सच है कि मानव शरीर अपने वातावरण के अनुसार अपने आप को ढाल लेता है और इसकी भी अपनी सीमा है। एक सीमा के बाद वातावरण व जलवायु के परिवर्तन मानव शरीर पर अपने निश्चित प्रभाव डालने लगते हैं। पृथ्वी की बदलती जलवायु ने पिछले कुछ दशकों में हर वर्ग का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। गर्म वातावरण अत्यधिक सर्द वातावरण के मुकाबले स्वास्थ्य पर ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव डालता है। जैसे-जैसे आसपास के वातावरण का तापक्रम बढ़ता है, शरीर अपनी आन्तरिक क्रियाओं से शरीर के तापक्रम को सामान्य बनाए रखने का प्रयास करता है।
विश्वस्तरीय जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मानव स्वास्थ्य पर भी पड़ेगा। डायरिया, पेचिश, हैजा तथा मियादी बुखार जैसी संक्रामक बीमारियों की बारम्बारता में वृद्धि होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण श्वांस तथा हृदय सम्बन्धी बीमारियों में वृद्धि होगी।
चूँकि तापमान तथा वर्षा की बीमारी फैलाने वाले वाहकों के गुणन एवं विस्तार में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, अतः दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका तथा दक्षिणी पूर्वी एशिया में मच्छरों से फैलने वाली बीमारियों, जैसे- मलेरिया, फाइलेरिया, डेंगू ज्वर, चिकनगुनिया, यलोफीवर तथा जापानी मस्तिष्क ज्वर के प्रकोप में वृद्धि के कारण इन बीमारियों से होने वाली मृत्यु दर में बढ़ोत्तरी होगी। इसके अतिरिक्त इन बीमारियों का विस्तार उत्तरी अमेरिका तथा यूरोप महाद्वीपों में भी होगा।
हमारे आसपास की जलवायु एवं वातावरण पर निश्चित और प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। यह भी सच है कि मानव शरीर अपने वातावरण के अनुसार अपने आप को ढाल लेता है और इसकी भी अपनी सीमा है। एक सीमा के बाद वातावरण व जलवायु के परिवर्तन मानव शरीर पर अपने निश्चित प्रभाव डालने लगते हैं। पृथ्वी की बदलती जलवायु ने पिछले कुछ दशकों में हर वर्ग का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है।
गर्म वातावरण अत्यधिक सर्द वातावरण के मुकाबले स्वास्थ्य पर ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव डालता है। जैसे-जैसे आसपास के वातावरण का तापक्रम बढ़ता है, शरीर अपनी आन्तरिक क्रियाओं से शरीर के तापक्रम को सामान्य बनाए रखने का प्रयास करता है। जिसमें पसीना निकलना, हृदय गति का बढ़ना व रक्त वाहिकाओं का फैलना भी शामिल है।
वृद्धों में एक तो वैसे भी पसीना निकलने की क्षमता कम हो जाती है दूसरे उनके रक्त प्रवाह तंत्र की क्षमता का भी ह्रास हो जाता है जिससे गर्म वातावरण से वृद्धों को सबसे अधिक नुकसान होता है। हीट स्ट्रोक से मरने वाले रोगियों में वृद्धों और बच्चों की तादाद सबसे अधिक होती है।
नम और गर्म जलवायु में मलेरिया, डेंगू, पीत ज्वर (येलो फीवर), इन्सेफेलाटिस (मस्तिष्क ज्वर), साँस के रोग आदि तेजी से फैलते हैं। आज इन रोगों से ग्रस्त रोगियों की लगातार बढ़ती तादाद इस बात की गवाह है कि बदलती जलवायु मानव स्वास्थ्य पर अपना असर दिखा रही है।
