सागर में जल स्तर काफी ऊँचा उठ जाएगा। जल स्तर के केरल के तट पर सबसे कम (18 सेमी.) और गुजरात के तट पर सबसे अधिक (21 सेमी.) तक ऊपर उठ जाने की सम्भावना है।
जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न भारत के लिये सम्भावित समस्याएँ:
1. ऐसा अनुमान है कि 21वीं शताब्दी के अन्त तक भारत में वायुमंडल का औसत तापमान 3 से 4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। उत्तरी तथा पश्चिमी भाग में यह परिवर्तन अधिक होगा।
2. गंगा नदी की घाटी के पश्चिमी भाग में वर्षा ऋतु में कमी होगी। दूसरी ओर गोदावरी तथा कृष्णा नदी की घाटियों में वर्षा ऋतु की लम्बाई बढ़ जाएगी। इसका परिणाम होगा कि देश के कुछ भाग में सूखे का प्रकोप बढ़ेगा। तो दूसरे क्षेत्रों में बाढ़ की समस्या उत्पन्न हो सकती है।
3. वर्षा ऋतु के उपरान्त बंगाल की खाड़ी में समुद्री तूफान अधिक आएँगे और ऐसे तूफानों के मामले में हवा की गति भी अधिक रहेगी। इसका अर्थ कि समुद्र तट पर बसने वाले लोगों के लिये समस्याएँ बढ़ेंगी।
4. जलवायु में परिवर्तन के कारण बहुत सी फसलों का क्षेत्र बदल सकता है। साथ ही वर्षा पर आधारित फसल के मामले में उपज में कमी भी आएगी। ऐसी कमी गेहूँ तथा धान की फसल में अधिक स्पष्ट होगी। देश के गर्म भाग में फसल को नुकसान अधिक होगा।
5. देश के कई भागों में वन समाप्त हो जाएँगे। आर परिणामस्वरूप देश में उपस्थित जैव-विविधता को काफी नुकसान होगा।
6. कोंकण रेल को उदाहरण के रूप में लेकर जब अध्ययन हुआ तो यह तथ्य सामने आया कि वायुमंडल के तापमान के बढ़ने से भवनों को नुकसान होगा। साथ ही बिजली तथा ईंधन की खपत बढ़ेगी क्योंकि एयरकंडीशनर को अधिक इस्तेमाल में लाना होगा। पूरे देश में भी बिजली की माँग बढ़ेगी। उसे पूरा करने के लिये बिजली का उत्पादन बढ़ाना होगा।
7. देश में मलेरिया के मामले बढ़ेंगे और वह अवधि जब मलेरिया का प्रकोप फैलता है अलग-अलग क्षेत्र में अधिक लम्बी होगी। अन्य बीमारियाँ जिनका सीधा सम्बन्ध तापमान से है वे भी बढ़ेंगी। हैजा, अतिसार, लू, हृदय रोग, फाइलेरिया, काला-जार इत्यादि भी अधिक होने की सम्भावना रहेगी।
जलवायु परिवर्तन के पूर्वानुमान के प्रयास
जलवायु परिवर्तन के पूर्वानुमान लगाने के लिये सबसे बड़ी आवश्यकता ग्रीन हाउस गैसों के निष्कासन के पूर्वानुमान की है पर इसमें बेहद अनिश्चितता है। बढ़ती आबादी, औद्योगिक विकास, कृषि उत्पादन, ऊर्जा आवश्यकताएँ आदि भविष्य में क्या मोड़ लेंगी, कहना कठिन है पर आईपीसीसी को कुछ निश्चित तो करना ही था। अतः तय हुआ कि जैसा का तैसा दशा को आधार मान कर पूर्वानुमान किया जाये। यानी ग्रीन हाउस गैसों के निष्कासन में कोई कमी नहीं आएगी सब कुछ जैसा का तैसा बेरोकटोक चलता रहेगा। फिर भी अनिश्चितताएँ मौजूद हैं। कारण कि हर गैस का एक प्राकृतिक चक्र होता है।
हर गैस के सन्दर्भ में हमें इसका पूरा ज्ञान नहीं है। जलवायु परिवर्तन के कारण इनमें क्या बदलाव आएगा यह कहना भी कठिन है। फिर भी विभिन्न ग्रीन हाउस गैसों के भविष्य की गणना की गई और इसी आधार पर इनके द्वारा उत्पन्न होने वाली ऊष्मा दर को आँका गया। इसके बाद विभिन्न जलवायु मॉडलों के माध्यम से तापमान में होने वाली बढ़त का अनुमान लगाया गया।
धरती की जलवायु का पूर्वानुमान लगाने के लिये विभिन्न गणितीय मॉडलों का सहारा लिया जाता है। ये मॉडल वायुमंडल, सागर और ग्लेशियरों व पर्वतों के बीच की जटिल प्रक्रियाओं की नकल करके जलवायु की भविष्यवाणी करती है। पहले साधारण मॉडलों से काम चलाया जाता था पर अब सुपर कम्प्यूटरों के आगमन ने बेहद जटिल मॉडलों पर काम करना आसान कर दिया है।
आज कल ऐसे ही एक जटिल मॉडल के सहारे पूर्वानुमान लगाया जा रहा है। इसे सामान्य परिसंचारी मॉडल के नाम से जाना जाता है। इसमें धरती के कई सालों के दैनिक मौसम के आँकड़े भर कर भविष्य के मौसम की गणना की जाती है। साथ ही ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती मात्रा और इसके प्रभाव का भी आकलन किया जाता है। इस तरह हम भविष्य की जलवायु के काफी करीब पहुँच जाते हैं।