रोगों से प्रभावित क्षेत्रों में वृद्धि
वायुमंडल का तापक्रम बढ़ने से कई बीमारियाँ, जो पहले कुछ क्षेत्रों में नहीं पाई जाती थीं वे भी उन क्षेत्रों में फैल सकती हैं। उदाहरण के लिये डेंगू बुखार फैलाने वाले मच्छर आमतौर पर समुद्र तल से 3,300 फुट से अधिक ऊँचाई वाले स्थानों पर नहीं पाये जाते थे पर अब ग्लोबल वार्मिंग के कारण ये कोलम्बिया में 7,200 फुट ऊँचाई तक बसे स्थानों में भी पाये जाने लगे हैं।
कीट-पतंगों या मच्छर-मक्खियों द्वारा फैलने वाले रोग, चूहों द्वारा फैलने वाले रोग जो पहले यूरोप व अमेरिका महाद्वीप में बहुतायत में नहीं पाये जाते थे, उनकी संख्या में अब वहाँ भी निरन्तर वृद्धि हो रही है। मलेरिया भी आजकल उन पर्वतीय क्षेत्रों में भी लोगों को अपना शिकार बना रहा है, जिनमें पहले उसका होना असम्भव माना जाता था, जैसे हिमाचल प्रदेश, नागालैंड, इंडोनेशिया के पर्वतीय क्षेत्र आदि। एक अनुमान के अनुसार सन 2070 तक विश्व के 60 प्रतिशत भागों में मलेरिया पनप सकने के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ बन जाएँगी।
नए रोगों की उत्पत्ति
जलवायु में होने वाले परिवर्तन रोगाणुओं में रोगाणु वाहकों में ऐसे परिवर्तन उत्पन्न कर सकते हैं जिससे बिल्कुल नई प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, जिनके बारे में तो हमारे पास जानकारी भी नहीं होगी फिर उनसे निपटने के लिये औषधियों के होने का प्रश्न ही नहीं होता। ये बीमारियाँ जुकाम की तरह साधारण और कम खतरनाक भी हो सकती हैं या फिर एड्स जैसे खतरनाक भी। ये विश्व के किसी एक कोने तक ही सीमित रह सकती हैं या फिर महामारी बनकर पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले सकती हैं।
जलवायु में होने वाले परिवर्तनों से ऐसे संयोग भी बन सकते हैं जिनसे बहुत कम जाने-सुनी बीमारियाँ विश्व की बहुत बड़ी जनसंख्या को अपनी चपेट में ले लें। भारत के कर्नाटक राज्य के एक वाइरस जन्य रोग कैसनुर फॉरेस्ट डिजीज। केन्या में पीत ज्वर का प्रसार, मिस्र में रिफ्ट वैली फीवर के रोगियों की बढ़ती तादाद इस तरह के सम्भावित खतरों के जीते-जागते उदाहरण हैं।
समुद्री जल भरने से उपजाऊ जमीन का विनाश, रेगिस्तानीकरण तथा औद्योगिक कृषि के चलते कृषि में कमी आनी अवश्यम्भावी है। इसके अतिरिक्त बदलती जलवायु के चलते होने वाला सूखा, अतिवृष्टि, ओलावृष्टि, आदि इस उपज पर और बुरा असर डालेंगे, इस पर लगातार बढ़ती जनसंख्या। ऐसे में अन्न की कमी और पेट भरने की समस्या एक विश्वव्यापी समस्या बनकर उभरेगी जिसका परिणाम होगा कुपोषण और भुखमरी जिससे सबसे अधिक प्रभावित होंगे गरीब, अविकसित और विकासशील देश। इस विश्वव्यापी समस्या से निपटना आसान नहीं होगा।
जलवायु परिवर्तन के अप्रत्यक्ष प्रभाव
जलवायु परिवर्तन के अप्रत्यक्ष प्रभाव इस प्रकार हैं-
ओजोन परत में क्षति से बीमारियों में वृद्धि
वायुमंडल की ऊपरी सतहों पर ओजोन पृथ्वीवासियों के लिये सूर्य की घातक पराबैंगनी किरणों के खिलाफ रक्षा कवच का काम करती है पर पृथ्वी की सतह के समीप के वायुमंडल में ओजोन एक प्रदूषक है। साँस के साथ फेफड़ों में जाने पर ये श्वांस-तंत्र की कोशिकाओं को गम्भीर नुकसान पहुँचाती है जिससे फेफड़ों के अन्दर गैसों के आदान-प्रदान में गम्भीर रुकावट पैदा होने लगती है।
इसके अतिरिक्त ये अन्य प्रदूषकों तथा सल्फर डाइऑक्साइड के फेफड़ों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों में भी वृद्धि करती हैं। इससे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता में भी भारी कमी आती है। पृथ्वी तक पहुँचने वाले पराबैंगनी विकिरण की मात्रा दिन-पर-दिन बढ़ने से कई तरह की त्वचा की बीमारियाँ व त्वचा के कैंसर की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। अधिक गर्मी होने से हीट स्ट्रोक जैसी समस्याओं से होने वाली मौतें व शारीरिक परेशानियाँ बढ़ सकती हैं।
स्वच्छ पेय जल की कमी से बीमारियों में वृद्धि
स्वच्छ पेयजल की निरन्तर उपलब्ध विश्व स्वास्थ्य के लिये एक अति महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है। समुद्र का स्तर बढ़ने से तटीय प्रदेशों में समुद्र का खारा जल भर जाने से तटीय क्षेत्रों के पीने के पानी की आपूर्ति बुरी तरह से प्रभावित होगी इसके अतिरिक्त समुद्र में डूबे तटीय क्षेत्रों से विस्थापित लोग आकर जब पहले से बसे स्थानों पर आकर बसेंगे तो उन स्थानों पर पहले से चली आ रही पीने के पानी की समस्या और गम्भीर हो जाएगी।
साफ पीने के पानी की उपलब्धता कम होने से निश्चित रूप से दूषित जल द्वारा फैलने वाली बीमारियाँ यथा दस्त, हैजा, मियादी बुखार, मस्तिष्क ज्वर आदि में वृद्धि होगी। हो सकता है कि ये बीमारियाँ महामारियों का रूप ले लें।
जनसंख्या विस्थापन से मानसिक रोगों में वृद्धि
दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी आज समुद्र तटों से साठ किलोमीटर के दायरे में बसती है। धरती के गरमाने के फलस्वरूप जब समुद्रों का जल-स्तर बढ़ेगा तो ये क्षेत्र समुद्री जल में या तो पूरी तरह डूब जाएँगे या फिर पानी भर जाने से रहने लायक नहीं रहेंगे। नील नदी के डेल्टा, बांग्लादेश में गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों के डेल्टा, मालदीव जैसे देश, मार्शल आईलैंड जैसे द्वीप समूह सबसे पहले इसकी चपेट में आएँगे।
ऐसे समय में विस्थापित होने वाली जनसंख्या जहाँ एक ओर अकाल, भुखमरी, सामाजिक विषमताओं, मानसिक सन्ताप व मानसिक रोगों की चपेट में आ रही होंगी, वहीं पुनर्वास वाले स्थानों पर यह जनसंख्या उनके सीमित संसाधनों में हिस्सेदारी करके उनके लिये भी समस्याएँ पैदा करेंगी।
भारतीय स्थिति
नए-नए क्षेत्रों में भी मलेरिया अब महामारी का रूप लेता जा रहा है। पहले यह उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, दक्षिणी असम की प्रमुख स्वास्थ्य समस्या थी पर अब यह महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल जैसे प्रदेशों की एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या बन चुकी है। अब तो इसके रोगियों की तादाद हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम जैसे प्रदेशों में भी तेजी से बढ़ रही है।
श्वांस सम्बन्धित रोग
वायुमंडल का तापक्रम बढ़ने के साथ-साथ वायु प्रदूषण भी बढ़ता है जिससे साँस की तकलीफें बढ़ जाती हैं। वातावरण में जिन कारणों से कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ती है उन्हीं कारणों से कार्बन डाइऑक्साइड के साथ-साथ वायु में कार्बन के कण, लेड के धूम्र, सल्फर डाइऑक्साइड व धूल के कण भी बढ़ते हैं। दमा के रोगियों की लगातार बढ़ती जा रही संख्या के कारण ये प्रदूषक भी हैं। इसके अतिरिक्त ये सामान्य व्यक्तियों में साँस के रोग और फेफड़ों की परेशानियाँ पैदा कर सकते हैं। लेड के धूम्र तो बढ़ते बच्चों के विकसित होते मस्तिष्क पर बुरा असर डालते हैं जिससे उनमें मानसिक विकलांगता तक हो सकती है।
कई स्थानों पर किये गए अनुसन्धानों से यह स्पष्ट हुआ है कि वायु के उपस्थित कार्बन के कण साँस के साथ अन्दर जाने पर फेफड़ों के रोग उत्पन्न करने के अतिरिक्त रक्त को गाढ़ा करते हैं और फेफड़ों में सूजन बढ़ाते हैं। जर्नल ऑफ ऑकूपेशनल एंड एनवायरन्मेंटल मेडिसिन में प्रकाशित एक शोध-पत्र में वैज्ञानिकों ने पाया कि मानव की रोग प्रतिरोधी कोशिकाओं, रक्त कोशिकाओं व फेफड़ों की कोशिकाओं को लम्बे समय तक इन अति सूक्ष्म कार्बन कणों के सम्पर्क में रखने से रक्त गाढ़ा होने लगता है और रोग-प्रतिरोधी कोशिकाएँ मरने लगती हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला जाता है कि वायु में उपस्थित कार्बन के सूक्ष्म कण मानव की रोग-प्रतिरोध क्षमता में भी गिरावट ला सकते हैं।
सर्दी में मानव स्वास्थ्य
अत्यधिक ठंडे मौसम में शरीर का तापक्रम कम हो जाता है। मानव शरीर समतापी या वार्म ब्लडेड होने के कारण बहुत सारे आन्तरिक समायोजन करके शरीर के तापक्रम को सामान्य बनाए रखने का प्रयास करता है। यदि वातावरण का तापक्रम काफी कम हो तो शरीर के तापक्रम को सामान्य बनाए रखने के ये प्रयास असफल होने लगते हैं और शरीर का तापक्रम तेजी से गिरने लगता है। इस स्थिति को हायपोथर्मिया कहते हैं। ऐसा आमतौर पर बेघर, बेसहारा लोगों में ही देखने को मिलता है जिन्हें सर्दियों में रात खुले में बिताने को मजबूर होना पड़ता हो। इस स्थिति में शारीरिक क्रियाएँ मन्द पड़ने लगती हैं और कभी-कभी समुचित उपचार न मिलने पर रोगी की मृत्यु भी हो सकती है।
वृद्धों, नवजात शिशुओं, कुपोषित बच्चों और नशेड़ियों में ठंडे मौसम के स्वास्थ्य पर ये दुष्प्रभाव, प्रचुरता से देखने को मिलते हैं। स्त्रियों में त्वचा के नीचे वसा की अधिक मात्रा होने की वजह से सदी के दुष्प्रभाव पुरुषों के मुकाबले कम ही देखने को मिलते हैं। साँस के रोग जैसे टॉन्सिलाइटिस, न्यूमोनिया, ब्रॉकियोलाइटिस आदि सर्दी बढ़ने पर बढ़ने लगते हैं।
बर्ड फ्लू
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में यह तथ्य उभर कर सामने आया है कि पक्षियों के फ्लू के प्रसार में भी वैश्विक तापन का बहुत बड़ा योगदान है। पहलू दूर देशों से आने वाले घुमंतू पक्षी समूह जहाँ दलदली भूमि (वेटलैंड) मिलती थी, वहीं डेरा डालते थे। वैश्विक तापन के चलते ये दलदल तेजी से समाप्त हो रहे हैं। इससे ये घुमंतू पक्षी, जिनमें से कुछ पक्षी फ्लू से ग्रसित हो सकते हैं, पालतू पक्षियों के फार्मों पर उतर जाते हैं इस तरह ये पालतू पक्षियों में बर्ड फ्लू का संक्रमण फैला देते हैं।
डेंगू बुखार
डेंगू बुखार का एक खतरनाक रूप है ‘डेंगू हेमेरेजिक बुखार’, जिसमें रोगियों की मृत्यु की सम्भावनाएँ काफी होती हैं। इस रोग का रोगाणु मच्छर की एक विशेष प्रजाति ‘एडिस एजेप्टाई’ के काटने से फैलता है। चूँकि ये मच्छर काफी ठंडे स्थानों में, खास कर जहाँ बर्फ पड़ती हो, आसानी से पनप नहीं पाते, इसलिये डेंगू बुखार बहुत समय तक गर्म और नम जलवायु वाले देशों की ही बीमारी मानी जाती थी। पर वैश्विक तापन के फलस्वरूप अब ठंडे देशों में इसका प्रचार होता जा रहा है। भविष्य में इसके विश्वव्यापी बीमारी बनने की प्रबल सम्भावनाएँ हैं।
सन् 1996 में डेंगू बुखार का दिल्ली में भीषण प्रकोप हुआ। सरकारी तौर पर करीब दस हजार रोगियों और चार सौ मरने वालों की पुष्टि ही हुई पर अव्यवस्थित रिपोर्टिंग व प्राइवेट अस्पतालों में इलाज लेने वाले रोगियों (जिनके विश्वसनीय आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं) के मद्देनजर वास्तविकता में यह संख्या कई गुना होगी।
सन 2006 में दिल्ली में ही एक बार फिर भारी संख्या में लोग इसके संक्रमण के शिकार होकर काल-कवलित हुए। यहाँ से यह संक्रमण आस-पास के प्रदेशों, जैसे- पंजाब, उत्तर प्रदेश, आदि में भी तेजी से फैल चुका है। इनमें दिल्ली के बाद उत्तर प्रदेश डेंगू से सर्वाधिक प्रभावित प्रदेश माना जाता है।
चिकुनगुनिया
मुख्यतः धरती के गर्माने के दुष्प्रभावों के चलते, मच्छरों द्वारा फैलाया जाने वाल, जोड़ों में भयंकर दर्द वाला चिकुनगुनिया बुखार, 10 अक्टूबर, 2006 की सरकारी रिपोर्ट के अनुसार आठ से अधिक प्रदेशों के करीब 151 जिलों में अपनी जड़ें जमा चुका है। इनमें आन्ध्र प्रदेश, अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश और दिल्ली तो बुरी तरह प्रभावित हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार देश भर से करीब साढ़े बारह लाख चिकुनगुनिया के रोगी रिपोर्ट किये गए हैं जिसमें अकेले कर्नाटक से 7,52,245 और महाराष्ट्र से 2,58,998 मामले प्रकाश में आये हैं।
फाइलेरिया
मलेरिया की तरह फाइलेरिया के रोगी पिछले तीन दशकों में तेजी से बढ़े हैं। कारण वहीं धरती के गर्माने के चलते मच्छरों के लिये जलवायु का अधिक अनुकूल होते जाना।
पैराटाइफाइड
टाइफाइड बुखार के रोगाणु के सहोदर, पैराटाइफाइड रोेगाणु से उत्पन्न बिल्कुल टाइफाइड बुखार जैसे ही दिखने वाले पैराटाइफाइड बुखार के रोगी भी अब भारत में धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे हैं, क्योंकि गर्म होते वातावरण में इन रोगाणुओं को फैलने और पनपने में सहायता मिलती है।